मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 7 भाग 22

 

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः।

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः।। 30।।



और जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव के सहित तथा अधियज्ञ के सहित सब का आत्मरूप मेरे को जानते हैं, वे युक्तचित्त वाले पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही जानते हैं अर्थात प्राप्त होते हैं।


छोटा-सा सूत्र; आखिरी और बहुत कीमती।

कृष्ण कहते हैं, जो सब भूतों में मुझे ही जानते हैं, वे अंधकार में भी मुझे ही जानते हैं।

हम सबने सुना है कि परमात्मा प्रकाश-स्वरूप है। हम सबने सुना है कि परमात्मा जीवन-स्वरूप है। हम सबने सुना है कि परमात्मा आनंद-स्वरूप है। कृष्ण यहां कहते हैं, लेकिन जो मुझे सबमें देख लेता है, वह अंधकार में भी मुझे ही देखता है। वह दुख में भी मुझे ही देखता है, वह मृत्यु में भी मुझे देखता है।

और ध्यान रहे, जब तक मृत्यु में भी परमात्मा न दिखे, तब तक अमृत उपलब्ध नहीं होता है। और ध्यान रहे, जब तक दुख में भी परमात्मा न दिखे, तब तक आनंद उपलब्ध नहीं होता है। और ध्यान रहे, जब तक अंधकार भी प्रकाश न हो जाए, तब तक परमात्मा उपलब्ध नहीं होता है।

यह तो हम नासमझों की मांग है कि हे प्रभु, हमें अंधकार से प्रकाश की तरफ ले चल। यह तो हम नासमझों की मांग है। क्योंकि हम जिंदगी को दो हिस्सों में तोड़कर देखते हैं। हम कहते हैं, हे प्रभु, हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चल। हम कहते हैं, हे प्रभु, हमें भय से अभय की ओर ले चल। दुख से सुख की ओर ले चल, आनंद की ओर ले चल। ये तो हमारी प्रार्थनाएं हैं, उनकी प्रार्थनाएं, जिन्हें कुछ भी पता नहीं है, जो जिंदगी को दो टुकड़ों में तोड़ लेते हैं।

कृष्ण का वचन बड़ा अदभुत है। हम सबने सुना है ऋषि का वचन, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल। और कृष्ण कहते हैं, जो सब भूतों में मुझे देखते हैं, वे अंधकार में भी मुझे ही देखते हैं।

अगर ठीक प्रार्थना हो, तो वह ऐसी होगी कि हे प्रभु, अंधकार में भी मुझे तू दिखाई पड़े। दुख में भी तू मुझे दिखाई पड़े। मृत्यु में भी तू मुझे दिखाई पड़े। अमृत की मेरी चाह नहीं मृत्यु में भी तू मुझे दिखाई पड़े। आनंद की मेरी चाह नहीं; दुख में भी तू ही मुझे मिले। प्रकाश की मेरी मांग नहीं; अंधकार भी मेरे लिए प्रकाश हो। 

यह मांग पहली मांग से ज्यादा गहरी है; और कृष्ण जो कहते हैं, उसके अनुकूल है। क्योंकि जगत में तत्व एक है, दो नहीं। और जिसे हम अंधकार कहते हैं, वह केवल प्रकाश का एक रूप है। और जिसे हम मृत्यु कहते हैं, वह अमृत का एक रूपांतरण है। और जिसे हम दुख कहते हैं, जिसे हम दुख जानते हैं, जिसे हम पीड़ा कहते हैं, संताप कहते हैं, वे भी आनंद की यात्रा के पड़ाव हैं। लेकिन यह हमें तब दिखाई पड़े, जब हम पूरे जीवन को  इकट्ठा देख सकें।

हम तो खंड-खंड करके जीवन को देखते हैं। हमारी बुद्धि हर चीज को खंड-खंड कर देती है। बुद्धि का एक ही काम है, चीजों को तोड़ना। जोड़ना बुद्धि नहीं जानती। बुद्धि के पास जोड़ने का कोई भी उपाय नहीं है।


बुद्धि तत्काल चीजों को तोड़कर देखना चाहती है कि भीतर क्या है। लेकिन भीतर जो भी है, वह सिर्फ जुड़े हुए में होता है, टूटे में नहीं होता। जिस चीज को भी हम तोड़ लेते हैं, उसकी होलनेस, उसकी पूर्णता नष्ट हो जाती है। और जीवन के सब रहस्य उसकी पूर्णता में हैं।

इसलिए विज्ञान कभी जीवन के परम रहस्य को उपलब्ध न हो पाएगा। क्योंकि विज्ञान की पूरी प्रक्रिया तोड़ने की है, एनालिसिस की है, विश्लेषण की है। चीजों को तोड़ते चले जाओ। इसलिए एटम तो मिल गया; आत्मा नहीं मिलती। एटम मिल जाएगा; वह तोड़ने से मिलता है। आत्मा नहीं मिलती; वह जोड़ने से मिलती है। विद्युत के कण मिल जाएंगे, इलेक्ट्रांस मिल जाएंगे, लेकिन परमात्मा नहीं मिलेगा। इलेक्ट्रांस तोड़ने से मिलते हैं; परमात्मा जोड़ने से मिलता है।

कृष्ण बड़े से बड़े जोड़ की बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, अंधेरा और प्रकाश मैं ही हूं। जीवन और मृत्यु मैं ही हूं। सृष्टि और प्रलय मैं ही हूं। और जो सब भूतों में मुझे देखता है, वह एक दिन अंधकार में--उसमें भी, जो अप्रीतिकर मालूम पड़ता है--मुझे देख पाएगा।

और जिस दिन अप्रीतिकर में भी परमात्मा दिखाई पड़ता है, उस दिन क्या अप्रीतिकर बचता है? मेरा यह हाथ किसी को सुंदर मालूम पड़ सकता है। इस हाथ को तोड़कर सड़क पर डाल दें, फिर यह बिलकुल सुंदर नहीं मालूम पड़ेगा; बहुत कुरूप हो जाएगा। आपकी आंख किसी को सुंदर मालूम पड़ सकती है; निकालकर टेबल पर रख दें, तो दूसरा आदमी आंख बंद कर लेगा कि यह न करिए।

क्या, बात क्या है? आंख सुंदर होती है, जब शरीर की पूर्णता में होती है; अलग होकर कुरूप हो जाती है। हाथ सुंदर होता है, जब शरीर की पूर्णता में होता है; अलग होकर सिर्फ गंदगी और दुर्गंध फैलाता है।

यह पूरी जिंदगी, यह पूरा विराट एक है। और जब कोई इसे एक की तरह देख पाता है, तो वह परम सौंदर्य के अनुभव को उपलब्ध होता है। वही परम सौंदर्य भागवत सौंदर्य है। वही डिवाइन ब्यूटी है।

लेकिन हम तो सब टुकड़ों में देखते हैं; हम पूरे में तो कुछ नहीं देख पाते। वृक्ष को हम देखते हैं, तो सूरज को नहीं देख पाते, हालांकि सूरज और वृक्ष जुड़े हुए हैं। सूरज को देखते हैं, तो जमीन को नहीं देख पाते; हालांकि जमीन और सूरज जुड़े हुए हैं। रात देखते हैं, तो दिन को नहीं देख पाते; हालांकि दिन और रात एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्रकाश देखते हैं, तो अंधेरा खो जाता है। अंधेरा देखते हैं, तो प्रकाश नहीं होता; हालांकि दोनों एक-दूसरे के पहलू हैं।

आदमी कितना कमजोर है, कभी आपने खयाल किया है! एक छोटे-से नए पैसे को हाथ में लेकर कभी आपने कोशिश की कि दोनों पहलू एक साथ देख लें? तब आपको पता चलेगा, आदमी कितना कमजोर है। एक छोटे-से सिक्के के एक पैसे के दोनों पहलू आप एक साथ नहीं देख सकते। जब एक पहलू दिखाई पड़ता है, तब दूसरा खो जाता है। जब दूसरा दिखाई पड़ता है, तो पहला खो जाता है।

इसलिए जो बहुत तर्क में गहरे उतरते हैं, वे कहते हैं कि जब किसी ने आज तक देखे ही नहीं दो पहलू एक साथ, तो यह कहना कहां तक उचित है कि पैसे में दो पहलू होते हैं? क्या पता, नीचे का पहलू बचा हो अब तक न बचा हो! क्या पक्का है? अनुमान है सिर्फ कि नीचे भी पहलू होगा। होगा या नहीं होगा, क्या पता!

आदमी की बुद्धि पूरे को नहीं देख पाती; दि होल, वह जो पूर्ण है, नहीं देख पाती। आदमी की बुद्धि खंड-खंड करके देखती है। खंड-खंड में सब सौंदर्य खो जाता है, खंड-खंड में सब चेतना खो जाती है, खंड-खंड में सब सत्य खो जाता है। असत्य के टुकड़े ही हाथ में लगते हैं--असुंदर, कुरूप।


कृष्ण कहते हैं, जो सब भूतों में मुझे देखेगा।

सब भूतों में देखना शुरू करें। वर्षा में, बादल में, सूरज में, पानी में, दुख में, सुख में, मित्र में, शत्रु में--देखना शुरू करें। शब्द में, मौन में--एक को ही देखना शुरू करें। और तब एक दिन जरूर वह घटना घटती है कि विपरीत नहीं रह जाता, द्वैत नहीं रह जाता, दो नहीं बचते, एक ही बचता है।

और जिस दिन प्राणों के सामने एक ही बचता है, उस दिन ऐसी छलांग लगती है कि एक नए आयाम में, एक नए जगत में प्रवेश हो जाता है। फिर आप वही नहीं होते, जो आप कल तक थे। सब कुछ वही होता है, फिर भी सब बदल जाता है। आप दूसरे ही आदमी हो जाते हैं। आपका नया जन्म, आप रि-बॉर्न, पुनर्जन्म को उपलब्ध हो जाते हैं। यह पुनर्जन्म शरीर का नहीं, आत्मा का। यह आत्मा नई होकर प्रकट होती है।

यह कृष्ण ने पूरा का पूरा विज्ञान आत्मा के नए जन्म को देने के लिए कहा है। आखिरी में शरण को याद रखना कि परमात्मा पर छोड़ देना है सब।

और दूसरी बात, अनुकूल में तो दिखाई ही पड़ेगा परमात्मा, प्रतिकूल में भी परमात्मा को देखने की खोज जारी रखना। जो खोजता है, वह पा लेता है। सिर्फ वे ही वंचित रह जाते हैं, जो कभी खोज पर ही नहीं निकलते हैं। और कृष्ण जो कह रहे हैं, जितना कहने से कहा जा सकता है, उतना वे कह रहे हैं। लेकिन कुछ है, जो चुप होकर ही जाना जा सकता है।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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