मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 17

 कामना और प्राथना


अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।

देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि।। 23।।


परंतु उन अल्पबुद्धि वालों का वह फल नाशवान है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मेरे को ही प्राप्त होते हैं।


कामनाओं से प्रेरित होकर की गई प्रार्थनाएं जरूर ही फल लाती हैं। लेकिन वे फल क्षणिक ही होने वाले हैं; वे फल थोड़ी देर ही टिकने वाले हैं। कोई भी सुख सदा नहीं टिक सकता, न ही कोई दुख सदा टिकता है। सुख और दुख लहर की तरह आते हैं और चले जाते हैं।

देवताओं की पूजा से जो मिल सकता है, वह क्षणिक सुख का आभास ही हो सकता है। वासनाओं के मार्ग से कुछ और ज्यादा पाने का उपाय ही नहीं है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, लेकिन जो मेरे निकट आता है--और उनके निकट आने की शर्त है, वासनाओं को छोड़कर, विषयासक्ति को छोड़कर--वह उसे पाता है, जो नष्ट नहीं होता, जो खोता नहीं, जो शाश्वत है। इसलिए उन्होंने दो बातें इस सूत्र में कही हैं। अल्पबुद्धि वाले लोग!

अल्पबुद्धि वाले लोग कौन हैं? अल्पबुद्धि वाले लोग वे हैं, जो कि अपने ही हाथों, बहुत बड़े मूल्य पर बहुत छोटी चीज खरीदने को राजी हो जाते हैं। बहुत बड़े मूल्य पर बहुत छोटी चीज खरीदने को राजी हो जाते हैं। प्रार्थना से तो मिल सकता है परम सत्य, लेकिन वे मांग लेते हैं कुछ क्षुद्र वस्तुएं। प्रार्थना से मिल सकता है परम जीवन, लेकिन वे मांग लेते हैं शरीर की कुछ जरूरतें।

निश्चित ही, अल्पबुद्धि हैं इस कारण। और इसलिए भी अल्पबुद्धि हैं कि जो भी वे मांगते हैं, वह मिल भी जाए, तो भी मांग का कोई अंत नहीं होता। जो वे पाना चाहते हैं, पा लें, तब भी वे उतने ही अतृप्त, उतने ही दीन और उतने ही अधूरे होते हैं, जितना मिलने के पहले थे।

मांगना ही हो, तो उसे मांग लेना चाहिए, जिसे मांगकर फिर और कोई मांग शेष न रह जाए। पाना ही हो, तो उसे पा लेना चाहिए, जिसे पाकर तृप्ति हो जाती है, और पाने की दौड़ समाप्त हो जाती है। लेकिन अल्पबुद्धि लोग दूर तक नहीं देख पाते। विस्तीर्ण, जीवन के पूरे पहलू को नहीं समझ पाते। क्षणिक उनकी बुद्धि होती है। अभी जो लगता है जरूरी, वह मांग लेते हैं।

बुद्धिमान वही है, जो जीवन की परम आवश्यकता को मांगता है।



अगर मनुष्य बिलकुल बुद्धिहीन हो, तब तो कोई संभावना नहीं रह जाती। बुद्धि तो है; बहुत छोटी है। बड़ी हो सकती है, विकसित हो सकती है। जो बीज की तरह है, वह वृक्ष की तरह हो सकती है। जो आज बहुत छोटी है, वह कल विराट बन सकती है।

कहते हैं, अल्पबुद्धि है आदमी। दुख तो नहीं चाहता आदमी, नहीं तो बुद्धिहीन होता। सुख चाहता है, लेकिन अल्पबुद्धि है। क्योंकि ऐसा सुख चाहता है, जो अंत में दुख ही लाता है, और कुछ लाता नहीं।

अल्पबुद्धि कहना प्रयोजन से है। और अगर इस बात को हम ठीक से समझें, तो हम सभी अल्पबुद्धि मालूम पड़ेंगे। हमने जो भी चाहा, जो भी मांगा, जो भी खोजा, जीवन के मंदिर में हमने जो भी प्रार्थनाएं की हैं, वे हमारी सब ऐसी प्रार्थनाएं हैं, जैसे कोई रेत पर मकान बनाए; ताश के पत्तों का घर बनाए; कागज की नावें बनाएं, और सोचे कि सागर में यात्रा पर निकल जाएगा। कागज की नाव पर कोई बैठकर सागर की यात्रा पर जा रहा हो, तो हम उसे क्या कहेंगे?

कृष्ण वही हमसे कह रहे हैं। हम सब कागज की नावों पर जीवन में यात्रा करते हैं। हमारी नावें सपनों से ज्यादा नहीं। और हमारे भवन ताश के पत्तों के घर हैं। और सब, रेत पर हमारे हस्ताक्षर हैं। हवा के झोंके आएंगे और सब बुझ जाएगा, और सब मिट जाएगा।

अल्पबुद्धि हैं हम। पर बुद्धि हम में है, अल्प ही सही। बीज ही सही, पोटेंशियलिटी ही सही। हम इतना तो तय है कि सुख चाहते हैं। हां, इतना तय नहीं है कि सुख क्या है, वह हम नहीं समझ पाए हैं।

सुख चाहते हैं, यह तय है। सुख चाहकर भी दुख पाते हैं, यह हमारा अनुभव है। लेकिन सुख की चाह हमारे भीतर है, वह बुद्धिमानी की सूचक है। लेकिन अत्यल्प बुद्धि की सूचक है। क्योंकि फिर जो हम करते हैं, उससे दुख हाथ में आता है। शायद हम ठीक से नहीं देख पाते कि सुख क्या है और दुख क्या है।

यह बहुत मजे की बात है। जो व्यक्ति भी थोड़ी दूर तक सोचेगा, वह हमेशा ऐसे सुख को चुन लेगा, जो बाद में दुख बन जाए। और जो व्यक्ति दूर तक सोचेगा, वह ऐसे दुख को चुनेगा, जो बाद में सुख बन जाए।

भोग और तपश्चर्या का इतना ही फर्क है। भोगी, आज जो सुख मालूम पड़ता है, उसे चुन लेता है; कल वह दुख हो जाता है। तपस्वी, आज जो दुख मालूम पड़ता है, उसे चुनता है, लेकिन कल वह सुख हो जाता है।

और यह बड़े मजे की बात है, जो दुख को चुन सकता है आज, वह कल सुख का मालिक हो सकता है। और जो सुख को ही चुन सकता है आज, कल वह सिवाय दुख के गङ्ढों के और किन्हीं चीजों को उपलब्ध नहीं होगा। सुख पर जिसकी नजर है, वह दुख में पड़ जाएगा। उसकी नजर बहुत ओछी है, बहुत पास ही वह देखता है। इतने पास देखता है कि आगे के रास्ते का कुछ पता नहीं चलता। दूर-दृष्टि चाहिए; दूर तक देखने की सामर्थ्य चाहिए। और अगर हम जरा भी दूर देख पाएं, तो हम जिन्हें सुख मानकर चलते हैं, उनकी खोज में हम अपने जीवन को नष्ट नहीं करेंगे।

अल्पबुद्धि का तर्क यही है कि कोई फिक्र नहीं, एक मकान सुख न दे पाया, तो दूसरा देगा। कोई फिक्र नहीं, एक पद पर शांति न मिली, तो और दूसरे पद पर मिलेगी। कोई फिक्र नहीं, छोटी तिजोड़ी भर गई पूरी, फिर भी मन न भरा; शायद बड़ी तिजोड़ी भर जाए, तो मन भर जाए।

अल्पबुद्धि का तर्क है कि वह एक अनुभव को जीवन की चिरस्थायी निधि नहीं बना पाता। वह अपने को धोखा दिए चला जाता है। वह कहता है, नहीं, कोई बात नहीं; यह अनुभव गलत हुआ, दूसरा अनुभव ठीक होगा, तीसरा अनुभव ठीक होगा, चौथा अनुभव ठीक होगा।

लेकिन इस जगत में एक अनुभव, उससे मिलते-जुलते सारे अनुभव की खबर दे जाता है। पर उसके लिए बहुत दूर तक देखने वाली दृष्टि, मेधा चाहिए। अल्पबुद्धि नहीं, गहरी दृष्टि चाहिए, महाबुद्धि चाहिए। तब एक अनुभव समस्त अनुभवों के लिए मार्ग बन जाता है, द्वार बन जाता है।

लेकिन बहुत कठिन है। अगर आपके हाथ में एक रुपया आया और आपके हाथ में कुछ न आया, तो आप यह मानने को कभी राजी न होंगे कि दूसरा आएगा और कुछ न आएगा, तीसरा आएगा और कुछ न आएगा। आपका मन धोखा दिए चला जाएगा। वह कहेगा, एक से नहीं मिला; तो वह कहेगा, दूसरा पाने की शीघ्रता करो। दूसरे से नहीं मिला, तो तीसरा पाने की शीघ्रता करो। बस, मन इतना ही कहेगा, और तेजी से दौड़ो, और तेजी से दौड़ो; कभी तो वह दिन आ जाएगा, जब उतने रुपए हाथ में होंगे, जब तृप्ति हो जाए।

लेकिन कभी लौटकर इतिहास में भी तो लोगों से पूछें कि वह तृप्ति कभी आई?

एच.जी.वेल्स ने विश्व इतिहास में लिखा है कि दुनिया में बहुत सम्राट हुए, लेकिन अशोक जैसा चमकता हुआ तारा विश्व के इतिहास में दूसरा नहीं है। कारण है उसका। महाबुद्धि है। और उसके महाबुद्धि होने की बात क्या है? राज क्या है? राज यह है कि युद्ध के एक अनुभव ने उसे मन का पूरा रहस्य समझा दिया।

आपने कितनी बार क्रोध किया है, लेकिन क्रोध का रहस्य आप समझ पाए? कितनी बार कामवासना में उतरे हैं, कामवासना का रहस्य समझ पाए? कितनी बार प्रेम किया है, प्रेम का रहस्य समझ पाए? कितनी बार घृणा की है, घृणा का रहस्य समझ पाए?

नहीं, रोज वही करते रहे हैं, लेकिन हाथ में कोई भी निष्पत्ति, कोई भी कनक्लूजन नहीं है। हाथ खाली का खाली है, और कल आप फिर बच्चे जैसा ही व्यवहार करेंगे। अल्पबुद्धि है चित्त।

कृष्ण कहते हैं, अल्पबुद्धि लोग सुख की मांग करते हैं देवताओं से। देवताओं से ही की जा सकती है मांग सुख की। सुख भी उन्हें मिल जाते हैं, लेकिन क्षणभंगुर सिद्ध होते हैं। हां, जो मेरे पास आता है, परम ऊर्जा के द्वार पर जो आता है, वह अनंत आनंद का मालिक हो जाता है।

अगर प्रभु के द्वार पर ही जाना हो, तो क्षुद्र वासना लेकर मत जाना। वासना पूरी भी हो जाए, तो भी कुछ हाथ नहीं लगने वाला है। प्रभु के द्वार पर तो खाली होकर जाना, बिना कोई वासना लिए। प्रभु से तो यही कहते जाना कि जो तूने दिया है, वह जरूरत से ज्यादा है।

जो हमें मिला है, उसके लिए हम धन्यवाद नहीं दे पाते। जो नहीं मिला है, उसकी शिकायत कर पाते हैं। उस आदमी ने कहा कि ठीक कहती है तू; क्योंकि जब मैं अंधा होता हूं, तो लोग नकली सिक्के हाथ में रख देते हैं!

नकली भी कोई हाथ में रखता है, इसका भी धन्यवाद हो सकता है। पर उसके लिए बड़ी दूर-दृष्टि, उसके लिए बड़ी महाबुद्धि चाहिए। इतना भी क्या कम है कि किसी ने नकली सिक्का भी आपके हाथ में रखा! यह भी कहां जरूरी था? इसकी भी शिकायत करने कहां जा सकते हैं? उसने हाथ पर खाली हाथ भी रखा, तो भी क्या कम है! क्योंकि वह न रखता तो कोई सवाल तो न था।

लेकिन जिंदगी हमारी ऐसी ही है। जो हमें मिला है, उसका हमें कोई भी स्मरण नहीं है। जो हमें नहीं मिला है, उसका हमें बहुत तीव्र बोध है। वह कांटे की तरह छाती में चुभता रहता है। धार्मिक आदमी ऐसी प्रार्थना करने नहीं जाता मंदिर में, जिसमें कुछ मांगता हो। इस बात का धन्यवाद देने जाता है कि जो तूने दिया है, वह मेरी सामर्थ्य से भी ज्यादा है।

और जो उसने दिया है, उसका हमने उपयोग क्या किया है? कभी आपने सोचा? आपको आंखें दी हैं, आंखों से आपने ऐसा क्या देखा है, जो आप न देखते तो कुछ हर्जा हो जाता? कभी इस पर सोचा है! परमात्मा ने आपको आंखें दी हैं। आपने इन आंखों से ऐसा क्या देखा है, जो न देखते तो कुछ हर्जा हो जाता? शायद ही आपको याद आए। उसने आपको कान दिए हैं। ऐसा क्या सुना है, जो न सुनते तो कोई हर्जा हो जाता? उसने आपको हाथ दिए हैं। ऐसा आपने क्या स्पर्श किया है, जो स्पर्श न किया होता तो कुछ आप खो देते? उसने आपको पैर दिए हैं। आपने ऐसी कौन सी तीर्थयात्रा की है, जो कि अगर पैर न होते और आप न कर पाते, तो प्राणों में कसक रह जाती?

नहीं, पैर किसी तीर्थ तक नहीं पहुंचे, आंखें किसी दृश्य को नहीं देख पाईं, कान ने कोई अमृत नहीं सुना। और ऐसा नहीं है कि अमृत चारों तरफ मौजूद नहीं है, और ऐसा भी नहीं है कि तीर्थ बहुत दूर है, और ऐसा भी नहीं है कि वह दृश्य दिखाई न पड़ जाए, जिसे देख लेने पर आंखें सार्थक हो जाती हैं; वह भी निकट है।

पर जो हमें मिला है, हम उसकी तरफ ध्यान ही नहीं देते, उपयोग की तो बात दूर है। उपयोग का तो कोई सवाल नहीं है। हम उस पर ध्यान ही नहीं देते। हम उसे मांगते चले जाते हैं, जो नहीं मिला है। हमारी सारी प्रार्थनाएं, जो नहीं मिला है, उसकी मांग है। पूरी हो जाएंगी वे मांग, कृष्ण कहते हैं, लेकिन फिर भी वह अल्पबुद्धि है आदमी, क्योंकि थोड़ी ही देर में वह फिर पाएगा कि वे सब सुख जो पाए थे, खो गए।

प्रार्थना तो वही सार्थक है, जो वहां पहुंचा दे, जिसे मिलने पर फिर खोना नहीं है; जिसके मिलन में फिर विछोह नहीं है। पर वह देवताओं की पूजा से नहीं, वह तो परम सत्ता की तरफ समर्पण से संभव है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...