बुधवार, 28 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 8 भाग 9

 जीवन ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन--उत्तरायण पथ


यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।

प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।। 23।।

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।

तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।। 24।।


और हे अर्जुन, जिस काल में शरीर त्यागकर गए हुए योगीजन, पीछे न आने वाली गति को और पीछे आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं, उस काल को अर्थात मार्ग को कहूंगा।

उन दो प्रकार के मार्गों में से जिस मार्ग में अग्नि है, ज्योति है, और दिन है, तथा शुक्ल पक्ष है और उत्तरायण के छः माह हैं, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।


कोई ऐसे भी जी सकता है जैसे मरा हुआ रहा हो, और कोई ऐसे भी मर सकता है कि उसकी मृत्यु को हम जीवंत कहें। जीवन भी मृतवत हो सकता है, और मृत्यु भी अति जीवंत।

जिस भांति हम जीते हैं, उसे जीवन नाम-मात्र को ही कहा जा सकता है। न तो जीवन का हमें कोई पता है; न जीवन के रहस्य का द्वार खुलता है; न जीवन के आनंद की वर्षा होती है; न हम यही जान पाते हैं कि हम क्यों जी रहे हैं,किसलिए जी रहे हैं। हमारा होना करीब-करीब न होने के बराबर होता है। कहना उचित नहीं कि हम जीते हैं, यही कहना काफी है कि हम किसी भांति बने रहते हैं, किसी भांति अस्तित्व को ढो लेते हैं, जीवित रहते हुए भी मुर्दे की भांति। लेकिन ऐसा भी होता है कि मरते क्षण में भी कोई इतना जीवंत होता है कि उसकी मृत्यु को भी हम मृत्यु नहीं कहते।

बुद्ध की मृत्यु को हम मृत्यु नहीं कह सकते हैं और हमारे जीवन को हम जीवन नहीं कह पाते हैं। कृष्ण की मृत्यु को मृत्यु कहना भूल होगी। उनकी मृत्यु को हम मुक्ति कहते हैं। उनकी मृत्यु को निर्वाण कहते हैं। उनकी मृत्यु को हम जीवन से और महाजीवन में प्रवेश कहते हैं।

उनकी मृत्यु के क्षण में कौन-सी क्रांति घटित होती है, जो हमारे जीवन के क्षण में भी घटित नहीं हो पाती! किस मार्ग से वे मरते हैं कि परम जीवन को पाते हैं! और किस मार्ग से हम जीते हैं कि जीवित रहते हुए भी हमें कोई जीवन की सुगंध का भी पता नहीं पड़ता है।

जिसे हम अपना शरीर कहें, वह हमारे लिए एक कब्र से ज्यादा नहीं है, एक चलती-फिरती कब्र! और यह लंबा विस्तार जन्म से लेकर मृत्यु तक, बस आहिस्ता-आहिस्ता मरते जाने का ही काम करता है। ऐसे हम गुजरते हैं रोज-रोज और मौत के करीब पहुंचते हैं। हमारी सारी यात्रा मरघट पर पूरी हो जाती है।

लेकिन बुद्ध भी मरते हैं, कृष्ण भी, क्राइस्ट भी, मोहम्मद भी, और उनकी मृत्यु के लिए हमें दूसरा शब्द खोजना पड़ता है। उनके जीवन के लिए भी हमें दूसरा शब्द खोजना पड़ता है। वे कुछ और ढंग से जीते हैं और वे कुछ और ढंग से मरते हैं। जीने का सब कुछ निर्भर है जीने के ढंग पर, और मरने का भी सब कुछ निर्भर है मरने के ढंग पर। हमें जीने का ढंग भी नहीं आता। बुद्ध जैसे व्यक्ति को मरने का ढंग भी आता है।

कृष्ण अर्जुन से उस क्षण, उस मार्ग, मृत्यु की उस कला की बात इन सूत्रों में करेंगे, जिस कला को जानने वाला, जिस मार्ग को पहचानने वाला, मरकर मरता नहीं, अमृत को उपलब्ध हो जाता है।

कृष्ण ने कहा है, और हे अर्जुन, जिस काल में शरीर त्यागकर गए हुए योगीजन, पीछे न आने वाली गति को और पीछे आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं, उस काल को, उस मार्ग को मैं तुमसे कहूंगा।

इसमें दोत्तीन बातें ठीक से समझ लेनी चाहिए।

जिस काल में, जिस क्षण में!

बड़ा मूल्य है क्षण का, बड़ा मूल्य है काल का, जिस क्षण में कोई व्यक्ति मृत्यु को उपलब्ध होता है। निश्चित ही, क्षण से अर्थ, बाहर की घड़ी में घूमते हुए कांटे से जो नापा जाता है, उस क्षण से नहीं है। लेकिन भीतर भी एक घड़ी है, और भीतर भी क्षणों का एक हिसाब है। एक तो बाहर नापने की हमने यांत्रिक व्यवस्था की है समय को। वह बाहर के कामों के लिए जरूरी है, भीतर के कामों के लिए नहीं। भीतर एक और भी माप है। और उस माप में, जिस क्षण में व्यक्ति की मृत्यु होती है--भीतरी माप के जिस क्षण में, भीतरी घड़ी के जिस क्षण में--बहुत कुछ निर्भर होता है।

क्योंकि इस जगत में आकस्मिक कुछ भी नहीं है, मृत्यु भी आकस्मिक नहीं है। मृत्यु भी बहुत सुव्यवस्थित है। और मृत्यु भी बहुत कारणों से सुनिश्चित है। और हर आदमी हर कभी नहीं मरता; हर आदमी अपनी मृत्यु चुनता है;  जिसे हम जिंदगीभर निर्मित करते हैं। और मृत्यु को देखकर कहा जा सकता है कि व्यक्ति कैसे जीया। भीतर, मृत्यु का क्षण निर्णायक है।

यदि भीतर की घड़ी, भीतर का समय विचार से भरा हो, वासना से भरा हो, कामना से भरा हो, तो व्यक्ति मरकर वापस लौट आता है। लेकिन भीतर का समय यदि बिलकुल शुद्ध हो, सिर्फ समय हो, कोई विचार नहीं, कोई कामना नहीं, कोई तृष्णा का सूत्र नहीं, शुद्ध क्षण हो समय का, जैसे निश्छल पानी हो, जरा भी कुछ और अशुद्धि उसमें न हो, सिर्फ समय हो, तो उस क्षण में मरा हुआ व्यक्ति संसार में लौटकर नहीं आता।

शुद्ध समय में ठहर जाना ध्यान है।

हमारा समय, भीतर जो हमारा समय है, वह सदा ही वासना से भरा है। थोड़ा भीतर का स्मरण करें, तो खयाल में आ जाएगा। आपने अपने भीतर वर्तमान के क्षण को कभी भी नहीं जाना होगा। भीतर या तो आप अतीत को जानते हैं, बीत गए को, जिसकी स्मृति आपका पीछा करती है छाया की भांति। जो हो चुका, उसकी जुगाली करते रहते हैं, जैसे जानवर जुगाली करते हैं। भैंस रख लेती है भोजन बहुत-सा अपने पेट में और फिर उसे निकालकर चबाती रहती है। जो बीत गया, उसकी जुगाली चलती है मन के भीतर। सोचते रहते हैं बार-बार उसको, जो हो चुका।

जो हो चुका, उसे सोचना नासमझी है। उससे अपने वर्तमान क्षण को व्यर्थ ही आप नष्ट किए दे रहे हैं। जो जा चुका वह जा चुका, अब वह कहीं भी नहीं है, लेकिन आपकी स्मृति में है। और आपकी स्मृति जुगाली करती है और वर्तमान में जो क्षण है अभी, समय जो है भीतर, उसे भर देती है। वह जो प्रेजेंट मोमेंट है, अभी इसी समय जो मौजूद क्षण है, उसे अतीत ढांक लेता है। और जब कोई वर्तमान का क्षण अतीत से ढंक जाता है, तो नष्ट हो जाता है। आप उससे अपरिचित ही गुजर जाते हैं।

या तो यह होता है और या फिर यह होता है कि वर्तमान का क्षण भविष्य की वासना से आच्छादित होता है। सोचते हैं उसके संबंध में, जो अभी नहीं है, होगा। आने वाला कल, भविष्य। क्या करना है, क्या नहीं करना है। क्या पाना है, क्या नहीं पाना है। कौन-सी दौड़ लेनी है, कौन-सी मंजिल बनानी है।

या तो अतीत डुबा देता है क्षण को, वर्तमान को, या भविष्य डुबा देता है। दोनों हालत में भीतर का समय खो जाता है। दोनों हालत में वह काल-क्षण खो जाता है, जो कि वस्तुतः था और वे चीजें आच्छादित हो जाती हैं। दोनों नहीं हैं; बीता हुआ कल भी नहीं है, आने वाला कल भी नहीं है। जो नहीं है, वह उसे घेर लेता है, जो है। यही मरे हुए जिंदा आदमी का लक्षण है।

इसीलिए हम जीते हैं बुझे-बुझे, मरे-मरे। क्योंकि जो नहीं है, वह हमारे ऊपर भारी है; और जो है, उसका कहीं पता भी नहीं चलता।

क्या कभी आपने मन में ऐसा टाइम-मोमेंट, ऐसा काल-क्षण जाना है, जब अतीत भी न हो, भविष्य भी न हो, और आप अभी हों, यहीं, अभी और यहीं, जस्ट हियर एंड नाउ। उस क्षण में यदि मृत्यु हो जाए, तो लौटकर आना नहीं होता।

लेकिन जो उस क्षण में जीया ही नहीं, वह मरेगा कैसे? जिसने जीवन में कभी उस क्षण को जाना ही नहीं, वह मरते वक्त नहीं जान लेगा अचानक। अचानक उसका अवतरण नहीं होता। जिसका जीवनभर भरा हुआ रहा है कचरे से, मरते क्षण में वह सारा कचरा इकट्ठा होकर उसके चित्त को घेर लेता है।

ध्यान रहे, जीते जी तो कुछ अतीत याद आता है, कुछ भविष्य। मरते क्षण पूरा अतीत और पूरे भविष्य की कल्पनाएं इकट्ठी खड़ी हो जाती हैं।

जिन लोगों को कभी पानी में डूबने का खयाल हो, कि ऐसी घड़ी आ गई हो कि मरने के करीब पहुंच गए, तो शायद उन्हें पता हो। बहुत-से डूबने वाले लोगों ने, जो बच गए, वक्तव्य दिए हैं। और वे वक्तव्य ये हैं कि डूबते क्षण में पानी में, जब कि लगता है कि मौत आ गई, तो एक क्षण में सारा जीवन फिल्म की भांति आंख के सामने से गुजर जाता है। एक क्षण में जैसे पूरी की पूरी जीवन की फिल्म एकबारगी आंख के सामने गुजर जाती है।

मरते वक्त सभी को ऐसा होता है। सारा अतीत आंख के सामने गिर जाता है; और सारे भविष्य के भय, वासनाएं, स्वप्न, वे भी सब इकट्ठे हो जाते हैं। मृत्यु का क्षण बड़ी भीड़ का क्षण है; टू मच क्राउडेड।

इसलिए मृत्यु में आपको अपना तो पता ही नहीं चलता। भीड़ इतनी ज्यादा होती है कि पता लगाना ही मुश्किल होता है कि मैं कौन हूं। जो मर रहा है, उसका तो पता ही नहीं चलता। लेकिन पीछे और आगे हम डोलते रहते हैं। जितना हम पीछे घूमते रहते हैं, उतना ही हम आगे की योजनाओं में डूबे रहते हैं। जितना होगा अनुपात अतीत का, उतना ही अनुपात सदा होता है भविष्य का। जितनी जड़ें आदमी की अतीत स्मृति में होती हैं, उतनी ही शाखाएं उसी अनुपात में, ठीक उसी अनुपात में भविष्य में फैल जाती हैं। और बीच का जो क्षण है--बहुत छोटा, बहुत छोटा, अति अल्प, आणविक--वह खो जाता है इस बीच।

जिस काल-क्षण की कृष्ण बात कर रहे हैं, उस काल-क्षण को ठीक से समझ लें। उस समय न अतीत हो, न भविष्य; रह जाए शुद्ध वर्तमान--परिपूर्ण निश्छल, परिपूर्ण निर्दोष, इनोसेंट, अनबर्डन, निर्बोझ, निर्भार--तो उस क्षण में जो मृत्यु होती है, उसका रूप मृत्यु का नहीं, परम जीवन के अनुभव का है। वह मोक्ष, मुक्ति बन जाती है।

मृत्यु हम तब तक कहते हैं अंत को, जब तक वापस लौटना जारी रहता है। मृत्यु उस क्षण मुक्ति बन जाती है, मोक्ष, जिस क्षण वापस लौटने का उपाय नहीं रह जाता।

वापस लौटता है आदमी मन से। मन ही धागा है जिससे हम वापस लौटते हैं। और मन है अतीत और भविष्य का जोड़। अतीत+भविष्य = मन।

वर्तमान मन का हिस्सा नहीं है। इसलिए जो वर्तमान में प्रवेश कर जाता है, वह मन के बाहर हो जाता है। जो अतीत और भविष्य में रहता है, वह मन में रहता है।

अब एक बहुत मजे की बात आपसे कहूं, जो कि आपको एकदम से समझ में शायद न भी पड़े, लेकिन थोड़ा समझेंगे, तो समझ में पड़ सकती है।

हम सदा कहते हैं कि समय के तीन हिस्से हैं, अतीत, वर्तमान, भविष्य; पास्ट, प्रेजेंट, फ्यूचर। इसमें भूल है। प्रेजेंट जो है, प्रेजेंट इज़ नाट ए पार्ट आफ टाइम एट आल। वर्तमान समय का हिस्सा नहीं है। समय तो केवल अतीत और भविष्य है। वर्तमान समय के बाहर है। जहां अतीत समाप्त होता है और जहां अभी भविष्य शुरू नहीं होता, उस बीच की संधि-रेखा में वर्तमान है। वर्तमान समय का हिस्सा नहीं है। कामचलाऊ है बातचीत कि वर्तमान समय का हिस्सा है। वर्तमान समय का हिस्सा नहीं है। वर्तमान अस्तित्व है।

और जो समय का हिस्सा नहीं है, वह मन का भी हिस्सा नहीं है। अगर ठीक से समझें, तो जिसे हम बाहर के जगत में समय कहते हैं, टाइम कहते हैं, वही भीतर के जगत में मन, माइंड है। इसे ऐसा समझ लें कि जिस घटना को हम बाहर के जगत में समय कहते हैं, उसी घटना का भीतरी नाम मन है। टाइम एंड माइंड आर रियली सिनानिम्स, वे बिलकुल पर्याय हैं; उनमें कोई भेद नहीं है।

इसलिए जिसे मन के बाहर जाना हो, वह समय के बाहर चला जाए, तो मन के बाहर पहुंच जाता है। जिसे समय के बाहर जाना हो, वह मन के पार चला जाए, तो समय के बाहर पहुंच जाता है। ये दोनों एक ही चीज के दो छोर हैं। बाहर समय की तरह पहचाना जाता है जो, भीतर वही मन है।

वर्तमान न तो समय का हिस्सा है और न मन का। वर्तमान अस्तित्व है।




इसे ऐसा समझें कि अस्तित्व में न कुछ अतीत है और न कुछ भविष्य, अस्तित्व सदा है। अस्तित्व में न कुछ अतीत है और न कुछ भविष्य, अस्तित्व तो सदा है। ऐसा समझें कि आदमी चला जाए जमीन से, तो क्या जमीन पर कोई पास्ट, कोई अतीत होगा? आदमी न हो जमीन पर, अर्थात मन न हो जमीन पर, तो क्या कोई भविष्य होगा?

चांद तो फिर भी निकलेगा, लेकिन चांद कल भी निकला था, इसकी स्मृति चांद को नहीं है। फूल फिर भी खिलेंगे, लेकिन फूल पहले भी खिले थे, इसका कोई हिसाब फूल नहीं रखते। पक्षी फिर भी गीत गाएंगे, लेकिन यह गीत कल भी गाया गया था, इसका पक्षियों के पास कोई लेखा-जोखा नहीं है। और चांद कल भी निकलेगा, इसकी कोई योजना चांद के पास नहीं है। और फूल कल भी खिलेंगे, उस कल का, उस खिलने का, फूलों को कोई स्वप्न भी नहीं आता है।

मन हट जाए...ध्यान रहे, इसीलिए हमने आदमी को--शायद जमीन पर अकेला भारत है, जिसने ठीक-ठीक नाम दिया है--मनुष्य। मनुष्य का मतलब है, जिसके पास मन है। और मन का अर्थ है कि जिसके पास अतीत का लेखा-जोखा और भविष्य की योजना और कल्पना है। मनुष्य न हो, मन न हो, तो सब कुछ होगा, समय नहीं होगा। देअर शैल बी टाइम नो लांगर; आदमी भर न हो, तो समय नहीं होगा।

समय आदमी के मन के साथ पैदा हुई वस्तु है। आदमी के हटते ही समय खो जाता है। यदि भीतर आप किसी ऐसी स्थिति को खोज लें, जब न अतीत है, न भविष्य, तो वहां कोई विचार भी नहीं हो सकता। क्योंकि विचार या तो अतीत के होते हैं, या भविष्य के। वहां कोई तृष्णा नहीं हो सकती, क्योंकि तृष्णा अतीत से जन्मती है और भविष्य की तरफ दौड़ती है। वहां कोई वासना नहीं हो सकती। वहां होंगे सिर्फ आप, सिर्फ आपका अस्तित्व, सिर्फ होना मात्र, जस्ट बीइंग। उस क्षण में जो मृत्यु घटित हो, तो लौटकर आना नहीं है। मृत्यु मुक्ति बन जाती है।

और जिन लोगों ने मृत्यु को परम मित्र कहा है, तो आपकी मृत्यु को नहीं कहा है। जिन्होंने कहा है कि मृत्यु परम सौभाग्य है, तो आपकी मृत्यु को उन्होंने परम सौभाग्य नहीं कहा है। उस भूल में मत पड़ना। उन्होंने इस मृत्यु की बात कही है। जो मृत्यु मित्र है, वह ऐसी मृत्यु है, जो मुक्ति बन जाती है।

लेकिन काल-क्षण बहुमूल्य है। यदि भीतर ऐसा न हो, तो फिर आप नई यात्रा पर प्रारंभ कर देते हैं। अतीत को समेटे हुए, भविष्य का स्वप्न देखते हुए ही पुनर्जन्म होता है। अतीत को समेटे हुए, भविष्य की कामना करते हुए ही फिर नया गर्भ धारण हो जाता है।

लौटकर आना हो, तो भरा हुआ मन चाहिए। लौटकर न आना हो, तो रिक्त, खाली, शून्य मन चाहिए। उसी की चर्चा कृष्ण कर रहे हैं।

लेकिन मृत्यु के समय--आकस्मिक, अचानक द्वार पर आ गई मृत्यु--उस क्षण आप कैसे सम्हाल पाएंगे अपने को, यदि जीवन में प्रतिपल न सम्हाला हो! तो जो ठीक से नहीं जीया, वह ठीक से मर नहीं सकेगा। गलत जीने का अंतिम परिणाम गलत मृत्यु होगी। और गलत मृत्यु का अर्थ होता है कि फिर गलत जीवन का प्रारंभ। आपने फिर बीज बो दिए।

जीवन में ही सम्हालना पड़े। जीते-जी ही सम्हालना पड़े। और यह आप तभी सम्हाल सकते हैं, जब आपको खयाल हो कि जीवन के किसी भी क्षण में मृत्यु घटित हो सकती है; अभी और यहीं घटित हो सकती है। इसलिए जो कहता है, कल सम्हाल लेंगे, वह कभी भी नहीं सम्हाल पाता है। जो कहता है, अभी और यहीं, वही सम्हाल पाता है।

कोई आदमी कहे, एक दुकान चलाना चाहता हूं, तो भविष्य की जरूरत पड़ेगी। दुकान एक फैलाव है, समय में। कोई आदमी कहे, धन कमाना चाहता हूं, तो आज इसी क्षण नहीं कमा सकता है। धन के लिए आयोजना करनी पड़ेगी, पंचवर्षीय, पचास वर्षीय योजनाएं बनानी पड़ेंगी। प्लानिंग करनी पड़ेगी। फिर भी मिलेगा, नहीं मिलेगा, नहीं कहा जा सकता। क्योंकि धन पर मेरा वश नहीं है। और बहुतों का वश भी है। और मैं अकेला ही धन कमाने नहीं चल पड़ा हूं। यह सारी पृथ्वी धन कमाने चल पड़ी है। भारी प्रतिस्पर्धा है। सिर्फ धर्म को छोड़कर सभी चीजों में भारी प्रतिस्पर्धा है। धन कमाना हो, यश कमाना हो, पदों की सीढ़ियां चढ़नी हों, तो भविष्य के बिना कोई उपाय नहीं। टाइम विल बी नीडेड। भविष्य चाहिए, नहीं तो कुछ भी न हो सकेगा।

लेकिन यदि संन्यास लेना हो, तो भविष्य की कोई भी जरूरत नहीं है। इसी क्षण घट सकता है, क्योंकि संन्यास निपट निजी है। उसका इस जगत में किसी से कोई संबंध नहीं है। और अगर धन मैं कमाना चाहूं, तो मेरे पास जितना धन बढ़ेगा, किसी के पास कम होगा। या किसी के पास ज्यादा हो सकता था, तो मैं छीनूंगा। कहीं न कहीं, कोई न कोई वंचित होगा। लेकिन अगर मैं संन्यास लेता हूं, दुनिया में कहीं भी कोई वंचित नहीं होता। शायद मेरे संन्यास लेने से दुनिया में बहुत कुछ समृद्धि भला आ जाए, लेकिन कहीं कोई वंचित नहीं होता है। क्योंकि संन्यास कोई कमोडिटी नहीं है, कोई वस्तु नहीं है कि कम हो जाएगी। फिर संन्यास कोई संसार का हिस्सा नहीं है कि मैं उसकी योजना करूं और कल और परसों, और वर्ष और दो वर्ष, और प्रतीक्षा करूं।

ठीक से समझें, तो संन्यास का अर्थ है, जो समय के बाहर घटित होता है। संसार का अर्थ है, जो समय के भीतर घटित होता है। संसार का अर्थ है, विदिन दि टाइम प्रोसेस। और संन्यास का अर्थ है, जंपिंग आउट आफ दि टाइम प्रोसेस।

लेकिन संन्यास का सोचने से कोई संबंध नहीं। धर्म का ही सोचने से कोई संबंध नहीं है। इसी क्षण उस संधि-रेखा में, जहां अतीत नहीं और भविष्य नहीं, जो घटना घट जाती है, बिना विचारे जो छलांग है, कूद जाना है अपने से बाहर, वह संन्यास है।

जीवन में जो वर्तमान के क्षण को पकड़ने की कला आ जाए, तो कृष्ण जिस मृत्यु-क्षण की बात कर रहे हैं, जिस काल-क्षण की, वह घटित हो सकता है।

एक तो, जिसे हम परम योग कहें, दि सुप्रीम योग। वह परम योग अभ्यास, क्रिया, साधना, इसमें भरोसा नहीं करता। उस परम योग का ही पुराना नाम सांख्य है। अगर कोई आदमी राजी है अभी और यहीं, वर्तमान के क्षण में खड़े होने को, तो बिना किसी योगाभ्यास के, बिना किसी ध्यान के वह घटना घट जाएगी, जिसमें परम से मिलन हो जाता है। क्योंकि उससे हम कभी छूटे नहीं हैं, इसलिए पाने के लिए कोई भी रास्ता तय करने की जरूरत नहीं है। जिससे हम कभी अलग नहीं हुए, उस तक पहुंचने के लिए किसी भी विधि और विधान की आवश्यकता नहीं है। जिसमें हम खड़े ही हैं, अभी और सदा से, क्या उसे पाने को भी कोई यात्रा करनी पड़ेगी?

लेकिन यह बात समझ में आती नहीं। और समझ में भी आ जाए, तो कोई परिणाम नहीं होता।

असल में उनको इतना ही समझ में नहीं आया कि अगर कुछ होने की आकांक्षा है, तो सांख्य आपका सूत्र नहीं बन सकता। अगर यह भी आप पूछ रहे हैं कि सब समझ में आ गया, कुछ होता क्यों नहीं है! यह होता क्यों नहीं है, यह तो भविष्य है। यह होता क्यों नहीं है, यह तो वासना है। अगर समझ में आ गया, तो होना बंद करो अब। अब भविष्य को छोड़ दो। अब यह कामना भी छोड़ दो कि कुछ हो। मोक्ष हो, आनंद हो, परमात्मा हो, यह कामना भी सांख्य के मार्ग में बाधा है, परम योग के मार्ग में बाधा है।

लेकिन कभी करोड़, दो करोड़ में कोई एकाध व्यक्ति कभी सदियों में घटित होता है, जो परम सांख्य को सीधा पा लेता है। लेकिन उसका सीधा पाना भी हजारों जन्मों की लंबी भटकन का ही परिणाम होता है। परम सांख्य को भी सीधा पाया नहीं जा सकता। यदि कृष्णमूर्ति जैसा व्यक्ति भी पाता हो, तो वह भी अनंत-अनंत जन्मों की प्रक्रिया का फल है।

लेकिन जब कोई वैसा पा लेता है, तो वह दूसरों से कहता है कि कुछ करने की जरूरत नहीं है। बस हो जाओ, अभी और यहीं। वह दूसरा सुन लेता है, शब्द समझ में भी आ जाते हैं। बार-बार सुनने से और जल्दी समझ में आ जाते हैं। इसलिए कृष्णमूर्ति जैसे लोगों को वे ही लोग रोज पढ़ते रहते हैं, वे ही लोग हर वर्ष सुनते रहते हैं; वे ही शक्लें! क्योंकि बार-बार पुनरुक्ति से उनको यह वहम होने लगता है कि अब सब समझ में आने लगा। क्योंकि सब शब्द समझ में आ जाते हैं। लेकिन फिर भी वे पूछते फिरते हैं कि कुछ हुआ नहीं।

अगर होने की ही वासना है, तो परम योग आपका मार्ग नहीं है, सांख्य आपका मार्ग नहीं है। और होने की वासना सभी में है। मजा तो यह है कि सांख्य में भी लोग इसीलिए उत्सुक होते हैं कि अच्छा, चलो! होना तो चाहते हैं, अगर आप कहते हो कि होने की वासना छोड़ोगे तभी हो पाओगे, तो हम होने की वासना भी छोड़ने को तैयार हैं। लेकिन उस वासना के पीछे भी कुछ होने की कामना सदा ही मौजूद है। इसलिए बहुत जाल है भीतर। इस जाल को तोड़ना हो, तो दूसरी विधि है।

उन दूसरे योगीजन को कृष्ण ने कहा है कि और पीछे आने वाली गति को भी प्राप्त होते हैं, ऐसे योगी भी हैं। जो योगी योग की साधना किसी भी वासना से कर रहे हों, चाहे वह वासना परमात्मा को पाने की वासना ही क्यों न हो, चाहे वह वासना सब वासनाओं से मुक्त हो जाने की ही वासना क्यों न हो! लेकिन जहां भी किसी तरह की डिजायरिंग, वहीं भविष्य आ गया। जहां किसी तरह की कामना, वहीं भविष्य निर्मित हो गया। और जहां भविष्य है, वहां अतीत से सहारा लेना पड़ेगा, क्योंकि भविष्य के अनजान लोक में आप प्रवेश कैसे करेंगे! अतीत का अनुभव ही आपका आधार बनेगा, अतीत का ज्ञान ही आपका सहारा होगा। अतीत का ज्ञान और भविष्य की कामना--वह क्षण चूक गया, जिस क्षण में मरता है कोई तो फिर वापस नहीं आता।

इसलिए अगर मरते क्षण में इतनी भी कामना मन में रही कि हे प्रभु, अब तो उठा लो, अब पुनर्जन्म न हो, तो पुनर्जन्म होगा, क्योंकि यह भी वासना है।

अगर जन्म से भी आप बचना चाहते हैं, तो किसलिए बचना चाहते हैं? इसीलिए कि दुख न हो। तो आप जन्म से नहीं बचना चाहते हैं, सिर्फ दुख से बचना चाहते हैं। और अगर कोई भरोसा दिला दे कि हम बिना दुख का जन्म दे देते हैं, तो आप पहले होंगे कतार में। और भीड़ में बड़ी जल्दी मचाएंगे कि क्यू में मुझे आगे आने दो।

नहीं, मुक्त तो वही होता है, जिसे अगर कोई वायदा करता हो कि जीवन सुख ही सुख की शय्या होगी, फूल ही फूल होंगे जीवन में, फिर भी वह कहता है, होंगे, लेकिन सुख भी नहीं चाहिए। असल में चाह ही नहीं चाहिए। ऐसे काल-क्षण में, जब कोई भी चाह नहीं है, जो शरीर से छूटता है, उसकी यात्रा परमधाम की तरफ हो जाती है।

लेकिन अगर आखिरी क्षण में धर्म की वासना, मोक्ष की वासना, पुनर्जन्म न हो, ऐसी वासना भी बनी रही, तो चाहे कितना ही योग साधा हो, कितने ही आसन किए हों, कितना ही शीर्षासन लगाया हो, कितने ही घंटे सिद्धासन में बैठे हों, चाहे कुछ भी किया हो, कितने ही लाख दफे राम-राम लिखा हो, कोई अंतर नहीं पड़ेगा। फिर वापस लौट आएंगे।

हां, इतना अंतर पड़ेगा कि शायद यह जो शुभ वासना है मोक्ष की, प्रभु-मिलन की, वासना तो वासना ही है, शुभ है। कम से कम धन पाने की नहीं; मोक्ष में ही जाने की है, शुभ है, शुक्ल है वासना, तो शायद अगले जन्म में यह भी संभावना बन जाए कि यह शुक्ल और शुभ वासना को भी छोड़ने की क्षमता आ जाए।

लेकिन ऐसा योगी वापस लौट आएगा। जिसने योग साधा हो किसी वासना से, वह वापस लौट आएगा। क्योंकि वह उस काल-क्षण को उपलब्ध नहीं होता, जहां से वापसी नहीं है।

उन दो प्रकार के मार्गों में से जिस मार्ग में अग्नि है, ज्योति है, दिन है तथा शुक्ल पक्ष है और उत्तरायण के छः माह हैं, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।

दो मार्ग, उत्तरायण और दक्षिणायण, दो मार्गों की चर्चा कृष्ण करेंगे। इस पहले सूत्र में पहले मार्ग की चर्चा है। यह चर्चा अति सूक्ष्म है और इसमें जिन प्रतीकों का प्रयोग हुआ है, उन प्रतीकों के कारण इस सूत्र को गीता के, करीब-करीब नहीं समझा जा सका है। इस सूत्र पर प्रवेश करने के पहले दोत्तीन बातें खयाल में ले लें।

एक तो जितने ही अंतर्जगत की गहन बात हो, उतने ही हमें प्रतीक चुनने पड़ते हैं। बात सीधी नहीं कही जा सकती। बात सीधे कहने का उपाय नहीं है, क्योंकि बात कुछ ऐसी है, और ऐसी मिठास की तरह भीतरी है, और इतनी गहन अनुभव की है कि शब्द में रखते ही हमें प्रतीक चुनने पड़ते हैं। सीधा कहने का उपाय नहीं है। जैसे आपके भीतर जब पहली बार आनंद घटित होगा और आपसे कोई पूछे कि वह आनंद कैसा था, तो आपको कुछ न कुछ प्रतीक खोजने पड़ेंगे, जो बिलकुल अधूरे होंगे, छूते भी नहीं होंगे सत्य को। लेकिन फिर कोई उपाय नहीं है।

तो जब भी कोई अंतर-अनुभव में उतरता है, तो उसे प्रतीक चुनने पड़ते हैं, जो प्रतीक बाहर के जगत से लिए गए हों। उन प्रतीकों के कारण बड़ी कठिनाई होती है। जैसे समस्त योग-शास्त्रों ने, योग-विधियों ने दो तरह के पथ, विशेषकर वैदिक युग ने दो तरह के पथ विभाजित किए हैं, जिनसे मनुष्य की चेतना यात्रा करती है। तो पहले तो हम उन दो पथों का विभाजन समझ लें।

सूर्य जब भूमध्य रेखा के उत्तर में होता है बढ़ता हुआ, तो एक उत्तर का पथ है; और जब सूर्य भूमध्य रेखा से दक्षिण की तरफ नीचे उतरता होता है, तो दूसरा दक्षिण का पथ है।

अगर हम आदमी को भी ठीक पृथ्वी की तरह दो हिस्सों में बांट लें, तो सेक्स सेंटर जो है आदमी का, जो कामवासना का केंद्र है, उसके नीचे का हिस्सा दक्षिण मान लें, और उस केंद्र के ऊपर का हिस्सा उत्तर मान लें, तो मनुष्य के भीतर एक अग्नि है--उसकी मैं बात करूंगा--वही मनुष्य की ऊर्जा है, बायो-एनर्जी, जिसको अब पश्चिम में जीवशास्त्री बायो-एनर्जी कहते हैं, जीव-ऊर्जा कहते हैं, उस जीव-ऊर्जा को भारत ने सदा सूर्य के प्रतीक में समझा है।

क्योंकि समस्त जीव-ऊर्जा सूर्य से ही प्राप्त होती है। अगर फूल खिलता है, पौधे बड़े होते हैं, आदमी के गर्भ का विकास होता है, आदमी बढ़ता है, तो सब सूर्य के कारण। हमारे भीतर जो जीव-ऊर्जा है, वह सूर्य से ही हमें उपलब्ध होती है। इसलिए बहुत उचित है कि उस भीतर की ऊर्जा के लिए भी सूर्य का ही प्रयोग किया जाए, ठीक वैसे ही जैसे तारे के झलकने को हम पानी के डबरे में देखें और दोनों में संबंध जोड़ लें।

आदमी की चेतना में जो भी घटनाएं घटती हैं, वे बहुत गहन रूप से सूर्य से संबंधित हैं। तो मनुष्य को भी हम दो हिस्सों में तोड़ लें; भूमध्य रेखा बना लें, मनुष्य के कामवासना के केंद्र से एक रेखा खींच दें; तो नीचे का हिस्सा दक्षिणपथ होगा, ऊपर का हिस्सा उत्तरपथ होगा।

जब जीव-ऊर्जा दक्षिण की तरफ उतरती रहती है, यानी पैरों की तरफ उतरती रहती है, तब जो मृत्यु घटित होती है, वह एक तरह की मृत्यु है। और जब जीव-ऊर्जा काम-केंद्र से ऊपर की तरफ उठती है और सिर की तरफ प्रवाहित होती है, उत्तरपथ की तरफ, उत्तरायण, तब जो मृत्यु घटित होती है, वह और ही तरह की मृत्यु है। और इन दोनों की यात्राएं अलग हो जाती हैं। जब जीव-ऊर्जा नीचे की तरफ उतरती है, जो कि हमारी समस्त वासनाओं में उतरती है...। इसलिए कामवासना हमारी सबसे केंद्रीय वासना है, क्योंकि सर्वाधिक जीव-ऊर्जा को हमारी कामवासना का केंद्र ही नीचे की तरफ, अधोगमन की तरफ भेजता है।

एक बहुत मजे की बात आपसे कहूं, जब तक आपका चित्त कामवासना से भरा रहता है, तब तक आपके पैर के तलवे सदा गरम रहेंगे। लेकिन जैसे ही आपकी काम ऊर्जा काम-केंद्र से नीचे की तरफ न बहकर, ऊपर की तरफ बहने लगेगी, ऊर्ध्वमुखी होगी, वैसे ही आपके पैर ठंडे होने शुरू हो जाएंगे। और आपका सिर गरम होना शुरू हो जाएगा। 

बहुत पुराने दिनों से गुरु के चरणों में सिर रखने का बहुत महत्वपूर्ण उपयोग था। वह डायग्नोसिस थी, जैसे कि चिकित्सक नाड़ी पर किसी के हाथ रख ले। गुरु के चरणों में सिर रखकर शिष्य पहचान लेता था कि अभी उत्तरायण यह व्यक्ति हुआ या नहीं! और गुरु अपना हाथ उसके सिर पर रखकर पहचान लेता था कि दक्षिणायण कहां तक हो! यह बहुत चुपचाप हो गया निदान था। इसके लिए बातचीत भी नहीं करनी पड़ती थी, यह चुपचाप हो जाता था। और मन ही मन बात समझ ली जाती थी और हिसाब हो जाते थे कि क्या करना है, क्या नहीं करना है।

और एक दफा शिष्य ठीक से पहचान लेता था गुरु के चरणों में सिर रखकर, तो फिर वह पता नहीं लगाता फिरता था कि गुरु का चरित्र कैसा है, कैसा नहीं है। उसका कोई प्रयोजन नहीं था। वह पैरों ने सब उसे कह दिया। और एक दफा गुरु पहचान लेता था सिर पर हाथ रखकर, तो फिर वह नहीं पूछता था कि तुम क्या कर रहे हो, क्या नहीं कर रहे हो; क्योंकि वह जानता था कि तुम क्या कर रहे हो, क्या हो रहा है भीतर।

इसीलिए चिकित्सक तो कहेंगे कि यह आदमी बीमार है। अगर पैर ठंडा हो, तो चिकित्सक तो कहेगा कि यह आदमी बीमार है। खतरा तो है ही! खतरा इसलिए है कि इसकी जीव-ऊर्जा अब शरीर के बाहर निकलने के करीब है, यह मर सकता है।

बायोलाजिकली, जीवशास्त्र के हिसाब से पैरों का ठंडा होना स्वास्थ्यप्रद नहीं है। वह स्वास्थ्य में खराबी का सूचक है। ठीक भी है, क्योंकि अगर शरीर को जिलाना है, तो शरीर तभी तक ठीक से जीता है, जब तक शरीर की वासना नीचे की तरफ बहती हो। जैसे ही वासना ऊपर की तरफ बहने लगती है, वैसे ही शरीर का कोई प्रयोजन नहीं रह गया।

लेकिन इससे आप यह मत समझ लेना कि अगर आपके पैर ठंडे हों, तो आपकी ऊर्जा ऊपर बह रही है। पहले तो चिकित्सक से पूछना। सौ में निन्यानबे मौके तो यह होंगे कि आप सिर्फ बीमार हैं। तो जब मैं कहता हूं कि ज्ञानी के पैर ठंडे हो जाते हैं, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जिनके ठंडे हो जाते हैं, वे ज्ञानी हैं।  विपरीत ठीक नहीं है।

और सिर्फ इस ऊर्जा को सिर की तरफ प्रवाहित करने के लिए शीर्षासन का इतना गहरा प्रयोग किया गया, और कोई प्रयोग का मूल्य नहीं है। इसलिए जो बहुत कामातुर हैं, अगर वे शीर्षासन करें, तो उन्हें थोड़ा लाभ होगा, क्योंकि उनकी थोड़ी-सी ऊर्जा सिर की तरफ बहनी शुरू हो जाती है। इसलिए कामवासना से पीड़ित व्यक्ति को शीर्षासन लाभ पहुंचा सकता है। लेकिन क्षणिक ही, क्योंकि कितनी देर सिर के बल खड़े रहिएगा! आखिर पैर के बल खड़े होंगे, ऊर्जा फिर बहनी शुरू हो जाएगी।

पहला तो विभाजन यह समझ लें कि काम-केंद्र से नीचे की तरफ बहती ऊर्जा, दक्षिणपथ है आपके भीतर के सूर्य का। और अगर मरते क्षण में भी आपकी ऊर्जा पैरों की तरफ बह रही हो काम-केंद्र से, तो फिर आप पुनर्जन्म से मुक्त नहीं हो सकते। लेकिन अगर ऊर्जा आपकी ऊपर बह रही हो, ऊर्ध्वमुखी हो, तो आप मुक्त हो सकते हैं।

इसलिए उत्तरायण के छः माह, इसका प्रतीक अर्थ आप समझ लेना। उत्तरायण के छः माह अर्थात आपके जीवन का जो आधा हिस्सा है आपकी देह का, उसकी ओर इशारा है। इसका इशारा एक और भी है कि आदमी अगर सत्तर साल जीता है या सौ साल जीता है, अगर सौ साल जीता है, तो पचास साल समय में हम रेखा खींच लें। तो पचास साल तक माना जा सकता है कि उसकी ऊर्जा नीचे की तरफ बहती रहे। लेकिन आने वाले पचास साल में भी अगर नीचे की तरफ बहे, तो वह आदमी आत्मघाती है, वह अपने जीवन को व्यर्थ कर रहा है; उत्तरायण उसके जीवन का शुरू हो जाना चाहिए।

इसलिए हमने जो आश्रम बांटे थे चार, पचास के साथ उत्तरायण शुरू होता था। पचासवें वर्ष में व्यक्ति को वानप्रस्थ हो जाना चाहिए। पच्चीस साल घर में ही रहे, लेकिन ऊर्जा को अब ऊपर ले जाने में संलग्न हो। और जिस दिन पचहत्तर साल की उम्र में वह पाए कि अब ऊर्जा ऊपर जाने में समर्थ हो गई, तब वह घर छोड़ दे और अब समग्र रूप से ऊर्ध्वगामी हो जाए, वह संन्यस्त हो जाए।

अगर आज हम ऐसा समझें कि सत्तर साल उम्र है, तो पैंतीस साल के बाद काम ऊर्जा, जीवन ऊर्जा को उत्तरायण पर जाना चाहिए। अगर पैंतीस साल में आपकी काम ऊर्जा का उत्तरायण शुरू नहीं होता, तो मरते वक्त तक आप उत्तरायण में पहुंच नहीं पाएंगे, दक्षिणायण में ही मृत्यु होगी।

यह दूसरा विभाजन समझ लें। और इसके बाद एक-एक प्रतीक को समझ लें। उन प्रतीकों से भी बड़ी भूल हुई।

उन दो प्रकार के मार्गों में, जिस मार्ग में अग्नि है, ज्योति है, दिन है, तथा शुक्ल पक्ष है और उत्तरायण का अर्ध वर्ष है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता पुरुष ब्रह्म को उपलब्ध होते हैं।

अग्नि, ज्योति, दिन और शुक्ल पक्ष चार शब्दों का प्रयोग किया है। न अग्नि से मतलब है, न ज्योति से, न दिन से, न शुक्ल पक्ष से, फिर भी मतलब है, क्योंकि वे प्रतीक आपको क्रमशः कुछ समझाने में सहयोगी होंगे।

अग्नि में ईंधन भी होगा, अग्नि भी होगी, लेकिन उत्ताप भी होगा। ज्योति में ईंधन नहीं--यह प्रतीक है--ईंधन नहीं, धुआं नहीं, उत्ताप भी कम हो जाएगा। अग्नि केआटिक होती है, उसकी लपटें कहीं भी दौड़ती रहती हैं। ज्योति में लपट थिर हो जाएगी और एक बन जाएगी। अग्नि अनेक लपटों वाली होगी, ज्योति एक लपट वाली होगी और एक यात्रा पर संलग्न हो जाएगी।

दिन! दिन और भी उदार हो गया। अब लपट भी नहीं है, केवल प्रकाश है। अगर दिन को ठीक पहचानना हो, तो उस समय को दिन समझें, जब सुबह रात जा चुकी होती है और सूरज नहीं निकला होता है, तब जो आलोक फैला होता है चारों ओर, वही दिन है। फिर तो सूरज आ जाता है, तो सूरज के आने से गहन अग्नि का प्रभाव शुरू हो जाता है, उत्ताप शुरू हो जाता है। सुबह जब भोर के समय में जब रात जा चुकी और दिन, सूर्य वाला दिन अभी नहीं आया, तो बीच में जो एक संध्या का क्षण है, जब सिर्फ प्रकाश होता है, जिस प्रकाश में उत्ताप नहीं होता, वही दिवस है, वही दिन है।

ज्योति में ताप तो होगा ही, दिन में ताप भी खो जाता है। वह भी प्रकाश का ही एक रूप है, लेकिन क्रमशः प्रकाश जो है नान-वायलेंट होता चला जाता है, अहिंसक होता चला जाता है। लेकिन उसमें भी पूरी शीतलता नहीं होती, क्योंकि सूरज कहीं निकट ही छिपा होता है और जल्दी ही आने के करीब होता है। सच तो यह है कि वह होता ही इसलिए है कि सूरज आ चुका होता है क्षितिज के बिलकुल निकट; प्रकट नहीं हुआ होता, लेकिन उसकी मौजूदगी इतने निकट होती है, इसलिए प्रकाश फैल जाता है। तो कहीं थोड़ा-सा ताप तो उसमें छिपा ही होगा। वह ताप भी चला जाए, तो फिर शुक्ल पक्ष, जैसी कि चांद की रात होती है। सूरज बहुत दूर है, गर्मी का कोई सवाल नहीं। अब प्रकाश भी है और परम शीतल भी।

जो व्यक्ति अपनी ऊर्जा को काम-केंद्र से ऊपर की तरफ यात्रा पर ले जाता है, तो पहला अनुभव उसे अग्नि का होता है। जो व्यक्ति अपनी सेक्स एनर्जी को बायो-एनर्जी को ऊपर की तरफ ले जाता है, पहला अनुभव अग्नि का होता है। वह अनुभव, जस्ट लाइक फायर, बहुत उत्ताप का होता है। काम-केंद्र बिलकुल जल उठता है, लपटें भर जाती हैं। लेकिन अगर वह साहस रखे और जल्दी न करे, और इन लपटों से मुक्त न होना चाहे, क्योंकि मुक्त होने का वह एक ही रास्ता जानता है कि इनको बहिर्गमन कर दे, इनको नीचे की यात्रा पर चला जाने दे।

तो पश्चिम में जहां कामवासना के संबंध में कम से कम समझ है और ज्यादा से ज्यादा आकर्षण है, वहां वे समझते हैं कि कामवासना का उपयोग वैसा ही है, जैसे कि कोई आदमी छींक का उपयोग करता है। बस, इससे ज्यादा नहीं। समथिंग लाइक ए रिलीफ। कुछ भीतर बेचैनी है, उसको फेंक देना है बाहर, छुटकारा हो। काम ऊर्जा का कोई विधायक अर्थ भी हो सकता है, काम ऊर्जा रूपांतरित हो सकती है, या काम ऊर्जा परम अनुभव की तरफ ले जा सकती है, इसकी पश्चिम में कोई दृष्टि नहीं है।

पूरब में भी वह बात फैलती चली जाती है। लोग कामवासना को भी ऐसा ही समझते हैं कि जैसे शरीर से और मल फेंक देने हैं, वैसे ही कामवासना भी शरीर की शुद्धि का एक उपाय है। शरीर के हल्के कर लेने का, तनाव को विसर्जित कर देने का; एक रिलीफ, छींक जैसे आ जाए, बस ऐसे।

अगर जल्दी न की और काम-केंद्र पर जब शक्ति ज्यादा इकट्ठी होती है, तो अग्नि बढ़नी शुरू होती है, क्योंकि ऊर्जा जो काम-केंद्र पर इकट्ठी होती है, वह बहुत संक्षिप्त रूप में सूर्य से ही उपलब्ध हुई है। और एक छोटा-सा सूर्य सेक्स सेंटर पर निर्मित हो जाता है, एक बहुत छोटा बिंदु गहन अग्नि का। अगर जल्दी की, तो वह नीचे बिखर जाता है। अगर जल्दी न की, उसे सहने की हिम्मत रखी, और राजी रहे कि जो कुछ भी हो, लेकिन यात्रा ऊपर की ही करनी है और इस ऊर्जा को ऊपर ही ले जाना है, और ऊपर, और ऊपर, तो बहुत शीघ्र वह जो सूर्य की तरह गोल बिंदु था, एक लपट बन जाता है। वह जो अग्नि थी, वह एक लपट बन जाती है, एक ज्योति, जैसे दीए की ज्योति ऊपर की तरफ भागती हो, वैसी ज्योति बन जाती है। इस ज्योति के बनते ही परम आनंद अनुभव होता है, क्योंकि ताप कम हो जाता है। दहकता अंगारा पिघल जाता है और ज्योति बन जाता है।

लेकिन इस ज्योति में भी ताप तो है ही, इस ज्योति में भी हलन-चलन तो है ही, मूवमेंट तो है ही, चंचलता तो है ही। और कोई भी हवा का झोंका, वासना का तीव्र झोंका हो, तो इस ज्योति को भी नीचे ले जा सकता है। अगर और संयम रखा और धैर्य रखा, तो यह ज्योति दिन की तरह हो जाती है। जैसे सुबह सूरज नहीं निकला, रात जा चुकी, तारे छिप गए और आकाश में भी सूरज का कोई पता नहीं, और दिग-दिगंत सिर्फ सुबह के प्रकाश से भर गए हों, बहुत आलोक से। जरा भी उत्ताप नहीं। यह लपट बहुत शीघ्र ही जैसे और ऊपर उठती है, आलोक बन जाती है।

लेकिन अभी फिर भी इसमें लपट का थोड़ा-सा हिस्सा है। ज्योति ही बिखरकर बनती है आलोक, तो ज्योति के कण इसमें मौजूद होते हैं। इसमें थोड़ा उत्ताप अभी भी है। बहुत न्यून, लेकिन अभी भी। हम इतना ही कह सकते हैं कि इसमें उत्ताप नहीं है, निगेटिवली। अभी यह नहीं कह सकते कि यह शीतल हो गया है। अभी रूपांतरण पूरा नहीं हुआ। रूपांतरण तो तब पूरा होता है, जब हम और धैर्य रखते हैं।

और ध्यान रहे, इस तीसरे क्षण में धैर्य की सर्वाधिक जरूरत पड़ती है साधक को। अग्नि को सह लेना उतना कठिन नहीं है। इसलिए कठिन नहीं है कि पीड़ा तो बहुत होती है अग्नि में, लेकिन अग्नि से ऊब पैदा नहीं होती। उसमें बड़ी उत्तेजना है। उत्तेजना के साथ हम जी सकते हैं ज्यादा। लपट के साथ, ज्योति के साथ भी जी लेना बहुत कठिन नहीं है। उसमें भी चंचलता होगी। और चंचलता में मन ज्यादा जी लेता है, क्योंकि बदलाहट बनी रहती है। लेकिन जब दिवस होता है, तीसरी घड़ी आती है और दिन के जैसा प्रकाश रह जाता है, तो बहुत बोर्डम पैदा होती है। इसलिए इस तीसरी अवस्था में अक्सर साधक एकदम उदास हो जाता है, उदासीन हो जाता है, सब तेजस्विता खो जाती है।

अग्नि के क्षण में साधक बहुत तेजस्वी मालूम पड़ता है, अंगार जैसा मालूम पड़ता है। ज्योति के समय वह तेजस्विता कम होती, लेकिन फिर भी उत्तप्ता होती है, ज्योति होती है। लेकिन तीसरे क्षण में ज्योति भी खो जाती है और एक गहन उदासी भी पकड़ ले सकती है। ऊब भी पकड़ती है, क्योंकि कुछ बदलाहट नहीं होती, कहीं कोई कंपन भी नहीं होता, सिर्फ खाली प्रकाश रह जाता है। इस समय धैर्य की बहुत जरूरत है।

धैर्य की जरूरत सदा ही अंतिम क्षणों में ज्यादा होती है, क्योंकि मन उसी वक्त ज्यादा बेचैन करता है। अभी भी वापस लौटा जा सकता है, क्योंकि ताप अभी भी मौजूद है, जो फिर से सेक्स एनर्जी बन सकता है। जब तक ताप है, जब तक हीट है...।

इसलिए हम जानवरों को तो कहते हैं जब वे कामवासना से भरे होते हैं, तो हम कहते हैं, ऑन हीट। आदमी भी जब कामवासना में भरा होता है, तो ऑन हीट, तप्त होता है।

तो जब आप कामवासना से भरते हैं, तो पूरा शरीर तप्त हो जाता है। सारा शरीर ईंधन बन जाता है। पसीना आ जाता है, हृदय की धड़कनें बढ़ जाती हैं। श्वास गरम हो जाती है, शरीर से बदबू निकलनी शुरू हो जाती है। सब भीतर आग पर जाता है।

अभी भी, दिन से भी वापस गिरा जा सकता है, क्योंकि ताप अभी भी बिखर गया है, लेकिन मौजूद है; डिफ्यूज्ड है, लेकिन है; अभी फिर से इकट्ठा होकर वापस लौट सकता है। अगर अभी भी धैर्य रखा, शांति रखी और साधना ऊर्ध्वगमन की जारी रखी, तो अंतिम घटना घटती है। वह ऐसा हो जाता है भीतर प्रकाश, जैसा शुक्ल पक्ष में होता है।

लेकिन शुक्ल पक्ष क्यों कहा? पूर्णिमा ही कह देते। पूरे पक्ष को कहने की क्या जरूरत पड़ी?

पड़ी, क्योंकि पहले दिन एकम के चांद जैसी ही घटना घटती है। और जैसे चांद पंद्रह दिनों में पूरा होता है, ऐसे ही पंद्रह स्टेजेज में यह चौथी घटना पूरी होती है। और जिस दिन पूर्णिमा हो जाती है भीतर, पूरे चांद की रात जैसी शीतलता हो जाती है। उस क्षण में अगर मृत्यु हो जाए, तो बुद्धत्व प्राप्त होता है, तो ब्रह्म की उपलब्धि होती है।


इस चौथी अवस्था के ठीक वैसे ही पंद्रह टुकड़े किए जा सकते हैं, जैसे बढ़ते हुए चांद के होते हैं। और जब कोई व्यक्ति पूर्णिमा की स्थिति में गुजरता है, पूर्णिमा की स्थिति में विदा होता है इस पृथ्वी से, तो उसके लौटने का कोई उपाय नहीं होता। और उत्तरायण के छः माह, वे ही उत्तरायण के छः माह हैं।

इसे एक तरफ से और खयाल में ले लें, क्योंकि ये प्रतीक जटिल हैं, और बहुसूची हैं, और बहुअर्थी हैं।

मनुष्य के सात चक्र हैं। अगर हम काम-केंद्र को, सेक्स सेंटर को एक पहला चक्र मान लें, तो बाकी फिर छः चक्र और रह जाते हैं। सेक्स सेंटर को, मैंने कहा, हम भूमध्य रेखा मान लें, तो उसको चक्र गिनने की जरूरत नहीं। फिर छः चक्र रह जाते हैं, वे छः माह हैं। ठीक वैसे ही छः चक्र काम सेंटर के नीचे भी होते हैं, लेकिन उनकी चर्चा ज्ञानियों ने नहीं की, क्योंकि उनका कोई प्रयोजन नहीं है। तो अगर हम इन छः की संख्या को ध्यान में रखें, तो भी उत्तरायण के छः माह हमारे खयाल में आ जाएगा।

यदि ऐसी घटना घटे--और ऐसी घटना घटती है--जब भीतर पूर्णिमा की स्थिति आ जाती है चार अग्नि की यात्राओं को पार करके, ठीक उसी समय छः माह को पार करके सहस्रार पर, छः चक्रों को पार करके सहस्रार पर भी चेतना पहुंच जाती है।

सहस्रार पर हो चेतना और पूर्णिमा जैसा प्रकाश हो, तो ब्रह्म की उपलब्धि होती है। उस क्षण में मर जाने से ज्यादा बड़ा सौभाग्य और कोई भी नहीं है। उस क्षण में जीना भी सौभाग्य है, उस क्षण में मरना भी सौभाग्य है। उस क्षण में कुछ भी घटित हो, तो सौभाग्य है। यह भी जान लें कि वहां से वापसी नहीं है। ब्रह्म से नहीं, ब्रह्म से तो वापसी नहीं है; इस अवस्था से भी वापसी नहीं है।

इस क्षण में दक्षिणायण उत्तरायण; और अग्नि बन गई हो पूर्णिमा का प्रकाश, जब इन दोनों का मिलन होता है, उसी क्षण पीछे लौटना असंभव है, वह प्वाइंट आफ नो रिटर्न है। वह जगह आ गई जहां से वापस नहीं हुआ जा सकता, जिसके आगे नहीं जाया जा सकता और आगे ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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