मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 19


 
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।

भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन।। 26।।


और हे अर्जुन, पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे होने वाले सब भूतों को मैं जानता हूं, परंतु मेरे को कोई भी श्रद्धा-भक्तिरहित पुरुष नहीं जानता है।


मैं जानता हूं, कृष्ण कहते हैं, वह जो पीछे हुआ वह, जो अभी हो रहा है वह, जो आगे होगा वह--मैं सब जानता हूं।

इस सब जानने का अर्थ यह है--यह थोड़ी-सी कठिन बात है, थोड़ी समझ लेनी चाहिए--इस सब जानने का अर्थ यह है कि कृष्ण जैसी निराकार चेतना के समक्ष समय जैसी कोई चीज नहीं होती। वर्तमान, अतीत और भविष्य हम लोगों की धारणाएं हैं। जैसे ही कोई निराकार को जान लेता है, समय की सब सीमाएं गिर जाती हैं। और एक इटरनल नाउ, सब चीजें अभी हो जाती हैं। न कोई अतीत होता है, न कोई भविष्य होता है, न कोई वर्तमान होता है। समय का क्षण ठहर जाता है।

अगर ठीक से समझें, तो हम निरंतर कहते हैं कि समय जा रहा है, समय बीत रहा है। स्थिति उलटी है। समय तो अपनी जगह खड़ा है, हम जा रहे होते हैं, हम चल रहे होते हैं। हमारी स्थिति करीब-करीब वैसी है, जैसी ट्रेन में कभी छोटा बच्चा पहली दफा बैठता है, तो उसे लगता है कि पास के वृक्ष पीछे जा रहे हैं। ट्रेन चलती है आगे की तरफ, बच्चा ही आगे जा रहा है, लेकिन खिड़कियों से पीछे की तरफ भागते हुए वृक्ष दिखाई पड़ते हैं। और पता लगता है कि वृक्ष पीछे जा रहे हैं।

हम सब कहते हैं कि समय जा रहा है। लेकिन असलियत बिलकुल उलटी है। हम जा रहे हैं; समय अपनी जगह खड़ा है। इसे थोड़ा समझना पड़ेगा।

समय अपनी ही जगह खड़ा है। समय कहीं नहीं जाता। समय जाएगा कैसे? जाएगा कहां? कल निकल गया, अब वह कहां जाएगा? कहीं अस्तित्व में कोई जगह होनी चाहिए न! कल जो बीत गया, वह कहां इकट्ठा होगा? और कल जो अभी नहीं आया है, वह कहां से आ रहा है? आने के लिए उसे कहीं होना चाहिए; और जाने के लिए भी कहीं पहुंच जाना चाहिए। इसका तो मतलब यह होगा कि पीछे एक अतीत इकट्ठा हो रहा है करोड़ों, अरबों, खरबों वर्षों का। सब इकट्ठा होगा वहां। और आगे, भविष्य आगे है, वह चला आ रहा है।

यह नहीं हो सकता। न तो भविष्य आ रहा है, न अतीत चला गया है। सिर्फ हम गुजर रहे हैं। जैसे एक आदमी रास्ते से गुजर रहा है। लेकिन ट्रैफिक, वन वे ट्रैफिक है। क्योंकि हम समय में पीछे नहीं जा सकते हैं, इसलिए हमें लगता है कि जो चला गया, वह खो गया। चूंकि हम समय में आगे छलांग नहीं लगा सकते हैं, इसलिए हमें लगता है कि भविष्य अभी आया नहीं है। भविष्य आ चुका है उतना ही; भविष्य मौजूद है।

मैं निकल रहा हूं एक रास्ते से। आगे का मकान मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा है अभी, लेकिन वह अपनी जगह मौजूद है। थोड़ी देर बाद मैं उसके सामने पहुंचूंगा। वह मुझे दिखाई पड़ेगा। पीछे का मकान, जो थोड़ी देर पहले मुझे दिखाई पड़ता था, अब दिखाई नहीं पड़ रहा; वह खो गया। लेकिन खो कहीं नहीं गया; वह अपनी जगह मौजूद है।

समय चलता नहीं, समय की चलने की धारणा ट्रेन में गुजरने जैसी धारणा है, जैसे वृक्ष चलते हुए मालूम पड़ते हैं। आदमी चलता है, समय नहीं चलता है।

इसलिए कृष्ण जब कहते हैं, मैं सब जानता हूं, वह जो पीछे, वह जो आगे, वह जो अभी; उसका कुल मतलब यह है कि कृष्ण जैसे आदमी को उस परम चेतना की स्थिति में, उस समाधि की दशा में, वर्तमान, अतीत, भविष्य का फासला गिर जाता है।

समझें कि मैं एक बहुत बड़े दरख्त पर ऊपर बैठ गया हूं। आप दरख्त के नीचे बैठे हैं। मैं आपसे चिल्लाकर कहता हूं कि एक बैलगाड़ी रास्ते पर आ रही है। आप कहते हैं, मुझे नहीं दिखाई पड़ती; भविष्य में होगी। लेकिन मुझे दिखाई पड़ती है। मैं थोड़ा आपसे ऊंचाई पर बैठा हुआ हूं। मैं कहता हूं, भविष्य में नहीं है, वर्तमान में है। बैलगाड़ी आ गई है रास्ते पर। आप कहते हैं, कहीं नहीं दिखाई पड़ती। अभी नहीं आई है; भविष्य में है।

फिर थोड़ी देर में बैलगाड़ी आपके सामने आ जाती है। आप कहते हैं, आ गई। वर्तमान हो गई। फिर थोड़ी देर बाद बैलगाड़ी आगे निकल जाती है। आप कहते हैं, अतीत हो गई; अब दिखाई नहीं पड़ती। लेकिन मैं आपसे ऊपर के दरख्त से कहता हूं कि अभी भी वर्तमान है; दिखाई पड़ती है।

जितनी चेतना की ऊंचाई होगी, उतना ही वर्तमान, अतीत और भविष्य का फासला गिरता जाएगा। और जिस दिन कृष्ण जैसी परम ऊंचाई होती है चेतना की, उस दिन सब चीजें जो हो गईं, दिखाई पड़ती हैं; सब चीजें जो होने वाली हैं, दिखाई पड़ती हैं; सब चीजें जो हो रही हैं, दिखाई पड़ती हैं।

इस अनुभव के आधार पर ही समस्त ज्योतिष का विकास हुआ था। ज्योतिष का सारा विकास समाधिस्थ चेतना से हुआ था। उन लोगों को, जिनको समय के सब फासले मिट गए थे, जिन्हें सब दिखाई पड़ रहा था। ज्योतिष ज्योतिर्मय चेतना के अनुभव से निकला था।

कृष्ण कहते हैं, मुझे सब दिखाई पड़ता है। लेकिन जो अज्ञानी हैं, वे मुझे नहीं देख पा रहे हैं, मैं उन सबको देख रहा हूं।

अब कृष्ण को भलीभांति दिखाई पड़ रहा है कि कौरव हार जाएंगे। यह बैलगाड़ी कृष्ण के लिए सामने आ गई है। अर्जुन को दिखाई नहीं पड़ रहा है कि कौरव हार जाएंगे कि पांडव जीत जाएंगे। यह दुर्योधन को भी नहीं दिखाई पड़ रहा है कि कौरव हार जाएंगे और पांडव जीत जाएंगे। अब यह अर्जुन भी डरा है कि पता नहीं हम हार न जाएं! अभी कौरव भी इस खयाल में हैं कि हम जीत लेंगे, क्योंकि शक्ति हमारे पास ज्यादा है। एक आदमी वहां मौजूद था, उस महाभारत के युद्ध में, जिसे पता था कि क्या होने वाला है और क्या होगा।



कृष्ण का अर्जुन से यह कहना कि तू भाग मत, बहुत दूर की जानकारियों से जुड़ा हुआ है। कृष्ण का यह कहना कि तू सोच रहा है, जिन्हें तू मारेगा, मैं तुझसे कहता हूं, समय ने उन्हें पहले ही मार डाला है। मैं उनकी लाशें देख रहा हूं। तुझे नहीं दिखाई पड़ता, मैं देख रहा हूं कि वे युद्ध के मैदान पर लाश होकर पड़े हैं। दो दिन बाद तुझे भी दिखाई पड़ेगा; बैलगाड़ी तेरे सामने आ गई होगी। तू समझता है, तू मारेगा। मैं कहता हूं कि विधि ने उन्हें समाप्त कर दिया है; तू केवल निमित्त होगा।

कृष्ण कहते हैं, मैं देख रहा हूं दूर तक, चारों तरफ, आगे और पीछे, लेकिन फिर भी मेरे आस-पास सैकड़ों लोग हैं, जो मुझे नहीं देख रहे हैं।

पहाड़ की ऊंचाई से नीचाइयों की तरफ देखना आसान है, नीचाइयों से ऊंचाइयों की तरफ देखना कठिन है। जितने हम नीचे होते हैं, उतनी हमारी चेतना  संकीर्ण हो जाती है; जितने हम ऊंचे होते हैं, उतनी विस्तीर्ण हो जाती है।

तो कृष्ण को तो देखना आसान है कि वे देख लें सबको। लेकिन सब को देखना कठिन है कि वे कृष्ण को देख लें। हां, जो कृष्ण की थोड़ी-सी भी झलक देख ले, वह समर्पण के लिए राजी हो जाएगा। क्योंकि वह देखेगा कि पास में एक विराट खड़ा है। और तब वह अपने छोटे-से अहंकार और अपनी छोटी-सी बुद्धि से नहीं जीएगा; तब वह समर्पण करके जीना शुरू कर देगा। और जब वह समर्पण करके जीएगा, तब वह जानेगा; तब वह जानेगा कि जो कहा गया था, वही हुआ है। जो कहा गया था, वही हो रहा है। अन्यथा कुछ होता नहीं है। अन्यथा कुछ भी नहीं होता है।

कृष्ण के लिए भी युद्ध नाटक से ज्यादा नहीं था। इसलिए कई लोगों को कठिनाई होती है कि इस युद्ध में वे इतनी प्रेरणा दे रहे हैं! अर्जुन को रोकते नहीं!

असल में अर्जुन को जो नहीं दिखाई पड़ता है, वह कृष्ण को दिखाई पड़ता है। यह युद्ध होकर रहेगा। यह युद्ध नियति  है। इस युद्ध से बचा नहीं जा सकता; यह होगा ही। सारी ऐतिहासिक शक्तियां जिस जगह ले आई हैं, वहां यह युद्ध होकर रहेगा। इसलिए अब सवाल यह नहीं है कि युद्ध हो या न हो। सवाल यह है कि युद्ध पर अर्जुन जाए, तो किस भाव को लेकर जाए। वह परमात्मा के प्रति समर्पित होकर युद्ध करे कि अहंकार से भरा होकर युद्ध करे, असली सवाल इतना ही है।

कृष्ण कहते हैं, मुझे तो सब दिखाई पड़ता है, लेकिन जो नहीं जानते, उन्हें मैं बिलकुल दिखाई नहीं पड़ता हूं।

वहीं लोग खड़े होंगे, जो कृष्ण को सारथी से ज्यादा न समझते रहे होंगे। सारथी थे ही वे, जहां तक आकार का संबंध है। अर्जुन के घोड़ों को सांझ जाकर नदी पर पानी पिलाकर, उनकी सफाई कर लाते थे। घोड़ों को दिनभर हांकते थे, सांझ उनकी सेवा करते थे। सारथी तो वे थे ही। उस युद्ध में बहुत सारथी थे। उनसे कुछ विशेष स्थान उनका न रहा होगा। जो नहीं देख सकते थे, उनको तो सारथी ही दिखाई पड़ा होगा।

लेकिन जो देख सकते थे, उनको तो, उनको जो दिखाई पड़ा होगा, वह निराकार है। जो देख सकते थे, उन्हें वे परम परमात्मा दिखाई पड़े। जो नहीं देख सकते थे, अंधे थे, उन्हें तो ठीक है, एक आदमी थे। आदमी थे ही, आकार था। आकार था निश्चित।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, आंख हो निराकार को खोजने की, तो ही मुझे कोई देख पाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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