मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 20

 धर्म का सार: शरणागति


इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परंतप।। 27।।

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्।

ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः।। 28।।


हे भरतवंशी अर्जुन, संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न हुए सुख-दुख आदि द्वंद्व रूप मोह से संपूर्ण प्राणी अति अज्ञानता को प्राप्त हो रहे हैं। परंतु निष्काम भाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषों का पाप नष्ट हो हे गया है, वे रागद्वेषादि द्वंद्व रूप मोह से मुक्त हुए और दृढ़ निश्चय वाले पुरुष मेरे को सब प्रकार से भजते हैं।


प्रभु का स्मरण भी उन्हीं के मन में बीज बनता है, जो इच्छाओं, द्वेषों और रागों के घास-पात से मुक्त हो गए हैं। जैसे कोई माली नई जमीन को तैयार करे, तो बीज नहीं बो देता है सीधे ही। घास-पात को, व्यर्थ की जड़ों को उखाड़कर फेंकता है, भूमि को तैयार करता है, फिर बीज डालता है।

इच्छा और द्वेष से भरा हुआ चित्त इतनी घास-पात से भरा होता है, इतनी व्यर्थ की जड़ों से भरा होता है कि उसमें प्रार्थना का बीज पनप सके, इसकी कोई संभावना नहीं है।

यह मन की, अपने ही हाथ से अपने को विषाक्त करने की जो दौड़ है, यह जब तक समाप्त न हो जाए, तब तक प्रभु का भजन असंभव है।

ऊर्जा हो पूरी, शक्ति हो पूरी, अवसर पूरा का पूरा ऐसा हो, जहां कि द्वेष जन्मता हो और द्वेष न जन्मे; जहां घृणा पैदा होती हो और घृणा पैदा न हो; जहां राग का जन्म होता है और राग न जन्मता हो; जहां सारी प्रतिकूल परिस्थिति हो और मन, जीवन की जो सहज पाशविक वृत्तियां हैं, उनकी तरफ न दौड़ता हो, तो ही जीवन में प्रार्थना का बीज अंकुरित हो पाता है।

लेकिन हम सारे ऐसे लोग हैं कि हम चाहते तो हैं कि जीवन में प्रार्थना खिल जाए, और प्रभु का मिलन हो जाए, और आनंद घटित हो। और हम उन पर्वत शिखरों को देखने में समर्थ हो जाएं, जिन पर प्रकाश कभी क्षीण नहीं होता; और हम उन गहराइयों को जान लें अनुभव की, जहां अमृत निवास करता है; उन मंदिरों में प्रवेश कर जाएं, जहां परम प्रभु विराजमान है--ऐसी हम आकांक्षा करते हैं। लेकिन चौबीस घंटे घृणा के बीज को पानी देते हैं, द्वेष को सम्हालते हैं, शत्रुता को पालते हैं। और सब तरह से जमीन जिस तरह खराब की जा सकती है, वह सब करते हैं। और फिर हम सोचते हों कि कभी भगवत-भजन का फूल खिल सके, तो वह संभव नहीं है।

कृष्ण कहते हैं, जो नासमझ हैं, जो अज्ञानीजन हैं, वे इच्छा और द्वेष में ही अपने जीवन को समाप्त कर देते हैं। उनके पास न तो शक्ति बचती है, न समय बचता है, न चेतना बचती है कि मेरी ओर प्रवाहित हो सके। लेकिन जो ज्ञानीजन हैं...।

और ज्ञानी कौन है? ज्ञानी वही है, जो अपने जीवन को निरंतर आनंद की दिशा में प्रवाहित करने में समर्थ है।

और अज्ञानी वही है, जो अपने ही हाथों नर्क की यात्रा करता है। जो अपने साथ अपना नर्क लेकर चलता है। कहीं भी पहुंच जाए, तो वह नर्क को निर्मित कर लेगा। उसके पास बिल्ट-इन-प्रोग्रेम है। उसके पास हमेशा तैयार है फार्मूला नर्क बनाने का। वह कहीं भी पहुंच जाए, ज्यादा देर न लगेगी, वह नर्क निर्मित कर लेगा।

अज्ञानी वही है, जो अपने चारों तरफ नर्क की समस्त संभावनाओं को लेकर चलता है। और ज्ञानी वही है, जो अपने चारों तरफ स्वर्ग की समस्त संभावनाओं को लेकर चलता है। स्वर्ग की बड़ी से बड़ी संभावना प्रभु का स्मरण है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, वह ज्ञानी जिसने अपने मन को निष्काम कर डाला, पवित्र कर डाला, जिसके जीवन में पुण्य की गंध पैदा हुई, जिसने व्यर्थ के घास-पात को उखाड़कर फेंक दिया, राग-द्वेष में जो अब जीता नहीं, जो अब भगवत-भजन की दिशा में निरंतर चल रहा है; उठता है, बैठता है, चलता है, डोलता है, कुछ भी करता है, प्रत्येक कृत्य जिसका प्रभु के लिए समर्पित है और प्रत्येक क्षण, वैसा व्यक्ति मुझे उपलब्ध होता है।


दो बातें स्मरणीय हैं।

हमारी दृष्टि पर सब निर्भर है। अगर हम सोचते हैं कि बहुत बड़ा दुख हमारे ऊपर गिर रहा है, तो हमारी दृष्टि शत्रुता की हो जाती है। अगर हम सोचते हैं कि प्रभु की अनुकंपा बरस रही है, तो हमारी दृष्टि मित्रता की हो जाती है। 

हम कैसे लेते हैं जीवन को, इस पर सब निर्भर करता है। हमें पता ही नहीं है कि काश, हमें जिंदगी को जीने का खयाल होता, तो हम जब आकाश से बादल बरसते हों और पानी नीचे गिर रहा हो, तो हम नाच भी सकते हैं खुशी में। मोर नाचते हैं, और कभी आदमी भी नाचता था, लेकिन अब आदमी सिर्फ बचता है। सूरज निकला हो, तो उसकी रोशनी में हम सिर्फ धूप भी अनुभव कर सकते हैं, और जीवन भी। अंधेरा घिरा हो, तो हम आने वाली सुबह की यात्रा भी देख सकते हैं उसमें, और सिर्फ मृत्यु का अंधकार भी।

हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम जीवन को कैसे देखते हैं। आपके दृष्टिकोण का अंतर, आपके एटिटयूड का जरा सा बदल जाना, और सब बदल जाता है।

कृष्ण कहते हैं, जिनके मन में काम-द्वेष नहीं है, जो किसी के लिए घृणा से नहीं भरे हैं, वे सरलता से ही मेरे भजन में लीन हो पाते हैं। और उन ज्ञानियों को मैं उपलब्ध होता हूं।




(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल


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