गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 25

  

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति।। 26।।


और अन्य योगीजन श्रोत्रादिक सब इंद्रियों को संयमरूप अग्नि में हवन करते हैं अर्थात इंद्रियों को विषयों से रोककर अपने वश में कर लेते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादिक विषयों को इंद्रियरूप अग्नि में हवन करते हैं

अर्थात राग-द्वेष रहित इंद्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण करते हुए भी भस्मरूप करते हैं।




फिर कृष्ण ने दो निष्ठाओं की बात कही।

एक वे, जो इंद्रियों का संयम कर लेते हैं। जो इंद्रियों को विषयों की तरफ--विषयों की तरफ इंद्रियों की जो यात्रा है, उसे विदा कर देते हैं; यात्रा ही समाप्त कर देते हैं। जिनकी इंद्रियां विषयों की तरफ दौड़ती ही नहीं हैं। संयम का अर्थ समझेंगे, तो खयाल में आए। दूसरे वे, जो विषयों को भोगते रहते हैं, फिर भी लिप्त नहीं होते। ये दोनों भी यज्ञ में ही रत हैं।

एक वे, जो इंद्रियों को विषयों तक जाने ही नहीं देते--उसकी अलग साधना है--इंद्रियों और विषयों के बीच में जो सेतु है, ब्रिज है, उसे ही तोड़ देते हैं। दूसरे वे, जो इंद्रियों को विषयों तक जाने देते हैं, लेकिन इंद्रियों और लिप्त हो जाने में जो सेतु है, उसे तोड़ देते हैं।

अब यह दो सेतुओं का जो तोड़ना है, वह खयाल में ले लेना जरूरी है। दोनों ही स्थितियों से एक ही परम अवस्था उपलब्ध होती है।

पहले, पहले को खयाल में लें, इंद्रियों को विषयों तक नहीं जाने देते!



इंद्रियां विषयों की तरफ भागती ही रहती हैं। रास्ते पर गुजरे हैं आप। सुंदर भवन दिखाई पड़ गया, कि सुंदर चेहरा दिखाई पड़ गया, कि सुंदर काया दिखाई पड़ गई, कि सुंदर कार दिखाई पड़ गई--आपको पता ही नहीं चलता कि जब आपने कहा, सुंदर है, तभी इंद्रियां दौड़ चुकीं। ऐसा नहीं कि सुंदर है, ऐसा जानने के बाद इंद्रियां दौड़ना शुरू करती हैं। इंद्रियां दौड़ चुकी होती हैं। यह सुंदर है, यह निष्कर्ष है। दौड़ गई इंद्रियों का, पहुंची इंद्रियों का निष्कर्ष है यह कि सुंदर है।

ऐसा मत सोचना आप कि आप सुंदर चेहरा देखकर आकर्षित होते हैं; आप आकर्षित होते हैं, इसलिए चेहरा सुंदर दिखाई पड़ता है। आकर्षण की घटना सूक्ष्म है और बड़े अदृश्य में घट जाती है। सौंदर्य की घटना सूक्ष्म नहीं है और विचार में पता चलती है।

लेकिन आमतौर से हम उलटी बातें करते हैं। सूक्ष्म का हमें पता नहीं चलता। हम कहते हैं, यह चेहरा आकर्षक मालूम पड़ता है, क्योंकि सुंदर है। सचाई उलटी है। यह चेहरा सुंदर मालूम पड़ता है, क्योंकि आकर्षित कर चुका है। क्योंकि यही चेहरा दूसरे को सुंदर नहीं मालूम पड़ता; तीसरे को सुंदर नहीं मालूम पड़ता। अगर उनको आकर्षित नहीं कर पाया है, तो सुंदर नहीं है। सुंदर हमारी निष्पत्ति है, कारण नहीं। सुंदर की वजह से कोई आकर्षित नहीं होता; आकर्षित होने की वजह से सुंदर का निष्कर्ष लेता है। यह हमारा बौद्धिक निष्कर्ष है। इंद्रियों ने तो अनुभव किया है आकर्षण का; बुद्धि ने निर्णय लिया है सुंदर का। इंद्रियां पहुंच चुकीं; इंद्रियों ने स्पर्श कर लिया।

इंद्रियों की गति सूक्ष्म है। ऐसा नहीं कि जब आप किसी के शरीर को छूते हैं, तभी इंद्रियां छूती हैं। इंद्रियों के छूने के अलग-अलग मार्ग हैं। आंख देखती है, और छू लेती है। देखना आंख के छूने का ढंग है। सुनना कान के छूने का ढंग है। स्पर्श हाथ के छूने का ढंग है। ये सब छूने के ढंग हैं। सब इंद्रियां छूती हैं। एक लिहाज से हाथ का रेंज उतना ज्यादा नहीं है छूने में, जितना आंख का है, जितना कान का है। आंख बहुत दूर स्पर्श कर लेती है। लेकिन आंख भी स्पर्श करती है।

जब आप किसी के चेहरे को अब दुबारा देखें, तो आप खयाल करना कि आपकी आंख ने उसके चेहरे को स्पर्श किया या नहीं! लेकिन हमारा खयाल यह है कि हाथ से ही छुआ जाता है; इसलिए हम भूल में पड़ते हैं। आंख से भी छुआ जाता है। कान से भी छुआ जाता है। गंध से भी छुआ जाता है। ये सब हमारे छूने के ढंग हैं।

इंद्रिय का अर्थ है, स्पर्श की व्यवस्था, उपकरण। सब इंद्रियां स्पर्श करती हैं।

सूक्ष्म स्पर्श दूर से हो जाते हैं। स्थूल स्पर्श पास से करने पड़ते हैं। हाथ सबसे स्थूल है; बहुत निकट न आ जाए, तो छू नहीं सकता। इसलिए जिसे हमारी इंद्रियां छूना चाहती हों, हाथ सबसे आखिर में छूता है। पहले आंख छुएगी, फिर नाक छुएगी, कान छुएंगे। और जब दूसरा व्यक्ति आंख से छूने के लिए राजी हो जाएगा, कान से छुए जाने को राजी हो जाएगा, नाक से छुए जाने को राजी हो जाएगा, तब हाथ छुएंगे।

इससे विपरीत काम भी चलता है पूरे समय। अगर स्त्रियां परफ्यूम डालकर निकलती हैं या पुरुष, तो वे छूने का दूसरा काम कर रहे हैं। वे छुए जाने का काम कर रहे हैं। शरीर से सबको नहीं छुआ जा सकता। लेकिन एक परफ्यूम डालकर बड़े सूक्ष्म तल पर, गंध से, सब को छुआ जा सकता है। सभ्यता हाथ से छूने की तो आज्ञा सबको नहीं देती। नियंत्रण है, लाइसेंस है। लेकिन गंध से तो सबको छुआ जा सकता है!

आवाज, गंध, ध्वनि, दृश्य, दर्शन--वे सब छूते हैं। जब आप सज-संवरकर घर से निकलते हैं, तो आप दूसरों की आंख से छुए जाने का निमंत्रण लेकर निकल रहे हैं। और अगर कोई आंख से न छुए, तो आप बड़े उदास लौटेंगे।

दूसरों की आंख का स्पर्श भी लोरी का काम करता है, थपकी का काम करता है। जब आप निकलते हैं और कई आंखें आपको छूती हैं, तब आपके भीतर कोई गुदगुदी छूट जाती है।

यह दोहरा काम चल रहा है, छूने का, छुए जाने का। इंद्रियां प्रतिपल इस काम में संलग्न हैं। आपको पता भी नहीं चलता कि यह हो रहा है। यह खयाल में भी नहीं आता।


आप रास्ते पर निकलते हैं; और एक आदमी कहता है, हलो! उसने आपको छुआ।  आवाज से। उसने एक थपकी दी, अच्छे तो हो! गदगद हुए। रीढ़ ऊंची हुई। अच्छा लगा। लेकिन वही आदमी एक दिन पास से निकला और उसने हलो नहीं कहा। आप छुए नहीं गए। भीतर कुछ उदास  हुआ। क्या बात है? इस आदमी ने आज हलो नहीं कहा!

अगर तीस दिन के लिए आप गांव के बाहर चले गए और तीस दिन बाद आए, और जो आदमी आपको रास्ते पर मिलकर सिर्फ हलो कहता था, उसने अगर आज भी सिर्फ हलो कहा, तो भी आप डिप्राइव्ड अनुभव करेंगे, क्योंकि तीस हलो उसके ऊपर ऋण हैं! आपको लगेगा कि यह आदमी, उनतीस हलो का क्या हुआ? नहीं तो तीस दिन के बाद अगर वह मिलेगा, तो वह कहेगा, हलो। कहिए, कैसे हैं! तबियत तो ठीक! बहुत दिन से दिखाई नहीं पड़े।

वह स्ट्रोक दे रहा है। वह तीस स्ट्रोक पूरे करे, तो तृप्ति मिलेगी। अगर नहीं पूरे किए, और सिर्फ हलो कहकर निकल गया, तो आपको लगेगा, कुछ कमी है। तीस दिन बाद दिखाई पड़ा हूं, तो तीस स्ट्रोक उधार हो गए। तीस स्पर्श! वह पूरे करने चाहिए। तो वह करेगा पूरा। वह खड़े होकर कहेगा, कैसा है; मौसम कैसा है? कहां गए थे? अच्छे रहे? कुछ मतलब की बातें नहीं हैं, लेकिन स्पर्श। स्पर्श मिल जाएंगे; आप तृप्त होकर अपने रास्ते पर बढ़ जाएंगे। उसको भी स्पर्श मिल जाएंगे, वह भी अपने रास्ते पर बढ़ जाएगा। दोनों खुश हैं! छू लिया एक-दूसरे को।

इंद्रियां पूरे समय स्पर्श को लालायित और स्पर्श देने को और लेने को आतुर हैं। ले रही हैं।

तो जिस व्यक्ति को इंद्रियों को विषयों तक जाने से रोकना है, उसे इंद्रियों की इस सूक्ष्म स्पर्श-व्यवस्था के प्रति जागरूक होना पड़ेगा। अत्यंत सूक्ष्म व्यवस्था है। आपको पता चलने के पहले घटित हो जाता है। इतना शीघ्रता से घटित होता है इंद्रिय का स्पर्श, कि आपको पता ही तब चलता है, जब घटित हो जाता है। इसके प्रति जागना पड़े। इसे देखना पड़े। इसको स्मरण रखना पड़े।

तुम्हारी आंख सिर्फ देख रही है या स्पर्श भी कर रही है, इन दोनों में फर्क है। एक साधारण-सी स्त्री चली आ रही है, तो आंख सिर्फ देखती है, स्पर्श नहीं करती। सुंदर स्त्री चली आ रही है, आंख देखती ही नहीं, स्पर्श भी करती है। साधारण-सा पुरुष चला आ रहा है, तो आंख सिर्फ देखती है, जस्ट सीइंग। सुंदर पुरुष चला आ रहा है, तब देखती ही नहीं, स्पर्श भी करती है।

फर्क कैसे पता चलेगा? अगर सिर्फ देखा हो, तो पीछे कोई लकीर नहीं छूटेगी। और अगर स्पर्श भी किया हो, तो पीछे लकीर छूटेगी। अगर सिर्फ देखा हो, तो लौटकर नहीं देखना पड़ेगा; अगर स्पर्श भी किया हो, तो लौटकर भी देखना पड़ेगा। अगर सिर्फ देखा हो, तो स्मृति नहीं बनेगी; अगर स्पर्श भी किया हो, तो स्मृति बनेगी। अगर सिर्फ देखा हो, तो कल भी देखूं, ऐसी आकांक्षा नहीं जगेगी; अगर स्पर्श किया हो, तो फिर-फिर देखूं, ऐसी आकांक्षा जगेगी।

आंख से सिर्फ देखने का काम लें, स्पर्श करने का नहीं, तो कृष्ण जो कह रहे हैं, पहली घटना घट सकती है। हाथ से सिर्फ छूने का काम लें, स्पर्श करने का नहीं। अब आप कहेंगे, छूना और स्पर्श करना तो बिलकुल एक ही बात है। वही फर्क जो मैंने आंख के लिए कहा, सिर्फ देखने का काम आंख से, स्पर्श करने का नहीं। कान से काम सुनने का, स्पर्श करने का नहीं। कोई आवाज कान सुनता है, ठीक। लेकिन मीठी लग गई, तो छू ली गई। फिर आकांक्षा जगेगी, डिजायर पैदा होगी--और, और, और सुनूं। और सुनाई पड़े, तो स्पर्श हो गया। इंद्रिय ने रस लेना शुरू कर दिया। इंद्रिय सिर्फ उपकरण न रही, मालिक हो गई। इंद्रिय ने सिर्फ देखा नहीं, इंद्रिय ने पकड़ भी लिया।

जो योगी इंद्रिय को विषय से तोड़ता है, वह विषय और इंद्रिय के बीच स्पर्श को, संस्पर्श को तोड़ता है। देखना तो नहीं तोड़ा जा सकता। देखने से तोड़ने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। अगर आपने आंखें फोड़ लीं, तो आप बहुत हैरान होंगे। अगर आपने आंखें फोड़ लीं, तो जो काम आंख से आप करते थे, वह ट्रांसफर हो जाएगा कान के पास। इसलिए अंधों के कान तेज हो जाएंगे। आंख से स्पर्श करने का जो काम था, वह काम भी कान को मिल जाएगा।

इसलिए अंधों के कान तेज हो जाएंगे। अंधे कान से दोहरा काम लेने लगेंगे। सुनने का स्पर्श भी उसी से करेंगे; देखने का स्पर्श भी उसी से करेंगे। इसलिए अंधे आपके पैर की आवाज भी पहचानने लगेंगे, कौन आदमी आता है! आंख वाला कभी नहीं पहचान सकता। आंख वाले को कभी पता ही नहीं चलता कि पैर में आवाज भी होती है। लेकिन अंधे को बिलकुल पता होता है। कमरे में कौन आ रहा है, अंधा आदमी उसके पैर के पदचाप से जानता है--कौन आ रहा है। उसको आंख का काम भी कान से ही लेना पड़ता है। कान को दोहरे स्पर्श करने पड़ते हैं।

आंख फोड़ लेने से कुछ न होगा। आंख से स्पर्श विदा होना चाहिए। लेकिन कब होगा? जब आप जागेंगे, तो स्पर्श विदा हो जाएगा। क्या करेंगे?

जब भी देखें, तब होश से यह भी देखें कि स्पर्श हो रहा है कि नहीं! सिर्फ देख रहे हैं? धीरे, धीरे, धीरे, फासला साफ दिखाई पड़ने लगेगा। जैसे अक्सर होता है, रात आप बिजली बुझाते हैं, तो कमरे में अंधेरा मालूम पड़ता है। फिर थोड़ी देर देखते रहें, देखते रहें, देखते रहें, तो अंधेरा फीका होने लगता है। थोड़ी रोशनी मालूम पड़ने लगती है। ठीक ऐसे ही; देखें, देखते-देखते फासला दिखाई पड़ने लगता है। और साफ दिखाई पड़ने लगता है कि मैंने स्पर्श किया, कि देखा। और जब आप पाएंगे कि दिखाई पड़ने लगा स्पर्श किया, तभी आपको अनुभव हो जाएगा कि इंद्रियां जहां-जहां स्पर्श करती हैं, वहीं-वहीं बंधन को निर्मित करती हैं। जहां-जहां स्पर्श नहीं करतीं, वहां-वहां बंधन निर्मित नहीं होता।

संयमी का अर्थ है, जो इंद्रियों से उपकरण का काम लेता, भोग का नहीं। संयमी का अर्थ है, जो इंद्रियों से भोगता नहीं, केवल उपयोग लेता है। असंयमी का अर्थ है, जो इंद्रियों से उपयोग कम लेता, भोग ज्यादा लेता। आंख से देखना उपयोग है। आंख से भोगना, स्पर्श करना, उपयोग नहीं है; भोग है। भोग बंधन है, उपयोग बंधन नहीं है।

इस स्पर्श की सूक्ष्म व्यवस्था को स्मरणपूर्वक देखने से व्यवस्था क्रमशः टूटती चली जाती है।

लेकिन आपने शायद ही सोचा होगा कि संयम का यह अर्थ है! संयम का तो यह अर्थ है, स्त्री दिखाई पड़े, तो आंख बंद कर लो। संयम का तो यह अर्थ है कि जहां स्त्रियां हों, वहां रहो ही मत। संयम का तो यह अर्थ है, देखो मत, सुनो मत, छुओ मत। ऐसा हमने संयम का अर्थ लिया हुआ है। यह संयम का अर्थ नहीं है। इससे संयम फलित नहीं होता, सिर्फ दमन, सप्रेशन फलित होता है। और दमन संयम नहीं है। दमन भीतर उबलता हुआ असंयम है। बाहर नहीं जा पाता, भीतर उबलता है।

और ध्यान रहे, कुकर से भाप बाहर चली जाए, यही उचित है, बजाय भीतर रहे। क्योंकि तब कुकर फूटेगा और एक्सप्लोजन होगा। दो-चार की जान भी लेगी। इसलिए साधारण असंयमी आदमी इतना खतरनाक नहीं होता, जितना दमित असंयमी आदमी खतरनाक होता है। क्योंकि उसके भीतर बहुत जहर इकट्ठा हो जाता है। जब भी फूटता है, तो ज्यादा दूर तक नुकसान पहुंचाता है। और जब भी फूटता है, तो फिर पूरी तरह फूटता है।

सप्रेशन संयम नहीं है; दमन संयम नहीं है।

संयम जागरण है--होश, रिमेंबरिंग, स्मृति। इसको प्रयोग करके देखें।

प्रियजन है आपका कोई। हाथ हाथ में ले लेते हैं उसका प्रेम से। तब हाथ हाथ में रखें, आंख बंद कर लें, स्मरण करें, स्पर्श हो रहा है कि सिर्फ छू रहे हैं। बारीक है फासला, पर खयाल में आ जाएगा; दिखाई पड़ जाएगा। कभी लगेगा, स्पर्श कर रहे हैं। कभी लगेगा, छू रहे हैं। कभी लगेगा, दोनों काम एक साथ चल रहे हैं। और ध्यान रहे, अगर सिर्फ छू रहे हैं, तो थोड़ी ही देर में पसीने के सिवाय अनुभव में और कुछ भी नहीं आएगा। अगर स्पर्श कर रहे हैं, तो कविता अनुभव में आएगी; पसीने का पता ही नहीं चलेगा।

अगर प्रियजन का हाथ हाथ में लेकर बैठे हैं और अगर सिर्फ छू रहे हैं, तो थोड़ी ही देर में ऊब जाएंगे। और मन होगा कि कब हाथ से हाथ छूटे अब। लेकिन अगर स्पर्श भी कर रहे हैं, तो ऐसा होगा कि कोई हाथ न छुड़ा दे। अब यह हाथ हाथ में ही रहा आए। अब यह हाथ हाथ से जुड़ ही जाए। कविता पैदा होगी, स्वप्न पैदा होगा, रोमांटिक, रोमांच का जगत शुरू होगा।

इसे देखते रहें और प्रयोग करते रहें, तो पहली घटना घट सकती है संयम की, अर्थात विषयों तक इंद्रियों का रस तिरोहित हो जाता है। विषय तक इंद्रियां जाती हैं उपयोग के लिए, भोग के लिए नहीं। सेतु टूट गया। तब जो व्यक्ति है, वह संयमी है। ऐसा संयमी व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, उपलब्ध हो जाता है।

दूसरा, कृष्ण कह रहे हैं, भोग करते हुए भी, भोग में होते हुए भी इंद्रियों को विषयों से बिना तोड़े हुए, छूना ही नहीं, स्पर्श करते हुए भी, ज्ञानीजन बाहर हो जाते हैं। उसकी प्रक्रिया और भी सूक्ष्म होगी, क्योंकि वह एक प्रतिशत के लिए है। यह अभी जो मैंने कहा, निन्यानबे प्रतिशत के लिए है। यह भी कठिन है। वह और भी कठिनतर है। स्पर्श करते हुए, इंद्रियों का उपयोग ही नहीं, भोग करते हुए। फिर क्या करें? फिर कैसे सेतु टूटेगा? भोग करते हुए भी, पूरा भोग करते हुए भी, जो भोग के क्षण में जाग सकता है; भोग के क्षण में...!

भोजन कर रहे हैं। स्वाद की तरंगें बह रही हैं। स्वाद में उतरा रहे, डूब रहे। ठीक उस क्षण में स्वाद के प्रति जो जाग जाए, देखे कि डूब रहा, उतरा रहा; भागता नहीं, तोड़ता नहीं; डूब रहा, उतरा रहा, स्वाद ले रहा, पूरी तरह ले रहा। पूरी तरह लूं और होश से भर जाऊं, तो अचानक दिखाई पड़ेगा, मैं भोक्ता नहीं हूं; भोग है; मैं द्रष्टा हूं। भोग है; मैं द्रष्टा हूं, भोक्ता नहीं हूं।

द्रष्टा का भोक्ता-भाव गिर जाता है। तो वह भोगता रहे! संगीत को सुनेगा; कान गदगद होंगे, आनंदातिरेक में नाचने लगेंगे। कान के भीतर तरंगें उठकर सुख देने लगेंगी। कान पूरी तरह रसमग्न हो जाएगा। स्पर्श करेगा ध्वनि को, संगीत को। लेकिन भीतर जो चेतना है, वह जागकर देखेगी: ऐसा हो रहा है। और ऐसे स्मरण से कि ऐसा हो रहा है, तत्काल कोई गहरा सेतु टूट जाता है; जहां से भीतर की चेतना भोक्ता नहीं रह जाती, सिर्फ द्रष्टा रह जाती है।

इस मार्ग से भी ज्ञानीजन उस परात्पर सत्य को उपलब्ध हो जाते हैं। कृष्ण ने फिर ये दो बातें कहीं। ये अलग-अलग जरा भी नहीं हैं। व्यक्ति की बात है, उसे क्या निकटतम सुलभ मालूम पड़ सकता है।

दूसरा कठिन सिर्फ इसलिए है कि डर यही है कि हम अपने को धोखा दे लें। वही उसकी कठिनाई है। डिसेप्शन का डर है। आत्मवंचना का डर है। दूसरे की असली कठिनाई आत्मवंचना है। एक आदमी कह सकता है कि ठीक है। हम तो वेश्या के घर नृत्य देखते हैं, साक्षी रहते हैं। रस लेते हैं पूरा, लेकिन ज्ञानीजन की तरह लेते हैं! परीक्षा बहुत कठिन है।

लेकिन परीक्षाएं भी निकाली गई हैं। तंत्र ने बहुत-सी परीक्षाएं निकालीं। एक अदभुत परीक्षा तंत्र ने निकाली है, वह मैं आपसे कहूं। क्योंकि विश्व में वैसा प्रयोग और कहीं हुआ नहीं।

वह परीक्षा यह थी कि जो व्यक्ति कहता है कि मैं भोगते हुए भी तटस्थ होता हूं, द्रष्टा होता हूं; तंत्र ने कहा कि तुम शराब पीओ और शराब पीते हुए तुम होश में रहो; और हम शराब पिलाए चले जाएंगे, तुम होश में रहना। अगर घटना घट गई है साक्षी की, द्रष्टा की--भोगते हुए--तो शराब में भी होश कायम रहना चाहिए। क्योंकि नशा करेंगी इंद्रियां; तुम जागे रहना; तुम मत सो जाना।

तो तंत्र ने एक अदभुत प्रक्रिया निकाली नशे की--शराब, गांजा, अफीम। और आखिर तक बात वहां पहुंची कि जब अफीम, गांजा, इस सबका भी कोई असर नहीं हुआ साधक पर और वह जागा ही रहा, उतने ही होश में, जितने होश में वह बिना नशे का था, तब सांप से भी जीभ पर कटाने के प्रयोग किए गए और उसमें भी जागा रहा। सांप जीभ पर काट लिया है, जहर हो गया। आदमी मर जाए! और वह भीतर की चेतना की ज्योति जागी हुई है।

यह आमतौर से हमको कठिन मालूम पड़ता है कि साधु-संन्यासी गांजा पीएं, शराब पीएं। वह कभी परीक्षा थी। कभी वह परीक्षा थी, अब वह रोज का उपक्रम है। रोज सांझ को गांजा पी रहे हैं! कभी वह एक बहुत गहरी परीक्षा थी। लेकिन दूसरे वर्ग की ही परीक्षा है, पहले वर्ग की परीक्षा वह नहीं है।

योगी उस परीक्षा में नहीं खरा उतरेगा; वह परीक्षा ही उसकी नहीं है। उसने तो स्पर्श को ही तोड़ दिया है। उसने इंद्रिय और विषय के बीच संबंध ही तोड़ दिया है। दूसरे की परीक्षा है; जो कहता है, संबंध मैंने कायम रखा है, लेकिन मैं संबंध के रहते हुए असंबंधित और असंग हो गया हूं। वह उसकी परीक्षा है। और अगर बेहोशी रासायनिक सारे शरीर में पहुंच गई, फिर भी चेतना होश में जागी हुई है; उस बिंदु पर कोई अंतर नहीं पड़ा है...।

यह परीक्षा क्यों निकाली गई? क्योंकि आत्मप्रवंचना का डर है, धोखे का डर है। एक आदमी कह सकता है कि हम तो अच्छे कपड़े पहनते हैं, लेकिन कोई रस नहीं है। हम तो साक्षी-भाव से पहनते हैं। दूसरे को कोई नुकसान नहीं है; नुकसान उसी को है। इसलिए अक्सर पहली साधना में आत्मवंचना की संभावना न होने से सुगम है। दूसरी साधना में आत्मवंचना की संभावना होने से दुर्गम है। लेकिन दोनों बातें कृष्ण ने कहीं, कि ऐसा भी और ऐसा भी हो सकता है।

महावीर और बुद्ध पहली साधना के व्यक्ति हैं, संयम के। कृष्ण खुद दूसरी साधना के व्यक्ति हैं। इसीलिए तो कृष्ण और महावीर के व्यक्तित्व बिलकुल उलटे मालूम पड़ सकते हैं। तो जैनियों ने कृष्ण को तो नर्क में डाल दिया है। स्वाभाविक है, लाजिकल है। जैन-चिंतन से कृष्ण को नर्क में डालना बिलकुल उचित है। क्योंकि वह जो पहली निष्ठा है, वह सोच ही नहीं पा सकती कि यह स्त्रियों के साथ नाचता हुआ आदमी, यह सैकड़ों स्त्रियों के प्रेम में मग्न आदमी, यह युद्ध में खड़ा हुआ आदमी, यह हिंसा के लिए अर्जुन को प्रेरणा देता हुआ आदमी मुक्त कैसे हो सकता है? वह निष्ठा सोच ही नहीं सकती। इसलिए नर्क में डाल दिया।

लेकिन कृष्ण आदमी तो कीमती थे। तर्क ने तो कह दिया कि नर्क में डाल दो, लेकिन हृदय भी तो है। तो जैनों ने कृष्ण को नर्क में भी डाला, लेकिन फिर हृदय ने बगावत भी की। क्योंकि आखिर कृष्ण को देखा भी है, जाना भी है, पहचाना भी है। नाचा हो स्त्रियों के साथ, लेकिन इस आदमी की आंख में कोई नाच नहीं था। लड़ा हो युद्ध में, लेकिन इस आदमी के हृदय में कोई क्रोध नहीं था।

तो तर्क ने तो कहा कि हमारी निष्ठा के बिलकुल प्रतिकूल है, असंयमी है, इसलिए नर्क में तो जाना ही चाहिए। लेकिन हृदय ने कहा, आंखें भी तो देखी हैं; आदमी भी तो देखा है। इसलिए जैनियों ने आने वाले कल्प में पहला तीर्थंकर कृष्ण को बनाया। नर्क में डाला अभी, लेकिन आने वाले कल्प में पहले तीर्थंकर कृष्ण ही होंगे। 

बुद्धि ने कहा कि डालो नर्क में, क्योंकि असंयमी मालूम पड़ता है। हृदय ने कहा, लेकिन आंख भी तो देखो! इस आदमी की चाल और ढंग भी तो देखो। रहा है स्त्रियों के बीच, लेकिन गंध जरा भी नहीं आती स्त्रियों की। नाचता रहा, लेकिन थिर है, वैसा ही जैसा बुद्ध अपने सिद्धासन पर थिर होते हैं। युद्ध में खड़ा रहा, लेकिन हिंसा इस आदमी के मन में कहीं भी दिखाई नहीं पड़ती। इसकी आंखों में वे रेशे नहीं हैं, जो क्रोध के और हिंसा के रेशे होते हैं।

मोर-मुकुट बांधकर खड़ा रहा, लेकिन कोई गौर से देखे, तो कृष्ण के मोर-मुकुट के पीछे महावीर की नग्नता, दिगंबरत्व साफ-साफ है। मगर मोर-मुकुट भी तो दिखाई पड़ते हैं। मोर-मुकुट की वजह से नर्क में डाला; लेकिन पीछे जो नग्नता दिखाई पड़ती है कि मोर-मुकुट के पीछे भी यह आदमी ऐसा ही है, जैसे दिगंबर हो, नग्न खड़ा हो; उसकी वजह से पहला तीर्थंकर भी बनाया!

यह दूसरी निष्ठा के व्यक्ति हैं कृष्ण। और ध्यान रहे, यह बड़े मजे की बात है, दूसरी निष्ठा का व्यक्ति पहली निष्ठा के व्यक्ति को बिलकुल विपरीत मालूम पड़ेगा, स्वाभाविक। पहली निष्ठा के व्यक्ति को दूसरी निष्ठा का व्यक्ति विपरीत मालूम पड़ेगा, वैसे ही दूसरी निष्ठा के व्यक्ति को पहली निष्ठा का व्यक्ति विपरीत मालूम पड़ेगा।

लेकिन कृष्ण दोनों निष्ठाओं को समान भाव से गीता में कहे चले जाते हैं। दोनों निष्ठाओं का अनुभव, दोनों निष्ठाओं की यात्रा, दोनों निष्ठाओं को आकाश से देखने की क्षमता; दोनों निष्ठाएं एक जगह पहुंचा देती हैं, इसकी प्रतीति उनकी प्रगाढ़ है। पूरी गीता में जगह-जगह समन्वय का यह  भाव मिलेगा। वही खूबी भी है

।(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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