सोमवार, 26 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 6

 अदृश्य की खोज


एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।

अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।। 6।।

मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय।

मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।। 7।।


और हे अर्जुन, तू ऐसा समझ कि संपूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पत्ति वाले हैं और मैं संपूर्ण जगत का उत्पत्ति तथा प्रलयरूप हूं, अर्थात संपूर्ण जगत का मूल कारण हूं।

हे धनंजय, मेरे सिवाय किंचितमात्र भी दूसरी वस्तु नहीं है। यह संपूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियों के सदृश मेरे में गुंथा हुआ है।


जगत प्रकट है, ऐसे ही जैसे माला के मनके प्रकट होते हैं। परमात्मा अप्रकट है, वैसे ही जैसे मनकों में पिरोया हुआ धागा अप्रकट होता है। पर जो अप्रकट है, उसी पर प्रकट सम्हला हुआ है। जो नहीं दिखाई पड़ता उसी पर, जो दिखाई पड़ता है, आधारित है।

जीवन के आधारों में सदा ही अदृश्य छिपा होता है। वृक्ष दिखाई पड़ता है, जड़ें दिखाई नहीं पड़ती हैं। फूल दिखाई पड़ते हैं, पत्ते दिखाई पड़ते हैं, जड़ें पृथ्वी के गर्भ में छिपी रहती हैं--अंधकार में, अदृश्य में। पर उन अदृश्य में छिपी जड़ों पर ही प्रकट वृक्ष की जीवन की सारी लीला निर्भर है।

यदि हम ऊपर से ही देखें, तो शायद समझें कि फूलों में प्राण होंगे; तो शायद हम समझें कि पत्तों में प्राण होंगे; तो शायद हम समझें कि वृक्ष की शाखाओं में प्राण होंगे। ऊपर से जो देखेगा, उसे ऐसा ही दिखाई पड़ेगा। लेकिन प्राण तो उन जड़ों में हैं, जो नीचे अंधकार में, अदृश्य में छिपी और दबी हैं।

इसलिए कोई पत्तों को तोड़ डाले, फूलों को तोड़ डाले, शाखाओं को काट डाले--वृक्ष का अंत नहीं होता। फिर नए अंकुर फूट जाते हैं, फिर नए पत्ते आ जाते हैं, फिर नए फूल खिल जाते हैं। लेकिन कोई जड़ों को काट डाले, तो वृक्ष का अंत हो जाता है। फिर पुराने फूल भी मौजूद हों, तो थोडी ही देर में कुम्हला जाते हैं और पुराने पत्ते भी थोड़ी ही देर में पतझड़ को उपलब्ध हो जाते हैं।


जीवन का विराट रूप भी ऐसा ही है। जो दिखाई पड़ता है, जिसने भूल से यह समझ लिया कि वही प्राण है, वह अधार्मिक जीवन में डूब जाता है। जो दिखाई पड़ता है, उसके भीतर जिसने जड़ों को खोजा, अदृश्य को खोजा, मनकों के भीतर धागे को खोजा, वह जीवन में धर्म की यात्रा पर निकल जाता है।

अदृश्य की खोज धर्म है और दृश्य में उलझ जाना संसार है। जो दिखाई पड़ता है, उसको सब कुछ मान लेना संसार है। और जो नहीं दिखाई पड़ता है, उसे दिखाई पड़ने वाले का भी मूल आधार जानना धर्म है।

कृष्ण इसमें दोत्तीन बातें कहते हैं। एक तो वे अपने अदृश्य रूप की बात करते हैं। वे कहते हैं, छिपा हुआ हूं मैं, दि हिडेन, गुप्त हूं मैं, प्रकट नहीं हूं। और जो प्रकट है, वह केवल प्रकृति है। और वह जो प्रकट है, वह जो मैंने अष्टधा, आठ तरह की प्रकृति की बात कही, उसका ही खेल है। वह सब मेरा बनाया हुआ खेल है। वे सब मनके मैंने निर्मित किए हैं, मैं तो धागा ही हूं।

अदृश्य है परमात्मा, इस सत्य के ऊपर इस सूत्र में जोर दिया है। हम सब निरंतर पूछते हैं, कहां है परमात्मा? कैसा है परमात्मा? जब भी हम ऐसे सवाल उठाते हैं, तो हम गलत सवाल उठाते हैं। और जो भी इन गलत सवालों के जवाब देता है, वे जवाब सवालों से भी ज्यादा गलत होते हैं। ये जो हमने सारी प्रतिमाएं खड़ी कर रखी हैं परमात्मा की, ये हमारे प्रश्नों के जवाब हैं, जो हमने पूछे हैं, कहां है! तो हमने प्रतिमाएं बना ली हैं बताने को, कि यह रहा।

लेकिन ध्यान रखना, जो मूर्ति में उलझा, वह इस अदृश्य की खोज पर न निकल पाएगा। हां, अगर मूर्ति सिर्फ द्वार बनती हो अमूर्त का, अगर वृक्ष केवल जड़ों की सूचना बनता हो, और मनके अगर धागे की खबर लाते हों, तब तो ठीक है। अन्यथा मनकों में जो उलझा, वह धागे से वंचित रह जाएगा।

और मजे की बात यह है कि हर मनके में धागा मौजूद है। हर मूर्ति में भी अमूर्त मौजूद है। हर पत्थर में भी अमूर्त मौजूद है। वह जो दिखाई पड़ रहा है, सब जगह न दिखाई पड़ने वाला मौजूद है। लेकिन वह न दिखाई पड़ने वाला उसी को स्मरण में आएगा, जो दिखाई पड़ने वाले से थोड़ा भीतर प्रवेश करे।

दिखाई पड़ने वाला मैं नहीं हूं,

कृष्ण कहते हैं, जो दिखाई पड़ता है वह प्रकृति है।

दिखाई पड़ता है, इससे क्या अर्थ है? दिखाई पड़ने से अर्थ है, इंद्रियों की पकड़ में आता है जो। चाहे आंख से दिखाई पड़े, चाहे कान से सुनाई पड़े, चाहे हाथ से स्पर्श हो जाए। जो भी इंद्रियों की पकड़ में आता है, वह, वह प्रकृति है। और जो इंद्रियों के पार रह जाता है, वह परमात्मा है। मनके वही हैं, जो इंद्रियों की पकड़ में आ जाते हैं; और धागा वही है, जो इंद्रियों की पकड़ के बाहर छूट जाता है।

क्या जीवन में हमने कोई ऐसी चीज जानी है, जो इंद्रियों की पकड़ के बाहर हो? कोई ऐसा स्वाद जाना है, जो जीभ से न लिया गया हो? अगर नहीं जाना, तो परमात्मा की हमें कोई खबर नहीं है। कोई ऐसा दृश्य देखा है, जो आंख से न देखा गया हो? अगर नहीं देखा, तो हमें उन जड़ों की कोई खबर नहीं है, जिनकी कृष्ण बात करते हैं। क्या कोई ऐसी ध्वनि सुनी है, जो कानों से न सुनी गई हो? ऐसी ध्वनि, जिसे बहरा भी सुन सके! अगर नहीं सुनी है ऐसी कोई ध्वनि, तो हमें धागे की कोई भी खबर नहीं है; हम मनकों से ही खेल रहे हैं।

और जब तक कोई आदमी मनकों से खेलता है, तब तक बचकाना है, जुवेनाइल है। और जैसे ही उसे मनकों के भीतर छिपे हुए धागे के रहस्य का पता चल जाता है, उसी दिन प्रौढ़ होता है।

सिर्फ धार्मिक व्यक्ति ही मैच्योर होता है, प्रौढ़ होता है। अधार्मिक व्यक्ति बचकाने ही रह जाते हैं। इसलिए जिस समाज में जितना ज्यादा अधर्म होगा, उतना बचकानापन और चाइल्डिशनेस बढ़ जाएगी।


तो कृष्ण कहते हैं, मैं छिपा हूं।

धर्म जो है, वह साइंस आफ दि हिडेन, छिपे हुए का विज्ञान है। विज्ञान जो है, वह प्रकट जगत की खोज है।

लेकिन जो भी प्रकट है, वह ऊपर है, सतह पर है; और जो अप्रकट है, वह गहरा है। खजाने तो छिपाकर ही रखे जाते हैं। आप भी अपनी तिजोड़ी कहां रखते हैं? द्वार पर नहीं रखते हैं। न ही सड़क पर रख देते हैं। न घर की दीवाल पर रखते हैं। न घर की फेंसिंग के पास रखते हैं। तिजोड़ी आप वहीं रखते हैं, जो घर का अंतरतम स्थान है।

जीवन की भी सारी संपदा अंतरतम स्थानों में छुपी होती है। जितनी बड़ी चीज खोदनी हो, उतने गहरे उतरना पड़ता है।

अगर परमात्मा को खोजना हो, तो बहुत गहरे उतरना पड़ेगा। और गहरे उतरने का एक ही अर्थ है कि इंद्रियां जब तक हमें पकड़े हैं, तब तक हम गहरे नहीं जा सकते।

इंद्रियों की पकड़ की हालत वैसी है, जैसे कोई आदमी किसी नदी के किनारे को पकड़े हो और कहता हो, मुझे नदी की गहराई की खोज करनी है। और किनारे को जोर से पकड़े हो, और कहता हो कि कहीं मैं डूब न जाऊं, इसलिए किनारा नहीं छोडूंगा। यद्यपि मुझे उन हीरों की खोज करनी है, जो मैंने सुने हैं कि नदी के अंतर्गर्भ में हैं, नदी की गहराई में पड़े हैं। मुझे वे हीरे खोजने हैं, लेकिन किनारा मैं न छोडूंगा। क्योंकि किनारा छोड़ दूं, तो कहीं मैं डूब न जाऊं! लेकिन किनारा छोड़ना ही पड़ेगा।

तो कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों के पार जो है, वह मैं हूं। और इंद्रियों से जो पकड़ में आता है, वह जगत है, जो मैंने तुझसे कहा आठ प्रकार का।

एक और बात कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं। यह बात बहुत सोचने जैसी है। इसलिए भी सोचने जैसी है कि भारतीय प्रज्ञा ने ही इस बात की जगत में उदघोषणा की है। कहते हैं, मैंने ही बनाई है यह प्रकृति। मैंने ही रचा है यह सब। यह मुझसे ही स्रष्ट हुआ, और मुझमें ही प्रलय को उपलब्ध हो जाएगा।

परमात्मा की स्रष्टा की तरह धारणा तो जगत में सब जगह पैदा हुई, दि क्रिएटर। बट दि डिस्ट्रायर, विनाश करने वाले की तरह की धारणा भारत की अपनी अनूठी खोज है।

सारी दुनिया में परमात्मा को कहा जाता है, स्रष्टा, बनाने वाला। लेकिन इतने हिम्मतवर धार्मिक लोग पृथ्वी पर कहीं न हुए कि बनाने वाले के भीतर जो छिपा हुआ तर्क है, उसकी आत्यंतिक बात को भी स्वीकार कर लेते; क्योंकि जो बनाएगा, वही मिटाएगा भी। जो स्रष्टा होगा, वही विनाश भी कर सकेगा। और जिससे जगत पैदा होगा, उसी में लीन भी होगा। और जो जन्मदाता है, वही मृत्युदाता भी होगा।

दूसरी बात अप्रीतिकर है, इसलिए दुनिया में कहीं भी खयाल में नहीं आई। पहली बात बड़ी प्रीतिकर है कि हे, तू पिता है, तू गोद है। लेकिन तू कब्र भी है, इसे कहने की हिम्मत! तूने जन्म दिया, तूने बनाया, तू दयालु है। लेकिन तू मिटाएगा भी, तू तोड़कर खंड-खंड करके विनष्ट भी कर देगा! और फिर भी कहने की हिम्मत की कि तू दयालु है, बड़ी मुश्किल है। बनाने वाला दयालु है, लेकिन मिटाने वाला? मिटाने वाले से हमें डर लगता है। जन्म दिया तूने, बड़ी कृपा की। लेकिन मृत्यु!

तो सारी दुनिया में मृत्यु के लिए लोगों ने दूसरा तत्व खोजा-- डेविल, शैतान, इबलीस, अलग-अलग नाम दिए। परमात्मा से विपरीत एक और शक्ति की कल्पना की, जो मिटाएगी। यह सिर्फ इस देश में एक ठीक, संगत विचार की व्यवस्था हुई, और वह यह कि जो बनाएगा, वही मिटाएगा।

लेकिन हमारी धारणा यह है कि बनाना भी उसकी कृपा है और मिटाना भी उसकी कृपा है। और जो बनाने में ही कृपा देखता है, वह धार्मिक नहीं है। जो मिटाने में भी कृपा देख पाता है, वही धार्मिक है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं कि सृजन भी मेरा, विनाश भी मेरा; निर्मित भी हुआ सब मुझसे और प्रलय को भी उपलब्ध होगा मुझमें। सब मुझमें ही आता है और मुझमें ही खो जाता है।

इसमें बड़ा वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। जीवन की सारी गति वर्तुलाकार है। और चीजें जहां से शुरू होती हैं, वहीं समाप्त होती हैं। जैसे कि एक हम वर्तुल बनाएं, एक सर्किल बनाएं, तो जहां से हम बनाना शुरू करें, वहीं फिर दूसरी रेखा आकर जोड़ें, तब वर्तुल पूरा बने।

सारा जीवन वर्तुलाकार है। बचपन में जहां से हम यात्रा करते हैं, जवानी के बाद उसी दुनिया में वापस सीढ़ियां उतरते हैं। और जन्म जिस बिंदु पर घटित होता है, उसी बिंदु पर मृत्यु भी घटित होती है। वर्तुल पूरा हो गया। और मृत्यु जन्म से विपरीत नहीं है, बल्कि जन्म के साथ ही जुड़ा हुआ दूसरा कदम है। और विनाश, सिर्फ विश्राम है। इसे समझ लेना जरूरी है।

इस मुल्क में ही विनाश को विश्राम समझने की सामर्थ्य पैदा हुई। विनाश विश्राम है। सृष्टि तो श्रम है, और प्रलय? प्रलय विश्राम है। इसलिए सृष्टि को हमने कहा, ब्रह्मा का दिन। और प्रलय को हमने कहा, ब्रह्मा की रात्रि। श्रम हो गया। सुबह हम उठे। दौड़े, जीए, हारे, जीते, अज्ञानी-ज्ञानी बने, समझ-नासमझ झेली। और फिर सांझ आई। और अंधेरा उतरा। और सो गए। और फिर वापस वहीं खो गए, जहां से सुबह उठे थे।

दिन है श्रम, रात्रि है विश्राम। जीवन है श्रम, मृत्यु है विश्राम। सृजन है श्रम, विनाश है विश्राम। विनाश को हमने कभी शत्रु की तरह नहीं देखा, मृत्यु को हमने कभी शत्रु की तरह नहीं देखा।

और ध्यान रहे, जिसने भी मृत्यु को शत्रु की तरह देखा, उसका जीवन नष्ट हो जाएगा। यह बड़ी उलटी दिखाई पड़ेगी बात। पर ऐसा ही है।

जिसने भी मृत्यु को शत्रु की तरह देखा, वह जी न पाएगा; वह जिंदगीभर मृत्यु से डरेगा और बचेगा। जीना असंभव है। लेकिन जिसने मृत्यु को भी मित्र माना, वही जी पाएगा। क्योंकि जिसे मृत्यु भी दुख नहीं दे पाती, उसे जीवन कैसे दुख देगा! और जिसे मृत्यु भी मित्र है, उसे जीवन तो महामित्र हो जाएगा। और जिसे जीवन से विपरीत नहीं दिखाई पड़ती मृत्यु, बल्कि जीवन की ही पूर्णता दिखाई पड़ती है--जैसे कि वृक्षों पर फल पक जाते हैं, ऐसे ही जीवन पर मृत्यु पकती है--जिसे मृत्यु जीवन की ही परिपूर्णता दिखाई पड़ती है और प्रलय भी सृजन का अंतिम चरण मालूम होता है, उसका जीवन आह्लाद से भर जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं है। और आह्लाद से न भरे जीवन, तो धर्म का हमें कोई भी पता नहीं है।

इसलिए कृष्ण जब कहते हैं, मैं ही हूं सृजन और मैं ही विनाश। इस तरह की हिम्मत की घोषणा कहीं भी नहीं की गई है। अगर कहीं घोषणाएं भी की गई हैं, तो कहा गया है कि मैं हूं स्रष्टा, और वह जो शैतान है, वह है दुष्ट। वह कर रहा है विनाश। तू उससे सावधान रहना।

लेकिन अमृत भी मैं और जहर भी मैं; इन दोनों की एक साथ स्वीकृति बड़ी अदभुत है। और सचाई है उसमें। क्योंकि जीवन के समस्त द्वंद्व संयुक्त होते हैं, अलग-अलग नहीं होते। अंधेरा और प्रकाश संयुक्त हैं। और अगर कोई परमात्मा कहता हो, प्रकाश हूं मैं और अंधेरा कोई और, तो वह परमात्मा भी बेईमान है। अंधेरा कौन होगा और? और अगर परमात्मा प्रकाश है और अंधेरा कोई और, तो इस जगत में शक्ति-विभाजन हो जाएगा। रात किसी और की, और दिन किसी और का।


इसलिए कृष्ण बड़ी सरलता से कह पाते हैं कि मैं ही हूं सृजन, मैं ही प्रलय। सब मुझसे ही पैदा होता और मुझमें ही लीन हो जाता है।

यहां हमने परमात्मा को अविभाजित, अनडिवाइडेड जाना है। और ध्यान रहे, अगर हम परमात्मा को अविभाजित न जानें, तो हमारे भीतर अविभाजित श्रद्धा होने की कोई संभावना नहीं है। और हमने एक बार जगत को दो हिस्सों में तोड़ा कि हमारे भीतर का हृदय भी दो हिस्सों में टूट जाएगा।

इसलिए पश्चिम में आज जो मनोवैज्ञानिकों के सामने सबसे बड़ी बीमारी है, वह है, स्प्लिट पर्सनैलिटी, व्यक्तित्व का टूटा हुआ होना, विखंडित होना। लेकिन पश्चिम के मनोवैज्ञानिक को भी कोई खयाल नहीं है कि मनुष्य का मन दो में क्यों टूट गया। और यह पश्चिम में ही विखंडित, स्प्लिट पर्सनैलिटी क्यों पैदा हुई? उसका कारण उसके खयाल में नहीं है।

उसका कारण है कि निष्ठा जब दो में टूट जाए, और निष्ठा जब विभाजित हो, तो भीतर हृदय भी दो में टूट जाता है और विभाजित हो जाता है। जब निष्ठा एक में हो और अविभाज्य हो, तो निष्ठावान हृदय भी अविभाजित हो जाता है और एक हो जाता है। एक परमात्मा, तो भीतर एक आत्मा का जन्म होता है। और अगर दो शक्तियां हमने स्वीकार कीं, तो भीतर भी चित्त डांवाडोल, और दो में टूट जाता है। और आज तो हालत ऐसी है कि स्वीकृत हो गया है पश्चिम में कि हर आदमी खंड-खंड होगा।





कृष्ण कहते हैं, दोनों ही मैं हूं। बुरा भी मैं हूं, भला भी मैं हूं।

अपने को भला कहने की बात तो बड़ी आसान है। अपने को महात्मा कहने की बात तो बड़ी आसान है। लेकिन अपने को दुरात्मा कहने की हिम्मत बड़ी है।

कृष्ण कहते हैं, दोनों ही मैं हूं। वह जो तुम्हें अच्छा लगता है, वह भी मैं हूं। वह जो तुम्हें बुरा लगता है, वह भी मैं हूं। दोनों ही मैं हूं।

जिसको यह समग्र स्वीकृति, यह टोटल एक्सेप्टेबिलिटी समझ में आ जाए, वही कृष्ण के तत्व-दर्शन को ठीक से समझ पाएगा।

इसलिए कृष्ण के साथ बहुत अन्याय भी हुआ है। क्योंकि कृष्ण का व्यक्तित्व समाहित, समग्र को इकट्ठा लिए हुए है। तो किसी को शक होता है कि कृष्ण दोनों काम कैसे कर पाते हैं! इनकंसिस्टेंट मालूम पड़ते हैं, असंगत मालूम पड़ते हैं। एक तरफ परमात्मा की बात करते हैं, दूसरी तरफ युद्ध में उतार देते हैं। परमात्मवादी को तो पैसिफिस्ट होना चाहिए, उसको तो शांतिवादी होना चाहिए। अशांति तो दुष्टों का काम है, युद्ध तो दुष्टों का काम है!

कृष्ण कैसे आदमी हैं! एक तरफ परमात्मा की बात, और दूसरी तरफ अर्जुन को युद्ध में जाने की प्रेरणा। ये दुनिया के जितने शांतिवादी हैं, उनको बड़ी बेचैनी होगी। वे तो कहेंगे, कृष्ण जो हैं, ठीक आदमी नहीं हैं। कृष्ण को तो मौका चूकना नहीं था। अर्जुन भाग रहा था, शांतिवादी बन रहा था। फौरन रास्ता बनाना था कि भाग जा। आगे-आगे दौड़ना था। लोगों से कहना था, हटो! अर्जुन को निकल जाने दो, यह शांतिवादी हो गया है।

कृष्ण बेबूझ हैं। क्योंकि कृष्ण कहते हैं, दोनों ही मैं हूं, युद्ध भी मैं और शांति भी मैं। दोनों ही मैं हूं, अंधेरा भी मैं, प्रकाश भी मैं। और जब दोनों की तरह तू मुझे देख पाएगा, तभी तू मुझे देख पाएगा। अगर तू बांटकर देखेगा, आधे को देखेगा, चुनकर देखेगा, तो तू मुझे कभी नहीं देख पाएगा।

परमात्मा में चुनाव नहीं किया जा सकता। यू कैन नाट चूज। और अगर आपने चुनाव किया, तो वह परमात्मा आपके घर का होममेड परमात्मा होगा, घर का बनाया हुआ। वह परमात्मा असली नहीं होगा।

परमात्मा तो जैसा है, उसके लिए वैसे ही होने के लिए राजी होना पड़ेगा। अगर वह प्रलय है तो सही। अगर वह मृत्यु है तो सही। राजी हैं। अगर आपने कहा कि नहीं, हम तो जरा परमात्मा के चेहरे पर रंग-रोगन करेंगे। हम तो जरा शक्ल को सुंदर बनाएंगे। मेकअप में हर्ज भी क्या है? हम थोड़ा इसकी शक्ल को ठीक कर लें। अगर आपने ऐसा किया, तो जो आपके हाथ में लगेगा, वह आपके हाथ का बनाया हुआ परमात्मा होगा। उससे परमात्मा का कोई भी संबंध नहीं है।

धार्मिक आदमी दुस्साहसी है। दुस्साहस उसका यह है कि जैसा है, ऐज इट इज़, वह उसे स्वीकार करता है। वह कहता है, यह भी तेरा और यह भी तेरा। जन्म भी तेरा और मृत्यु भी तेरी। दोनों के लिए मैं राजी हूं।

इसलिए कृष्ण अर्जुन को कहते हैं, प्रलय भी मैं, सृजन भी मैं। दोनों ही मैं हूं।

विरोधों को आत्मसात करने की यह घोषणा वेदांत का सार है। अविरोध पैदा होता है फिर। और जब जीवन की दृष्टि अविरोध की होती है, तो आपके भीतर अविरोधी हृदय का जन्म होता है। जो आपके परमात्मा का रूप होगा, वही आपके हृदय का रूप बन जाएगा। आपका हृदय ढलता है उसी रूप में, जिस रूप में आप परमात्मा को स्वीकार करते हैं। तोड़कर नहीं, जोड़कर, इकट्ठा, सबको लिए हुए।

और जब सुबह आपके पैर में कांटा गड़े, तो यह मत सोचना कि शैतान ने गड़ाया। तब उसको भी सोचना कि परमात्मा ने गड़ाया; और परमात्मा ने आपको इस योग्य समझा कि कांटा गड़ाया, उसके लिए भी धन्यवाद दे देना।

और जिस दिन फूल के लिए ही नहीं, कांटे के लिए भी परमात्मा को कोई धन्यवाद दे पाता है, उस दिन उसे मंदिरों में जाने की जरूरत नहीं रह जाती। वह जहां है, वहीं मंदिर आ जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल


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