शनिवार, 17 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 4 भाग 22

 

गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।

यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते।। 23।।


गत सङ्घस्य - प्रकृति के गुणों के प्रति अनासक्त; मुक्तस्य - मुक्त पुरुष का ज्ञान अवस्थित ब्रह्म में स्थित; चेतसः- जिसका ज्ञान यज्ञाय-यज्ञ (कृष्ण) के लिए; आचरत:- करते हुए; कर्म-कर्म; समग्रम्- सम्पूर्ण प्रविलीयते पूर्णरूप से विलीन हो जाता है।


जो पुरुष प्रकृति के गुणों के प्रति अनासक्त है और जो दिव्य ज्ञान में पूर्णतया स्थित है, उसके सारे कर्म ब्रह्म में लीन हो जाते हैं।



आसक्तिरहित, ज्ञानपूर्वक कर्म करते हुए पुरुष के समस्त कर्मबंधन क्षीण हो जाते हैं; सब बंधन, सब परतंत्रताएं गिर जाती हैं। आसक्तिरहित, तादात्म्य-मुक्त! इस सूत्र में आसक्तिरहित का क्या अर्थ है? थोड़ा आसक्ति में उतरें, तो खयाल में आ जाए!

आसक्तिरहित का अर्थ है, इस जगत में मेरा कुछ भी नहीं है। मेरे का भाव, मेरे का भाव ही मेरी आसक्ति है। ममत्व ही आसक्ति है।

लेकिन मेरे के बड़े विस्तार हैं। मेरा बेटा भी मेरी आसक्ति है। मेरा मकान भी मेरी आसक्ति है। मेरा धर्म भी मेरी आसक्ति है। मेरा शास्त्र भी मेरी आसक्ति है। मेरा परमात्मा तक मेरी आसक्ति है। जहां-जहां मेरा जुड़ेगा, वहां-वहां आसक्ति जुड़ जाएगी। जहां-जहां से मेरा विदा हो जाएगा, वहां-वहां से आसक्ति विदा हो जाएगी।

लेकिन मेरा कब विदा होगा? जब तक मैं है, तब तक मेरा विदा नहीं होगा। एक जगह से हटेगा, दूसरी जगह लग जाएगा।



इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि मेरा कहीं भी जुड़ जाए। कहीं भी जुड़ जाए, उतना ही काम शुरू हो जाता है। घर छोड़कर कोई चला जाए, तो फिर मेरा आश्रम हो जाता है। मेरा मंदिर, मेरी मस्जिद!

आश्चर्यजनक है आदमी! मेरे के बिना मानता ही नहीं है। मेरे को लेकर ही चलता है साथ। मंदिर भी जाए, तो मेरा बना लेता है। परमात्मा का कोई मंदिर नहीं है पृथ्वी पर। कोई इसका मेरा मंदिर है, कोई उसका मेरा मंदिर है। इसलिए तो फिर दो मेरों में कभी-कभी टक्कर हो जाती है। तो मंदिरों-मस्जिदों में आग लग जाती है; खून-खराबा हो जाता है।

अभी तक हम पृथ्वी को ऐसा नहीं बना पाए, जहां कि हम वह मंदिर बना सकें, जो कि मेरा न हो, तेरा हो--उसका हो, परमात्मा का हो। कोई मंदिर नहीं बना पाए। सब आशाएं की थीं मंदिर बनाने की इसी तरह कि परमात्मा का बन जाए, लेकिन सब मंदिर आखिर में किसी के मेरे मंदिर सिद्ध होते हैं।

यह जो मेरा है, यह बदल सकता है। मिटता तब तक नहीं, जब तक मैं भीतर केंद्र पर है।

ऐसा समझें कि एक दीया जल रहा है। और दीए की रोशनी चारों तरफ दीवाल पर पड़ रही है। वह जो दीवाल पर रोशनी पड़ रही है, वह मेरा है। और वह जो दीए की ज्योति जल रही है, वह मैं है। जब तक मैं की ज्योति जलती रहेगी, तब तक मेरे की रोशनी कहीं न कहीं पड़ती रहेगी। दीवाल से हटाइएगा, तो कहीं और पड़ेगी; कहीं और से हटाइएगा, तो कहीं और पड़ेगी। जब तक कि ज्योति न बुझ जाए, मैं की फ्लेम, वह जो मैं का, अहंकार का बीच में जलता हुआ दीया है, वह न बुझ जाए, तब तक मेरा बनता ही रहेगा।

इस दीए को उठाओ मकान से और मंदिर में रख दो। कोई फर्क नहीं पड़ता, मंदिर मेरा हो जाएगा। मंदिर की दीवालों पर यह रोशनी फैल जाएगी। इस दीए को उठाओ और जंगल के झाड़ के नीचे रख दो; जंगल के झाड़ों पर इसकी रोशनी फैल जाएगी। वे मेरे हो जाएंगे। इस दीए को जहां ले जाओ, वहीं मेरा पहुंच जाएगा। यह दीए की जो ज्योति है मैं की, यह मेरे का स्रोत है, उसका मूल उदगम है।

आसक्तिरहित केवल वही हो सकता है, जो अहंकाररहित है।

आसक्ति अहंकार के जुड़ने का परिणाम है। आसक्ति अहंकार का विकीरण है, रेडिएशन है। जैसे दीए से किरणें दौड़ती हैं, ऐसा मैं से मेरा दौड़ता है। और जहां भी पड़ जाता है, वहीं पकड़ जाता है।

और भी एक मजे की बात है कि जिसे हम मेरा समझ लेते हैं, वह हमारे मैं से आइडेंटिफाइड हो जाता है; उसका तादात्म्य हो जाता है।

समझें, एक व्यक्ति की पत्नी चल बसती है। जब पत्नी मरती है, वह छाती पीटता है, रोता है। तो आप इतना ही मत सोचना कि पत्नी मर गई है, इसलिए रोता है। इसलिए तो रोता ही है, बहुत गहरे में उसके मैं का भी एक खंड मर गया। यह मेरी पत्नी सिर्फ मेरी पत्नी ही न थी; मेरे मैं का भी एक हिस्सा थी। मेरे भीतर के मैं का एक खंड टूट गया, बिखर गया। अब मैं अधूरा हूं कुछ। अब मैं आधा-आधा हूं। इसलिए पत्नी को अगर अद्र्धांगिनी या पति को अगर अद्र्धांग कहने का खयाल रहा है, तो गहरा है।

जब भी मेरा कुछ मिटता है, टूटता है, तभी मैं भी कुछ टूटता और बिखर जाता हूं। थोड़ा एक क्षण को सोचें, आपके पास जो-जो चीज ऐसी है, जिसको आप मेरा कहते हैं, अगर वह छीन ली जाए, तो आपके पास कितना मैं बचेगा? अगर सब छीन ली जाए, तो आपके मैं की ज्योति बहुत स्टार्व्ड, भूखी हो जाएगी, जैसे दीए का सब तेल निकाल लिया। ज्योति रह गई बुझी-बुझी। जलती भी है, तो ऐसा लगता है कि अब गई, अब गई! तेल तो सब निकल गया। जब भी हमारा कुछ मेरा टूटता है, तो भीतर मैं भी टूटता है। क्योंकि वह मेरा सिर्फ रोशनी ही नहीं है, वह मेरा तेल भी बनता है।

इसलिए आदमी मेरे को बढ़ाता रहता है, ताकि मैं को मजबूत कर ले। जितना बड़ा मकान हो, उतना बड़ा मैं हो जाता है। जितना बड़ा राज्य हो, उतना बड़ा मैं हो जाता है। जितना बड़ा धन हो, उतना बड़ा मैं हो जाता है। जब धन चला जाता है, तो भीतर मैं भी सिकुड़ जाता है। तेल खो गया; बाती बुझने लगी। बाती कष्ट में पड़ जाती है। कभी-कभी तो इतने कष्ट में पड़ जाती है कि आदमी जी नहीं सकता, आत्महत्या कर लेता है। तेल बिलकुल नहीं बचता; मरने के सिवाय उपाय नहीं बचता। मर ही जाता है। मेरा गया कि मैं भी मरने की तैयारी जुटा लेता है।

यह जो कृष्ण का कहना है, आसक्तिरहित कर्म करता हुआ...।

तब जब कोई आसक्तिरहित कर्म करता है, तो उसका कर्म कैसा है? उसका कर्म कहीं भी मेरे को निर्माण नहीं करता। उसका जीवन कहीं भी किसी से तादात्म्य स्थापित नहीं करता। वह किसी को नहीं कहता, मेरा। कहीं भी गहरे में उसके भाव मेरे का उठता नहीं। जीता है, मेरे से रहित होकर जीता है। तब जीवन यज्ञ हो जाता है। तब ऐसा कर्म आसक्तिरहित, जीवन को यज्ञ बना देता है। तब पूरा जीवन एक पवित्र हवन हो जाता है।

ऐसा पुरुष, अर्जुन से कृष्ण कहते हैं, फिर सारे बंधन उसके क्षीण हो जाते हैं।

फिर कोई बंधन का उपाय नहीं रह जाता। क्योंकि बंधन पैदा ही होते हैं मेरे से। बंधन पैदा ही होते हैं मैं से। मैं से ही जन्मते हैं अंकुर और बनते हैं जंजीरें। मैं के ही आधार पर ढालते हैं हम अपने कारागृह। मैं से ही हम सजा लेते हैं अपने कारागृहों की दीवालों को। लेकिन इससे फर्क नहीं पड़ता। अगर हमने कारागृह की जंजीरों को सोने की भी बना लिया, और अगर हमने कारागृह की दीवालों को सुंदर चित्रों से भी सजा लिया, तो भी कारागृह कारागृह है और हम कैदी हैं।

हम सब अपनी कैद को अपने साथ लेकर चलते हैं। वह मेरे की कैद हमारे साथ चलती रहती है। इसलिए अगर आपको अकेला जंगल में छोड़ दिया जाए, दरिद्र हो जाते हैं, दीन हो जाते हैं।

कृष्ण कहते हैं, आसक्तिरहित होकर पुरुष जब बर्तता है कर्मों में, तो उसका जीवन यज्ञ हो जाता है--पवित्र। उससे, मैं का जो पागलपन है, वह विदा हो जाता है। मेरे का विस्तार गिर जाता है। आसक्ति का जाल टूट जाता है। तादात्म्य का भाव खो जाता है। फिर वह व्यक्ति जैसा भी जीए, वह व्यक्ति जैसा भी चले, फिर वह व्यक्ति जो भी करे, उस करने, उस जीने, उस होने से कोई बंधन निर्मित नहीं होते हैं। क्यों?

क्योंकि मैं की टकसाल के अतिरिक्त मनुष्य के बंधन निर्माण का कहीं कोई कारखाना नहीं है। क्योंकि ईगो के, अहंकार के अतिरिक्त जंजीरों को ढालने के लिए कोई और फौलाद नहीं है। क्योंकि मैं के अतिरिक्त मनुष्य को अंधा करने के लिए, गङ्ढों में गिराने के लिए और कोई जहर नहीं है। इसलिए आसक्तिरहित!

लेकिन आसक्तिरहित वही होगा, जिसका मेरा खो जाए। मेरा उसका खोएगा, जिसका मैं खो जाए।

शून्य की तरह ऐसा पुरुष जीता है। शून्य की तरह जीना यज्ञरूपी जीवन को उपलब्ध कर लेना है। फिर कोई बंधन निर्मित नहीं होते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

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