गुरुवार, 8 जून 2023

चित्रांगदा

 शरद व्यतीत हो चला था। उत्तर के हिमशिखरों का स्पर्श लिए आती सन्ध्या की बयार मादक होने लगी थी। इस मादक बयार ने उसके मन पर अद्भुत प्रभाव डाला था। शृंगार के छंद मानो समीर से प्रतिस्पर्धा करते हुए रावण के मुख से बहते चले आ रहे थे। उसके अतःकरण के किसी कोने में बहुत दिनों से दुबका कवि पुनः जागृत हो गया था।

अभी कुछ समय पूर्व ही वह गंधर्वराज के साथ यहाँ पहुँचा था। उनके आगमन की कोई पूर्व-सूचना तो थी नहीं, अतः द्वार पर प्रतिहारियों के अतिरिक्त कोई उपस्थित नहीं था। गंधर्वराज ने रावण से अंतःपुर चलने का आग्रह भी किया, किन्तु रावण के मन को तो सामने ही दूर तक फैले सुवासित उपवन ने मंत्रमुग्ध कर लिया था। वह गंधर्वराज के आग्रह को टालते हुए उपवन की ओर बढ़ गया, और गंधर्वराज, महारानी से भेंट करने अंतःपुर की ओर चले गये। उपवन की प्राड्डतिक सुषमा ने उसे इतना अभिभूत कर लिया था कि उसे समय और स्थान का भान ही नहीं रहा था| इस सुषमा की स्तुति करते छंद उसके मुख से स्वतः प्रवाहित होने लगे थे।

अचानक उसे प्रतीत हुआ मानो पवन ने प्रड्डति के सितार के तारों को छेड़ दिया हो। वह विमुग्ध सा उस स्वर को सुनने का प्रयास करने लगा।

“पुरुष - श्रेष्ठ ! राजकुमारी चित्रांगदा ने तुमसे कुछ प्रश्न किया हैं । "

“क्षमा करें राजकुमारी !” रावण को चेत हुआ। वह स्वर सितार का नहीं था, एक सर्वांग सुन्दरी कन्या उसके सम्मुख खड़ी उससे ही सम्बोधित थी। 

वह बोला- “रावण, प्रड्डति की वीणा की स्वरलहरी में डूब-उतरा रहा था, इस कारण आपका प्रश्न सुन नहीं पाया, पुनः क्षमाप्रार्थी है।” “पुरुष! तुम्हारे व्यक्तित्व की कांति कह रही है कि तुम किसी उच्च कुल से हो; किन्तु तुम रक्षेन्द्र रावण हो, यह मैं कैसे मान लूँ? उनकी यहाँ उपस्थिति की कोई संभावना नहीं है। सत्य कहो कि तुम यह आडम्बर क्यों कर रहे हो, अन्यथा दंड के भागी बनोगे। "

" नहीं कुमारी, रावण मिथ्या भाषण नहीं करता। वह गंधर्वराज के साथ कुछ काल पूर्व ही आपके इस मनोरम प्रदेश में उपस्थित हुआ है, और गंधर्वराज के समान ही आपके भी अनुग्रह का आकांक्षी हैं।"

“क्या पिता आ गये? किन्तु वे तुम्हारे साथ क्यों नहीं हैं? यदि तुम उनके साथ आये हो तो उन्हें भी तो तुम्हारे साथ ही होना चाहिए था |” राजकुमारी, विश्वास-अविश्वास के भँवर में फँसी थी; उसने अनिश्चित सा प्रश्न किया।

" गंधर्वराज, महारानी की सेवा में कुछ निवेदन करने गये हैं; रावण को उपवन की सुषमा ने विमोहित कर लिया था, अतः वह यहाँ विहार करने लगा | "

"सत्य कह रहे हैं आप?" अभी तक चित्रांगदा के स्वर में विस्मय और किसी अजनबी के दुस्साहस के लिए शेष था, किन्तु अब उसके स्वर में अनायास ही सम्मान का भाव आ गया था। “ मिथ्या भाषण का कोई कारण नहीं है कुमारी; और रावण ने पहले ही कहा कि वह मिथ्या भाषण नहीं करता।" राजकुमारी की कलरव करती सखियाँ रावण को देखकर अचंभित थीं, विमोहित भी थीं। उनका कलख मौन हो गया था। वे चित्रलिखित सी रावण के चुम्बकीय व्यक्तित्व को ताक रही थीं। कुछ ऐसी ही स्थिति वित्रांगदा की भी थी। वह भी मौन हो गयी थी। अचानक अपने रेशमी उत्तरीय से खेलती, पैर के अंगूठे से भूमि कुरेदती, चित्रांगदा मुस्कुरा पड़ी। रावण की दृष्टि तो पराग से लिपटे भँवरे की भाँति उसके चेहरे पर टिकी ही थी। उसने यह स्मित लक्ष्य की, और पूछ बैठा-

"क्या हुआ कुमारी, यह अधरों पर अकस्मात स्मित, नर्तन क्यों कर उठी? क्या रावण का उपहास करने का प्रयास कर रही हैं?" "नहीं नहीं रक्षेद्र ! ऐसा कुछ नहीं है।” चित्रांगदा की सलज्ज दृष्टि आतुरता से ऊपर उठी ।

"तब क्या है?"

"सत्य कह दूँ?” अब चित्रांगदा कुछ नाटकीय हो गयी। "निस्संदेहा

"मैं रक्षेद्र के विषय में विशेष कुछ नहीं जानती थी, मात्र नाम का आख्यान सुनती थी; इस अल्पज्ञान में मैंने रक्षेन्द्र की जो छवि बनाई थी, वह थी किसी अधेड़, प्रलम्ब दाढ़ी वाले क्रोधी पुरुष की, किन्तु प्रत्यक्ष में तो रक्षेन्द्र उस छवि से पूर्णत: विपरीत हैं।”

 “प्रत्यक्ष में रक्षेन्द्र कैसे हैं? उससे भी कुरूप?" रावण ने सहास प्रश्न किया तो चित्रांगदा जैसे कुछ व्याकुल हो उठी- “क्या कहते हैं!” फिर एकाएक उसके चेहरे पर लाली दौड़ गयी, नेत्र झुक गये।

बोली-

"प्रत्यक्ष तो रक्षेन्द्र की छवि ऐसी है कि किसी के भी चित्त का हरण कर ले; नयनों में जैसे पुष्पशर बाण-संधान को आतुर बैठा हैं, और वाणी ... कोई उपमा ही नहीं सूझती। अभी आप जब कुछ गा रहे थे, तो जैसे हम सब सम्मोहित हो गये थे।” "सच देवी! आपको रक्षेन्द्र की छवि और उसके गायन ने आकर्षित किया?" रावण ने उत्साह से प्रश्न किया। यह जानकर कि सामने वाला पक्ष भी उससे प्रभावित है, उसका हृदय धड़क उठा था।

तभी गंधर्वराज ने व्यवधान दिया।

" पौलस्त्य ! यह मेरी पुत्री हैं, चित्रांगदा !”

"परिचय हुआ गंधर्वराज; अप्रतिम सौन्दर्य की स्वामिनी है आपकी पुत्री | " रावण कह ही गया। "इस दैहिक सौन्दर्य के साथ-साथ संगीत, नृत्य और कला में प्रवीणता तो हम गंधर्वों को प्रड्डति मुक्त हस्त देती ही है; मेरी पुत्री गंधर्वलोक में भी इन समस्त कलाओं में सर्वाधिक प्रवीण है।" “पिता! रक्षेन्द्र तो गायन में मुझसे भी अधिक प्रवीण हैं; अभी ये अपने में खोये कुछ गा रहे थे, हम सबका चित्त हर लिया इनके गायन ने "

“चित्रांगदे! सृष्टि में ऐसी कोई कला नहीं हैं, जिसमें तुम्हारे रक्षेन्द्र निष्णात न हों, ये तो पूर्ण-पुरुष हैं"

रावण ने संकोच का उपक्रम किया- “एक कला है गन्धर्वराज, जिसमें रावण निष्णात नहीं है; वह कामिनियों के काम-कटाक्ष को जय नहीं कर पाता।" गन्धर्वराज खुलकर हँस पड़े। चित्रांगदा भी लज्जा से मुस्कुरा उठी। मुस्कुराते समय उसके गालों में पड़ने वाले गहरों में रावण का समस्त ज्ञान डूब गया।

***

रावण ने सोचा था कि कुछ दिन गंधर्वराज का आतिथ्य स्वीकार कर वह लौट आयेगा, और फिर आगे के अभियान पर निकल जायेगा, किंतु यहाँ चित्रांगदा के रसमय सान्निध्य और गन्धर्वराज के समर्पित सत्कार, दोनों ने मिलकर उसे ऐसा बाँधा कि वह अपना उद्देश्य ही भूल गया। यह तो कवि हृदय की चाहे विशेषता कहें चाहे दुर्बलता ... वह रस का तिरस्कार नहीं कर पाता। यूँ ही हास-विलास में रावण के दिन व्यतीत होने लगे। सारी भवताओं - व्याधियों से मुक्त वह इस समय सम्पूर्ण आनंद के सागर में गोते लगा रहा था । भारतभूमि पर स्त्रियों को निर्बाध उन्मुक्तता की अनुमति गन्धर्वलोक में ही प्राप्त थी; ऐसे में सर्वांग-सुन्दरी चित्रांगदा का मादक-मोहक सौन्दर्य, रावण जैसे रस- आखेटक हृदय को पूर्णतः विमोहित किए था। इस रस - विहार में कितने दिन व्यतीत हो गये, रावण के पास इसकी कोई गणना ही नहीं थी। ऐसे ही एक दिन-

रावण और गन्धर्वराज आमोद कक्ष में बैठे थे। रावण वीणा बजा रहा था, चित्रांगदा और उसकी सखियाँ सम्पूर्ण प्रवीणता से नृत्यरत थीं, जैसे आपस में होड़ लगी हो । महाराज और महारानी बैठे इस अद्भुत प्रस्तुति का आनंद ले रहे थे। रावण की वीणा में वह सम्मोहन था कि नृत्यरत पाँवों के लिए रुक पाना संभव ही नहीं था। स्वेदबिंदु नर्तकियों का शृंगार कर रहे थे। एकाएक रावण ने एक दीर्घ आरोह लेकर अपनी उँगलियों को विश्राम दे दिया। जैसे सम्मोहन टूटा हो... कुछ पल मौन व्याप्त रहा, फिर करतल ध्वनि के साथ-साथ "साधु-साधु!” का शोर गूंज उठा। चित्रांगदा और उसकी सखियाँ भी रावण के चारों ओर धीरे से बैठ गयीं। जब प्रशंसा का कोलाहल शांत हुआ तो गन्धर्वराज बोले-

"पौलस्त्य ! एक आग्रह है ... यदि स्वीकार करें..." "कहिये गन्धर्वराज! निश्शंक कहिये।"

"मेरी कन्या आपमें अनुरक्त हैं; इतने काल में आपने भी इसके गुणों का अवलोकन भलीभाँति  किया होगा... आप यदि इसका पाणिग्रहण स्वीकार करें, तो यह और यह गन्धर्वलोक सब अपना सौभाग्य समझेंगे।" चित्रांगदा, यह प्रस्ताव सुनकर भागी नहीं; वह रक्षेन्द्र के आनन पर विमुग्ध, उत्सुक और सलज्ज

दृष्टि गड़ाये देखती रही। वह कोई आर्य कन्या नहीं थी।

रावण के लिए भी तो यह मनवाहा प्रस्ताव था। चित्रांगदा सभी प्रकार से योग्य थी, सर्वांग-सुन्दरी होने के साथ ही सर्वगुण सम्पन्न भी थी। किन्तु इससे भी बड़ी बात थी कि उससे परिणय करने के उपहार स्वरूप रावण को देवलोक के निकट एक सबल, विश्वस्त सहयोगी प्राप्त हो रहा था।

ऐसे प्रस्ताव की अवहेलना संभव ही न थी । उत्सुक दृष्टियों को अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी "यह तो रावण का सौभाग्य होगा गन्धर्वराज! चित्रांगदा जैसी सर्वगुण सम्पन्न सुलक्षणा कन्या को प्राप्त कर कौन पुरुष धन्य नहीं होना चाहेगा?" चित्रांगदा स्वयं को और न रोक सकी, हुलसकर रावण के अंक में समा गयी। रावण ने उसे एक भरपूर आगलगन दिया, फिर स्नेह से अलग करते हुए गंधर्वराज से बोला-

“अब तो आप रावण के ज्येष्ठ हो गये; रावण आपको प्रणाम करता हैं, जैसा आदेश आप देंगे,

रावण उसका निर्वाह करेगा । "

सर्वप्रथम शुभ मुहूर्त में गंधर्व विधि से दोनों का विवाह सम्पन्न हो गया। और कई माह इसी प्रकार व्यतीत हो गये। एक दिन, बहुत काल बाद रावण जब समाधि में बैठा, तो उसे प्रतीत हुआ कि प्रभु शिव कह रहे हैं- 'वत्स! विलास में क्या अपना उद्देश्य ही भूल गये? क्या तुम इसी उन्मुक्त विहार हेतु निकले थे? क्या मंदोदरी के सम्मुख किया गया प्रण भूल गये ?

जब तक तुम अपनी श्रेष्ठता सिद्ध नहीं करोगे, वेदवती को कैसे संतोष प्राप्त होगा ? " रावण को चेत हुआ।

बिना कोई विलंब किए उसने गन्धर्वराज से भेंट कर अपनी बात उनके सम्मुख रख दी। गन्धर्वराज ने भी उसके प्रस्ताव के महत्त्व को स्वीकार करते हुए कोई बाधा नहीं दीं। रावण ने उन्हें अपना ज्येष्ठ मानते हुए उनसे ही आगे सलाह की-

"यहाँ आप ही रावण के ज्येष्ठ हैं, आप ही एकमेव परामर्शदाता हैं, अतः आप ही मार्गदर्शन कीजिये कि अब रावण को किस दिशा में प्रस्थान करना उचित होगा?" "किञष्कधापति बालि तो पौलस्त्य के मित्र हो ही चुके हैं, दण्डकारण्य का सम्पूर्ण क्षेत्र भी अब आपके नियंत्रण में हैं; गन्धर्वदेश तो अब आपका ही है। अब इस भरतभूमि पर आर्यों के अतिरिक्त एक ही शक्ति है जो शेष हैं- हैद्रयराजा हैहयराज एकमेव ही इन्द्र को पराभूत करने की सामर्थ्य रखते हैं, अब उन पर ही विजय या मित्रता का उद्योग करना उचित होगा।"

"तो फिर यही निश्चित हुआ; रावण वैजयंतपुर पहुँचकर सीधे महिष्मती की ओर प्रस्थान करेगा।" "धैर्य से वत्स, धैर्य से... हैहयराज, रावण की ख्याति से भयभीत होने वाला नहीं हैं कि दौड़कर मित्रता स्वीकार कर ले।” आवेग में औपचारिकताओं के बंधन शिथिल हो जाते हैं। गंधर्वराज भी अभी तक रावण के प्रति औपचारिक सम्मान्य संबोधनों का प्रयोग करते आ रहे थे। इस समय  अचानक आवेग में वत्स निकल गया। तत्क्षण उन्हें इसका भाष हुआ। उन्होंने अपनी भूल सुधारी- "हैहयराज प्रबल प्रतापी है पौलस्त्य; वहाँ चतुरंगिणी सैन्य के साथ ही जाना उचित है; मेरा सम्पूर्ण सैन्य आपकी सेवा में सदैव प्रस्तुत है। "

"गंधर्वराज ! आप मुझे वत्स कहकर ही सम्बोधित करें, आपके मुख से वढी श्रेष्ठ प्रतीत होता है। आपके लिए रावण पुत्रवत् ही हैं। रही बात महिष्मती पर ससैन्य अभियान की, तो रावण को नहीं प्रतीत होता कि आपकी और लंका की सेना मिलाकर भी अभी हैहय की सेना के समकक्ष हो सकती है। यह अभियान तो रावण को एकाकी ही करना होगा। भविष्य में देवों के विरुद्ध अभियान तक लंका की सेना इतनी समृद्ध हो चुकी होगी कि ससैन्य अभियान किया जा सके।" काफी समझाने पर भी जब रावण नहीं माना, तो गंधर्वराज ने अंततः यह कार्य सुमाली पर ही छोड़ना उचित समझा। बोले-

“जैसा उचित समझो, किन्तु कोई भी निर्णय अपने मातामह से परामर्श लिए बिना मत लेना, मेरी

दृष्टि में उनसे श्रेष्ठ रणनीतिज्ञ, विष्णु के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है। "

विष्णु का नाम सुनकर रावण की भृकुटि तन गई, किन्तु वह कुछ बोला नहीं।

"तो अब आज्ञा दीजिये।" एक छोटे से मौन के बाद रावण बोला। "उचित है वत्स! तो फिर प्रातः ही अपने अभियान हेतु प्रस्थान करो। शुभास्ते पन्थानः सन्तु ! चित्रांगदा तुम्हारी धरोहर के रूप में यहीं पितृगृह में तुम्हारी प्रतीक्षा करेगी।”

सुमाली ने भी रावण को वही समझाने का प्रयास किया, जो गंधर्वराज ने किया था। गंधर्वलोक अपनी यात्रा का विवरण और चित्रांगदा से विवाह के विषय में बताकर जैसे ही उसने सुमाली कोअपना आगे का मन्तव्य बताया, सुमाली बोल पड़ा- “अति आत्मविश्वास भी घातक होता है पुत्र! कार्तवीर्य अन्यों के समान नहीं हैं, उससे पार पाना सहज नहीं है। उस पर भगवान दत्तात्रेय की अनुकम्पा है; उसमें असीमित बल ही नहीं हैं, उसका सैन्य भी असीमित हैं।"


"रावण उसके सैन्य से युद्ध करने नहीं जा रहा हैं; निरर्थक, सैनिकों का रक्त बहाने का कोई कारण नहीं हैं... रावण को अपनी स्वयं की श्रेष्ठता सिद्ध करनी है, अतः वह एकल ही अभियान पर जाएगा। अर्जुन भी वीर हैं, वह भी निस्संदेह रावण से एकल ही युद्ध करेगा।” "मैंने माना कि रावण को अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करनी है, किन्तु अब रावण लंकेश्वर है; किसी अनाम द्वीप का कोई अनाम योद्धा नहीं। उसका एकाकी युद्ध अभियान पर निकलना उसकी गरिमा के अनुकूल कदापि नहीं हैं।"

" मातामह! एकल अभियान से गरिमा का किस प्रकार क्षरण होता है? ससैन्य अभियान तो वे करते हैं जिनकी स्वयं की भुजाओं में सामर्थ्य नहीं होती। आपके रावण की भुजायें तो त्रैलोक्य विजय करने की सामर्थ्य रखती हैं... और वह अभी भी तो एकाकी अभियान से वापस लौटा है। " “पुत्र, वह युद्ध अभियान कहाँ था ? अभी तो रावण मित्रों के संधान हेतु गया था । " "कहाँ ? बालि से तो रावण ने युद्ध की ही याचना की थी । "

" और उसी में रावण को पराजय का वरण करना पड़ा था। बालि एक वनचर था, एक सरल हृदय वानर योद्धा हैहयराज वैसा नहीं हैं। वह सम्राट है, कूटनीतिज्ञ हैं, आवश्यकता पड़ने पर उसे कपट से भी संकोच नहीं होगा। वह पराजित होने की स्थिति में मित्रता का चयन कदापि नहीं करेगा; वह तो लंकेश्वर का वध कर देगा, अथवा उसे कारागृह के अंधकूप में डाल देगा। वहाँ मैं अपने पुत्र को एकाकी कदापि नहीं जाने दे सकता|"

“किन्तु मातामह! महिष्मती पर ससैन्य अभियान से क्या प्राप्त होगा? रावण को अपनी सैनिक श्रेष्ठता सिद्ध नहीं करनी हैं, उसे अपनी स्वयं की श्रेष्ठता सिद्ध करनी हैं। फिर हम कितना सैन्य लेकर चल सकते हैं? हैहयराज का सैन्य लंका के सैन्य से निस्संदेह अधिक ही होगा । " "मैं सैन्य अभियान के लिए नहीं कह रहा, किन्तु मैं तुम्हें एकाकी भी नहीं जाने दे सकता; मैं और तुम्हारे मातुल अवश्य ही तुम्हारे साथ होंगे।"

"किन्त मातामद ...." “कोई किन्तु परंतु नहीं वत्स, यह अंतिम हैं। हाँ, यदि तुम्हें प्रतीत होता है कि अब तुम पूर्ण परिपक्व हो गये हो, और तुम्हारा मातामह अब वृद्ध हो गया है, उसकी बुद्ध अब काम नहीं करती, तो बताओ, मैं कोई भी अवरोध उपस्थित नहीं करूँगा; ऐसी स्थिति में तुम स्वतंत्र होगे; जैसा उचित समझो करने के लिए "

"कैसी बात करते हैं मातामह!" रावण के पास सुमाली के इस अस्त्र की कोई काट नहीं थी।

सुलभ अग्निहोत्री 

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...