गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 16

  

तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।

गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः।। 17।।


और हे अर्जुन, तद्रूप है बुद्धि जिनकी तथा तद्रूप है मन जिनका और उस सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही निरंतर एकीभाव से स्थिति है जिनकी, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान के द्वारा पापरहित हुए अपुनरावृत्ति को अर्थात परमगति को प्राप्त होते हैं।


जिनकी वृत्ति, जिनकी चेतना परमात्मा से तदरूप हो गई, एक हो गई, तादात्म्य को पा गई है; जिनकी अपनी छोटी-सी ज्योति परमात्मा के परम सूर्य के साथ एक हो गई, एकतान हो गई है; जिनका अपना छोटा-सा वीणा का स्वर उसके परम नाद के साथ संयुक्त हो गया है--ऐसे पुरुष वापस नहीं लौटते हैं; उनका पुनरागमन नहीं होता है। ऐसे पुरुष प्वाइंट आफ नो रिटर्न, उस जगह पहुंच जाते हैं, जहां से वापसी नहीं है, जहां से पीछे नहीं गिरना पड़ता है, जहां से वापस अंधकार में और अज्ञान में नहीं डूब जाना पड़ता है।


इसमें दोत्तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए।

एक तो, परमात्मा की झलक मिल जाती है बहुत बार, लेकिन तदरूपता नहीं मिलती। परमात्मा की झलक मिल जाती है बहुत बार, लेकिन परमात्मा से एकता नहीं सधती। झलक ऐसी मिल जाती है कि जैसे कोई व्यक्ति जमीन से छलांग लगाए, तो एक क्षण को जमीन के ग्रेविटेशन के बाहर हो जाता है, एक क्षण को जमीन की कशिश के बाहर हो जाता है। लेकिन क्षणभर को! हो भी नहीं पाता कि वापस जमीन उसे अपने पास बुला लेती है। फिर लौट आता है।

जैसे रात अंधेरे में बिजली कौंध जाए। अमावस की रात हो, भादों की रात हो, अंधेरा हो--बिजली कौंध जाए। एक क्षण को झलक में सब दिखाई पड़ जाता है; और दिखाई भी नहीं पड़ा कि घनघोर अंधकार छा जाता है। और ध्यान रहे, बिजली के बाद जब अंधकार छाता है, तो बिजली के पहले वाले अंधकार से ज्यादा घना होता है। आंखें और चौंधिया गई होती हैं।

बहुत बार परमात्मा की एक झलक मिल जाती है, लेकिन झलक से तदरूपता नहीं होती है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो तदरूप हो गया! ऐसा नहीं कि परमात्मा को जान लिया, बल्कि ऐसा कि जो परमात्मा हो गया। ऐसा नहीं है कि दूर से एक झलक ले ली, बल्कि ऐसा कि अब कोई फासला न बचा। अब वही हो गए, उसी के साथ एक हो गए। तब पुनरागमन नहीं है। फिर पुनरावर्तन नहीं होता। फिर लौटना नहीं होता।

साधक को बहुत बार झलक मिल जाती है! और झलक से सावधान रहने की जरूरत है, कि जो झलक को तदरूपता समझ लेगा, उसकी जिंदगी और गहन अंधकार में पड़ सकती है।

झलक और तदरूपता में क्या फर्क है? झलक में आप मौजूद होते हैं, और परमात्मा का अनुभव होता है। तदरूपता में आप मिट जाते हैं, और परमात्मा का अनुभव होता है। तदरूपता में परमात्मा ही होता है, आप नहीं होते। झलक में आप होते हैं, परमात्मा क्षणभर को दिखाई पड़ता है। यह क्षणभर को दिखाई कभी-कभी अनायास भी पड़ जाता है। अनायास!


कभी-कभी हिमालय की ऊंचाई पर गए हुए साधक को अचानक...। इसलिए हिमालय का इतना आकर्षण पैदा हो गया। उसका कारण है। हिमालय के शुभ्र, श्वेत शिखर दूर तक फैले हुए हैं। किसी क्षण में सूर्य की चमकती हुई किरणों में स्वर्ण हो जाते हैं। लोग छूट गए दूर। समाज छूट गया दूर। जमीन का गोरखधंधा, दिन-रात की बातचीत, दिन-रात की दुनिया, दैनंदिन व्यवहार छूट गया दूर। शीतल है सब। ठंडा है सब। क्रोधित हो सकें, इतना भी शरीर गर्म नहीं। रक्तचाप नीचे आ गया। चारों तरफ फैले हुए शुभ्र शिखर, सूर्य की चमकती हुई किरणों में स्वर्ण हो गए हैं। उस क्षण में कभी मन उस दशा में आ जाता है, प्राकृतिक कारण से ही, कि एक क्षण को ऐसा लगता है, चारों ओर परमात्मा है।

लेकिन इस झलक को तादात्म्य नहीं कहा जा सकता। और यह झलक और-और उपायों से भी मिल सकती है। लेकिन झलक सदा ही एक अनुभव की तरह, एक एक्सपीरिएंस की तरह मालूम होगी। लगेगा कि मेरे पास एक अनुभव और बढ़ गया। मैं नहीं मिटूंगा। मैं बना रहूंगा। मेरी पुरानी स्मृति बनी रहेगी। मेरी कंटिन्यूटी बनी रहेगी। मेरी पुरानी स्मृति में मैं एक स्मृति और जोड़ दूंगा कि मैंने परमात्मा की झलक भी पाई।

ऐसे आदमी का अहंकार और मजबूत हो जाएगा। वह कहता फिरेगा कि मैंने परमात्मा को जान लिया। लेकिन परमात्मा पर जोर कम, मैंने जान लिया, इस पर जोर उसका ज्यादा होगा। और अगर मैं पर ज्यादा जोर है, तो अंधेरा और बढ़ गया।

इसलिए कृष्ण ने बहुत स्पष्ट कहा, तदरूप हो जाता है जो!

वही केवल वापस नहीं लौटता। तदरूप का अर्थ है, परमात्मा से एक ही हो जाता है। इसलिए जिसने सच में ही परमात्मा के साथ तदरूपता पाई, वह यह नहीं कहेगा कि मैंने परमात्मा जाना। वह कहेगा, मैं तो मिट गया। अब परमात्मा ही है। मैं तो हूं ही नहीं। वह यह नहीं कहेगा, मुझे परमात्मा का अनुभव हुआ। वह कहेगा कि मैं जब तक था, तब तक तो अनुभव हुआ ही नहीं। जब मैं नहीं था, तब अनुभव हुआ। मुझे नहीं हुआ।

ध्यान रहे, मैं का और परमात्मा का वास्तविक मिलन कभी भी नहीं होता। मैं और परमात्मा वस्तुतः कभी आमने-सामने नहीं होते। एक झलक हो सकती है। लेकिन परमात्मा के सामने मैं तदरूप अगर हो जाए, पूर्ण रूप से खड़ा हो जाए, तो तत्काल गिर जाता है और विलीन हो जाता है।


तदरूपता का अर्थ है, ईगोलेसनेस। खो जाए मेरा भाव कि मैं हूं। आ जाए यह स्थिति कि परमात्मा ही है। फिर लौटना नहीं है। क्योंकि लौटेंगे किसको लेकर अब? वह तो खो गया, जो लौट सकता था।

इस जगत की सारी यात्रा अहंकार की यात्रा है, आना और जाना। ध्यान रहे, जन्मों की लंबी कथा, आत्मा की नहीं, अहंकार की कथा है। अहंकार ही आता और जाता। आत्मा न तो आती और न जाती। एक बार भी जिसने यह जान लिया, उसका आवागमन गया। उसके लिए लौटने का कोई उपाय न रहा; सब सेतु गिर गए। खंडित हो गए मार्ग। लौटने वाला ही खो गया। इस स्थिति को परम मुक्ति कहा कृष्ण ने।

परम मुक्ति का अर्थ है, मैं की मुक्ति नहीं, मैं से मुक्ति। फिर से दोहराता हूं। परम मुक्ति का अर्थ है, मैं की मुक्ति नहीं, मैं से मुक्ति।

हम सबके मन में ऐसा ही होता है कि मुक्त हो जाएंगे, तो मोक्ष में बड़े आनंद से रहेंगे। मुक्त हो जाएंगे, तो कोई दुख न रहेगा; हम तो रहेंगे! मुक्त हो जाएंगे, तो कोई पीड़ा न रहेगी, कोई बंधन न रहेगा; हम तो रहेंगे! लेकिन ध्यान रहे, सबसे बड़ी पीड़ा और सबसे बड़ा बंधन मेरा होना है।

इसलिए जो लोग ऐसा सोचते हैं कि मोक्ष में सुख ही सुख होगा और हम होंगे और सुख ही सुख होगा, वे गलती में हैं। अगर आप होंगे, तो दुख ही दुख होगा। अगर आपको अपने को बचाना हो, तो नर्क बहुत ही सुगम, सुविधापूर्ण, सुरक्षित जगह है। अगर स्वयं को बचाना हो, तो नर्क बहुत ही सुव्यवस्थित बचाव है।

अगर मैं को बचाना है, तो नर्क की यात्रा करनी चाहिए। वहां मैं बहुत प्रगाढ़ हो जाता है। उसी की प्रगाढ़ता से इतनी अग्नि जलती मालूम पड़ती है चारों तरफ--इतनी लपटें, इतना दुख, इतनी पीड़ा।

लेकिन कभी आपने सोचा कि आपके सारे दुख मैं के दुख हैं! कभी आपने कोई ऐसा दुख पाया है, जो मैं के बिना पाया हो? सब दुख मैं के दुख हैं। मैं के साथ आनंद का कोई उपाय नहीं है। मैं के साथ दुख आएगा ही छाया की तरह। इसलिए अगर कोई अपने मैं को बचाकर स्वर्ग भी पहुंच गया, तो भूल हो रही है उससे; वह स्वर्ग आया नहीं होगा, नर्क ही आएगा।


मैं से जो मुक्त होने को तैयार है, वही केवल मोक्ष में प्रवेश पाता है। यह जो मैं से मुक्ति है--मैं की मुक्ति नहीं, मैं से मुक्ति--इसमें ही तदरूप हो जाता है आदमी। तदरूप! एक ही।

जिंदगी में कहां आपको तदरूपता दिखाई पड़ती है? कहीं आपने तदरूपता देखी जिंदगी में, जहां कोई चीज वही हो जाती हो, जो है? आग जलाते हैं। थोड़ी ही देर में--थोड़ी ही देर में--लकड़ियां जलती हैं और आग के साथ एक हो जाती हैं। राख पड़ी रह जाती है।

इसलिए अग्नि को बहुत पहले समस्त दुनिया के धर्मों ने एक प्रतीक की तरह चुन लिया। उसमें लकड़ी जलकर आग के साथ एक हो जाती है। इसलिए अग्नि यज्ञ बन गई। पारसियों ने अग्नि को चौबीस घंटे जलाकर पवित्र पूजा का स्थल बना लिया। क्योंकि अग्नि में लकड़ी जलकर तदरूप होती रहती है।

ठीक ऐसे ही जब कोई अहंकार परमात्मा की आग में अपने को छोड़कर जलता जाता है, जलता जाता है, जलने को राजी हो जाता है, तदरूप हो जाता है; तो ही--तो ही--उस जगह पहुंचता है, जहां से कोई वापसी नहीं है।

और उस जगह पहुंचे बिना जीवन में न कोई आनंद है, न कोई अमृत है, न कोई रस है, न कोई सौंदर्य है, न कोई संगीत है। उसी क्षण से संगीत शुरू होता, उसके पहले शोरगुल है। उसी क्षण से अमृत शुरू होता, उसके पहले मृत्यु ही मृत्यु की कथा है। उसी क्षण से प्रकाश शुरू होता, उसके पहले अंधकार और अंधकार है। उसी क्षण से जीवन उत्सव बनता।

जिस क्षण से मैं खोता हूं, उसी क्षण से जीवन एक फेस्टिविटी है--एक उत्सव, एक नृत्य, एक आनंदमग्नता, एक एक्सटैसी, एक समाधि, एक हर्षोन्माद। उसके पहले तो जीवन सिर्फ कांटों से चुभा हुआ है। उसके पहले तो जीवन सिर्फ बिंधा हुआ है पीड़ाओं से, संताप से, सड़ता हुआ। उसके पहले तो जीवन एक दुर्गंध है, और एक विसंगीत है; एक विक्षिप्तता, एक पागलपन है।

कृष्ण कहते हैं, ऐसा हो सकता है अर्जुन। अंतःकरण हो शुद्ध, आत्मा ने जागकर पाया हो ज्ञान, हो गई हो तदरूप परमात्मा के साथ; खो दी हो ज्योति ने अपने को परम प्रकाश में, तो फिर कोई लौटना नहीं है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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