गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 15

 

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।

निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।। 18।।


इस प्रकार योग के अभ्यास से अत्यंत वश में किया हुआ चित्त जिस काल में परमात्मा में ही भली प्रकार स्थित हो जाता है, उस काल में संपूर्ण कामनाओं से स्पृहारहित हुआ पुरुष योगयुक्त है, ऐसा कहा जाता है।



योग के अभ्यास से संयत, शांत, शुद्ध हुआ चित्त। इस बात को ठीक से समझ लें।

योग के अभ्यास से!

हमारा अशुद्ध होने का अभ्यास गहन है। हमारे जटिल होने की कुशलता अदभुत है। स्वयं को उलझाव में डालने में हम कुशल कारीगर हैं। हमने अपने कारागृह की एक-एक ईंट काफी मजबूत बनाकर रखी है। और हमने अपनी एक-एक हथकड़ी की जंजीर को बहुत ही मजबूत फौलाद से ढाला है। हमने सब तरह का इंतजाम किया है कि जिंदगी में आनंद का कोई आगमन न हो सके। हमने सब द्वार-दरवाजे बंद कर रखे हैं कि रोशनी कहीं भूल-चूक से प्रवेश न कर जाए। हमने सब तरफ से अपने नरक का आयोजन कर लिया है। इस आयोजन को काटने के लिए इतने ही आयोजन की विपरीत दिशा में जरूरत पड़ती है। उसी का नाम योग-अभ्यास है।

अशांत होने के लिए कितना अभ्यास करते हैं, कुछ पता है आपको? एक आदमी को गाली देनी होती है, तो कितना रिहर्सल करना पड़ता है, कुछ पता है आपको? कितनी दफे मन में देते हैं पहले! किस-किस रस से देते हैं! किस-किस कोने से, किस-किस एंगल से सोचकर देते हैं! किस-किस भांति जहर भरकर गाली को तैयार करके देते हैं!

एक आदमी को गाली देने के लिए कितने बड़े रिहर्सल से, पूर्व-अभ्यास से गुजरना पड़ता है। उस पूर्व-अभ्यास के बिना गाली भी नहीं निकल सकती है।

अशांत होने के लिए कितना श्रम उठाते हैं, कभी हिसाब रखा है? सुबह से शाम तक कितनी तरकीबें खोजते हैं कि अशांत हो जाएं! अगर किसी दिन तरकीबें न मिलें, तो खुद भी ईजाद करते हैं।

अशांत होने के लिए भारी अभ्यास चल रहा है। बड़ी योग-साधना करते हैं हम अशांत होने के लिए, क्रोधित होने के लिए, परेशान होने के लिए! कुछ ऐसा लगता है कि अगर आज परेशान न हुए, तो जैसे दिन बेकार गया। कई दफे ऐसा होता भी है। क्योंकि परेशानी से हमको पता चलता है कि हम भी हैं। नहीं तो और तो कोई पता चलने का कारण नहीं है।

तो बड़ी-बड़ी परेशानियां करके दिखलाते रहते हैं। भारी परेशानियां हैं। उससे पता चलता है कि हम भी कोई हैं, समबडी! क्योंकि जितना बड़ा आदमी हो, उतनी बड़ी परेशानियां होती हैं! तो हर छोटा-मोटा आदमी भी छोटी-मोटी परेशानियों को मैग्नीफाई करता रहता है। बड़ी करके खड़ा कर लेता है। उनके बीच में खड़ा रहता है। यह सब अभ्यास चलता है। बिना अभ्यास के यह भी नहीं हो सकता। यह भी सब अभ्यास का फल है।

तो कृष्ण जब अर्जुन से कहते हैं कि योगाभ्यास से शांत हुआ चित्त, तो इससे विपरीत अभ्यास करना पड़ेगा। विपरीत अभ्यास का क्या अर्थ है? विपरीत अभ्यास का अर्थ है कि अब तक हम  नकारात्मक भावनाओं के लिए कारण खोज रहे हैं चौबीस घंटे; योगाभ्यास का अर्थ है, सकारात्मक भावनाओं के लिए चौबीस घंटे कारण खोजने में जो लगा है।

और जिंदगी में दोनों मौजूद हैं। खड़े हो जाएं गुलाब के फूल के किनारे। वह जो अभ्यासी है अशांति का, वह कहेगा, व्यर्थ है, बेकार है सब। कांटे ही कांटे हैं, एकाध फूल खिलता है कभी। वह जो योगाभ्यासी है, वह जो  विधायक को खोजने निकला है, वह कहेगा, प्रभु तेरा धन्यवाद! आश्चर्य है, जहां इतने कांटे हैं, वहां भी इतना कोमल फूल खिल सकता है! यह उनके देखने के ढंग का फर्क होगा।

जब आप किसी आदमी से मिलते हैं, तो उसमें बुरा अगर आप खोजते हैं तत्काल, तो आप अभ्यासी हैं अशांति के। उस आदमी में कुछ तो भला होगा ही, नहीं तो जीना मुश्किल था। बुरे से बुरे आदमी का भी जीना असंभव है, अगर वह एब्सोल्यूट बुरा हो जाए। चोर भी किन्हीं के साथ तो ईमानदार होते हैं। और डाकू भी किन्हीं के साथ वचन निभाते हैं। बेईमान भी बेईमान नहीं हो सकता सदा, चौबीस घंटे, किन्हीं के साथ ईमानदारी से जीता है। जो आपका दुश्मन है, वह भी किसी का मित्र है; वह भी मित्रता जानता है। जो आपकी छाती में छुरा भोंकने को तैयार है, वह किसी दिन किसी के लिए अपनी छाती में भी छुरा भोंकने की तैयारी रखता है।

इस जमीन पर, इस अस्तित्व में कोई बिलकुल बुरा है, ऐसा नहीं है। और कोई बिलकुल भला है, ऐसा भी नहीं है। लेकिन आपके चुनाव पर निर्भर है कि आप क्या चुनते हैं। आपके अभ्यास पर निर्भर है कि आप क्या चुनते हैं। अगर आपने तय कर रखा है कि बुरा ही चुनेंगे, तो आपको बुरा मिलता चला जाएगा। जिंदगी में भरपूर बुरा है। अगर आपने तय कर लिया है कि अंधेरा ही चुनेंगे, तो दिनभर विश्राम करना आप आंख बंद करके, रात को निकल जाना खोजने; मिल जाएगा। मिलेगा वही-वही।

बुरे को खोजना है, बुरा मिल जाएगा। दुख को खोजना है, दुख मिल जाएगा। पीड़ा खोजनी है, पीड़ा मिल जाएगी। शैतान खोजना है, शैतान मिल जाएगा। परमात्मा खोजना है, तो वह भी मौजूद है। वहीं, जहां शैतान खड़ा है। शायद इतना भी दूर नहीं है। शायद शैतान भी परमात्मा के चेहरे को गलत रूप से देखने के कारण है।

जिस आदमी को कांटों के बीच फूल खिला हुआ मालूम पड़ता है और जो कहता है, धन्य है! लीला है, रहस्य है प्रभु का! इतने कांटों के बीच फूल खिलता है! उस आदमी को बहुत दिन कांटे दिखाई नहीं पड़ेंगे। जो इतने कांटों के बीच फूल को देख लेता है, वह थोड़े ही दिनों में कांटों को फूल के मित्र की तरह देख ही पाएगा। वह, कांटे फूल की रक्षा के लिए हैं, यह भी देख पाएगा। अंततः वह यह भी देख पाएगा कि कांटों के बिना फूल नहीं हो सकता है, इसलिए कांटे हैं। और आखिर में कांटों का जो कांटापन है, खो जाएगा; और कांटे भी धीरे-धीरे फूल ही मालूम पड़ने लगेंगे।

और जिस आदमी ने देखा कि कांटे ही कांटे हैं; कहीं एकाध फूल खिल जाता है भूल-चूक से, यह एक्सिडेंट मालूम होता है। यह फूल एक्सिडेंट है, कांटे असलियत हैं। बात भी ठीक लगती है। कांटे बहुत, फूल एक। वह आदमी बहुत दिन तक फूल में भी फूल को नहीं देख पाएगा। बहुत जल्दी उसको फूल में भी कांटे दिखाई पड़ने लगेंगे।

हमारी दृष्टि धीरे-धीरे फैलकर निरपेक्षपूर्ण हो जाती है। लेकिन अस्तित्व? अस्तित्व द्वंद्व है; वहां दोनों मौजूद हैं।

योगाभ्यासी का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति, जो जीवन में शांति की खूंटियां खोजता है, आनंद की खूंटियां खोजता है। फूल खोजता है। आशा खोजता है। सौंदर्य खोजता है। आनंद खोजता है। जो जीवन में नृत्य खोजता है, उत्सव खोजता है। जीवन में उदासी बटोरने का जिसने ठेका नहीं लिया है। जो जगह-जगह जाकर कांटे और कंकड़ नहीं खोजता रहता है। और जिनको इकट्ठा करके छाती पर रखकर चिल्लाता नहीं है कि जिंदगी बेकार है, अर्थहीन है।

योगाभ्यास का अर्थ है, जीवन को विधायक दृष्टि से देखने का ढंग। योग जीवन की विधायक कीमिया है, पाजिटिव केमेस्ट्री है। और उसका अभ्यास करना पड़ेगा। क्योंकि आपने अभ्यास किया हुआ है। अगर आप पुराने अभ्यास को ऐसे ही, बिना अभ्यास के छोड़ने में समर्थ हों, तो छोड़ दें। तो फिर नए अभ्यास की कोई भी जरूरत नहीं है।

लेकिन वह पुराना अभ्यास जकड़ा हुआ है, भारी है; वह छूटेगा नहीं। उसे इंच-इंच जैसे बनाया, वैसे ही काटना भी पड़ेगा। जैसे घर बनाया, वैसे अब एक-एक ईंट उसकी गिरानी भी पड़ेगी। भला वह ताश का ही घर क्यों न हो, लेकिन ताश के पत्ते भी उतारकर रखने पड़ेंगे। भला ही वह कितनी ही झूठी व्यवस्था क्यों न हो, लेकिन झूठ की भी अपनी व्यवस्था है; उसको भी काटना और मिटाना पड़ेगा।

योगाभ्यास गलत अभ्यासों को काटने का अभ्यास है। ठीक विपरीत यात्रा करनी पड़ेगी। जिस व्यक्ति में कल तक देखा था बुरा आदमी, उसमें देखना पड़ेगा भला आदमी। जिसमें देखा था शत्रु, उसमें खोजना पड़ेगा मित्र। जहां देखा था जहर, वहां अमृत की भी तलाश करनी पड़ेगी। यह तो हुई एक बहिर्व्यवस्था।

और फिर अपने में भी यही करना पड़ेगा। अपने भीतर भी जिन-जिन चीजों को बुरा देखा था, उन-उन में शुभ को खोजना पड़ेगा। कामवासना में देखा था नरक का मार्ग, अब कामवासना में स्वर्ग का मार्ग भी देखना पड़ेगा। स्वर्ग का मार्ग कामवासना में देखते से ही, काम की वासना ऊर्ध्वगामी होकर स्वर्ग के मार्ग को भी लगा देती है। कल तक क्रोध में देखा था सिर्फ क्रोध, अब क्रोध में उस शक्ति को भी देखना पड़ेगा, जो क्षमा बन जाती है। क्रोध की शक्ति ही क्षमा बनती है। काम की शक्ति ही ब्रह्मचर्य बनती है। लोभ की शक्ति ही दान बन जाती है।

देखना पड़ेगा; खोजना पड़ेगा। अब तक एक तरह से देखा था जीवन को, अब ठीक विपरीत तरह से देखना पड़ेगा। उस विपरीत तरह के देखने की क्या विधियां हैं, उनकी बात मैं संध्या करूंगा। इस सूत्र पर भी पूरी बात संध्या करेंगे। अभी इतना ही खयाल में लें कि अगर गलत का अभ्यास किया है, तो गलत को काटने का भी अभ्यास करना पड़ेगा।


निश्चित ही, जब गलत कट जाता है, तो जो शेष रह जाता है वह शुभ है। इसलिए एक अर्थ में कृष्णमूर्ति या झेन फकीर जो कहते हैं, ठीक कहते हैं। क्योंकि शुभ के पाने के लिए किसी अभ्यास की जरूरत नहीं है। लेकिन अशुभ को काटने के लिए अभ्यास की जरूरत है। इसलिए एक दृष्टि से वे बिलकुल गलत कहते हैं।

फर्क समझें आप। शुभ को पाने के लिए किसी अभ्यास की जरूरत नहीं है। शुभ स्वभाव है। लेकिन अशुभ को काटने के लिए...।

ऐसा समझ लें, तो ठीक होगा। मेरे हाथों में आपने जंजीरें डाल दी हैं, तो क्या मैं कहूं कि स्वतंत्रता पाने के लिए जंजीरें तोड़ने की जरूरत है? स्वतंत्रता पाने के लिए तो किसी जंजीर को तोड़ने की क्या जरूरत है! स्वतंत्रता पर कोई जंजीरें नहीं हैं। लेकिन फिर भी जंजीर तोड़नी पड़ेगी। परतंत्रता को तोड़ने के लिए जंजीर तोड़नी पड़ेगी। और जब जंजीर टूट जाएगी और परतंत्रता टूट जाएगी, तो जो शेष रह जाएगी, वह स्वतंत्रता है।

स्वतंत्रता के लिए जंजीर नहीं तोड़नी पड़ती है। लेकिन परतंत्रता के लिए, परतंत्रता को तोड़ने के लिए जंजीर तोड़नी पड़ती है।

शुभ तो स्वभाव है। सत्य तो स्वभाव है। धर्म तो स्वभाव है। परमात्मा तो स्वभाव है। परमात्मा को पाने के लिए कोई जरूरत नहीं है। लेकिन परमात्मा को खोने के लिए जो-जो उपाय आपने किए हैं, उन उपायों को काटने के लिए अभ्यास करना पड़ता है। वही अभ्यास योगाभ्यास है।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) हरिओम सिगंल

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