गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 21

  मैं मिटा, तो ब्रह्म


यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।

समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।। 22।।


और अपने आप जो कुछ  प्राप्त हो, उसमें ही संतुष्ट रहने वाला और द्वंद्वों से अतीत हुआ तथा मत्सरता अर्थातर् ईष्या से रहित, सिद्धि और असिद्धि में समत्व भाव वाला पुरुष कर्मों को करके भी नहीं बंधता है।



जो प्राप्त हो उसमें संतुष्ट, द्वंद्वों के अतीत--इन दो बातों को ठीक से समझ लेना उपयोगी है।

जो मिले, उसमें संतुष्ट! जो मिले, उसमें संतुष्ट कौन हो सकता है? चित्त तो जो मिले, उसमें ही असंतुष्ट होता है। चित्त तो संतोष मानता है उसमें, जो नहीं मिला और मिल जाए। चित्त जीता है उसमें, जो नहीं मिला, उसके मिलने की आशा, आकांक्षा में। मिलते ही व्यर्थ हो जाता है। चित्त को जो मिलता है, वह व्यर्थ हो जाता है; जो नहीं मिलता है, वही सार्थक मालूम होता है।




चित्त सदा ही, सदा ही असंतुष्ट है। चित्त का होना ही असंतोष है। अगर ऐसा कहें तो ज्यादा ठीक होगा कि चित्त और असंतोष एक ही चीज के दो नाम हैं। ऐसा नहीं कि चित्त असंतुष्ट होता है, बल्कि ऐसा कि चित्त ही असंतोष है। क्योंकि जिस क्षण संतुष्टि आती है, उसी क्षण चित्त भी चला जाता है। असंतोष के साथ ही मन भी चला जाता है। जिनके भीतर असंतोष न रहा, उनके भीतर मन भी न रहा।

मन उसकी आकांक्षा में ही जीता है, जो नहीं मिला है। इसलिए मन के लिए जरूरी है कि जो मिला है, उससे असंतुष्ट हो; और जो नहीं मिला है, उसमें संतोष की कामना में जीए। जो नहीं मिला है, उसमें संतोष खोजे; और जो मिल जाए, उसमें असंतोष खोजे। यह हमारी चित्त-दशा है।

ऐसा भी नहीं है कि जो आज हमें नहीं मिला है और लगता है कि कल मिल जाए, तो संतोष मिलेगा; तो कल मिल जाने पर संतोष मिल जाएगा। ऐसा भी नहीं है। कल मिलते ही अचानक हम पाएंगे कि हमारा असंतोष आ गया उस पर, जो मिला; और हमारा संतोष हट गया उस पर, जो अभी नहीं मिला है।

करीब-करीब जैसे आकाश का क्षितिज है, हॅराइजन है। दिखता है थोड़ी ही दूर, आकाश जमीन से मिलता हुआ। चलें खोजने। जितना बढ़ेंगे, उतना ही वह आकाश भी आगे बढ़ता जाता है। वह कहीं पृथ्वी को छूता नहीं; सिर्फ छूता हुआ मालूम पड़ता है, प्रतीत होता है। एपियरेंस भर है स्पर्श का, पृथ्वी और आकाश का। कहीं छूता नहीं है। बढ़ते जाएं; पूरी पृथ्वी का पूरा चक्कर लगा लें, वह कहीं छूता हुआ मिलेगा नहीं। और फिर भी कहीं भी ऐसा न होगा कि आगे छूता हुआ न दिखाई पड़े। हमेशा आगे छूता हुआ दिखाई पड़ेगा। जब पहुंचेंगे उस जगह, तब तक वह आगे हट चुका होगा।

संतोष भी हमारे लिए क्षितिज-रेखा की भांति है, सदा आगे दिखाई पड़ता है--थोड़े और आगे चलें, वहां संतोष है! जहां हैं, वहां असंतोष है। जहां हैं, वहां आकाश छूता नहीं, दूर कहीं छूता है संतोष, आकाश, क्षितिज! बढ़ें; पहुंचें वहां; पाते हैं पहुंचकर कि आकाश आगे हट गया।

आपकी वजह से आकाश आगे नहीं हटता है। आपसे आकाश इतना नहीं डरता है। छूता होता, तो छूता ही रहता। नहीं, आप बढ़ गए, इसलिए आकाश भाग नहीं गया। आकाश कहीं भी छूता ही नहीं है; सिर्फ भ्रम होता है छूने का। आपके बढ़ने से आकाश हटता नहीं है। आकाश कभी छूता ही नहीं था; सिर्फ आपको भ्रम हुआ था छूने का। ऐसे ही चित्त सदा ही भविष्य में संतोष के भ्रम में जीता है।

कृष्ण उलटी बात कह रहे हैं। वे कहते हैं, जो पुरुष जो मिल जाए, उसमें संतुष्ट हो, तो फिर उसे कर्मबंध नहीं बांधते।

इन दोनों की प्रक्रियाओं को समझ लेना चाहिए। जैसी हमारी स्थिति है, उसमें जो मिलता है, वही असंतोष लाता है। रहस्य क्या है? कारण क्या है?


असंतोष का राज है। असंतोष की भी अपनी कीमिया है, केमिस्ट्री है! वह केमिस्ट्री यह है, जितना बड़ा असंतोष पाना हो, उतनी बड़ी अपेक्षा चाहिए। छोटी अपेक्षा से बड़ा असंतोष नहीं पाया जा सकता। अगर असंतोष कमाना हो, तो बड़ी अपेक्षाओं के आकाश फैलाने चाहिए। जितनी बड़ी अपेक्षा, उतना बड़ा असंतोष।


अपेक्षा जितनी बड़ी, उतना बड़ा असंतोष। अपेक्षा जितनी छोटी, उतना कम असंतोष। अपेक्षा शून्य, असंतोष बिलकुल नहीं। ऐसा गणित है।

कृष्ण कहते हैं, जो पुरुष जो मिल जाए, उसमें संतुष्ट है...।

कौन-सा पुरुष संतुष्ट होगा? वही पुरुष, जो अपेक्षारहित जीता है, जिसका कोई एक्सपेक्टेशन नहीं है। जो ऐसे जीता है, जैसे जीने के लिए कोई अपेक्षा की जरूरत नहीं है। फिर जो भी मिल जाता है, वही धन्यभाग। उसके लिए ही वह प्रभु को धन्यवाद दे पाता है।


धन्यवाद का जो भाव है, वह उसी व्यक्ति में हो सकता है, जिसकी अपेक्षा कोई भी नहीं। जब अपेक्षा कोई भी नहीं, तो जो भी मिल जाता है, जो भी, उसमें भी वरदान खोजा जा सकता है। और जब अपेक्षा बहुत होती है, तो जो भी मिल जाता है, उसमें ही अभिशाप का आविष्कार हो जाता है; उसी में अभिशाप खोज लिया जाता है। खोज हम पर निर्भर है।

जो प्राप्त हो जाए, उसमें संतुष्ट कौन होगा? जिसने और ज्यादा प्राप्त नहीं करना चाहा। सच, जिसने प्राप्त ही कुछ नहीं करना चाहा। उसे जो भी मिल जाए, वही काफी है, जरूरत से ज्यादा है।

और एक बार किसी व्यक्ति को यह रहस्य पता चल जाए, तो संतोष के आनंद की कोई सीमा नहीं है। असंतोष के दुख की कोई सीमा नहीं है; संतोष के आनंद की कोई सीमा नहीं है। असंतोष के नर्क का कोई अंत नहीं है; संतोष के स्वर्ग का भी कोई अंत नहीं है। लेकिन संतुष्ट...।


पैर में जरा-सा काटा गड़ जाए हमें, तो ऐसा लगता है, सारी दुनिया व्यर्थ हुई। कोई परमात्मा नहीं है। सब बेकार है। अन्याय चल रहा है सारे जगत में। मेरे पैर में, और कांटा?

शरीर के हजार-हजार सुखों के लिए कभी परमात्मा को धन्यवाद न दिया; एक छोटे से कांटे के लिए शिकायत भारी है!


जो है, उसे ठीक से देखें, तो संतोष के लिए बहुत है। जो नहीं है, उसके प्रति आंखों को दौड़ाते रहें, तो जो है, वह कभी दिखाई नहीं पड़ता; और जो नहीं है, उसके सपने मन को घेर लेते हैं और असंतोष को पैदा कर जाते हैं।

सत्य संतोष के लिए काफी है। असंतोष के लिए सपने चाहिए। यथार्थ संतोष के लिए काफी है, असंतोष के लिए कल्पना चाहिए। सारे जगत में लोग कल्पना के कारण असंतुष्ट हैं, यथार्थ के कारण नहीं। यथार्थ पर्याप्त संतोष दे सकता है। लेकिन कल्पना? कल्पना सीमा के बाहर पीड़ा देती है।

कृष्ण कहते हैं कि जो मिल जाए, उसमें जो संतुष्ट है--जो मिल जाए, जो प्राप्त हो जाए, उसमें जो राजी है; आभार से भरा, अनुगृहीत--और द्वंद्व के पार...। दूसरी बात वे कहते हैं, द्वंद्व के पार, द्वंद्वातीत, बियांड दि डुअलिटी। दो के बाहर।

संतुष्ट हो जाना भी बहुत कठिन है, फिर भी उतना कठिन नहीं, जितना द्वंद्व के बाहर हो जाना है। द्वंद्व क्या है?

सारा जीवन ही द्वंद्व है हमारा। हम दो में ही जीते हैं। प्रेम करते हैं किसी को; लेकिन जिसे प्रेम करते हैं, उसे ही घृणा भी करते हैं। कहेंगे, कैसी बात कहता हूं मैं! लेकिन सारी मनुष्य-जाति का अनुभव यह है। और अब तो मनसशास्त्री इस अनुभव को बहुत प्रगाढ़ रूप से स्वीकार कर लिए हैं कि जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे ही घृणा करते हैं।

द्वंद्व है हमारा मन। जिसे हम चाहते हैं, उसे ही हम नहीं भी चाहते हैं। जिससे हम आकर्षित होते हैं, उसी से हम विकर्षित भी होते हैं। जिससे हम मित्रता बनाते हैं, उससे हम शत्रुता भी पालते हैं। ये दोनों हम एक साथ करते हैं। थोड़ा किसी एकाध घटना में उतरकर देखेंगे, तो खयाल में आ जाएगा।

जिससे आप प्रेम करते हैं, उससे आप चौबीस घंटे प्रेम कर पाते हैं? नहीं कर पाते। घंटेभर प्रेम करते हैं, तो घंटेभर घृणा करते हैं। सुबह प्रेम करते हैं, तो सांझ घृणा करते हैं। सांझ लड़ते हैं, तो सुबह फिर दोस्ती कायम करते हैं। पूरे समय घृणा और प्रेम का धूप-छांव की तरह खेल चलता है।

जिसको आदर करते हैं, उसके ही प्रति मन में अनादर भी पालते हैं। मौके की तलाश में होते हैं, कब अनादर निकाल सकें। जिसको फूलमाला पहनाते हैं, किसी दिन उस पर पत्थर फेंकने की इच्छा भी मन में रहती है। वह इच्छा दबी हुई प्रतीक्षा करती है। फिर किसी दिन बहाना खोजकर वह इच्छा बाहर आती है। पत्थर भी फेंक लेते हैं।

हमारा मन प्रतिपल दोहरा है, डबल-बाइंड। इसलिए जो बुद्धिमान हैं, जैसे कि चाणक्य ने--जो कि चालाकों में, अधिकतम बुद्धिमान आदमियों में एक है--चाणक्य ने कहा है, राजाओं को सलाह दी है कि अपने मित्र को भी वह बात मत बताना, जो तुम शत्रु को नहीं बताना चाहते हो। क्यों? क्योंकि चाणक्य ने कहा, भरोसा कुछ भी नहीं है; जो आज मित्र है, वह कल शत्रु हो सकता है।


असल में शत्रु और मित्र दो चीजें नहीं हैं, एक ही साथ घटित होती हैं। आप किसी आदमी को बिना मित्र बनाए शत्रु बना सकते हैं? बहुत मुश्किल है। अब तक तो नहीं हो सका पृथ्वी पर यह। बिना मित्र बनाए किसी को शत्रु बनाया जा सकता है? असंभव है। शत्रु बनाने के लिए भी मित्र की सीढ़ी से गुजरना ही पड़ता है। शत्रु बनाने के लिए भी पहले मित्र ही बनाना पड़ता है। तो ऐसा भी समझ सकते हैं कि जिसको मित्र बनाया, अब उसके शत्रु बनने की संभावना घनीभूत हो गई।

जब कृष्ण कहते हैं, द्वंद्वातीत...।

मन तो जीता है द्वंद्व में, सदा द्वंद्व में। मन तो जीता है सदा विकल्प में। सदा ही दो विकल्प खड़े रहते हैं। जो आप करते हैं, उसके खिलाफ भी आपका मन पूरे वक्त भीतर कहता रहता है। एक पैर भी आप उठाते हैं, तो मन का दूसरा हिस्सा कहता है, मत उठाओ। मन कभी भी सौ प्रतिशत, हंड्रेड परसेंट नहीं होता। एक हिस्सा निरंतर ही विरोध करता रहता है। जिस आदमी का मन ऐसी हालत से भरा है, वह आदमी द्वंद्व में घिरा है। वह सदा ही द्वंद्व में घिरा रहेगा। यह द्वंद्व अगर बहुत तीव्र हो जाए, तो वह आदमी दो खंडों में टूट जाएगा, जिसको मनोवैज्ञानिक सीजोफ्रेनिया कहते हैं। वह आदमी दो खंडों में टूट जाएगा। वह एक ही आदमी दो आदमियों की तरह हो जाएगा।

लेकिन हम इतने ज्यादा नहीं टूटते। हमारी टूट तरल होती है, लिक्विड होती है। हम बिलकुल नहीं टूट जाते दो खंडों में। लेकिन हमारे दो खंड जारी रहते हैं। लेकिन फिर भी हैं तो सीजोफ्रेनिक, हैं तो दोहरे।

जो आपकी प्रशंसा करता है, कल आपको एकदम हैरानी होती है कि उसने आपकी निंदा की। आप गलती में हैं। आपको मनोवैज्ञानिक सत्य का पता नहीं है। जिसने प्रशंसा की, वह बदला चुकाएगा। वह आज नहीं कल, कहीं निंदा करेगा, तब कंपनसेशन हो पाएगा। उसने एक काम कर दिया, अब उससे उलटा काम नहीं करेगा, तो संतुलन नहीं हो पाएगा। जिसने एक तरफ प्रशंसा की, वह कल कहीं न कहीं जाकर निंदा करेगा। जब प्रशंसा करे, तभी समझ लेना। निंदा की प्रतीक्षा मत करना, वह कहीं करेगा।

फ्रायड ने लिखा है अपने संस्मरणों में, अगर घने से घने मित्र भी एक-दूसरे के संबंध में यहां-वहां जो कहते हैं, वह अगर उन्हें पता चल जाए, तो इस पृथ्वी पर एक भी मित्रता टिक नहीं सकती। घने से घने, इंटीमेट से इंटीमेट, निकट से निकट मित्र भी एक-दूसरे के खिलाफ यहां-वहां जो कहते हैं, अगर वह सबको पता चल जाए, तो इस पृथ्वी पर एक भी मित्रता नहीं टिक सकती।

कारण है उसका। मन सदा ही परिपूर्ति खोजता है। उसका दूसरा हिस्सा भी है, वह मांग करता है कि मुझे भी पूरा करो।


ऐसी हम सबकी चित्त की दशा है। डबल-बाइंड है।

यह जो द्वंद्व है, यह बहुत ऊपर भी है, बहुत गहरे भी है। सतह पर भी है, गहराइयों में भी है। गहराइयों में भी सदा द्वैत चलता रहता है। दिन में आदमी ने उपवास किया है, रात भोजन के सपने देखेगा। कंपनसेशन है। दिन में आदमी भला है, ईमानदार है, रात सपने में चोरी करेगा। वह चोर वाला हिस्सा भी भीतर है। ईमानदार के साथ बेईमान भी भीतर है। वह बेईमान क्या करेगा? अगर आपने दिन भर उसे बेईमानी न करने दी, तो रात बेईमानी करके अपनी तृप्ति कर लेगा।


हम भी अपनी रात में यही कर रहे हैं। दिन में जो-जो चूक गया, रात कंपनसेशन कर रहे हैं। अगर भले आदमियों के सपने देखे जाएं, तो बड़ी हैरानी होती है। अगर बुरे आदमियों के सपने देखे जाएं, तो भी बड़ी हैरानी होती है।

भले आदमियों के सपने अनिवार्यतया बुरे आदमी जैसे होते हैं। और बुरे आदमी के सपने अनिवार्यतया भले आदमी जैसे होते हैं। डबल-बाइंड है माइंड। अच्छे आदमी बुरे सपने देखते हैं; बुरे आदमी अच्छे सपने देखते हैं। चोर और बेईमान सपने में साधु-संन्यासी होने की बातें सोचते हैं। साधु और संन्यासी सपने में चोर और बेईमान हो जाते हैं! वह दूसरा हिस्सा है मन का। वह भीतर प्रतीक्षा करता है। वह प्रतीक्षा करता है कि कब? अगर कहीं मौका नहीं मिला, तो सपने में मौका खोज लेता है।

यह जो चित्त है, यह अनिवार्यतया द्वंद्वात्मक है, डायलेक्टिकल है। मन के काम करने का ढंग द्वंद्वात्मक है। इसलिए अगर कोई विश्वासी आदमी है, आस्थावान, श्रद्धालु--तो बहुत हैरानी होगी--अगर विश्वासी आदमी है, तो उसके भीतर गहरे में संदेह छिपा रहेगा। अगर बहुत संदेह करने वाला आदमी है, तो उसके भीतर गहरे में विश्वास छिपा रहेगा।

इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि जो लोग जिंदगीभर आस्तिक होते हैं, मरने के करीब-करीब नास्तिक होने लगते हैं। क्यों? क्योंकि जिंदगीभर तो उन्होंने ऊपर विश्वास को सम्हाला; वह संदेह का हिस्सा भीतर दबा रहा। फिर वह धीरे-धीरे उभरना शुरू होता है। वह कहता है, जिंदगीभर तो विश्वास कर लिया, क्या मिल गया? वह भीतर का संदेह ऊपर आना शुरू होता है। अक्सर ऐसा होता है कि जिंदगीभर के अविश्वासी मरते समय विश्वासी हो जाते हैं। भीतर का विश्वास का पहलू ऊपर उभर आता है।

मन द्वंद्वात्मक है, दोहरा है। मन का काम ठीक वैसा ही है, जैसे इस जगत में सारी चीजें द्वंद्वात्मक हैं, पोलर हैं। यहां सारी चीजें द्वंद्व से जीती हैं। अगर हम प्रकाश को मिटा दें, तो अंधेरा मिट जाएगा। आप कहेंगे, कैसी बात कह रहा हूं? प्रकाश को बुझा देते हैं, तो अंधेरा तो और बढ़ता है; मिटता नहीं। लेकिन प्रकाश का बुझाना, प्रकाश का मिटाना नहीं है। अगर पृथ्वी पर प्रकाश बिलकुल न रह जाए, तो अंधेरा बिलकुल नहीं रहेगा। नहीं रहेगा इसलिए भी, कि अंधेरे का पता ही तब तक चलता है, जब तक हमें प्रकाश का पता है। अन्यथा पता भी नहीं चल सकता। रहे तो भी पता नहीं चल सकता।

अगर हम जन्म को बंद कर दें, तो मृत्यु मिट जाएगी; क्योंकि जन्म ही नहीं होगा, तो मरने को कोई खोजना मुश्किल हो जाएगा। अगर हम मृत्यु को रोक दें, तो जन्म को रोकना पड़ेगा।

यही तो दिक्कत हुई है सारी दुनिया में। पिछले दो सौ वर्षों के चिकित्सा के विकास ने मृत्यु की दर कम कर दी। इसलिए अब संतति निरोध और बर्थ कंट्रोल के लिए हमें कोशिश करनी पड़ती है। उधर मृत्यु की दर कम हुई, इधर जन्म की दर कम करनी पड़ेगी।

जिंदगी विरोधों के बीच संतुलन है। और जिंदगी विरोध से चलती है। सारी जिंदगी द्वंद्व है। और सारी जिंदगी के आधार में मन है, माइंड है।

इसलिए जो लोग, जैसे मार्कस, एंजिल्स और लेनिन और माओ, जो लोग मन के ऊपर आत्मा में भरोसा नहीं करते, वे लोग डायलेक्टिकल मैटीरियलिज्म, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की बात करते हैं। वे कहते हैं, पदार्थ द्वंद्व से चलता है। इसलिए वे वर्ग-संघर्ष की बात करते हैं, कि समाज भी द्वंद्व से चलेगा। गरीब को अमीर के खिलाफ लड़ाना पड़ेगा, तब समाज चलेगा। सब समाज द्वंद्व है। अगर मन ही सब कुछ है, तो जिंदगी में संघर्ष के अलावा और कुछ भी नहीं है।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, द्वंद्वातीत, द्वंद्व के बाहर, द्वंद्व के पार, बियांड डायलेक्टिक्स, दो के बाहर होता है अर्जुन जो, वही केवल कर्म के बंधन से मुक्त होता है।

लेकिन दो के बाहर कौन हो सकता है? मन तो नहीं हो सकता। मन तो जब भी रहेगा, दो के भीतर ही रहेगा। दो के बाहर, मन को भी जो जानता है, वही हो सकता है; मन को भी जो पहचानता है, वही हो सकता है। घृणा द्वंद्व के बाहर नहीं हो सकती। प्रेम द्वंद्व के बाहर नहीं हो सकता। लेकिन जो प्रेम और घृणा को जानने वाला ज्ञाता है, नोअर है, वह बाहर हो सकता है।

मैं बैठा हूं। सुबह हो गई, सूरज निकला। देखा कि रोशनी भर गई चारों तरफ। फिर सांझ आई, सूरज डूबा। देखा कि अंधेरा छा गया चारों तरफ। फिर सुबह हुई, फिर सूरज निकला, फिर प्रकाश फैल गया। मैंने देखा चारों तरफ अंधेरे को आते, मैंने देखा चारों तरफ प्रकाश को आते। मैंने देखा जाते प्रकाश को; मैंने देखा जाते अंधेरे को। लेकिन मैं--जिसने प्रकाश को भी देखा और अंधेरे को भी देखा--न तो प्रकाश हूं और न अंधेरा हूं। मैं दोनों से अलग तीसरा हूं, दि थर्ड।

यह जो तीसरा है, अगर इसका मुझे स्मरण आ जाए, तो मैं दो के बाहर हो जाऊं। तीसरे की याद आ जाए, तो दो के बाहर हुआ जा सकता है। यदि तीसरे का स्मरण आ जाए, तो दो के बाहर हुआ जा सकता है।

मन के द्वंद्व के बाहर वही हो सकेगा, जिसे तीसरे का स्मरण आ जाए।

जब सुख आए, तो भीतर मैं जानूं कि यह सुख आया, लेकिन मैं सुख नहीं हूं। क्योंकि अगर मैं सुख हूं, तो दुख फिर कभी नहीं आ सकता। लेकिन थोड़ी देर में दुख आ जाता है। जब दुख आए, तो मैं जानूं कि यह दुख आया, लेकिन मैं दुख नहीं हूं! क्योंकि अगर मैं दुख हूं, तो फिर सुख कभी नहीं आ सकता। लेकिन अभी सुख था और फिर सुख आ जाएगा।

सुख आता है, दुख आता है; घृणा आती, प्रेम आता; मित्रता आती, शत्रुता आती; हार होती, जीत होती; सम्मान मिलता, अपमान मिलता--सब द्वंद्व हैं। इनके पार अगर मैं तीसरे को पकड़कर स्मरण से भर जाऊं कि मैं इन दोनों से भिन्न, दोनों से अन्य, दोनों से अलग जानने वाला हूं, देखने वाला हूं, विटनेस हूं, साक्षी हूं, तो मैं द्वंद्व के पार हो जाता हूं।

कृष्ण कहते हैं, जो द्वंद्व के पार हो जाता है अर्जुन, वह समस्त कर्मों के बंधन से छूट जाता है।

असल में बंधन मात्र द्वंद्व के हैं। निर्द्वंद्व स्वतंत्र है। द्वंद्व में घिरा, बंधन में है। घृणा के भी बंधन हैं, प्रेम के भी बंधन हैं। सम्मान के भी बंधन हैं, अपमान के भी बंधन हैं। और प्रशंसा के भी बंधन हैं, और निंदा के भी। मित्र भी बांध लेते हैं, और शत्रु भी। अपने भी बांधते हैं, और पराए भी। सब बांध लेता है। हार भी बांध लेती है, और जीत भी।

लेकिन जो दोनों को जानता है और दोनों के पार अपने को देख पाता है, वह बंधन के पार हो जाता है। उसे फिर कोई भी नहीं बांध पाता। बांध भी लो, तो भी नहीं बांध पाते। बंधे हुए भी वह बंधन के बाहर ही होता है, क्योंकि वह जानता है, मैं अलग, मैं भिन्न, मैं पृथक।

यह जो पृथकता का बोध है, यह जो साक्षी का भाव है, वह द्वंद्वातीत ले जाता है।

जो मिल जाए, जो प्राप्त हो, उसमें तृप्त, चित्त के द्वंद्वों के पार जो व्यक्ति है, वह कर्म करते हुए भी कर्म के बंधन में नहीं पड़ता है--ऐसा कृष्ण, अत्यंत ही वैज्ञानिक बात, अर्जुन से कहते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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