गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 33

  योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। ४८।।


हे धनंजयआसक्ति को त्यागकरसिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकरयोग में स्थित हुआ कर्मों को कर। यह समत्वभाव ही योग नाम से कहा जाता है।


समता ही योग है-- संतुलन, संगीत। दो के बीच चुनाव नहीं, दो के बीच समभाव; विरोधों के बीच चुनाव नहीं, अविरोध; दो अतियों के बीच, दो पोलेरिटीज के बीच, दो ध्रुवों के बीच पसंद-नापसंद नहीं, राग-द्वेष नहीं, साक्षीभाव। समता का अर्थ ठीक से समझ लेना जरूरी है, क्योंकि कृष्ण कहते हैं, वही योग है।

समत्व कठिन है बहुत। चुनाव सदा आसान है। मन कहता है, इसे चुन लो, जिसे चुनते हो, उससे विपरीत को छोड़ दो। कृष्ण कहते हैं, चुनो ही मत। दोनों समान हैं, ऐसा जानो। और जब दोनों समान हैं, तो चुनेंगे कैसे? चुनाव तभी तक हो सकता है, जब असमान हों। एक हो श्रेष्ठ, एक हो अश्रेष्ठ; एक में दिखती हो सिद्धि, एक में दिखती हो असिद्धि; एक में दिखता हो शुभ, एक में दिखता हो अशुभ। कहीं न कहीं कोई तुलना का उपाय हो, कंपेरिजन हो, तभी चुनाव है। अगर दोनों ही समान हैं, तो चुनाव कहां?

चौराहे पर खड़े हैं। अगर सभी रास्ते समान हैं, तो जाना कहां? जाएंगे कैसे? चुनेंगे कैसे? खड़े हो जाएंगे। लेकिन अगर एक रास्ता ठीक है और एक गलत, तो जाएंगे, गति होगी। जहां भी असमान दिखा, तत्काल चित्त यात्रा पर निकल जाता है--दि वेरी मोमेंट। यहां पता चला कि वह ठीक, पता नहीं चला कि चित्त गया। पता चला कि वह गलत, पता नहीं चला कि चित्त लौटा। पता लगा प्रीतिकर, पता लगा अप्रीतिकर; पता लगा श्रेयस, पता लगा अश्रेयस--यहां पता लगा मन को, कि मन गया। पता लगना ही मन के लिए तत्काल रूपांतरण हो जाता है। और समता उसे उपलब्ध होती है, जो बीच में खड़ा हो जाता है।


कभी रस्सी पर चलते हुए नट को देखा? नट चुन सकता है, किसी भी ओर गिर सकता है। गिर जाए, झंझट के बाहर हो जाए। लेकिन दोनों गिराव के बीच में सम्हालता है। अगर वह झुकता भी दिखाई पड़ता है आपको, तो सिर्फ अपने को सम्हालने के लिए, झुकने के लिए नहीं। और आप अगर सम्हले भी दिखते हैं, तो सिर्फ झुकने के लिए। आप अगर एक क्षण चौरस्ते पर खड़े भी होते हैं, तो चुनने के लिए, कि कौन-से रास्ते से जाऊं! अगर एक क्षण विचार भी करते हैं, तो चुनाव के लिए, कि क्या ठीक है! क्या करूं, क्या न करूं! क्या अच्छा है, क्या बुरा है! किससे सफलता मिलेगी, किससे असफलता मिलेगी! क्या होगा लाभ, क्या होगी हानि! अगर चिंतन भी करते हैं कभी, तो चुनाव के लिए।

नट को देखा है रस्सी पर! झुकता भी दिखता है, लेकिन झुकने के लिए नहीं। जब वह बाएं झुकता है, तब आपने कभी खयाल किया है, कि बाएं वह तभी झुकता है, जब दाएं गिरने का डर पैदा होता है। दाएं तब झुकता है, जब बाएं गिरने का डर पैदा होता है। वह दाएं गिरने के डर को बाएं झुककर बैलेंस करता है। बाएं और दाएं के बीच, राइट और लेफ्ट के बीच वह पूरे वक्त अपने को सम कर रहा है।

निश्चित ही, यह समता जड़ नहीं है, जैसा कि पत्थर पड़ा हो। जीवन में भी समता जड़ नहीं है, जैसा पत्थर पड़ा हो। जीवन की समता भी नट जैसी समता ही है--प्रतिपल जीवित है, सचेतन है, गतिमान है।

दो तरह की समता हो सकती है। एक आदमी सोया पड़ा है गहरी सुषुप्ति में, वह भी समता को उपलब्ध है। क्योंकि वहां भी कोई चुनाव नहीं है। लेकिन सुषुप्ति योग नहीं है। एक आदमी शराब पीकर रास्ते पर पड़ा है; उसे भी सिद्धि और असिद्धि में कोई फर्क नहीं है। लेकिन शराब पी लेना समता नहीं है, न योग है। यद्यपि कई लोग शराब पीकर भी योग की भूल में पड़ते हैं।

तो गांजा पीने वाले योगी भी हैं, चरस पीने वाले योगी भी हैं। और आज ही हैं, ऐसा नहीं है, अति प्राचीन हैं। और अभी तो उनका प्रभाव पश्चिम में बहुत बढ़ता जाता है। 

कृष्ण अर्जुन को ऐसी समता को नहीं कह रहे हैं कि तू बेहोश हो जा! बेहोशी में भी चुनाव नहीं रहता, क्योंकि चुनाव करने वाला नहीं रहता। लेकिन जब चुनाव करने वाला ही न रहा, तो चुनाव के न रहने का क्या प्रयोजन है? क्या अर्थ है? क्या उपलब्धि है?

नहीं, चुनाव करने वाला है; चाहे तो चुनाव कर सकता है; नहीं करता है। और जब चाहते हुए चुनाव नहीं करता कोई, जानते हुए जब दो विरोधों से अपने को बचा लेता है, बीच में खड़ा हो जाता है, तो योग को उपलब्ध होता है, समाधि को उपलब्ध होता है।

सुषुप्ति और समाधि में बड़ी समानता है। चाहें तो हम ऐसी परिभाषा कर सकते हैं कि सुषुप्ति मूर्च्छित समाधि है। और ऐसी भी कि समाधि जाग्रत सुषुप्ति है। बड़ी समानता है। सुषुप्ति में आदमी प्रकृति की समता को उपलब्ध हो जाता है, समाधि में व्यक्ति परमात्मा की समता को उपलब्ध होता है।

इसलिए दुनिया में बेहोशी का जो इतना आकर्षण है, उसका मौलिक कारण धर्म है। शराब का जो इतना आकर्षण है, उसका मौलिक कारण धार्मिक इच्छा है।

आप कहेंगे, क्या मैं यह कह रहा हूं कि धार्मिक आदमी को शराब पीनी चाहिए? नहीं, मैं यही कह रहा हूं कि धार्मिक आदमी को शराब नहीं पीनी चाहिए, क्योंकि शराब धर्म का सब्स्टीटयूट बन सकती है। नशा धर्म का परिपूरक बन सकता है। क्योंकि वहां भी एक तरह की समता, जड़ समता उपलब्ध होती है।

कृष्ण जिस समता की बात कर रहे हैं, वह सचेतन समता की बात है। उस युद्ध के क्षण में तो बहुत सचेतन होना पड़ेगा न! युद्ध के क्षण में तो बेहोश नहीं हुआ जा सकता। युद्ध के क्षण में तो पूरा जागना होगा।

कभी आपने खयाल किया हो, न किया हो! जितने खतरे का क्षण होता है, आप उतने ही जागे हुए होते हो।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि युद्ध का इतना आकर्षण भी खतरे का आकर्षण है। इसलिए कभी आपने खयाल किया, जब दुनिया में युद्ध चलता है, तो लोगों के चेहरों की रौनक बढ़ जाती है, घटती नहीं। और जो आदमी कभी आठ बजे नहीं उठा था, वह पांच बजे उठकर रेडियो खोल लेता है। पांच बजे से पूछता है, अखबार कहां है? जिंदगी में एक पुलक आ जाती है! बात क्या है? युद्ध के क्षण में इतनी पुलक?

युद्ध का खतरा हमारी नींद को थोड़ा कम करता है। हम थोड़े जागते हैं। जागने का अपना रस है। इसलिए दस-पंद्रह साल में सोई हुई मनुष्यता को एक युद्ध पैदा करना पड़ता है, क्योंकि और कोई रास्ता नहीं है। और किसी तरह जागने का उपाय नहीं है। और जब युद्ध पैदा हो जाता है, तो रौनक छा जाती है। जिंदगी में रस, पुलक और गति आ जाती है।

युद्ध के इस क्षण में कृष्ण बेहोशी की बात तो कह ही नहीं सकते हैं, वह वर्जित है; उसका कोई सवाल ही नहीं उठता है। फिर कृष्ण जिस समता की बात कर रहे हैं, जिस योग की, वह क्या है? वह है, दो के बीच, द्वंद्व के बीच निर्द्वंद्व, अचुनाव, च्वाइसलेसनेस। कैसे होगा यह? अगर आपने द्वंद्व के बीच निर्द्वंद्व होना भी चुना, तो वह भी चुनाव है।

इसे समझ लें। यह जरा थोड़ा कठिन पड़ेगा।
अगर आपने दो द्वंद्व के बीच निर्द्वंद्व होने को चुना, तो दैट टू इज़ ए च्वाइस, वह भी एक चुनाव है। निर्द्वंद्व आप नहीं हो सकते। अब आप नए द्वंद्व में जुड़ रहे हैं--द्वंद्व में रहना कि निर्द्वंद्व रहना। अब यह द्वंद्व है, अब यह कांफ्लिक्ट है। अगर आप इसका चुनाव करते हैं कि निर्द्वंद्व रहेंगे हम, हम द्वंद्व में नहीं पड़ते, तो यह फिर चुनाव हो गया। अब जरा बारीक और नाजुक बात हो गई। लेकिन निर्द्वंद्व को कोई चुन ही नहीं सकता। निर्द्वंद्व अचुनाव में खिलता है; वह आपका चुनाव नहीं है। अचुनाव में निर्द्वंद्व का फूल खिलता है; आप चुन नहीं सकते। तो आपको द्वंद्व और निर्द्वंद्व में नहीं चुनना है।

आप द्वंद्व बनाए बिना रह नहीं सकते। और जो द्वंद्व बनाता है, वह समता को उपलब्ध नहीं होता है। फिर कैसे? क्या है रास्ता?

रास्ता एक ही है कि द्वंद्व के प्रति जागें; कुछ करें मत,   जानें कि एक रास्ता यह और एक रास्ता यह और यह मैं, तीन हैं यहां। यह रही सफलता, यह रही विफलता और यह रहा मैं। यह तीसरा मैं जो हूं, इसके प्रति जागें। और जैसे ही इस तीसरे के प्रति जागेंगे, जैसे ही यह थर्ड फोर्स, यह तीसरा तत्व नजर में आएगा, कि न तो मैं सफलता हूं, न मैं विफलता हूं। विफलता भी मुझ पर आती है, सफलता भी मुझ पर आती है। सफलता भी चली जाती है, विफलता भी चली जाती है। सुबह होती है, सूरज खिलता है, रोशनी फैलती है। मैं रोशनी में खड़ा हो जाता हूं। फिर सांझ होती, अंधेरा आता है, फिर अंधेरा मेरे ऊपर छा जाता है। लेकिन न तो मैं प्रकाश हूं, न मैं अंधेरा हूं। न तो मैं दिन हूं, न मैं रात हूं। क्योंकि दिन भी मुझ पर आकर निकल जाता है और फिर भी मैं होता हूं। रात भी मुझ पर होकर निकल जाती है, फिर भी मैं होता हूं। निश्चित ही, रात और दिन से मैं अलग हूं, पृथक हूं, अन्य हूं।

यह बोध कि मैं भिन्न हूं द्वंद्व से, द्वंद्व को तत्काल गिरा देता है और निर्द्वंद्व फूल खिल जाता है। वह समता का फूल योग है। और जो समता को उपलब्ध हो जाता है, उसे कुछ भी और उपलब्ध करने को बाकी नहीं बचता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू समत्व को उपलब्ध हो। छोड़ फिक्र सिद्धि की, असिद्धि की; सफलता, असफलता की; हिंसा-अहिंसा की; धर्म की, अधर्म की; क्या होगा, क्या नहीं होगा; ! तू अपने में खड़ा हो। तू जाग। तू जागकर द्वंद्व को देख। तू समता में प्रवेश कर। क्योंकि समता ही योग है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

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