गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 1 भाग 4

  

तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।

सिंहनादं विनद्योच्चैः शंखं दध्मौ प्रतापवान्।। १२।।


ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।

सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।। १३।।


इस प्रकार द्रोणाचार्य से कहते हुए दुर्योधन के वचनों को सुनकर, कौरवों में वृद्ध, बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने उसके हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंहनाद के समान गर्जकर शंख बजाया। उसके उपरांत शंख और नगाड़े तथा ढोल, मृदंग और नृसिंहादि बाजे एक साथ ही बजे। उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ।


ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।

माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः।। १४।।


पाग्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः।

पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदरः।। १५।।


अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।

नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।। १६।।


इसके अनंतर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाए। उनमें श्रीकृष्ण ने पांचजन्य नामक शंख और अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख बजाया। भयानक कर्म वाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया। कुंतीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष और मणिपुष्पक नाम वाले शंख बजाए।



कृष्ण का शंखनाद, भीष्म के शंखनाद की प्रतिक्रिया, रिएक्शन नहीं है।सिर्फ प्रतिसंवेदन है। और शंखनाद से केवल प्रत्युत्तर है--युद्ध का नहीं, लड़ने का नहीं--शंखनाद से सिर्फ स्वीकृति है चुनौती की। वह चुनौती जो भी लाए, वह चुनौती जो भी दिखाए, वह चुनौती जहां भी ले जाए, उसकी स्वीकृति है। इस स्वीकृति को थोड़ा समझना उपयोगी है।

जीवन प्रतिपल चुनौती है। और जो उसे स्वीकार नहीं करता, वह जीते जी ही मर जाता है। बहुत लोग जीते जी ही मर जाते हैं।  जिस क्षण से व्यक्ति जीवन की चुनौती का स्वीकार बंद करता है, उसी क्षण से मर जाता है। जीवन है प्रतिपल चुनौती की स्वीकृति।

लेकिन चुनौती की स्वीकृति भी दो तरह की हो सकती है। चुनौती की स्वीकृति भी क्रोधजन्य हो सकती है; और तब प्रतिक्रिया हो जाती है, रिएक्शन हो जाती है। और चुनौती की स्वीकृति भी प्रसन्नता, उत्फुल्लता से मुदितापूर्ण हो सकती है; और तब प्रतिसंवेदन हो जाती है।

ध्यान देने योग्य है कि भीष्म ने जब शंख बजाया तो वचन है कि प्रसन्नता से और वीरों को प्रसन्नचित्त करते हुए...। आह्लाद फैल गया उनके शंखनाद से। उस शंखनाद से प्रसन्नता फैल गई। वह एक स्वीकार है। जीवन जो दिखा रहा है, अगर युद्ध भी, तो युद्ध का भी स्वीकार है। जीवन जहां ले जा रहा है, अगर युद्ध में भी, तो इस युद्ध का भी स्वीकार है। निश्चित ही इसे प्रत्युत्तर मिलना चाहिए। और पीछे कृष्ण और पांडव अपने-अपने शंखनाद करते हैं।

यहां भी सोचने जैसी बात है कि पहला शंखनाद कौरवों की तरफ से होता है। युद्ध के प्रारंभ का दायित्व कौरवों का है; कृष्ण सिर्फ प्रत्युत्तर दे रहे हैं। पांडवों की तरफ से प्रतिसंवेदन  है। अगर युद्ध ही है, तो उसके उत्तर के लिए वे तैयार हैं। ऐसे युद्ध की वृत्ति नहीं है। पांडव भी पहले बजा सकते हैं। नहीं लेकिन इतना दायित्व--युद्ध में घसीटने का दायित्व--कौरव ही लेंगे।

युद्ध का यह प्रारंभ बड़ा प्रतीकात्मक है। इसमें एक बात और ध्यान देने जैसी है कि प्रत्युत्तर कृष्ण शुरू करते हैं। अगर भीष्म ने शुरू किया था, तो कृष्ण को उत्तर देने के लिए तैयार करना उचित नहीं है। उचित तो है कि जो युद्ध के लिए तत्पर योद्धा हैं...। कृष्ण तो केवल सारथी की तरह वहां मौजूद हैं; वे योद्धा भी नहीं हैं, वे युद्ध करने भी नहीं आए हैं। लड़ने की कोई बात ही नहीं है। पांडवों की तरफ से जो सेनापति है, उसे शंखनाद करके उत्तर देना चाहिए। लेकिन नहीं, यह बहुत महत्वपूर्ण है कि शंखनाद का उत्तर कृष्ण से शुरू करवाया गया है। यह इस बात का प्रतीक है कि पांडव इस युद्ध को केवल परमात्मा की तरफ से डाले गए दायित्व से ज्यादा मानने को तैयार नहीं हैं। परमात्मा की तरफ से आई हुई पुकार के लिए वे तैयार हैं। वे केवल परमात्मा के साधन भर होकर लड़ने के लिए तैयार हैं। इसलिए यह जो प्रत्युत्तर है युद्ध की स्वीकृति का, वह कृष्ण से दिलवाया गया है।

उचित है। उचित है, परमात्मा के साथ लड़कर हारना भी उचित है; और परमात्मा के खिलाफ लड़कर जीतना भी उचित नहीं है। अब हार भी आनंद होगी। अब हार भी आनंद हो सकती है। क्योंकि यह लड़ाई अब पांडवों की अपनी नहीं है; अगर है तो परमात्मा की है। लेकिन यह रिएक्शन नहीं है, रिस्पांस है। इसमें कोई क्रोध नहीं है।

अगर भीम इसको बजाता, तो रिएक्शन हो सकता था। अगर भीम इसका उत्तर देता, तो वह क्रोध में ही दिया गया होता। अगर कृष्ण की तरफ से यह उत्तर आया है, तो यह बड़ी आनंद की स्वीकृति है, कि ठीक है। अगर जीवन वहां ले आया है, जहां युद्ध ही फलित हो, तो हम परमात्मा के हाथों में अपने को छोड़ते हैं।


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिऔम सिगंल

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