रविवार, 25 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 3

 परमात्मा की खोज

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः।। 3।।


परंतु हजारों मनुष्यों में कोई ही मनुष्य मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है, और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई ही पुरुष मेरे परायण हुआ मेरे को तत्व से जानता है अर्थात यथार्थ मर्म से जानता है।


प्रभु की यात्रा सरल भी है और सर्वाधिक कठिन भी। सरल इसलिए कि जिसे पाना है, उसे हमने सदा से पाया ही हुआ है। जिसे खोजना है, उसे हमने वस्तुतः कभी खोया नहीं है। वह निरंतर ही हमारे भीतर मौजूद है, हमारी प्रत्येक श्वास में और हमारे हृदय की प्रत्येक धड़कन में। इसलिए सरल है प्रभु को पाना, क्योंकि प्रभु की तरफ से उसमें कोई भी बाधा नहीं है। इसे ठीक से ध्यान में ले लेंगे।


प्रभु को पाना सरल है, क्योंकि प्रभु  सदा ही उपलब्ध है। लेकिन प्रभु को पाना कठिन बहुत है, क्योंकि आदमी सदा ही प्रभु की तरफ पीठ किए हुए खड़ा है। आदमी की तरफ से सारी कठिनाइयां हैं, प्रभु की तरफ से कोई भी कठिनाई नहीं है। उसके मंदिर के द्वार सदा ही खुले हैं, लेकिन हम उन मंदिर के द्वारों की तरफ पीठ किए हैं। पीठ ही नहीं किए हैं, पीठ करके भाग भी रहे हैं। भाग ही नहीं रहे हैं, अपना पूरा जीवन, अपनी पूरी शक्ति, अपनी पूरी सामर्थ्य, किस भांति उस मंदिर से दूर निकल जाएं, इसमें लगा रहे हैं।

यद्यपि हम निकल न पाएंगे। हजारों-हजारों जन्मों में दौड़कर भी उस मंदिर से हम दूर न जा पाएंगे। और जिस दिन भी हम पीठ फेरकर देखेंगे, पाएंगे कि वह मंदिर वहीं का वहीं मौजूद है--वहीं, जहां से हमने दौड़ना शुरू किया था।

आदमी की तरफ से बहुत कठिनाइयां हैं। इसलिए कृष्ण के इस सूत्र में उन्होंने कहा, करोड़ों में कोई एक प्रयास करता है। और प्रयास करने वाले करोड़ों में कोई कभी एक मुझे उपलब्ध होता है।

दो बातें। करोड़ों में कभी कोई एक प्रयास करता है। इसे समझें। और फिर प्रयास करने वाले करोड़ों में भी कभी कोई एक मुझे परायण हुआ, मुझे समर्पित हुआ, उपलब्ध होता है।

क्यों करोड़ों लोगों में कभी कोई एक प्रयास करता है उसे पाने के लिए, जिसे पाए बिना कोई चारा नहीं, जीवन में कोई अर्थ नहीं? क्यों करोड़ों में कोई एक प्रयास करता है उसे पाने के लिए, जिसे पाकर सब पा लिया जा सकता है? क्या होगा कारण? होना तो ऐसा चाहिए कि करोड़ों में कभी कोई एक प्रयास न करे, बाकी सारे लोग प्रयास करें। क्योंकि परमात्मा आनंद है, जीवन है, अमृत है। तो करोड़ों में कोई एक क्यों प्रयास करता है? इसके कारण को थोड़ा ठीक से समझ लेना जरूरी है, क्योंकि वह उपयोगी है।

सबसे पहला कारण तो यह है कि जो हमें मिला ही हुआ है, उसे पाने के लिए हम क्यों कर चेष्टा करें? सागर की मछली सब कुछ खोजती होगी, सागर को कभी नहीं खोजती है। सागर की मछली सब खोजों पर निकलती होगी, लेकिन सागर की खोज पर कभी नहीं निकलती है। उसी में पैदा होती है, उसी में जीती है, बड़ी होती है, श्वास लेती है, उसी में समाप्त होती है। उसे पता भी नहीं चलता कि सागर है।

मछली को भी सागर का तभी पता चलता है, जब उसे सागर के बाहर निकालो। अगर मछली सागर के बाहर न आए, तो उसे कभी भी पता नहीं चलता कि सागर है। असल में सागर के साथ इतनी एक है कि पता भी कैसे चले! पता चलने के लिए दूरी चाहिए।

तो मछली तो कभी-कभी सागर के बाहर भी आ जाती है, आदमी तो परमात्मा के बाहर कभी नहीं आता है। मछली को तो कोई मछुवा कभी फांस भी लेता है जाल में और सागर के तट पर भी तड़फने को छोड़ देता है। आदमी के लिए तो ऐसा कोई तट नहीं है, जहां परमात्मा मौजूद न हो। आदमी जहां भी जाए, वहां परमात्मा मौजूद है। जो इतना ज्यादा मौजूद है, उसकी हम फिक्र छोड़ देते हैं, उसका हमें खयाल भूल जाता है।

ध्यान रहे, हमारे ध्यान की जो धारा है, वह जो गैर-मौजूद है, उसकी तरफ बहती है। जैसे आपका एक दांत टूट जाए, तो जीभ उस दांत की तरफ चलने लगती है। जो दांत मौजूद हैं, उनकी तरफ नहीं चलती। और भलीभांति एक दफे पता लगा लिया कि टूट गया, खाली जगह छूट गई, फिर भी दिनभर जीभ वहीं दौड़ती रहती है! जहां अभाव है, वहां हम खोजते हैं। जिसका अति भाव है, जो एकदम मौजूद है घना होकर, वहां हम नहीं खोजते।

मन के गहरे नियमों में एक यह है कि जो हमें उपलब्ध है, उसकी हम विचारणा छोड़ देते हैं। जो हमें उपलब्ध नहीं है, उसकी हम खोज करते हैं। जो हमारे पास है, उसे हम भूल जाते हैं। जो हम से दूर है, उसकी हम स्मृति से भर जाते हैं। जिसे हम खो देते हैं, उसका पता चलता है; और जिसे हम कभी नहीं खोते, उसका पता भी नहीं चलता।

परमात्मा की खोज पर निकलने में जो सबसे बड़ी बाधा है, वह मन का यह नियम है कि हमें उसका ही पता चलता है, जो नहीं है। निगेटिव का पता चलता है, पाजिटिव का पता नहीं चलता। टूट गया दांत, तो पता चलता है। वह दांत चालीस साल से आपके पास था, तब इस जीभ ने कभी उसकी फिक्र न की। आज नहीं है, तो उसकी तलाश है!

 मन जो है नकार की तरफ दौड़ता है। वैसे ही जैसे पानी गङ्ढों की तरफ दौड़ता है, ऐसा ही मन अभाव की तरफ, एब्सेंस की तरफ, जो नहीं है, उसकी तरफ दौड़ता है। जो है, उसकी तरफ मन नहीं दौड़ता।

और परमात्मा सर्वाधिक है।  इतना ज्यादा है कि उसके सिवाय और कुछ भी नहीं है। वही वही है। सब तरफ वही है। आंख खोलें तो, आंख बंद करें तो; जागें तो, सो जाएं तो। सब तरफ वही वही है। सागर की तरह हमें घेरे हुए है। इसलिए करोड़ों में एक उसकी खोज पर निकलता है।

अगर परमात्मा की खोज पर निकलना हो, करोड़ों में एक बनना हो, तो इस सूत्र से विपरीत चलेंगे तभी, अन्यथा कभी नहीं। जो आपके पास हो, उसका स्मरण रखें; और जो आपसे दूर हो, उसे भूल जाएं। जो दांत अभी मुंह में हो, उसे जीभ से टटोलें; और जो गिर जाए, उसे मत टटोलें। जो आज सुबह रोटी मिली हो, उसका आनंद लें; जो रोटी कल मिलेगी, उसके सपने मत देखें। जो नहीं है, उसे छोड़ दें; और जो है, उसे पूरे आनंद से जी लें। तो आप करोड़ों में एक बनना शुरू हो जाएंगे।

क्योंकि ध्यान रखना, यात्रा सीधी परमात्मा की नहीं हो सकती, जब तक आपके मन का ढंग, आपके मन की व्यवस्था न बदले।

कभी आपने खयाल किया कि आप सोचते हैं, एक मकान बना लें। जब तक नहीं बनाते, तब तक मन बिलकुल आर्किटेक्ट हो जाता है। कितनी कल्पनाएं करता है! कितने नक्शे बनाता है! फिर मकान बन जाता है। फिर उसी मकान में जीने लगते हैं, और मकान को भूल जाते हैं। हां, रास्ते से जो निकलते होंगे, उनके मन में आपके मकान के लिए विचार आता होगा। आपको भर नहीं आता, जो उसके भीतर रहता है!


मन का नियम है, जो मिल जाता है, वह भूल जाता है। और परमात्मा तो मिला ही हुआ है। उसे तो याद करने की सुविधा भी नहीं बनती।

तो मन के नियम को बदलना पड़ेगा। मन का नियम अभी गङ्ढों की तरफ दौड़ना है। मन को पर्वतों की तरफ दौड़ाना शुरू करना पड़ेगा। और कोई कठिनाई नहीं है।

जिंदगी में बहुत कुछ मिला है, उसमें आह्लाद अनुभव करें। जो मिला है, उसमें प्रसन्न हों। जो है पास, उसमें संतुष्ट हों। जो पास है, उसके लिए प्रभु को धन्यवाद दें। जो है, उसे देखें; और जो नहीं है, उसे छोड़ें। बहुत शीघ्र आप पाएंगे कि आपकी परमात्मा की खोज शुरू हो गई।

इसलिए जिन लोगों ने परमात्मा की खोज में संतोष को अनिवार्य बताया है, उसका कारण भी आप समझ लें, वह इस सूत्र में छिपा हुआ है। संतोष में अपने आप कोई मूल्य नहीं है। संतोष अपने आप में कोई वेल्यू नहीं है; उसकी अपने आप में कोई कीमत नहीं है। क्योंकि मरा हुआ आदमी भी, मरा-मराया आदमी भी संतुष्ट दिखाई पड़ सकता है। ऐसा आदमी भी संतुष्ट मालूम पड़ सकता है, जिसमें जरा भी दौड़ने की हिम्मत नहीं है। कायर है, भयभीत है, चुनौती लेने से डरता है। नहीं; संतोष में अपने आप में मूल्य नहीं है, लेकिन संतोष का एक ही मूल्य है, वह परमात्मा की तरफ उन्मुख करने में कीमती है।

इसलिए मैं आपको कहता हूं कि संतोष का अब तक जो भी खयाल दुनिया में दिया गया कि संतोषी सदा सुखी, वह सब बच्चों की बातें हैं। सच तो यह है कि संतोषी के जीवन में एक नया दुख पैदा होता है, वह दुख परमात्मा को पाने का दुख है। वह और किसी की जिंदगी में पैदा नहीं होता। हां, संतोषी की जिंदगी में आस-पास की चीजों से सुख हो जाता है। क्योंकि जो उसे है, वह उसमें प्रसन्न है। वह उसे भोग रहा है। वह परमात्मा के प्रति अनुगृहीत है।

लेकिन इस संतोषी के जीवन में एक नई आग जलनी शुरू होती है, वह परमात्मा की खोज है। क्योंकि जब वह पाता है कि साधारण से भोजन में जो मुझे उपलब्ध है, अगर मैं उस पर ध्यान देता हूं, तो इतना रस मिलता है; साधारण-सा झोपड़ा जो मुझे उपलब्ध है, जब मैं उस पर ध्यान देता हूं, तो इतना रस मिलता है; साधारण-सा जीवन जो मुझे उपलब्ध है, जब मैं उस पर ध्यान देता हूं, तो इतना रस मिलता है--तो वह जो जीवन का मूलाधार है, जो मेरे होने के पहले से मेरे पास है, और मेरे न हो जाने पर भी मेरे पास होगा, मेरी लहर बनेगी और मिटेगी, और वह रहेगा, उसे पा लेने से क्या होगा! उसको पा लेने की एक नई पीड़ा, एक नई प्रसव-पीड़ा शुरू होती है।

संतोष को योग ने एक अनिवार्य सूत्र माना है परमात्मा की तलाश के लिए। अगर आप सोचते हों कि संतोष केवल संसार की दौड़ से बच जाने की तरकीब है, तो आपको संतोष की कीमिया का कोई पता नहीं। वह तो बड़ी गौण बात है। महत्वपूर्ण बात यह है कि जो अपने चारों तरफ जो मौजूद है, उससे संतुष्ट हो जाता है, उसके भीतर उसकी खोज शुरू होती है, जो सबसे ज्यादा गहराई में सदा से मौजूद है। उसके रस की खोज शुरू हो जाती है।

करोड़ों में इसीलिए एक आदमी! वह जिसके पास पाजिटिव माइंड है।

हमारे सबके पास निगेटिव माइंड है, हमारे पास नकारात्मक मन है। हमें मित्र तब दिखाई पड़ता है, जब वह घर से जा चुका होता है। हमें सुख का भी तब पता चलता है, जब वह हाथ से छूट गया होता है। हमें प्रेम का भी तब पता चलता है, जब प्रेम का दीया बुझने लगता है। हमें पता ही तब चलता है, जब कोई चीज समाप्त होती है। जब कोई मरता है, तभी हमें पता चलता है कि वह था। जब तक वह था, तब तक हमें पता ही नहीं चलता।

पिता घर में मौजूद है, बेटे को बिलकुल पता नहीं चलता कि है। जिस दिन मरेगा पिता, उस दिन पता चलेगा। उस दिन रोएगा, छाती पीटेगा। और जब तक पिता मौजूद था, तब कभी दो क्षण भी उसके पास नहीं बैठा था। बड़े आश्चर्य की बात है। तब तक कभी फुर्सत न मिली थी कि दो क्षण उसके पैरों पर हाथ रखकर बैठ जाए। अब मुर्दे की छाती पर सिर पटकेगा।

निगेटिव माइंड है। जो नहीं है, बस, वह हमारे लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। जो है, वह गैर-महत्वपूर्ण हो जाता है।

इसीलिए दुनिया में कोई आदमी अमीर नहीं हो पाता। कितना ही धन मिल जाए, गरीबी नहीं मिटती। क्योंकि निगेटिव माइंड गरीब है। निगेटिव माइंड कभी अमीर नहीं हो सकता। क्योंकि जो भी मिल जाएगा, वह भूल जाएगा; और सदा मिलने को बाकी रहेगा, वह याद रहेगा।

भिखमंगे तो भिखमंगे होते ही हैं, अरबपति भी उतने ही भिखमंगे होते हैं। जहां तक भिखमंगेपन का सवाल है, भिखमंगे को जो उसके पास है, वह दिखाई नहीं पड़ता; अरबपति को भी, जो उसके पास है, वह दिखाई नहीं पड़ता। भिखमंगे को भी उसकी मांग रहती है, जो पास नहीं है; अरबपति को भी उसकी ही मांग रहती है, जो उसके पास नहीं है। फर्क क्या है?

इतना ही फर्क है कि भिखमंगे के पास जो है, वह कम है भूलने को; अरबपति के पास भूलने को ज्यादा है। लेकिन भूलने को ही ज्यादा है, और तो कुछ अर्थ नहीं है। भिखमंगा अपने भिक्षा के पात्र को भूलता है, अरबपति अपनी तिजोड़ी को भूलता है। लेकिन भूलने में आप तिजोड़ी भूलें कि भिक्षा का पात्र भूलें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। न तो भिखमंगा अपने भिक्षा के पात्र का आनंद ले पाता है, न करोड़पति अपनी तिजोड़ी का आनंद ले पाता है।

जो है, वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। और परमात्मा अतिशय है। एक इंचभर जगह नहीं है, जहां वह नहीं है। इसीलिए करोड़ में कभी कोई एक उसकी खोज पर निकलता है। पाजिटिव माइंड, एक विधायक चित्त ही परमात्मा की खोज पर जा सकता है।

उसे देखना शुरू करें, जो है। उसे भूलना शुरू करें, जो नहीं है। खाली स्थानों में मत भटकें; भरे स्थानों में जीएं। और ध्यान रहे, हर आदमी के पास इतना है कि काश, वह देखने लगे, तो शायद इस जमीन पर गरीब आदमी खोजना मुश्किल है।





कृष्ण कहते हैं, करोड़ में कोई एक कभी प्रभु की खोज पर निकलता है। क्योंकि करोड़ में एक आदमी के पास विधायक चित्त है।

कल मैंने कहा था, संदेह से भरा चित्त। आज आपको और मैं संदर्भ बता दूं। संदेह से भरा चित्त निगेटिव होगा, नकारात्मक होगा। श्रद्धा से भरा चित्त विधायक होगा, पाजिटिव होगा।

अगर संदेह से भरे चित्त वाले आदमी को हम कहें कि दुनिया के संबंध में कुछ वक्तव्य दो, तो वह जो वक्तव्य देगा, वे नकारात्मक होंगे। वह कहेगा, दुनिया बिलकुल बेकार है। यहां दो अंधेरी रात के बीच में एक छोटा-सा उजाले का दिन होता है। दो अंधेरी रात बड़ी घटना मालूम होगी। अगर हम विधायक चित्त के व्यक्ति से पूछें, तो वह कहेगा, यह दुनिया बड़ी अदभुत है। यहां दो उजेले दिनों के बीच में एक छोटी-सी अंधेरी रात होती है!

अगर हम निषेधात्मक चित्त के व्यक्ति से पूछें, तो वह गुलाब के फूल के पास खड़े होकर सिवाय परमात्मा की निंदा के और कुछ न कर पाएगा। क्योंकि वह कहेगा, जहां इतने कांटे हैं, वहां मुश्किल से एक फूल खिलता है। फूल बेकार हो गया इतने कांटों की वजह से। अगर हम विधायक चित्त के आदमी से पूछें, तो वह कहेगा, आश्चर्य! प्रभु का धन्यवाद है। वह गुलाब के पास खड़े होकर घुटने टेककर प्रभु की प्रार्थना में लीन हो जाएगा। और वह कहेगा, अदभुत है तेरी लीला कि जहां इतने कांटे हैं, वहां भी फूल पैदा होता है। चमत्कार है, मिरेकल है।

तो विधायक चित्त जिस व्यक्ति के पास है, वह प्रभु की खोज पर निकलता है।

लेकिन कृष्ण फिर एक और बात कहते हैं कि करोड़ लोग प्रयत्न करें, तो कभी एक मुझे उपलब्ध होता है।

इसका क्या अर्थ होगा? इसे भी ठीक से समझ लें।

जो लोग भी प्रभु की दिशा में यात्रा शुरू करते हैं, करोड़ में से एक ही समर्पण करता है। करोड़ में से एक यात्रा करता है। अगर करोड़ यात्रा करें, तो एक समर्पण करता है। बाकी लोग संकल्प करते हैं, समर्पण नहीं। बाकी लोग कहते हैं, हम प्रभु को पाकर रहेंगे। तू कहां है, हम खोजकर रहेंगे। हम अपनी पूरी ताकत लगाएंगे। जीवन लगा देंगे दांव पर, लेकिन तुझे पाकर रहेंगे।

कभी एक आदमी ऐसा होता है, जो कहता है कि मेरी क्या सामर्थ्य! मैं असहाय हूं। मेरी कोई शक्ति नहीं है। मैं तुझे कैसे खोज पाऊंगा! अगर तू ही मुझे खोज ले, तो शायद घटना घट जाए। मैं तुझे कैसे खोज पाऊंगा! मेरी शक्ति बड़ी छोटी है। एक छोटी-सी बूंद हूं। न मालूम किस रेगिस्तान में खो जाऊं! अगर सागर ही मुझ तक आ जाए, तो ठीक। अन्यथा मैं सागर को खोज पाऊं, इसकी कोई संभावना नहीं है।

जो लोग प्रभु की खोज पर निकलते हैं, वे भी अस्मिता को, अहंकार को लेकर निकलते हैं। वे कहते हैं, हम प्रभु को पाकर रहेंगे। साधना करेंगे। योग करेंगे। आसन करेंगे। ध्यान करेंगे। लेकिन पीछे वह मैं खड़ा रहेगा।


करोड़ लोग प्रयास करते हैं, एक पहुंचता है। क्योंकि वह एक ही अपनी अस्मिता को और अहंकार को खोता है।

इसलिए कृष्ण ने कहा, मुझको परायण हुआ, मेरी तरफ झुक गया, समर्पित हुआ, मेरे चरणों में आ गया!

यहां सवाल बड़ा यह नहीं है कि कृष्ण के चरणों में आ जाओ। बड़ा सवाल यह है कि झुक जाओ। ध्यान रहे, असली सवाल है झुका हुआ मन, समर्पित, सरेंडर्ड।

करोड़ में से एक करता है कोशिश। करोड़ कोशिश करते हैं, एक पहुंच पाता है। कोशिश करता है वह, जिसके पास विधायक मन है। लेकिन विधायक मन का खतरा है कि वह अहंकार को मजबूत कर दे। पहुंच पाता है वह, जो मैं को समर्पित कर देता है। तब फिर, तब फिर कोई बाधा नहीं रह जाती।

परमात्मा की तरफ से कोई बाधा नहीं है। आदमी की तरफ से दो बाधाएं हैं। एक, नकारात्मक मन; और दूसरा, अस्मिता से भरा हुआ भाव, अहंकार से भरा हुआ भाव। इन दो दरवाजों को जो पार कर जाता है, कृष्ण कहते हैं, वह मुझको उपलब्ध हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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