मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 15

 

कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः।

तं तं नियमास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया।। 20।।


और हे अर्जुन, जो विषयासक्त पुरुष हैं, वे तो अपने स्वभाव से प्रेरित हुए तथा उन-उन भोगों की कामना द्वारा ज्ञान से भ्रष्ट हुए, उस-उस नियम को धारण करके अन्य देवताओं को भजते हैं अर्थात पूजते हैं।


यह भी कहा कृष्ण ने कि वे जो कामासक्त हैं, विषयासक्त हैं, भोगों की आकांक्षाओं से भरे हैं, भोग से सम्मोहित हैं, वे ज्ञान से च्युत होकर मेरा स्मरण नहीं करते, अन्य-अन्य देवताओं का स्मरण करते हैं।


इसमें दो बातें हैं।

एक तो यह कि जो व्यक्ति भी कामासक्त हुआ, विषयासक्त हुआ, वह ज्ञान से च्युत होता है। वह जो भीतर ज्ञान की धारा है, जैसे ही जरा-सा भी विषय की तरफ मन दौड़ा कि वह धारा पतित होती है, स्खलित होती है। एक क्षण को भी मन किसी विषय के प्रति प्रेरित हुआ, कि इसे पा लूं, यह मेरा हो जाए, इसे भोग लूं; जैसे ही भोग का कोई खयाल आया कि वह भीतर की जो चेतन-धारा है, वह जो करंट है चेतना की, वह तत्काल डांवाडोल होकर अधोगति की यात्रा करने लगती है। हर विषयासक्ति चेतना की धारा को पतित करती है।

एक बात तो यह इसमें खयाल ले लेने जैसी है।

जरा-सा, जरा-सा भी खयाल! रास्ते पर गुजरते हैं, और दुकान पर दिख गई कोई चीज, और खयाल आया--मिल जाए, मेरी हो जाए, मैं मालिक हो जाऊं। जरा-सी झलक, एक जरा-सी किरण वासना की, और आप जरा रुककर खड़े होकर वहीं देखना कि आपके भीतर अज्ञान घना हो गया और ज्ञान फीका हो गया। इसे आप अनुभव करेंगे, तो खयाल में आएगा। जरा-सी वासना, और आप अचानक पाएंगे कि मूर्च्छा घिर गई, बेहोशी आ गई, अज्ञान भर गया, और ज्ञान क्षणभर को जैसे बिलकुल खो गया।

लेकिन हम तो चौबीस घंटे विषय की कामना से भरे हुए हैं। शायद इसीलिए हमें पता भी नहीं चलता कि हमारी ज्ञानधारा पतित होती है। क्योंकि पतित होने का पता तो उन्हें चले, जो ज्ञानधारा में थोड़े-बहुत कभी भी होते हों, तो पतित होने का पता चले। जिनके पास धन है, उन्हें दिवालिया होने का पता चलता है। भिखारियों को तो दिवालिया होने का पता नहीं चलता। जो कभी थोड़ा ऊपर जीते हैं, उन्हें नीचे आने का पता चलता है। लेकिन जो नीचे ही जीते हैं, घाटियों को जिन्होंने अपनी जिंदगी बना लिया, शिखरों की तरफ जो कभी उठकर भी नहीं देखते, उनको तो फिर पतन का भी पता नहीं चलता। अंधेरा ही जिनका घर है, उन्हें कैसे पता चलेगा कि उजेला थोड़ा फीका हो गया, कि दीए की लौ थोड़ी कम हो गई।

लेकिन अगर फिर भी थोड़ा स्मरणपूर्वक खोज करें, तो जब भी मन को कोई वासना तीव्रता से पकड़े, तब आप जरा अपने भीतर देखना कि आपके ज्ञान की जो क्वालिटी है, आपके ज्ञान का जो गुण है, क्या वह बदला? क्या वह निम्न हुआ? क्या वह नीचे गिरा?

इसलिए हर वासना, चाहे तृप्त ही क्यों न हो जाए, एक सूक्ष्म विषाद में छोड़ जाती है। क्योंकि वह आपको पतित कर जाती है। हर वासना, चाहे मिल ही क्यों न जाए, मिल जाते ही आपके मुंह में एक कड़वा स्वाद छूट जाता है। वह कड़वा स्वाद इस बात का होता है कि भीतर आपकी चेतना-धारा पतित हुई। आपने जो पाया, वह तो ना-कुछ; लेकिन जो गंवाया, वह बहुत कुछ; एट ए वेरी ग्रेट कास्ट। वह जो कृष्ण कह रहे हैं, वह यह कह रहे हैं कि तुम पाओगे क्या?

एक आदमी सड़क पर चला जा रहा है, और देखता है कि एक अच्छा कपड़ा पहने हुए कोई गुजरा; वे कपड़े मुझे चाहिए! कपड़े की मांग, बड़ी छोटी-सी मांग है। लेकिन उसे पता नहीं कि इस मांग ने उसकी चेतना को कितना नीचे गिरा दिया, तत्काल! जैसे टेंपरेचर नीचे गिर गया हो थर्मामीटर में; उसके भीतर ज्ञान की धारा नीचे गिर गई।

इसलिए वासना से भरे हुए व्यक्ति अक्सर छोटे बच्चों, नासमझों जैसा व्यवहार करने लगते हैं। कभी आपने खयाल किया कि जब आप वासना में होते हैं, तो आप जो व्यवहार करते हैं, वह करीब-करीब स्टुपिडिटी का होता है; करीब-करीब मूढ़ता का होता है!

अगर हम दो प्रेमियों को आपस में बातचीत करते देखें, जो वासनातुर हैं, तो उनकी बातचीत हमें कैसी मालूम पड़ेगी! उनका एक-दूसरे से व्यवहार देखें, तो वह कैसा मालूम पड़ेगा! स्टुपिड, एकदम मूर्खतापूर्ण। लेकिन उन्हें नहीं मालूम पड़ रहा है। वे तो बड़े स्वर्ग में जी रहे हैं! वे भी अगर लौटकर देखें, तो उन्हें भी मूढ़ता दिखाई पड़ेगी। असल में जैसे ही हम कामातुर और वासना से भरते हैं, किसी भी विषय की आसक्ति से, वैसे ही हमारे भीतर की चेतना-धारा नीचे गिर जाती है।

आप मंदिर जाते हैं। आपने घंटा लटका हुआ देखा है मंदिर के सामने। कभी खयाल नहीं किया होगा कि घंटा किसके लिए बजाया जाता है। आप सोचते होंगे, भगवान के लिए; तो आप गलती में हैं। वह आपके  के लिए है। वह जो घंटनाद है, भगवान से उसका कोई लेना-देना नहीं है। वह आपकी खोपड़ी में जो चल रहा है, जोर का घंटा बजेगा, विचार थूककर आप मंदिर के भीतर चले जाएंगे।

वह अंतर-धारा जो चल रही है, वह एक झटके में टूट जाए। टूटती है, अगर समझ हो, तो बराबर टूट जाती है।

कहते हैं, मंदिर स्नान करके चले जाओ; ऐसे ही मत चले जाना। वह अंतर-धारा तोड़ने के लिए जो भी हो सकता है, कोशिश की जाती है। बाहर ही जूते निकाल दो; वह अंतर-धारा तोड़ने के लिए। आपके जितने एसोसिएशन हैं, वह तोड़ने की कोशिश की जाती है। जाकर मंदिर में लेट जाओ चरणों में परमात्मा के साष्टांग, सब अंग जमीन को छूने लगें; सिर जमीन पर पटक दो। वह जो अकड़ा हुआ सिर है, चौबीस घंटे अकड़ा रहता है। शायद...। 

लेकिन मनुष्य को सहायता पहुंचाने के लिए जिनकी आतुरता रही है, उन्होंने बहुत-सी व्यवस्थाएं हैं।

कृष्ण कह रहे हैं, एक बात तो यह कि च्युत हो जाता है वासना की धारा में दौड़ता हुआ चित्त ज्ञान से।

ज्ञान स्वभाव है।

इसे ऐसा समझें, तो ठीक होगा, हम आमतौर से कहते हैं कि वासना को छोड़ दो, तो ज्ञान मिल जाएगा। कहना चाहिए, वासना को पकड़ा है, इसलिए ज्ञान खो गया है। ज्यादा एक्जेक्ट और सही जो कहना होगा। यह कहना उतना ठीक नहीं है कि वासना को छोड़ दो, तो ज्ञान मिल जाएगा। इसमें ऐसा लगता है कि वासना हमारा स्वभाव है, छोड़ेंगे, तो ज्ञान, कोई उपलब्धि हो जाएगी। असलियत उलटी है। ज्ञान हमारा स्वभाव है, वासना को पकड़कर हमने उसे खोया है। वासना हट जाए, वह हमें फिर मिल जाएगा।

और इसीलिए वासना कभी तृप्त नहीं होगी, क्योंकि वासना हमारा स्वभाव नहीं है, हमारा पतन है। हम कितने ही दौड़ते रहें, पतन से हम कभी राजी न हो पाएंगे, तृप्त न हो पाएंगे। पतन विषाद ही बनेगा, पतन हमें पीड़ा ही देगा, संताप ही देगा, नर्क ही देगा। और एक न एक दिन नर्क की पीड़ा से हमें लौट आना पड़ेगा। और उस शिखर की तरफ देखना पड़ेगा, जो हमारे प्राणों का आंतरिक शिखर है, कैलाश।

कैलाश हिमालय में नहीं है। जाते हैं लोग; सोचते हैं, वहां होगा। कैलाश हृदय के उस शिखर का नाम है, ज्ञान के उस शिखर का नाम है, जहां से कभी भगवान च्युत नहीं होता। आपके भीतर का भगवान भी कभी च्युत नहीं होता जहां से।

जिस दिन उस शिखर पर हम पहुंच जाते हैं भीतर के--सब घाटियों को छोड़कर, घाटियों की वासनाओं को छोड़कर--उस दिन ऐसा नहीं होता कि हमें कुछ नया मिल जाता है। ऐसा ही होता है कि जो हमारा सदा था, उसका आविष्कार, उसका उदघाटन हो जाता है। हम जानते हैं, हम कौन थे। और हम जानते हैं कि हम किस तरह च्युत होते रहे, किस तरह भटकते रहे। किस कीमत पर हमने अपने को गंवाया और क्षुद्र चीजों को इकट्ठा किया। कंकड़-पत्थर बीने और आत्मा बेची।

तो एक बात तो कृष्ण यह कहते हैं। दूसरी बात यह कहते हैं कि वे जो और अर्थार्थी, और आर्त, और जिज्ञासु, उस तरह के जो लोग हैं, वे मेरी नहीं, और देवताओं की पूजा में संलग्न होते हैं। क्यों?

ठीक परमात्मा की प्रार्थना में वे लोग संलग्न नहीं होते, क्योंकि परमात्मा की प्रार्थना की शर्त ही वे लोग पूरी नहीं करते। शर्त ही यह है कि सब वासनाएं छोड़कर आओ। ब्रह्म को पाने की शर्त तो यही है कि सब वासनाएं छोड़कर आओ, तब प्रार्थना पूरी होगी। वे वहां कैसे जाएंगे?

तो वे छोटे-मोटे अपने देवी-देवता निर्मित कर लेते हैं, जो उनसे शर्त नहीं बांधते। बल्कि शर्त ऐसी बांधते हैं, जो सस्ती होती हैं; पूरी कर देते हैं। कोई देवता मांगता है कि नारियल चढ़ा दो। कोई देवता मांगता है कि फूल-पत्ती रख दो। कोई देवता मांगता है कि ऐसा कर दो, बलि चढ़ा दो, या यज्ञ कर दो, या हवन कर दो। सस्ती मांग वाले भी देवता हैं। सस्ती दुकानें भी हैं।

तो कृष्ण कहते हैं, फिर उस तरह के लोग मेरी तरफ नहीं आते, क्योंकि मेरी शर्त उनसे पूरी नहीं होती। वे खुद ही अपने देवता गढ़ लेते हैं।

यह बहुत मजे की बात है। हमने बहुत देवता हमारे गढ़े हुए हैं। अपनी जरूरतों के अनुसार हमने उन्हें गढ़ा है। जिस चीज की जरूरत होती है, हम गढ़ लेते हैं।

सारा आविष्कार तो जरूरत से होता है न! देवताओं का आविष्कार भी जरूरत से होता है। आवश्यकता कोई वैज्ञानिक खोजों की ही जननी नहीं है, देवताओं की भी जननी है। इसलिए तो इतने देवता! 

हरेक अपना देवता खड़ा कर लेता है, जो उसकी जरूरत है, उसके मुताबिक। और फिर उस देवता से प्रार्थना करने लगता है।

कृष्ण कहते हैं, वे दूसरे देवताओं के पास चले जाते हैं।

परमात्मा तो एक है और हम उसे गढ़ नहीं सकते।

मोहम्मद ने अगर काबा की तीन सौ पैंसठ मूर्तियां हटवाईं, तो सिर्फ इसलिए कि वे देवताओं की मूर्तियां थीं। मोहम्मद कोई परमात्मा की प्रतिमा को मनुष्य के हृदय से नहीं हटाना चाहते थे। लेकिन बड़ी गलत-समझी पैदा हो गई। मोहम्मद कोई परमात्मा की प्रतिमा को नहीं हटाना चाहते थे। परमात्मा की प्रतिमा मनुष्य के हृदय में स्थापित हो, इसलिए देवताओं की जो तथाकथित प्रतिमाएं थीं काबा के मंदिर में--हर दिन के लिए अलग देवता था, तीन सौ पैंसठ देवता थे एक-एक दिन के लिए, हर दिन अलग देवता पर पूजा होती थी--मोहम्मद ने हटवा दिया, फिंकवा दिया, कि हटा दो इन्हें।

क्योंकि इन देवताओं की वजह से जो लोग आते हैं, वे कृष्ण के तीन वर्ग पहले जो हैं, वही लोग होंगे--आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु--वही आएंगे। वह जो चौथा है, वह तो उस परम एक की तरफ ही जाता है। लेकिन उस एक की तरफ जाने की शर्त पूरी करनी पड़ती है। वह शर्त महंगी है, कठिन है, दुर्धर्ष है, दुस्तर है। क्योंकि स्वयं को ही दांव पर लगाना पड़ता है, नारियल को नहीं।

हालांकि आपने कभी खयाल किया हो या न किया हो, आदमी बड़ा होशियार है। नारियल, आपने कभी खयाल किया, आदमी की खोपड़ी की शक्ल की चीज है। आंख भी होती है, नाक भी होती है, खोपड़ी भी होती है! जोर से पटको, तो खोपड़ी की तरह फूटता भी है। आपने कभी खयाल किया कि नारियल किन लोगों ने खोजा? आदमी की खोपड़ी की शक्ल में खोजा गया है।

अपने को चढ़ाना पड़ता है परमात्मा के दरवाजे पर; अपनी गर्दन काटनी पड़ती है। प्रतीकात्मक अर्थों में, सिंबालिकली, अपनी ही गर्दन काटकर चढ़ानी पड़ती है। अपने को नहीं काटेगा, वह क्या चढ़ाएगा! वह क्या परमात्मा को पाएगा!

पर होशियार है आदमी; उसने सोचा, गर्दन वगैरह तो बहुत महंगी पड़ती है। पांच रुपए में नारियल मिलता है; बिलकुल आदमी की खोपड़ी जैसा लगता है। आंख भी हैं; सब हिसाब-किताब पूरा है। फिर असली भी खरीदने की जरूरत नहीं है, सड़ा-सड़ाया भी मिल जाता है।

हर मंदिर के सामने दुकान होती है। और मंदिर के पास जो दुकान होती है, जो नारियल उन्होंने पहली दफे खरीदे थे, उनसे ही काम चलता चला जाता है। क्योंकि अंदर जाकर चढ़ जाते हैं, पुजारी रात को बेच जाता है। सुबह फिर मंदिर में चढ़ने लगते हैं, रात फिर लौट आते हैं। इसलिए दुनियाभर में नारियल के दाम बढ़ जाएं, मंदिर की दुकान वाला नारियल पुराने दाम से भी चलता है; कोई हर्जा नहीं! उसके भीतर कुछ बचा भी है, यह संदिग्ध है। सब सड़ चुका होगा कभी का।

लेकिन आदमी कितना कुशल है! उसने नारियल खोजा; उसने सिंदूर खोजा। सिंदूर--खून। खून अपने प्राणों का जो लगाए; वह प्रतीक है कि अपने खून को जो चढ़ा दे। तो उसने देखा, खून से मिलती-जुलती चीज बाजार में कोई मिलती है? मिलता है। सिंदूर मिल गया। उसने सिंदूर लगा दिया। नारियल चढ़ा दिया। दो-चार-आठ रुपए में निपटाकर वह अपने घर वापस आया।

निश्चित, यह पूजा परमात्मा तक नहीं पहुंचती। यह पूजा सिर्फ हमारी वासनाओं की सेवा है। और यह आपको कहूं कि इसमें कभी-कभी परिणाम आते हैं, इसलिए और कठिनाई है। ऐसा नहीं है कि यह चूंकि बिलकुल थोथी है, इसमें कभी परिणाम नहीं आते। इसमें परिणाम आते हैं। उसी से तो झंझट है। अगर परिणाम बिलकुल न आते होते, तो आदमी कभी का ऊब गया होता। परिणाम आते हैं।

परिणाम इसलिए आते हैं कि जब भी आप किसी देवता की पूजा शुरू करते हैं, या कोई देवता निर्मित कर लेते हैं...। अक्सर देवता इस तरह निर्मित होते हैं, कोई आदमी मरा, कोई संत मरा, कोई फकीर मरा, कोई महात्मा मरा; वेदी बन गई; मूर्ति बन गई। कुछ आस-पास पूजा-प्रार्थना शुरू हो गई। देवता निर्मित हो गया।

कभी जब ऐसा कोई देवता निर्मित हो जाता है, तो परिणाम भी आते हैं। क्योंकि बहुत-से अच्छे लोग, जिनकी आत्माएं आस-पास भटकने लगती हैं, अशरीरी हो जाती हैं, आपके द्वारा की गई प्रार्थनाओं में सहायता पहुंचा सकते हैं। वह सहायता उनकी दया से निकलती है। लेकिन आपको मिल जाती है सहायता, तो आप सोचते हैं कि देवता ने सहायता की, तो प्रार्थना करता चला जाऊं, करता चला जाऊं।

आपके हर देवता के आस-पास ऐसी आत्माएं मौजूद हैं, जो आपको सहायता कर सकती हैं। भले लोगों की आत्माएं हैं।

देखें, एक आदमी परेशान आया है, उसकी लड़की की शादी नहीं हो रही है। कोई मूर्ति सहायता नहीं करेगी, कोई नारियल सहायता नहीं करेगा। लेकिन उस मूर्ति और उस मंदिर के वातावरण में निवास करने वाली कोई भली आत्मा सहायता कर सकती है। और वह सहायता आपको मिल जाए, तो आपका तो गणित पूरा हो गया कि मेरी मांग पूरी हुई, मेरी प्रार्थना पूरी हुई, देवता सच्चा है। अब तो इसको कभी छोड़ना नहीं है। फिर आप उसको पकड़े चले जाते हैं।

तो देवता के पीछे से घटनाएं घटती हैं, इसमें कोई शक नहीं है। लेकिन उसके घटने का कारण बहुत दूसरा है। वह दया है किन्हीं शुभ आत्माओं की।

लेकिन कृष्ण जिस परम उपलब्धि की बात कर रहे हैं, उसके लिए तो देवताओं के पास जाने से नहीं होगा। क्योंकि कोई कितनी ही शुभ आत्मा क्यों न हो, किसी को परमात्मा नहीं दिला सकती।

हां, धन दिला सकती है। वह कोई बड़ी कठिन बात नहीं है। नौकरी दिला सकती है। किसी की शादी करवा सकती है। किसी की बीमारी ठीक करवा सकती है। वह कोई कठिन बात नहीं है। जो आदमी कर सकता है, वही अच्छी आत्मा भी कर सकती है, सरलता से।

लेकिन परमात्मा से कोई अच्छी आत्मा आपको मिलवा नहीं सकती। परमात्मा से मिलने तो आपको ही जाना पड़ेगा। और चौथे तरह के ज्ञानी होकर जाना पड़ेगा, तो ही आप पहुंच पाएंगे।

वासनाओं से हटे चित्त, आसक्तियों से टूटे चित्त, ज्ञान में थिर हो, समर्पित एकीभाव से प्रभु की तरफ भजन करे, दौड़े, गति करे, तो एक दिन भक्त भगवान हो जाता है।

सब भक्त भगवान हैं। उन्हें पता हो, न पता हो। फर्क पता होने का और न पता होने का है। लेकिन कोई भक्त भगवान से वंचित नहीं है। प्रत्येक भक्त भगवान है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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