गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 24

  अर्जुन का जीवन शिखर--युद्ध के ही माध्यम से


भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्।। ३५।।


और जिनके लिए तू बहुत माननीय होकर भी अब तुच्छता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से उपराम हुआ मानेंगे।

अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्।। ३६।।

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।। ३७।।


तेरे बैरी तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए बहुत से न कहने योग्य वचनों को कहेंगे। फिर उससे अधिक दुख क्या होगा?
 इसलिए युद्ध करना तेरे लिए सब प्रकार से अच्छा है। क्योंकि या तो मरकर तू स्वर्ग को प्राप्त होगा, अथवा जीतकर पृथ्वी को भोगेगा। इससे हे अर्जुन, युद्ध के लिए निश्चय वाला होकर खड़ा हो।


 
कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, क्षत्रिय होकर ही तेरा स्वर्ग है। उससे विचलित होकर तेरा कोई सुख नहीं है। तेरी जो निजता है, जो तेरे भीतर का गुणधर्म है, जो तू भीतर से बीज लिए बैठा है, जो तू हो सकता है, वही होकर ही--अन्यथा नहीं--तू स्वर्ग को उपलब्ध होगा, तू सुख को उपलब्ध होगा, तू आनंद को अनुभव कर सकता है।
जीवन का आशीर्वाद, जीवन की प्रफुल्लता स्वयं के भीतर जो भी छिपा है, उसके पूरी तरह प्रकट हो जाने में है। जीवन का बड़े से बड़ा दुख, जीवन का बड़े से बड़ा नर्क एक ही है कि व्यक्ति वह न हो पाए, जो होने के लिए पैदा हुआ है; व्यक्ति वह न हो पाए, जो हो सकता था और अन्य मार्गों पर भटक जाए। स्वधर्म से भटक जाने के अतिरिक्त और कोई नर्क नहीं है। और स्वधर्म को उपलब्ध हो जाने के अतिरिक्त और कोई स्वर्ग नहीं है।
कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि इस दिखाई पड़ने वाले लोक में जिसे लोग सुख कहते हैं, वह तो तुझे मिलेगा ही; लेकिन न दिखाई पड़ने वाले लोक में...!
इसे भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है कि परलोक से हमने जो अर्थ ले रखा है, वह सदा मृत्यु के बाद जो लोक है, उसका ले रखा है। हमने जो व्याख्या कर रखी है अपने मन में इस लोक की और उस लोक की, वह  टाइम में है। हमने सोच रखा है कि यह लोक खतम होता है, जहां हमारा जीवन समाप्त होता है, और परलोक शुरू होता है। ऐसा नहीं है।
यह लोक और परलोक साथ ही मौजूद हैं।  समय में उनका विभाजन नहीं है। बाहर जो हमें मिलता है, वह इहलोक है; भीतर जो हमें मिलता है, वह परलोक है। परलोक का केवल मतलब इतना ही है कि इस लोक के जो पार है, इस लोक के जो बियांड है--वह अभी भी है, इस वक्त भी है। उसे ही इस देश ने परलोक कहा है। परलोक का संबंध आपके जीवन के समाप्त होने से नहीं है; परलोक का संबंध आपके दृश्य से अदृश्य में प्रवेश से है। वह आप अभी भी कर सकते हैं, और वह आप मृत्यु के बाद भी चाहें तो नहीं कर सकते हैं। चाहें तो मृत्यु के बाद भी इहलोक में ही घूमते रहें--इसी लोक में। और चाहें तो जीते-जी परलोक में प्रवेश कर जाएं।
वह आंतरिक--जहां समय और क्षेत्र मिट जाते हैं, जहां टाइम और स्पेस खो जाते हैं, जहां दृश्य खो जाते हैं और अदृश्य शुरू होता है--वह जो आंतरिकता का, वह जो भीतर का लोक है, वहां भी कृष्ण कहते हैं, स्वर्ग। लेकिन स्वर्ग से आप किसी परियों के देश की बात मत समझ लेना। स्वर्ग सिर्फ इनर हार्मनी का नाम है, जहां सब स्वर जीवन के संगीतपूर्ण हैं। और नर्क सिर्फ इनर, आंतरिक विसंगीत का नाम है, जहां सब स्वर एक-दूसरे के विरोध में खड़े हैं।


अर्जुन ऐसे ही नर्क में खड़ा हो गया है। जो है, वह न होने की इच्छा पैदा हुई है उसे; जो नहीं है, वह होने की इच्छा पैदा हुई है। वह एक ऐसे असंभव तनाव में खड़ा हो गया है, जिसमें प्रवेश तो बहुत आसान, लेकिन लौटना बहुत मुश्किल है।
जिंदगी में किसी भी चीज से लौटना बहुत मुश्किल है। जाना बहुत आसान है, लौटना सदा मुश्किल है। और स्वयं के धर्म से जाना बहुत आसान है, क्योंकि स्वधर्म से विपरीत जाना सदा उतार है। वहां हमें कुछ भी नहीं करना पड़ता, सिर्फ हम अपने को छोड़ दें, तो हम उतर जाते हैं। स्वधर्म को पाना चढ़ाव है। उतर जाना बहुत आसान है, चढ़ना बहुत कठिन हो जाता है।
कृष्ण के लिए जो बड़ी से बड़ी चिंता अर्जुन की तरफ से दिखाई पड़ती है, वह यही दिखाई पड़ती है, एक विराट अवसर...। अर्जुन को महाभारत जैसा अवसर न मिले, तो अर्जुन का फूल खिल नहीं सकता। कोई छोटी-मोटी लड़ाई में नहीं खिल सकता उसका फूल। जहां जीत सुनिश्चित हो, वहां अर्जुन का फूल नहीं खिल सकता। जहां जीत पक्की हो, वहां अर्जुन का फूल नहीं खिल सकता। जहां जीत निश्चिंत हो, वहां अर्जुन का फूल नहीं खिल सकता। जहां जीत चिंता हो, जहां जीत अनिर्णीत हो, जहां हार की उतनी ही संभावना हो, जितनी जीत की है, तो ही उस चुनौती के दबाव में, उस चुनौती की पीड़ा में, उस चुनौती के प्रसव में अर्जुन का फूल खिल सकता है और अर्जुन अपने शिखर को छू सकता है।
इसलिए कृष्ण इतना आग्रह कर रहे हैं कि सब खो देगा! स्वर्ग का क्षण तुझे उपलब्ध हुआ है, उसे तू खो देगा--इस जगत में भी, उस जगत में भी। उस जगत का मतलब, मृत्यु के बाद नहीं--बाहर के जगत में भी, भीतर के भी जगत में।
और ध्यान रहे, बाहर के जगत में तभी स्वर्ग मिलता है, जब भीतर के जगत में स्वर्ग मिलता है। यह असंभव है कि भीतर के जगत में नर्क हो और बाहर के जगत में स्वर्ग मिल जाए। हां, यह संभव है कि बाहर के जगत में नर्क हो, तो भी भीतर के जगत में स्वर्ग मिल जाए। और यह बड़े मजे की बात है कि अगर भीतर के जगत में स्वर्ग मिल जाए, तो बाहर का नर्क भी नर्क नहीं मालूम पड़ता है। और बाहर के जगत में स्वर्ग मिल जाए और भीतर के जगत में नर्क हो, तो बाहर का स्वर्ग भी स्वर्ग नहीं मालूम पड़ता है।
हम जीते हैं भीतर से, हमारे जीने के सारे गहरे आधार भीतर हैं। इसलिए जो भीतर है, वही बाहर फैल जाता है। भीतर सदा ही बाहर को जीत लेता है, ओवरपावर कर लेता है। इसलिए जब आपको बाहर नर्क दिखाई पड़े, तो बहुत खोज करना। पाएंगे कि भीतर नर्क है, बाहर सिर्फ रिफ्लेक्शन है, बाहर सिर्फ प्रतिफलन है। और जब बाहर स्वर्ग दिखाई पड़े, तब भी भीतर देखना। तो पाएंगे, भीतर स्वर्ग है, बाहर सिर्फ प्रतिफलन है।
इसलिए जो बुद्धिमान हैं, वे बाहर के नर्क को स्वर्ग बनाने में जीवन नष्ट नहीं कर देते। वे भीतर के नर्क को स्वर्ग बनाने का श्रम करते हैं। और एक बार भीतर का नर्क स्वर्ग बन जाए, तो बाहर कोई नर्क होता ही नहीं।
कृष्ण जब अर्जुन से कहते हैं कि स्वर्ग का क्षण है, उसे तू खो रहा है। तो एक ही बात ध्यान में रखनी है कि तेरे आंतरिक व्यक्तित्व के लिए जो शिखर अनुभव हो सकता है, उसका क्षण है, और तू उसे खो रहा है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

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