शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 9 भाग 4

 विराट की अभीप्‍सा

मयाध्‍यक्षेण प्रकृति: सूयतेसचाराचरम्।

हेतुनानेन कौन्तेय जगद्धइयीश्वर्त्से।। 10।।।

अवजानीन्त मां मूढ़ा मानुषी तनुमख्सिम् ।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।। 11।।

मोघाशा मोघकर्माणो मोख्ताना विचेतस:।

राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मौहिनौं श्रिता:।। 12।।


और हे अर्जुन मुझ अधिष्ठता की उपस्थिति मात्र से यह मेरी प्रकृति अर्थात माया चराचर— सहित सर्व जगत को रचती है और इस ऊपर कहे हुए हेतु से ही यह जगत बनता—बिखरता रहता है।

ऐसा होने पर भी संपूर्ण भूतों के महान ईश्वर रूप मेरे परम भाव को न जानने वाले मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ परमात्‍मा को तुच्‍छ समझते है। जो कि वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञान वाले अज्ञानीजन राक्षसों के और असुरों के जैसे मोहित करने वाली प्रकृति अर्थात तामसी स्वभाव को ही धारण किए हुए हैं।


 इस सूत्र में बहुत—सी बातें कही गई हैं महत्वपूर्ण, विचार के लिए भी, साधना के लिए भी, गहरी और ऊंची भी। पहली बात। परमात्मा जगत का सृजन करता हो, तो कैसे करता होगा? क्या वैसे ही, जैसे कुम्हार अपने चके पर बर्तन रचता है? या वैसे, जैसे मूर्तिकार अपनी छेनी से पत्थर को काटता और मूर्ति को रचता है? या वैसे ,. जैसे एक कवि शब्दों की संयोजना करता और गीत को रचता है? परमात्मा का सृजन किस विधि का है?

इस सूत्र में एक बहुत गहरी बात कही गई है। और जो लोग विज्ञान को थोड़ा समझते हैं, उन्हें समझनी बहुत आसान हो जाएगी। क्योंकि विज्ञान मानता है कि कुछ ऐसा सृजन भी है, जब करने वाला कुछ भी नहीं करता, केवल उसकी मौजूदगी ही सृजन हो जाती है। विज्ञान उसे कैटेलिटिक एजेंट कहता है। उसके बिना घटना नहीं घटती; उसकी मौजूदगी से ही घटना घट जाती है, वह स्वयं कुछ करता नहीं।

जैसे अगर हाइड्रोजन और आक्सीजन को हम मिलाएं, तो पानी नहीं बनेगा, यद्यपि पानी को हम तोड़े, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता है। अगर हम पानी को तोड़े, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलते हैं, लेकिन हाइड्रोजन और आक्सीजन को साथ रख दें, तो पानी नहीं बनता। यह बड़ी अजीब बात है! क्योंकि पानी को तोड्ने पर हाइड्रोजन और आक्सीजन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता, इसलिए स्वभावत: हाइड्रोजन और आक्सीजन के मिलने से पानी बन जाना चाहिए।

लेकिन एक चीज खो रही है, एक मिसिंग लिंक है। हाइड्रोजन और आक्सीजन तब तक नहीं मिलते, जब तक बिजली मौजूद न हो। अगर विद्युत मौजूद हो, तो आक्सीजन और हाइड्रोजन मिल जाते हैं और पानी बन जाता है।

और मजे की बात यह है कि बिजली मौजूदगी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं करती, वह पानी में सम्मिलित नहीं होती। अगर सम्मिलित होती, तो जब हम पानी को तोड़ते, तो बिजली भी मिलनी चाहिए। लेकिन पानी को तोड्ने पर हाइड्रोजन और आक्सीजन ही मिलते हैं। अगर बिजली मौजूद न हो, तो भी घटना नहीं घटती। बिजली मौजूद हो, तो बिजली प्रवेश नहीं करती, लेकिन उसकी मौजूदगी से ही घटना घट जाती है। जस्ट प्रेजेंस। मौजूदगी प्रविष्ट हो जाती है, बिजली प्रविष्ट नहीं होती।

इसे थोड़ा समझ लें। और मौजूदगी को तो तोड़कर पाया नहीं जा सकता। जब हम पानी को तोड़ेंगे, तो बिजली मौजूद थी पानी बनते वक्त, उसकी मौजूदगी को हम पानी से नहीं निकाल सकते हैं। परमात्मा की मौजूदगी से जगत रचता है, कृष्ण यह कह रहे हैं। वह यह कह रहे हैं कि मैं कैटेलिटिक एजेंट हूं। मैं बनाता नहीं, मेरा होना ही सृजन का सूत्रपात है।

यह बहुत गहरी बात है। और होना भी यही चाहिए। क्योंकि परमात्मा को भी अगर घड़े की तरह निर्माण करना पडे जगत को, तो कुम्हार से बड़ी उसकी हैसियत नहीं है फिर। अगर उसे भी कार्य में संलग्न होना पड़े, तो उसका मतलब यह हुआ कि जिस पर वह काम कर रहा है, उस पर उसकी पूरी मालकियत नहीं है। पूरी मालकियत का मतलब यह होता है कि इशारा भी न करना पड़े और काम हो जाए। मौजूदगी काफी होनी चाहिए।

अगर पिता अपने घर वापस लौटे और बेटे की तरफ आंख से इशारा करना पड़े कि मेरे पैर छु मैं तेरा पिता हूं मेरा आदर कर; तो वह पिता नहीं रहा। उसकी मौजूदगी ही आदर बन जानी चाहिए। वह मौजूद है, तो आदर हो जाना चाहिए।

एक शिक्षक अपने वर्ग में आए और ठोंककर टेबल पर विद्यार्थियों को शांत करे, तो उसका अर्थ यह है कि वह शिक्षक है ही नहीं। उसका कमरे में प्रवेश ही शांति हो जानी चाहिए। उसकी मौजूदगी काफी होनी चाहिए।

जब भी कोई गुरु होता है, तो सम्मान जरूर होता है।  क्योंकि गुरु का मतलब ही यह होता है कि वह मौजूद है, तो सम्मान की घटना घटती ही है, उसे घटाना नहीं पड़ता। उसके लिए आयोजन नहीं करना पड़ता। गुरु की परिभाषा ही यह होनी चाहिए कि जिसकी मौजूदगी में आदर उत्पन्न हो। अगर गुरु को भी आदर उत्पन्न करना पड़े, तो वह आदमी गुरु तो नहीं है, और कुछ भी होगा। क्योंकि जो उत्पन्न करना पड़े, वह कृत्रिम हो जाता है।

कृष्ण कहते हैं, मेरी मौजूदगी में रचना का सिलसिला शुरू होता है। मैं बनाता भी नहीं, यह मेरा कृत्य नहीं है, यह मेरी उपस्थिति मात्र, मेरे मौजूद होते ही जीवन चल पड़ता है।

सुबह सूरज निकलता है, फूल खिल जाते हैं। ऐसा सूरज एक—एक फूल पर आकर फूल को खिलाता नहीं है। बस, उसकी मौजूदगी! पक्षी गीत गाने लगते हैं। अब सूरज एक—एक पक्षी की गर्दन पकड़कर गीत गवाता नहीं है। बस, उसकी मौजूदगी! नींद टूट जाती है, आंखें खुल जाती हैं, जागरण फैल जाता है। सूरज किसी के द्वार पर आकर खटखटाता नहीं, कि उठो! बस, उसकी मौजूदगी।

लेकिन इससे भी गहरी बात है, कैटेलिटिक एजेंट। सूरज की तो किरणें आती हैं। नहीं दरवाजा खटखटाती होंगी, फिर भी किसी सूक्ष्म तल पर दरवाजा खटखटाती हैं। और नहीं एक—एक कली को सूरज पकड़कर खोलता है, फिर भी उसकी किरणें आकर एक—एक कली को सहलाती हैं। और न ही पक्षियों की गर्दन दबाता है कि गीत गाओ, फिर भी उसकी किरणें कोई गहरा संस्पर्श देती हैं और पक्षी के कंठ से गीत फूट पड़ता है। न ही, आपको झकझोरता नहीं है कि उठो! लेकिन फिर भी किसी गहरे रासायनिक तल पर उसकी किरणों की मौजूदगी हवा में आक्सीजन को बढ़ा देती है, और आक्सीजन का बढ़ जाना आपके भीतर एक झकझोर ले आता है और आपको उठ जाना पड़ता है।

कैटेलिटिक एजेंट और भी सूक्ष्म बात है। इतना भी नहीं करता। बस, सिर्फ मौजूद होता है। सिर्फ मौजूदगी ही काम करती है;. रासायनिक प्रवेश नहीं होता। इसलिए हम पीछे, जो निर्माण है अगर उसे तोड़े, तो जिसकी मौजूदगी में हुआ था, उसे हम कभी भी न खोज पाएंगे।

इसलिए जगत को हम कितना ही खोजें, हम परमात्मा को न खोज पाएंगे। इसलिए विज्ञान ठीक कहता है कि हम बहुत खोजते हैं, लेकिन परमात्मा मिलता नहीं। और जब तक न मिले, तब तक विज्ञान माने भी कैसे! उसकी बात भी ठीक है। क्योंकि हम हर चीज को खोज लेते हैं, परमात्मा कहीं मिलता नहीं। और अगर यह उसका सृजन है, तो कहीं न कहीं उसकी सृष्टि में उसको मिलना ही चाहिए। लेकिन अगर कृष्ण का यह सूत्र याद रखा जाए, तो विज्ञान अधैर्य नहीं दिखाएगा। क्योंकि विज्ञान भलीभांति जानता है कि कैटेलिटिक एजेंट भी होते हैं, और उनकी मौजूदगी से घटनाएं घटती हैं। फिर घटी हुए घटना को तोड़ने से कैटेलिटिक एजेंट को नहीं पाया जा सकता।

तो क्रिएटर की तरह नहीं, स्रष्टा की तरह नहीं, उपस्थिति मात्र काम करती हो, ऐसे कैटेलिटिक एजेंट की तरह मैं इस जगत को निर्मित करता हूं।

यदि यह ठीक है, तो विज्ञान उसी दिन परमात्मा को अनुभव कर पाएगा, जिस दिन विज्ञान सृजन की प्रक्रिया में मौजूद हो, सृष्टि से उसे कभी खोजा नहीं जा सकता।

ध्यान रखें, यह और थोड़ा गहरे जाने की जरूरत पड़ेगी। सृष्टि का अर्थ है, जो बन गई चीज। तो बन गई चीज से उसे कभी नहीं खोजा जा सकता, क्योंकि उसकी उपस्थिति से बनी है। उसके हाथ की कोई छाप नहीं है उस पर। उसके हस्ताक्षर नहीं हैं। तो हम कितने ही  जासूस लगाएं, कहीं कोई छाप उसकी मिलती नहीं है। फूल खिलता है, उसकी कोई छाप मिलती नहीं। पहाड़ बनते हैं, मिट जाते हैं, उसकी कोई छाप मिलती नहीं। चांद—तारे जन्मते हैं, खो जाते हैं, उसकी कोई छाप मिलती नहीं। जो चीज बन गई है, उसमें उसकी छाप नहीं मिलेगी।

इसलिए विज्ञान असमर्थ मालूम पड़ता है। वह करीब—करीब से गुजर जाता है और परमात्मा की कोई झलक नहीं मिलती। और जब तक स्पष्ट प्रमाण न मिलें, तब तक विज्ञान की अपनी मजबूरी है, वह स्वीकार नहीं कर सकता।

परमात्मा की झलक किसको मिलती है? परमात्मा की झलक उसको मिलती है, जो सृष्टि में खोजने नहीं जाता, बल्कि सृजन की प्रक्रिया में मौजूद होता है।

इसलिए बहुत मजे की बात है कि कभी किसी कवि को झलक मिल जाती है उसकी; वैज्ञानिक को नहीं मिल पाती। कभी किसी मूर्तिकार को भी उसकी झलक मिल जाती है। कभी किसी नृत्यकार को भी उसकी झलक मिल जाती है। ध्यानी को सदा उसकी झलक मिलती रही है। ये सारे के सारे लोग सृजन की प्रक्रिया में मौजूद होते हैं।

 कभी आपने खयाल किया हो, जब कोई स्त्री पहली दफा गर्भवती होती है, तो उसके सौंदर्य में शरीर के पार की कोई चीज उतरनी शुरू हो जाती है! असल में मां बने बिना स्त्री सौंदर्य के पूरे निखार को कभी उपलब्ध नहीं होती है। जब उसके भीतर कोई जन्म हो रहा होता है, कोई सृजन हो रहा होता है, तब उसके आस—पास परमात्मा की छबि और मौजूदगी अनिवार्य है।

अगर स्त्रियां इस सत्य को जान लें कि जब उनके भीतर कुछ निर्मित हो रहा है, तब वे परमात्मा के अति निकट होती हैं, अगर वे क्षण उनके ध्यानपूर्ण हो जाएं, तो एक स्त्री को अलग से साधना करने की कोई भी जरूरत नहीं है। उसका मां होना ही उसकी साधना हो जा सकती है।

पुरुष इस लिहाज से वंचित है, स्त्री इस लिहाज से बहुत गरिमा युक्त है। क्योंकि पुरुष के भीतर कुछ भी निर्माण नहीं होता, सृजन नहीं होता, स्त्री के भीतर कुछ सृजन होता है। स्त्री के भीतर सृजन की प्रक्रिया गुजरती है। और छोटा—मोटा सृजन नहीं होता। एक फूल जब खिलता है पौधे पर, तो सारा पौधा सुंदर हो जाता है। क्यों? क्योंकि फूल का सृजन हुआ। लेकिन जब जीवन का श्रेष्ठतम फूल, मनुष्य, किसी स्त्री के भीतर निर्मित होता है, तो स्वभावत: उसका सारा व्यक्तित्व एक अनोखे सौंदर्य से भर जाता है। उस क्षण परमात्‍मा बहुत निकट है।

इसलिए मातृत्व एक गहरी धार्मिकता है। इसलिए जिस दिन स्त्री मां नहीं होना चाहेगी, उस दिन स्त्री का धार्मिक होना असंभव हो जाएगा।

मैंने कहा कि स्त्री को यह सुलभ है कि उसके भीतर सृजन की प्रक्रिया घटती है। जैसे इस पूरे जगत के गर्भ में किसी दिन सारे चांद—तारे पैदा हुए, एक बहुत छोटे—से रूप में स्त्री के भीतर जीवन पुन: निर्मित होता है; बार—बार निर्मित होता है।

यह उसका गौरव भी है, यह उसकी दुविधा भी है। क्योंकि इसी कारण स्त्री कुछ और सृजन नहीं कर पाती। स्त्री कोई अच्छे गीत नहीं निर्मित कर पाई। उसने कोई अच्छी मूर्तियां नहीं बनाईं। स्त्री के नाम पर कोई बड़ी कला नहीं है। स्त्री किसी धर्म को जन्म नहीं दे पाई। स्त्री ने कोई भी ऐसा अनूठा काम किया हो सृजन का? वह नहीं किया। उसका कुल कारण इतना है कि उसके भीतर सृजन की इतनी बड़ी घटना घटती है कि उसे बाहर सृजन का खयाल नहीं आता है। यह दुर्भाग्य भी है। अगर भीतर की सृजन की घटना में ईश्वर का अनुभव न हो पाए और बाहर सृजन की क्षमता टूट जाए, तो यह दुर्भाग्य भी है।

पुरुष ने बहुत कुछ सृजन किया है। मनसविद कहते हैं, पुरुष कमी अनुभव करता है भीतर, इसलिए बाहर से पूर्ति करता है सृजन करके। इसलिए जब एक माइकलएंजलो एक चित्र निर्मित कर लेता है, जब एक मोजार्ट एक गीत की तरंग, एक संगीत की लय तय कर लेता है, या तानसेन जब एक राग को जन्म दे देता है, या जब एक महावीर एक जीवन के नए आयाम को पैदा कर देते हैं, या जब एक बुद्ध एक नया द्वार खोल देते हैं, तब इन्हें जो प्रतीति और जो तृप्ति होती है, वह प्रतीति और तृप्ति सृजन की है।

ध्यान रहे, जहां भी सृजन की क्षमता है, वहां परमात्मा का अनुभव आसान है। इसलिए नान—क्रिएटिव, असृजनात्मक लोग परमात्मा को कभी अनुभव नहीं कर पाते।

लेकिन बड़ी हैरानी की बात है। अनेक लोग हैं, जो परमात्मा की खोज में जाते हैं और बिलकुल गैर—सृजनात्मक हो जाते हैं। हमारे मुल्क में तो बहुत लोग हैं। हमारे मुल्क में तो कुछ ऐसा है कि जो व्यक्ति परमात्मा की खोज में जाता है, उसका सृजन से कोई संबंध ही नहीं रह जाता।

और ध्यान रहे, सृजन निकटतम है, जहां से उसकी प्रतीति हो सकती है। इसलिए अगर एक साधु सृजन छोड्कर और मुर्दे की भांति जीने लगता है, तो उसे परमात्मा का अनुभव नहीं हो पाएगा,

कठिन हो जाएगा। क्योंकि सृजन की घड़ी में परमात्मा की मौजूदगी अनिवार्य है। उसकी मौजूदगी के बिना कहीं भी सृजन नहीं होता। वह कैटेलिटिक एजेंट है। जहां भी कुछ पैदा होगा, वह सदा मौजूद होता है। उसके बिना पैदा ही नहीं होता। और जहां भी विध्वंस होगा, वहा वह सर्वाधिक दूर होता है।

ध्यान रहे, जितना सृजनात्मक क्षण हो, उसकी निकटता होती है। जितने विध्वंस का क्षण हो, उससे उतनी ही ज्यादा दूरी हो जाती है। इसलिए महावीर ने अगर हिंसा को अधर्म कहा है, तो उसका कारण है। उसका कुल कारण इतना है कि जब भी हम विध्वंस कर रहे होते हैं, तब हम परमात्मा से सर्वाधिक दूरी के बिंदु पर होते हैं। अगर इसे इस भांति समझेंगे, तो अहिंसा का नया अर्थ खयाल में आएगा। इसे ऐसा समझें, हिंसा का अर्थ है विध्वंस; अहिंसा का अर्थ है सृजन।

जब तक अहिंसा सृजनात्मक न हो, तब तक नपुंसक होती है। और इस मुल्क की अहिंसा नपुंसक हो गई है, इंपोटेंट हो गई है। क्योंकि उसका अर्थ हो गया है, यह मत करो, यह मत करो, यह मत करो! डोंट उसका स्वर हो गया है। तो इससे इतना तो हुआ कि विध्वंस मत करो, लेकिन क्या करो, उसका कोई स्वर नहीं है।

परमात्मा की गहनतम प्रतीति सृजन के क्षण में होती है, क्योंकि उसके बिना सृजन नहीं हो सकता।

तो कृष्ण कहते हैं, मैं मौजूद, मेरी मौजूदगी काफी है। हे अर्जुन! मेरी उपस्थिति मात्र से प्रकृति सर्व जगत को रच लेती है। और इस ऊपर कहे गए कारण से ही जगत बनता और बिखरता रहता है। मैं कुछ करता नहीं हूं। मुझे कुछ करना नहीं पड़ता है। मुझे हिलना भी नहीं पड़ता है। मुझे वासना भी नहीं करनी पड़ती है। मुझे इच्छा भी नहीं करनी पड़ती है। बस, मेरा होना ही सृजन है।

अगर हम इसे ऐसा कहें, तो बहुत आसान हो जाएगा। हम सदा कहते रहे हैं, गॉड इज दि क्रिएटर, ईश्वर स्रष्टा है। बेहतर हो, हम कहें, गॉड इज दि क्रिएटिविटी, ईश्वर सृजन की प्रक्रिया है, ईश्वर सृजनात्मकता है। व्यक्ति कम, प्रक्रिया ज्यादा। व्यक्ति कम, प्रवाह ज्यादा। क्योंकि व्यक्ति तो रुका हुआ हो जाता है, प्रवाह सतत गतिमान है। और व्यक्ति की तो सीमा हो जाती है, प्रवाह की कोई सीमा नहीं है।

तो परमात्मा एक सृजन का प्रवाह है। और जहां उसकी मौजूदगी है, वहीं अनंत—अनंत रूपों में सृजन प्रकट होने लगता है। जीवन का खेल उसकी मौजूदगी का आनंद है। उसके मौजूद होते ही जीवन उत्सव से भर जाता है। उसके मौजूद होते ही राग— रंग; उसके मौजूद होते ही फूल खिल उठते हैं और गीत का जन्म हो जाता है।

जहां भी कुछ जन्म रहा हो, वहां मौन होकर बैठ जाना, परमात्मा निकट है। एक कली फूल बन रही हो, तो भागे हुए मंदिर मत चले जाना!

मगर पागलों का जगत है। फूल जन्म रहा है, वहा वे खड़े भी न होंगे! बल्कि उस कली को तोड़कर भागेंगे मंदिर की तरफ, परमात्मा को चढ़ा देने के लिए!

अच्छा होता कि वहीं बैठ जाते, जब कली फूल बन रही थी। वहां परमात्मा ज्यादा संभव था, बजाय उस मंदिर के, जहां आप फूल को तोड़कर ले आए हैं। पता ही नहीं।

जहां भी कोई चीज पैदा हो रही हों—सुबह का सूरज जन्म ले रहा हो या रात का आखिरी तारा डूब रहा हो; सुबह आ रही हो, भोर पैदा हो रही हो; या सांझ का पहला तारा उग रहा हो—वहा रुक जाना! पवित्र मंदिर बहुत करीब है; वहीं है, वहा ठहर जाना! वहा शांत, उस सृजन के साथ एक हो जाना! तो उसकी उपस्थिति अनुभव में आनी शुरू हो जाएगी।

इसलिए यह हमारी सदी परमात्मा से दूर हो गई मालूम पड़ती है, उसका कारण यह है कि हम आदमी की बनाई हुई चीजों से इस बुरी तरह घिर गए हैं कि सृजन का कोई सवाल ही नहीं है! क्योंकि आदमी की बनाई हुई चीजों में ग्रोथ तो होती नहीं। आप एक मकान बनाते हैं, वह बढ़ता तो है नहीं। आप एक कार ले लेते हैं, वह बढ़ती तो है नहीं। आदमी की बनाई हुई कोई भी चीज में ग्रोथ तो होती नहीं, विकास तो होता नहीं, जन्म तो होता नहीं। आदमी की तो सब बनाई हुई चीजें मुर्दा हैं; उनमें जीवन की कोई धारा तो है नहीं।

तो बड़े मकान हैं सीमेंट—कांक्रीट के, वे आकाश को छू रहे हैं। उनके पास आदमी कितनी ही देर खड़ा रहे, परमात्मा की प्रतीति नहीं हो पाएगी, क्योंकि वहा कुछ भी तो जन्म नहीं हो रहा है। सीमेट—कांक्रीट, जैसे मृत्यु का साकार रूप! जैसे मुर्दा होने का इससे ज्यादा और कोई अच्छा ढंग नहीं हो सकता!

आदमी जितना आदमी की बनाई चीजों से घिर जाता है, उतना ही उसे जन्म के क्षण में खड़ा होना मुश्किल हो जाता है, उतना ही वह सृजन के करीब नहीं रह जाता।

अभी लंदन में सर्वे हुआ, तो दस लाख बच्चों ने कहा कि उन्होंने खेत नहीं देखा है। पांच लाख बच्चों ने कहा कि उन्होंने गाय नहीं देखी है।

अगर ये बच्चे बड़े होकर पूछें कि परमात्मा कहां है? तो कोई कठिनाई है? जिन्होंने गाय नहीं देखी, जिन्होंने खेत नहीं देखा, अगर ये कल कहें कि परमात्मा कहां है? तो इनके प्रश्न में कोई आपको बुराई मालूम पड़ती है? इनका प्रश्न बिलकुल स्वाभाविक है, क्योंकि जीवन को इन्होंने कहीं भी बढ़ते हुए नहीं देखा। चीजों की दुनिया देखी है, सृजन की दुनिया नहीं देखी।

तो फिर स्वाभाविक है, अगर ये कविता भी लिखेंगे, तो उसमें रेल का इंजन आएगा, आकाश के तारे नहीं आएंगे। ये कविता लिखेंगे, तो उसमें भी मिल की चिमनियां आएंगी, खिलते हुए फूल नहीं आएंगे। अगर ये चित्र भी बनाएंगे—जैसा कि पिछले पचास साल की पूरी चित्रकला कहेगी—अगर ये चित्र भी बनाएंगे, तो उन चित्रों में भी अखबार की कटिंग काट—काटकर चिपका देंगे, कोलाज कहेंगे! उसमें भी आदमी की जो—जो विकृतियां हैं, वे उभरकर सामने आएंगी।

पिकासो के चित्रों को अगर देखा जाए, तो वे हमारे मन की पूरी कथा हैं। लेकिन उनमें फूल खिलते मालूम नहीं पड़ेंगे; उनमें कोई चीज बढ़ती हुई मालूम नहीं पड़ेगी; उनमें किसी का जन्म होता हुआ मालूम नहीं पड़ेगा। स्वाभाविक है। क्योंकि हम एक अस्वाभाविक वस्तुओं के जगत में घिरकर जी रहे हैं, जहां कोई चीज पैदा नहीं  होती; हर चीज बनाई जाती है। जहां किसी चीज का जन्म नहीं होता, जहां हर चीज सिर्फ जोड़ी जाती है।

आदमी को प्रभु को खोजना हो, तो सृजन के निकट ही उसे खोज सकता है।

ऐसा होने पर भी संपूर्ण भूतों के महान ईश्वर रूप मेरे परम भाव को न जानने वाले मूढ़ लोग, मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं।

मूढ़ एक पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ मूर्ख नहीं होता, यह पहले समझ लें। मूढ़, मूर्ख से भी खतरनाक अवस्था है। मूर्ख का मतलब होता है,  जिसे पता नहीं है। मूढ़ का मतलब होता है,  जिसे पता नहीं है लेकिन जो सोचता है कि उसे पता है।

इस फर्क को ठीक से समझ लें।

मूर्ख वह है, जिसे पता नहीं है। उसे क्षमा किया जा सकता है। उसे पता ही नहीं है। अज्ञानी है। लेकिन यह अज्ञान सिर्फ अभाव है। इसमें उसे कसूरवार नहीं ठहराया जा सकता। पता नहीं है। एक छोटा बच्चा है। छोटा बच्चा मूर्ख ही हो सकता है, मूढ़ कभी नहीं हो सकता। मूढ़ होने के लिए जरा ज्यादा उम्र होना जरूरी है। छोटा बच्चा मूर्ख ही हो सकता है, मूढ़ कभी नहीं हो सकता। वह सुविधा बूढ़ों के लिए ही है, मूढ़ होने की। तो जितनी ज्यादा उम्र हो, उतना आदमी ज्यादा मूढ़ हो सकता है। क्योंकि उसे पता बिलकुल नहीं है, लेकिन ऐसा पता लगने लगता है जीवनभर के अनुभव से कि मुझे पता है।

आप अपनी तरफ सोचें, तो आपको पता चलेगा, मूर्खता बड़ी बीमारी नहीं है, मूढ़ता बड़ी बीमारी है। कितने सवाल हैं, जिनके जवाब आप देते हैं, बिना जाने हुए!

अगर छोटा बच्चा अपने बाप से पूछता है कि ईश्वर है? बाप को बिलकुल पता नहीं है। लेकिन वह या तो कहता है, हां है; या कहता है, नहीं है। कोई भी जवाब दे, लेकिन एक जवाब कभी नहीं देता कि मुझे पता नहीं है। यह मूढ़ता है।

लेकिन एक छोटे बच्चे के सामने बाप कैसे यह माने कि मैं नहीं जानता हूं! पर उसे पता नहीं है, यह बच्चा कितने दिन छोटा रहेगा? थोड़े दिन में इसे पता चल जाएगा कि यह बाप झूठ बोलता रहा है। इसलिए अगर हर बेटा उम्र पाने के बाद बाप का आदर छोड़ देता है, तो उसका कुल कारण इतना है, बाप के द्वारा की गई बेईमानिया, जो बचपन में बच्चे के साथ की गई हैं। क्योंकि उस वक्त तो बाप ने बड़ा मजा लिया ज्ञानी होने का। फिर जैसे बच्चा बड़ा होता है, वह पाता है, यह बाप भी उतना ही अज्ञानी है जितना मैं! इसको भी कुछ पता नहीं है। इसने नाहक ही झूठी ज्ञान और झूठा अहंकार मेरे ऊपर थोपा। तो आदर खो जाएगा।

सिर्फ वही बाप अपने बेटे का आदर पाने में समर्थ हो सकता है, जो ईमानदार है। ईमानदार का अर्थ है, जो मूढ़ नहीं है, जो मूढ़ता नहीं करता। क्या जरूरत है! जो हमें पता नहीं है, कह दें कि पता नहीं है। जो हमें पता है, कह दें कि पता है। इसमें जो आदमी डावांडोल होता है, वह मूढ़ है।

कृष्ण कहते हैं, ऐसा होने पर भी—कि परमात्मा की मौजूदगी ही सारे जीवन की सृजनात्मकता है, कि उससे ही सारा जीवन गतिमान है, कि उससे ही सारा जीवन परिपूर्ण है, कि वही है जीवन का मूल, कि वही उसकी आत्मा है—ऐसा होने पर भी, मूढ़ लोग चारों तरफ यह सब देखकर भी, इस चारों तरफ जीवन को अनुभव करके भी, अपनी मूढ़ता नहीं छोड़ते मालूम पड़ते हैं।

जब भी कोई व्यक्ति ईश्वर के संबंध में बिना जाने वक्तव्य देता है, तब वह अपने ही साथ नहीं, औरों के साथ भी अपराध कर रहा है। लेकिन हम क्षुद्र बातों के संबंध में कहीं ज्यादा सही वक्तव्य देते हैं। जितनी विराटतर होती है बात, उतने ही हमारे वक्तव्य झूठे होते चले जाते हैं। जिन्हें कुछ भी पता नहीं है, वे उनको समझाए चले जाते हैं, जो उनसे पूछने चले आए हैं।

कृष्ण कहते हैं कि ऐसे मूढ़ लोग, चारों तरफ मैं मौजूद हूं तो भी अनुभव नहीं कर पाते। चारों तरफ सब जगह मैं मौजूद हूं? तो भी अनुभव नहीं कर पाते। वे कहते हैं, सामने आ जाओ, तो हम पहचानें!

सदा से नास्तिकों ने यह कहा है। यह बहुत समझने जैसा है। सदा से नास्तिकों ने कहा है, अगर परमात्मा है, तो सामने आ जाए! वह सब जगह सामने है। वही है, और दूसरा कोई भी नहीं है। लेकिन नास्तिक सदा कहता रहा है कि वह सामने आ जाए, तो हम मान लें। और मजे की बात यह है कि कृष्ण कहते हैं कि जब मेरे जैसा व्यक्ति सामने आ जाता है, कहते हैं कि जब मैं सामने खड़ा हो जाता हूं तो वे ही मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं। अगर मैं सामने आ जाऊं, तो वे कहते हैं कि अरे! तुम तो आदमी ही हो! तुम भगवान कैसे? अगर मैं सामने न आऊं, तो वे कहते हैं, सामने आ जाओ। क्योंकि अगर तुम हो, तो प्रकट हो जाओ। अगर मैं प्रकट हो जाऊं, तो वे मूढ़जन कहते हैं कि तुम? तुम तो ठीक हमारे ही जैसे हो! तुम भगवान कैसे?

एक बात तय है कि भगवान चाहे अप्रकट रूप से सब तरफ मौजूद हो, और चाहे प्रकट रूप से आपके सामने खड़ा हो जाए, अगर मूढ़ता की दृष्टि है, तो दोनों हालत में वह दिखाई नहीं पड़ सकता है। इसलिए सवाल यह नहीं है कि वह सामने है या नहीं, सवाल यह है कि भीतर मूढ़ता है या नहीं।

आप खुद ही सोचो! आपको भी कई दफे लगा होगा कि भगवान सामने हो, तो अभी मान लूं। लेकिन जरा यह सोचो कि अगर भगवान सामने हो, आप मान लोगे?

अति कठिन है। बहुत कठिन है। कठिनाइयों के कारण हैं। वे मूढ़ता की अनेक सीढ़ियां उसके कारण हैं। उनको हम थोड़ा समझ लें।

पहली बात, अपने से जो श्रेष्ठ है, उसे देखना बहुत मुश्किल है। मुश्किल नहीं, असंभव कहना चाहिए, करीब—करीब असंभव। क्यों? क्योंकि जहां तक हमारी चेतना गई है, उसके पार हमारी आंख उठ नहीं सकती। जो हम हैं, वहीं तक हम देख सकते हैं।

इसे ऐसा समझें, आप चल रहे हैं, पास से चींटियों का एक समूह जा रहा है। आपको खयाल है, चींटियों को आपके होने का पता भी नहीं चल सकता! हां चींटियों को एक ही ढंग से पता चल सकता है कि आपका पैर पड़ जाए और वे मर जाएं; और समझें कि कोई विपत्ति आ गई। लेकिन एक मनुष्य हमारे पास से गुजर रहा है, यह चींटियों को पता नहीं चल सकता। क्योंकि मनुष्य को देखने के लिए कम से कम मनुष्य की चेतना चाहिए।

हम केवल समान तल पर अनुभव कर सकते हैं। श्रेष्ठ जो है, वह हमारी आंख से ओझल हो जाता है। आप चींटी को देख सकते हैं, चींटी आपको नहीं देख पाती। ऊंचाई से नीचे देखना आसान है, क्योंकि आप उस रास्ते से गुजर चुके हैं। लेकिन नीचाई से ऊपर देखना असंभव है।

आप गीता लेकर बैठे पढ़ रहे हैं। आपका कुत्ता भी आपके पास बैठकर पूंछ हिला रहा है। क्या किसी भी तरह हम कल्पना कर सकते हैं कि उसे गीता का पता चल रहा होगा, जो आप हाथ में लिए बैठे हैं?

आप चाहे जोर—जोर से दोहरा रहे हों, तो भी कुत्ता बैठकर अपनी मक्खियां उड़ाता रहेगा। उसकी चेतना में कहीं से भी, यह आपका जो जोर से पाठ चल रहा है, प्रवेश नहीं करेगा। अगर आप गीता को छोड्कर चले जाएं, तो गीता उसे दिखाई पड़ सकती है, पर गीता की तरह नहीं। हो सकता है, वह उससे खेलने लगे। हो सकता है, उसे फाड़ने लगे। हो सकता है, उसे मुंह में दबाकर बाहर घूमने निकल जाए। वह गीता के साथ कुछ कर सकता है, लेकिन गीता का उसे कोई बोध नहीं हो सकता। कोई उपाय नहीं है, उसकी चेतना बंद है।

चेतना वहीं तक देख पाती है, जहां तक विकसित होती है। तो परमात्मा अगर सामने भी मौजूद हो जाए, तो भी हम उसे समझ नहीं पा सकते, हम उसे देख नहीं पा सकते। हमारी हालत उसके सामने वैसी ही है, जैसी हमारे सामने एक चींटी की हो जाती है। उसका जो परमात्मा रूप है, वह हमारी आंखें कैसे पकड़े? जहां तक हमारी चेतना का विकास नहीं है, वहां हम देख कैसे पाएंगे? हम वही देख पाते हैं, जो हम हैं।

इसलिए अगर कृष्ण भी सामने खड़े हों, तो हमें कृष्ण में आदमी दिखाई पड़ेगा भलीभांति। और हम गलत नहीं हैं। हम गलत नहीं हैं। जहां तक कृष्ण में आदमी दिखाई पड़ता है, हम बिलकुल सही हैं। गलती हमारी वहा शुरू होती है कि आदमी के पार हमें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। आदमी का दिखाई पड़ना तो बिलकुल ठीक है। कृष्ण आदमी तो हैं ही, लेकिन तब हम सब जोड़ लगाकर कहते हैं कि आदमी तो दिखाई पड़ते हैं, लेकिन भगवान कहीं दिखाई नहीं पड़ते। और जब आदमी दिखाई पड़ते हैं, तो हमारे अहंकार को कष्ट होगा बहुत कि हम सामने खड़े आदमी को, मांस—हड्डी के आदमी को, इसको हम भगवान मान लें! तो हमारे अहंकार को भारी पीड़ा होगी।

ध्यान रहे, पहला सूत्र हमारी मूढ़ता का यह है कि जो हमें दिखाई पड़ता है, उसके पार हम झांकने को भी तैयार नहीं होते। दिखाई तो पड़ेगा ही नहीं, झांकने को भी तैयार नहीं होते। तैयारी भी नहीं दिखाते कि हम उसके पार भी देखने के लिए तैयार हैं, बल्कि हम गैर—तैयारी दिखाते हैं। वह हमारी मूढ़ता है।

हम कहेंगे कि कहां! भगवान तो दिखाई नहीं पड़ता? बल्कि हम सब तरह से सिद्ध करेंगे कि भगवान है ही नहीं। क्योंकि हम कहेंगे कि इस आदमी को कल मैंने देखा था। प्यास लगी थी, तो यह कह रहा था, पानी लाओ! भगवान को पानी की क्या जरूरत? हमने देखा, यह आदमी भोजन कर रहा था। भगवान को भोजन की क्या जरूरत? धूप पड़ती है, तो कृष्ण को भी पसीना आ जाता है। भगवान को पसीने की क्या जरूरत?

हम हजार कसौटियां रखेंगे। और सब कसौटियों से हम सिद्ध करेंगे कि यह आदमी भगवान नहीं है, आदमी ही है। और जब हम सिद्ध कर लेंगे कि यह आदमी है, तो हम को बड़ी तृप्ति होगी। यह हमारी मूढ़ता है।

मजा यह है कि इस सिद्ध करने से हमें कुछ मिलेगा नहीं। अगर यह सही भी है कि यह आदमी ही है और हमने सिद्ध कर लिया कि आदमी है, तो भी हमें मिलेगा क्या? यह हमारी मूढ़ता है।

दूसरी बात सोचें, हो सकता है, यह भगवान न हो। लेकिन हम इस सिद्ध करने में न पड़े कि यह भगवान नहीं है। बल्कि यह कहता है, तो हम थोड़ा खोज में लगें विधायक रूप से; मूढ़ता को तोड्ने में लगें। कोशिश करें कि यह आदमी कहता है कि, भगवान प्रकट हुआ है, तो देखें, चलें, थोड़ा आगे बढ़े। थोड़ी अपनी चेतना को ऊपर उठाएं। थोड़ी अपनी जगह छोड़े। थोड़ा अपना पर्सपेक्टिव, अपना परिप्रेक्ष्य बदलें। देखें कि शायद यह आदमी ठीक कहता हो।

तो मैं आपसे कहता हूं कि यह भगवान न भी हो, तो भी यह खोज आपकी चेतना को बड़ा कर जाएगी। अगर यह हो, तब तो बात ही अलग। अगर यह न भी हो, तो भी इस खोज में आप ऊपर उठ जाएंगे।

मूढ़ता हमारी कहती है कि सिद्ध करो, यह नहीं है। लेकिन हमें पता नहीं कि इसे हम सिद्ध करके कि नहीं है, केवल अपने विकास की संभावनाओं को अवरुद्ध कर रहे हैं, एक द्वार बंद कर रहे हैं। यह सवाल नहीं है महत्वपूर्ण कि यह है या नहीं, हम इसे देखने की कोशिश करें।

अगर कोई व्यक्ति पत्थर को भी भगवान मानकर चल पड़े, तो पत्थर भगवान होगा कि नहीं होगा, यह सवाल नहीं है, वह आदमी जरूर ऊपर उठना शुरू हो जाएगा। यह सवाल उस आदमी के अपने अंतर्विकास का है। और हम जितने विराटतर को मान लेते हैं, उतने विराटतर तक पहुंचने की हमारी चेतना का मार्ग साफ हो जाता है।

इसे हम ऐसा देखें, अगर मूढ़ न हो आदमी, अमूढ़ हो, तो वह क्या करेगा?

मूढ़ आदमी कहेगा कि कृष्ण को भूख लगती हमारे जैसी, तो यह आदमी है। कृष्ण को भी कांटा गड़ता, खून निकलता, तो ये हमारे जैसे आदमी हैं। भगवान हम न मानेंगे। यह मूड का तर्क है।

अमूढ़ का तर्क इससे उलटा होगा, यही, लेकिन दिशा बदल जाएगी। वह कहेगा, कृष्ण को भी भूख लगती है और ये भगवान हो सकते हैं; मुझे भी भूख लगती है, मैं भी भगवान क्यों नहीं हो सकता हूं! यह अमूढ़ आदमी का तर्क है। वही है, तर्क में कोई फर्क नहीं है। लेकिन दिशा बिलकुल बदल गई है। वह कहेगा, कृष्ण के भी पैर में कांटा गड़ता है, तो खून निकलता है; मेरे पैर में भी कांटा गड़ता है, तो खून निकलता है। अगर कृष्ण भगवान हो सकते हैं, तो मैं भगवान क्यों नहीं हो सकता हूं!

कृष्ण की मनुष्यता कृष्ण के भगवान होने में बाधा नहीं बनेगी अमूढ़ के लिए; कृष्ण की मनुष्यता स्वयं की मनुष्यता के पार जाने का द्वार बन जाएगी।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, मूढुजन मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ परमात्मा को तुच्छ समझते हैं।

वे अपने को श्रेष्ठ नहीं समझ पाते मेरे कारण, अपने कारण मुझको भी तुच्छ समझते हैं। वह अपने को श्रेष्ठ समझने का एक मौका उन्हें था कि वे अपनी दीनता से मुक्त हो जाते, कि महिमा से भर जाते, कि गौरवान्वित हो जाते, कि देखते कि मेरी क्या अनंत संभावना है; कि उनका बीज भी भरोसे से भर जाता, कि आशाएं उनमें भी खिल जातीं; कि अभीप्सा उनकी भी जग जाती, दूर का आकाश उनको भी अपने पास मालूम होने लगता, अनंत की दूरी मिट जाती, अगर वे यह देखते कि ठीक मेरे जैसा मनुष्य भी भगवान है। लेकिन वे ऐसा नहीं देखते। वे ऐसा देखते हैं कि अच्छा, मेरे जैसा मनुष्य भगवान का दावा कर रहा है! धोखेबाज है, तुच्छ है। ऐसा दावा नहीं करना चाहिए; यह बात ठीक नहीं है!

मूढ़ता अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का नाम है। लेकिन अपने पैर पर कोई कुल्हाड़ी नहीं मारता। मारने वाला तो यही समझता है कि दूसरे के पैर पर मार रहे हैं। लेकिन कृष्ण के पैर पर कुल्हाड़ी मारने का कोई उपाय नहीं है। सब कुल्हाड़ी आखिर में अपने ही पैर पर पड़ जाएगी। इसलिए वे मूढ़ कह रहे हैं। कह रहे हैं, मुझे तुच्छ समझने में मैं तुच्छ नहीं हो जाता हूं लेकिन मुझे तुच्छ समझने में तुम्हारी जो गरिमा की संभावना थी, वह खो जाती है। 

फिर आदमी की मूढ़ता का जो केंद्र है, वह उसका अहंकार है, ईगो है। इसलिए दूसरी बात, जब भी कोई आदमी हमें किसी के खिलाफ कुछ कहे, हमारे मन में बड़ी प्रफुल्लता होती है। इसे खयाल करना।

 अगर कोई आदमी किसी के संबंध में कुछ बुराई करे, तो हमारे हृदय का फूल ऐसे खिल जाता है, जैसे वर्षा हो गई, नई सब ताजगी आ गई भीतर। जैसे कोई किसी की निंदा करे हमारे कान में, तो ऐसा लगता है कि कोई संगीत बजने लगा! प्राण नाचने लगते हैं।

इसलिए मजे की बात है, जब भी हमसे कोई किसी की निंदा करे, हम कभी इसकी फिक्र में नहीं पड़ते कि यह सही है या गलत? हम मान लेते हैं। निंदा में कोई तर्क करता ही नहीं। अगर कोई आदमी आकर आपको मेरे बाबत कहे कि वह आदमी चोर है, तो आप एक गवाह तक न पूछेंगे उससे कि कोई गवाह है? आप कहेंगे, मैं तो पहले ही जानता था, पहले ही से पता था। एक गवाह की भी जरूरत नहीं पड़ेगी। फिर यह भी न सोचेंगे आप कि यह जो आदमी बोल रहा है, कहीं यह खुद तो चोर नहीं है। न, यह भी न सोचेंगे। क्योंकि इस वक्त ऐसी बातें सोचना शोभनीय नहीं है। इस वक्त इस आदमी पर शक करना बिलकुल ही अशोभन है। संदेह करना ही नहीं, इस वक्त तो श्रद्धा एकमात्र मार्ग है।

जब कोई किसी की निंदा कर रहा हो, तो हमारे चित्त ऐसे श्रद्धावान हो जाते हैं! क्यों? क्योंकि दूसरा अच्छा है, इससे हमारे अहंकार को पीड़ा पहुंचती है। क्योंकि ऐसा लगता है, फिर मैं? दूसरा बुरा है, हमारा अहंकार आनंदित होता है कि बिलकुल ठीक। अगर सारी दुनिया बुरी है, तो फिर मैं ही अच्छा बच रहता हूं!

तो हम सारी दुनिया बुरी है, ऐसा मानकर चलते हैं। जिनके बाबत हमें अभी पता नहीं है, उनके बाबत भी हम समझते हैं कि सिर्फ पता नहीं है, बाकी होंगे तो बुरे ही। भला आदमी तो कोई हो नहीं सकता, यह हमारी अंतर्निहित आस्था है। यह हमारी आस्तिकता है। सारा जगत बुरा है। किसी का पता चल गया है, किसी का अभी पता नहीं चला है। यह सारा जगत बुरा है।

तो जिसका पता नहीं चला है, उसके बाबत हम अपने मन में संदेह रखते हैं कि आज नहीं कल! आप एक दिन धोखा दे सकते हैं, दो दिन धोखा दे सकते हैं, कोई भी आदमी सदा तो धोखा नहीं दे सकता! आज नहीं कल कलई खुल ही जाएगी। आज नहीं कल वस्त्र झांककर हम देख ही लेंगे कि तुम भी नंगे हो। कब तक डाके रहोगे!

तो हम यह भाव रखते हैं। और जैसे ही किसी का पता चल जाता है, हम प्रसन्न हो जाते हैं। हम जानते हैं कि यह तो हम पहले ही जानते थे। यह हमारा अंतर्निहित विश्वास था। यह तो हमारी अंतरात्मा की पहले से ही दृढ़ आस्था थी कि यह आदमी बुरा है। लेकिन जब कोई आदमी किसी के बाबत कहता है कि वह भला है, अच्छा है, तो हमारा मन मानने का नहीं करता। सुन भी लें, तो टालरेट करते हैं। सह लेते हैं कि ठीक है, होगा। होगा भी। दूसरी चर्चा छेड़ो! कोई दूसरी बात करें।

और अगर कोई ज्यादा जिद्द करे कि नहीं, भला है ही। संत है। महात्मा है। फलां है, ढिका है। तो हम कहेंगे, कोई गवाही है? किसने कहा? कौन कहता है? जो कहते हैं, उनकी नैतिकता का कुछ पक्का है? तुमने कैसे जाना? क्या प्रमाण हैं?

जब भी कोई किसी की भलाई की बात करे, तो हमें पीड़ा होती है मानने में, क्योंकि हमारी अंतर्निहित निष्ठा के विपरीत है। यह हमारी मूढ़ता है।

क्योंकि मजा यह है इस मूढ़ता का कि जितना ही हम सिद्ध करने में सफल हो जाते हैं कि सारी दुनिया बुरी है, उतना ही हमारे अच्छे होने का उपाय बंद हो जाता है। जब सारी दुनिया बुरी है, तो मुझे अच्छे होने का कोई भी कारण नहीं रह जाता। जब आप सुबह से अखबार पढ़ते हैं और देख लेते हैं कि कितनी औरतें भगाई गईं, कितनी हत्याएं की गईं, कौन—कौन कालाबाजारी में पकड़े गए, तब भीतर— भीतर कोई खड़ा खुश होने लगता है। वह कहता है कि सारी दुनिया ऐसी है।

इसका मतलब यह है कि हम बिलकुल निश्चित रह सकते हैं। हम जैसे हैं, निश्चित रह सकते हैं। अभी तक न हमने किसी की औरत भगाई। सोचा है, भगाई नहीं है! तो सोचने में क्या ऐसी बुराई है, जब लोग भगा ही रहे हैं! तो विचार मात्र कोई इतना बुरा नहीं है। यह सब कालाबाजारी हो रही है, हत्याएं हो रही हैं, सब हो रहा है। भीतर एक तृप्ति होती है कि हम काफी अच्छे हैं। और जिसको यह तृप्ति हो जाती है कि मैं काफी अच्छा हूं उसने आत्महत्या कर ली अपनी।

अच्छा आदमी कभी भी तृप्त नहीं होता अपनी अच्छाई से, बुरा आदमी सदा ही अपनी अच्छाई से तृप्त होता है। अच्छा आदमी सदा एक डिसकटेंट में जीता है, एक असंतोष में, कि मैं और अच्छा, और अच्छा, और अच्छा कैसे होता चला जाऊं! बुरा आदमी सदा संतोषी होता है अपने बाबत, भीतर के बाबत, कि मैं बिलकुल अच्छा हूं। और तब बुरा आदमी रोज—रोज नीचे गिरता जाता है। अगर आज वह पहले नर्क में राजी है, तो कल दूसरे में राजी हो जाएगा; परसों तीसरे नर्क में उतरकर राजी हो जाएगा। अच्छा आदमी पहले स्वर्ग में भी खड़ा हो, तो राजी नहीं होता है कि यह स्वर्ग है। वह दूसरे स्वर्ग की आकांक्षा रखता है। दूसरे में पहुंच जाए, तो तीसरे की आकांक्षा रखता है। वह बढ़ता चला जाता है। ध्यान रहे, वह आदमी मूढ़ है, जो सारी दुनिया को बुरा सिद्ध करने में लगा है। क्योंकि अंतत: यह सारी दुनिया की बुराई लौटकर उसकी अपनी बुराई हो जाएगी, और उसके विकास का कोई उपाय न रह जाएगा।

अमूढ़ उसे कहते हैं, जो सारी दुनिया के भले होने का भरोसा रखता है। जिसकी अंतर्निहित आस्था इस बात की है कि सब लोग भले हैं। और अगर कभी किसी आदमी की बुराई की खबर मिलती है, तो भी वह यह नहीं कहता कि वह आदमी बुरा है। इतना ही कहता है, आदमी भला है, लेकिन भले आदमी से भी भूल—चूक हो जाती है। आदमी तो भला ही है। तो भला आदमी भी कभी भटक जाता है। अंतर्निहित आस्था उसकी भलाई की है। वह सारी दुनिया में चारों तरफ भलाई को खड़ा हुआ देखता है। तब उसे अपनी बुराई दिखाई पड़नी शुरू होती है। तब वह अनुभव करता है, इस दुनिया में शायद सबसे पिछडा हुआ मैं ही हूं! तब उसके विकास की संभावना, उत्‍क्रांति, उठ सकता है ऊपर।

लेकिन हमारी मूढ़ता का कोई अंत नहीं है। हम सिद्ध करने में लगे रहते हैं कि कृष्ण भगवान हैं या नहीं। आसान इसलिए है कि उनकी मनुष्यता हमारे सामने से तिरोहित हो गई होती है। राम पर उनके गांव के धोबी को भी भरोसा नहीं था कि यह आदमी भगवान है। अब हम आराम से राम को भगवान मान सकते हैं। अब हमें तकलीफ नहीं है। अब मनुष्य रूप तिरोहित हो गया है। इसलिए अब हमें यह सोचने की सुविधा नहीं है कि वे भी हमारे जैसे मनुष्य हैं, भगवान कैसे हो सकते हैं!





लेकिन कृष्ण कहते हैं, वे मुझे तुच्छ समझते हैं, क्योंकि मैं मनुष्य के शरीर में खड़ा हूं।

वृथा आशा, वृथा कर्म और वृथा ज्ञान वाले अज्ञानीजन राक्षसों के और असुरों के जैसे मोहित करने वाली प्रकृति अर्थात स्वभाव को ही धारण किए हुए हैं।

एक आखिरी बात, मनुष्य अनिर्मित, अपूर्ण चेतना है। जानवरों के पास पूरा व्यक्तित्व है। एक गाय पूरी गाय है, एक कुत्ता पूरा कुत्ता है; आदमी पूरा आदमी कभी नहीं हो पाता। आदमी कम—ज्यादा होता रहता है। आदमी आदमी की तरह पैदा नहीं होता, आदमी उसे बनना होता है। आदमी में विकास है। 

आदमी इस जगत में अपूर्ण व्यक्तित्व है, बाकी सबके पास पूरा व्यक्तित्व है। इस लिहाज से बड़ी कठिनाई है। वह कठिनाई यह है कि आदमी पूरा आदमी न होने से, चाहे तो जानवरों से भी नीचे गिर सकता है। और यही उसकी गरिमा भी है कि वह चाहे तो आदमी से भी ऊपर, देवताओं से भी ऊपर उठ सकता है।

इसलिए, आपको यह बात इसलिए कह रहा हूं कि जानवरों में राक्षस कोई भी नहीं होता, क्योंकि जानवरों में देवता कोई भी नहीं होता। आदमी आदमी भी हो सकता है; नीचे गिर जाए तो राक्षस भी हो सकता है; ऊपर उठ जाए, तो देवता भी हो सकता है। आदमी एक संक्रमण व्यवस्था है। आदमी सुनिश्चित नहीं है, सृजन में, प्रक्रिया में है। तो आदमी दोनों तरफ जा सकता है।

और ध्यान रहे कि जीवन में ठहराव नहीं होता। अगर आप ईश्वर की तरफ नहीं जा रहे हैं, तो आप राक्षस की तरफ जाने लगेंगे। क्योंकि जाना पड़ेगा ही; रुकाव नहीं है। जीवन में एक गति है। जाना तो पड़ेगा ही। आप रुक नहीं सकते। आप यह नहीं कह सकते कि मैं जहां हूं वहीं ठहर जाऊंगा। आप कहीं हैं नहीं। जीवन एक गति है। आपको चलना तो पड़ेगा ही। इसमें कोई चुनाव नहीं है। अगर आप ऊपर की तरफ नहीं जा रहे हैं, तो आप नीचे की तरफ जाने लगेंगे।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि यह जो तुच्छ समझने वाली दृष्टि है, मुझे, ईश्वर अगर साकार खड़ा हो, तो तुच्छ समझती है, निराकार हो, तो कहती है, कहां है? यह जो बुद्धि है, यह जो मूढ़ता वाली बुद्धि है, यह राक्षसों जैसी हो जाती है, आसुरी हो जाती है। और फिर अपने ही—अपने ही—हाथ से बनाए गए अंधकार में अपने को डुबाती चली जाती है।

परमात्मा का कहीं भी लक्षण मिले? कहीं भी जरा—सी झलक मिले, उसे इनकार मत करना। क्योंकि वह तुम्हारे विकास का रास्ता है। कहीं बुराई बिलकुल पक्की भी हो, प्रमाणित भी हो, तो भी संदेह जारी रखना। क्योंकि उसे मान लेना, तुम्हारे गिरने का उपाय हो जाएगा। शैतान बिलकुल दरवाजे पर भी आकर बैठ जाए घर के, तो भी समझना कि नहीं है। और परमात्मा कहीं भी दिखाई न पड़े, तो भी जानना कि यहीं है। क्योंकि उसकी यह प्रतीति तुम्हारे भीतर जो हो सकता है विकास, उसके लिए सहयोगी होगी।

श्रेष्ठ को स्वीकार कर लेना, न दिखाई पड़ता हो तो भी; अश्रेष्ठ को इनकार कर देना, बिलकुल प्रत्यक्ष हो तो भी। तो ही मनुष्य ऊपर की ओर गति कर पाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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