गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 13

  

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।

इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।। 14।।


कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए मेरे को कर्म लिपायमान नहीं करते। इस प्रकार जो मेरे को तत्व से जानता है, वह भी कर्मों से नहीं बंधता है।




कृष्ण कहते हैं, कर्मों के फलों में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए कर्म मुझे लिप्त नहीं कर पाते हैं। और जो मुझे ऐसा जानता है, वह भी कर्मों के लिप्त होने से मुक्त हो जाता है।

कर्मों के फलों में स्पृहा नहीं है; कर्मों के फलों की आकांक्षा नहीं है। खेल और कर्म का यही फर्क है। फल की आकांक्षा हो, तो खेल भी कर्म बन जाता। फल की आकांक्षा न हो, तो कर्म भी खेल बन जाता। बस, कर्म और खेल का फर्क ही फल की आकांक्षा है।

आप सुबह-सुबह घूमने निकले हैं--घूमने, कोई पूछता है, कहां जा रहे हैं? आप कहते हैं, कहीं जा नहीं रहा; घूमने जा रहा हूं। कहते हैं, कहीं जा नहीं रहा, घूमने जा रहा हूं, अर्थात फल का कोई सवाल नहीं है; कहीं पहुंचने का कोई प्रयोजन नहीं है। कहीं पहुंचने को नहीं जा रहा। कोई मंजिल नहीं है, कोई मुकाम नहीं है, जहां के लिए जा रहा हूं। बस, घूमने जा रहा हूं।

इसी रास्ते से दोपहर को आप दुकान की तरफ भी जाते हैं। तब आप बस घूमने नहीं जा रहे हैं, कहीं जा रहे हैं। रास्ता वही है, आप वही हैं, पैर वही हैं। लेकिन कभी आपने फर्क देखा कि सुबह के घूमने का आनंद और है; और दोपहर को दुकान की तरफ जाने का बोझ और है। रास्ता वही, आप वही, पैर वही, हवाएं वही, सूरज वही, फर्क कहां है?

फर्क--सुबह खेल था; दोपहर काम हो गया। सुबह स्पृहा न थी फल की। कहीं पहुंचने का कोई प्रयोजन न था। कर्म ही फल था। कर्म के बाहर कोई फल न था। घूम लिए, काफी है। घूमना अपने आप में अंत था। पार कहीं कोई बात न थी। कहीं जाना न था; कुछ पाना न था। कुछ पाने को न था; घूमना ही पाना था। वही क्षण, वही कृत्य सब कुछ था। उसके बाहर कोई स्पृहा न थी। तब एक हल्कापन था पैरों में; पक्षियों के परों का हल्कापन था। मन में हवाओं की ताजगी थी; आंखों में फूलों की सरलता थी। कहीं जा न रहे थे; कोई तनाव न था, कोई टेंशन न था। एक-एक कदम स्पांटेनियस था। कहीं भी रुक सकते थे और कहीं से भी वापस लौट सकते थे। कोई दबाव न था। कहीं खींचे न जा रहे थे; कहीं से धकाए न जा रहे थे। न तो पीछे से कोई धक्का दे रहा था कि जाओ; न आगे से कोई खींच रहा था कि आओ। प्रत्येक कदम अपने आप में पूरा था, टोटल इन इटसेल्फ। कहीं भी रुक सकते थे, वापस लौट सकते थे। कोई न कहता कि वापस क्यों लौटते हो? मन न कहता कि अरे, बिना मुकाम पाए वापस क्यों जाते हो? घूमने में खेल था; कर्म की स्पृहा न थी।

परमात्मा कहीं पहुंचने को नहीं कर रहा है। यह परमात्मा का, अस्तित्व का, एक्झिस्टेंस का कोई उद्देश्य नहीं है। यह बड़ी कठिन बात है समझनी।

अस्तित्व निरुद्देश्य है। निरुद्देश्य ही खिलते हैं फूल। निरुद्देश्य ही गीत गाते हैं पक्षी। निरुद्देश्य ही चलते हैं चांदत्तारे। निरुद्देश्य ही पैदा होता है जीवन और विलीन। हमें बहुत कठिन हो जाएगा!

ह्यूमन माइंड, मनुष्य का मन उद्देश्य के बिना कुछ भी नहीं समझ पाता। हमें लगता है, बिना उद्देश्य! फिर किसलिए? यानी मतलब, हम फिर से पूछते हैं कि फिर उद्देश्य क्या? निरुद्देश्य है जीवन। इसका दूसरा अगर पर्याय बनाएं, तो होगा जीवन आनंद है अपने में, उसके बाहर कहीं कोई पहुंचने की बात नहीं है।

कृष्ण यही कहते हैं, परपजलेसनेस। कहते हैं, मेरे लिए कोई ऐसा नहीं है कि जो मैं कर रहा हूं, उसमें कोई मजबूरी, कोई कंपल्शन नहीं है; आनंद है। सुबह बच्चे उठकर खेल रहे हैं, नाच रहे हैं--बस, ऐसे ही। बस, ऐसे ही सारा अस्तित्व आनंदमग्न है, आनंद के लिए ही।

पर कृष्ण जो यह वक्तव्य देते हैं, फल की स्पृहा नहीं है। हमें समझना बहुत कठिन हो जाएगा। क्योंकि हम तो कहेंगे, फल की स्पृहा न हो, तो हम कदम ही न उठाएंगे। अगर फल न पाना हो, तो हम कुछ करेंगे ही क्यों? हमें तो सारा कर्म फल प्रेरित  है। फल आता हो, तो हम करेंगे। फल न आता हो तो? फल न आता हो, तो हम क्यों करेंगे? हमारा जीवन वर्तमान में नहीं, सदा भविष्य में है। हम आज नहीं जीते; सदा कल जीते हैं।

कल कभी जी नहीं सकते, सिर्फ खयाल में ही रहते हैं। इसलिए हम जीते कम, मरते ही ज्यादा हैं। हम कहते हैं, कल। फल सदा कल है। फल का मतलब, कल।

फल कभी आज नहीं है। फल आज हो नहीं सकता। आज तो कर्म ही हो सकता है; फल तो कल ही होगा। कल भी आ जाएगा, तब भी फल आगे कल पर सरक जाएगा। कल फिर जब आज बनेगा, तो कर्म ही होगा।

आज सदा कर्म है; फल सदा कल है। आज, वर्तमान। कल, भविष्य। फल सदा कल्पना में है। फल का कोई अस्तित्व नहीं है; अस्तित्व तो कर्म का है। परमात्मा भविष्य में नहीं जीता, क्योंकि परमात्मा कल्पना में नहीं जीता।

कल्पना में कौन जीते हैं? इसे समझ लें, तो कृष्ण की यह बात समझ में आ जाएगी। कल्पना में कौन जीते हैं? जिनका जीवन विषाद से भरा है, दुख से भरा है, वे कल्पना में जीते हैं। क्यों? क्योंकि कल्पना से वे अपने विषाद की परिपूर्ति करते हैं।

आज जिंदगी इतनी उदास है कि कल के फल की आशा से उस उदासी को हम मिटाए चले जाते हैं। आज तो जिंदगी में कुछ भी नहीं है। कल के फूलों की आशा में आज को सजाए चले जाते हैं। आज तो सब खाली और रिक्त है। कल का शृंगार, कल की आशा, आज पैरों को गति देती है।

कल भी यही हुआ था; कल भी यही होगा। आज होगा सदा खाली, और कल होगा सदा भरा हुआ! और अंत में जब जिंदगी का जोड़ लगाइएगा, तो ध्यान रखें, जिंदगी कल का जोड़ नहीं है, जिंदगी आज का जोड़ है। सब खाली आज जब आखिर में जुड़ेंगे, तो पता चलेगा, हाथ खाली के खाली रह गए। क्योंकि जिंदगी आज का जोड़ है, कल का जोड़ नहीं है।

आज अस्तित्व है; कल तो सिर्फ कल्पना है, इमेजिनेशन है। कल कभी आता नहीं। पर आज है पीड़ा से भरा। अगर कल भी न रह जाए, तो बहुत मुश्किल हो जाए; पैर का उठना मुश्किल हो जाए।

यह जो हमारी दुख से भरी स्थिति है, इसके लिए हम फलातुर हैं। परमात्मा आनंदमग्न है। फलातुर होने की जरूरत नहीं है। सिर्फ दुखी आदमी फलातुर होता है; दुखी चित्त फलातुर होता है। आनंदित चित्त फलातुर नहीं होता। आप भी जब कभी आनंद में होते हैं, तो भविष्य मिट जाता है और वर्तमान रह जाता है। जब भी!

अगर आप किसी के प्रेम में पड़ गए, तो भविष्य मिट जाता है। अगर आपका प्रेमी आपके पास बैठा है, तो वर्तमान ही रह जाता है। फिर आप यह नहीं सोचते, कल क्या होगा? फिर आप वही जानते हैं, जो अभी हो रहा है। कल खो जाता है।

जब आप संगीत में डूब जाते हैं, तो कल खो जाता है। फिर आप यह नहीं सोचते, कल क्या होगा? फिर आज ही, अभी, दिस वेरी मोमेंट, यही क्षण काफी हो जाता है। जब कोई भजन में लीन हो गया, कीर्तन में डूब गया, तब यही क्षण सब कुछ हो जाता है। सारा अस्तित्व इसी क्षण में समाहित हो जाता है। सब सिकुड़कर, सारा अस्तित्व इसी क्षण में केंद्रित हो जाता है। इस क्षण के बाहर फिर कुछ भी नहीं है।

जीवन के जो भी आनंद के क्षण हैं, वे वर्तमान के क्षण हैं। परमात्मा तो प्रतिपल आनंद में है। इसलिए उसकी कोई फलाकांक्षा नहीं हो सकती।

कृष्ण कहते हैं, जिस दिन कोई इस सत्य को समझ लेता है, उस दिन वह भी फलातुर नहीं रह जाता।

अब मैं दूसरी बात आपसे कहूं। मैंने कहा, दुखी आदमी फलातुर होता है। और अब मैं आपसे यह भी कहूं कि फलातुर आदमी दुखी होता चला जाता है। यह विसियस सर्किल है, यह दुष्टचक्र है। दुखी होंगे, तो फल की आकांक्षा करेंगे। फल की आकांक्षा करेंगे, दुखी होंगे। ये जुड़ी हुई बातें हैं दोनों। क्यों? दुखी होंगे, तो मैंने समझाया, फल की आकांक्षा क्यों करेंगे! क्योंकि इस क्षण के दुख को मिटाने का भविष्य की कल्पना के अतिरिक्त आपके पास कोई भी उपाय नहीं है। दिखाई नहीं पड़ता, उपाय तो है।

कृष्ण उसी उपाय को बताते हैं, लेकिन वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। हमें यही दिखाई पड़ता है कि कल्पना में भूल जाओ। इस क्षण को भूल जाओ। भरोसा रखो, कल सब ठीक हो जाएगा। आज जिंदगी अभिशाप है, कल वरदान बन जाएगी। आज कांटे हैं, कल फूल हो जाएंगे। भरोसा रखो! कल तो आने दो; कल सब ठीक हो जाएगा। कल तक प्रतीक्षा करने में इससे सहारा मिल जाता है। सांत्वना बन जाती है। फिर कल आ जाता है।

लेकिन दुख के कारण फल के तीर हमने भविष्य में पहुंचाए। दुख के कारण कामना के सेतु बनाए--इंद्रधनुष के सेतु, जिन पर चल नहीं सकते, जो सिर्फ दिखाई पड़ते हैं। पास जाओ, खो जाते हैं। इसलिए कभी इंद्रधनुष के पास नहीं जाना चाहिए। खो जाता है। दूर से लगता है कि बड़ा सेतु बना है। चाहो तो जमीन से आकाश में चले जाओ चढ़कर। पास भर न जाना। जाना खतरनाक है।

तो इच्छाओं के सेतु बनाते हैं कल में। बड़े प्रीतिकर लगते हैं। इंद्रधनुष के सब रंग होते हैं उनमें। शायद इंद्रधनुष से भी ज्यादा रंग होते हैं। फिर कल आता है और इंद्रधनुष दिखाई नहीं पड़ता कि कहां है। तब दुख पैदा होता है। दुख था, इसलिए इंद्रधनुष बनाया; फिर इंद्रधनुष नहीं मिलता, तो दुख पैदा होता है। फिर और बड़े इंद्रधनुष बनाते हैं। लगता है, शायद छोटे बनाए थे, इसलिए मिल नहीं सके। लगता है, शायद थोड़ी कम मेहनत की, इसलिए कल्पनाएं अधूरी रह गईं। लगता है, शायद थोड़ा दौड़ने में कंजूसी हुई, इसलिए पहुंच नहीं पाए। और जोर से दौड़ो, और बड़े धनुष बनाओ, और फैलाओ कल्पना के जाल को, तो कल तृप्ति होगी।

फिर वह कल भी आ जाता है। फिर वे कल्पना के जाल भी अधूरे और टूटे के टूटे रह जाते हैं। टूटे हुए इंद्रधनुष फिर बड़ा दुख देते हैं। फिर और बड़ा करो। फिर जीवन से मृत्यु तक यही करते रहो। बनाओ इंद्रधनुष और खंडों को बटोरो। टूटे हुए इंद्रधनुषों को इकट्ठे करते चले जाओ। फिर आखिर में जिंदगी एक खंडहर, आर्चिओलाजी के काम का, और किसी काम का नहीं। खंडहर-- पुरातत्व के शोधियों के काम का। हाथ में कुछ भी नहीं; सिर्फ आशाओं के खंडहर; भग्न आशाओं के सेतु; खो गए सब! और मौत सामने है। फिर सेतु बनाना भी मुश्किल हो जाता है।

इसलिए मौत से हम डरते हैं। मौत से डरने का कारण यह नहीं है कि मौत से हम डरते हैं। क्योंकि जिससे हम परिचित नहीं हैं, उससे डरेंगे कैसे! जिसे हम जानते नहीं हैं, उससे डरेंगे कैसे! जिसे हमने कभी देखा नहीं, उससे डरेंगे कैसे! डरने के लिए भी थोड़ा परिचय जरूरी है। मौत से हम नहीं डरते। डरते हम इससे हैं कि मौत का मतलब है, कल अब नहीं होगा।  मौत का मतलब है, अब आगे कल नहीं है। फिर हमारे इंद्रधनुषों का क्या होगा? फिर हमारी कल्पनाओं के जाल का क्या होगा? हम तो सदा कल में ही जीए थे; आज तो कभी जीए नहीं थे। मौत कहती है, बस, अब आज है; कल नहीं। तो हम क्या करें?

इसलिए मौत उदास कर जाती है। मौत नहीं करती उदास, कल का अभाव, कल का समाप्त हो जाना। अब कोई कल नहीं है; अब आज ही है। अब हम मरे! अब हम अपने पर ही फेंक दिए गए। थ्रोन बैक टु वनसेल्फ। अब कोई कल का उपाय न रहा, जिसमें हम भरोसे खोज लें। अब कल का कोई उपाय न रहा, जिसमें हम सहारे बना लें। अब कल न रहा, जिसमें हम सपने गूंथ लें, सपने बुन लें। अब ड्रीम की कोई जगह न रही। अब रिअलिटी है; अब तथ्य ही सामने रह गया। अब आज ही बचा।

आज के साथ जीने की हमारी कोई आदत नहीं है। कल के साथ ही सदा जीए थे। अब जीना बहुत मुश्किल है। इसलिए हम मौत से डरते और भयभीत होते हैं। मौत, कल की मौत है; इससे हम डरते हैं।

कृष्ण कहते हैं--वह जो परम सत्ता है, उसकी तरफ से--कि मैं आज ही जीता हूं, अभी और यहीं। फल की स्पृहा नहीं है। कल की आकांक्षा नहीं है। टुडे इज़ इनफ, आज काफी है।


कृष्ण कहते हैं, अभी और यहीं सब है। फल की स्पृहा नहीं है मुझे। दो कारणों से।

एक तो आनंदमग्न चित्त अभी और यहीं होता है। और जैसा मैंने कहा कि दुख से कल की आकांक्षा पैदा होती; कल की आकांक्षा से दुख घना होता; ऐसे ही यह भी आपसे कहूं, आनंदित चित्त में कल की आकांक्षा पैदा नहीं होती। और कल की आकांक्षा जिस चित्त में पैदा नहीं होती, उसका आनंद सघन होता है। उसका भी अपना एक वर्तुल है।

जितना-जितना कल की आकांक्षा नहीं होती, उतना-उतना आज सघन आनंद से भरता चला जाता है। अनंत आनंद आज ही सिकुड़कर मिलने लगता है।

परमात्मा क्षणजीवी है। लेकिन उसका क्षण इटरनिटी है; उसका क्षण अनंत है। एक क्षण ही अनंत है। हम भविष्यजीवी हैं। लेकिन हमारा भविष्य सिवाय मृत्यु के और कुछ नहीं लाता। हमारा भविष्य अमावस की रात के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं निर्मित करता। हमारा भविष्य प्राणों में सिर्फ घाव छोड़ जाता है; अनजीए घाव। घाव उस जीवन के, जो हमने जीया नहीं और जिसे हम चूक गए हैं।

कृष्ण कहते हैं, जो इस बात को समझ लेता, जो मेरे इस स्वरूप को समझ लेता, वह भी मेरे जैसा हो जाता है।

आनंद की जिन्हें भी तलाश है, वे कल से मुक्त हो जाएं। सत्य की जिन्हें भी खोज है, वे भविष्य को विदा कर दें। हां, दुख की जिन्हें तलाश है, वे कल को खोजें। नर्क के द्वार पर जिनको खटखटाना है, वे भविष्य में सेतु बनाएं स्वप्नों के। स्वर्ग के द्वार को जिन्हें खोल लेना है, उनके लिए द्वार अभी और यहीं है।

लेकिन अभी और यहीं होने का राज क्या है, सीक्रेट क्या है? सीक्रेट है--फल की स्पृहा नहीं; कर्म काफी है। जो कर रहे हैं, उतना ही काफी है। लेकिन वह कब होगा काफी? जब कर्म खेल बन जाए, लीला बन जाए।

लेकिन हम तो खेल को भी कर्म बना लेते हैं। हम तो इतने कुशल हैं कि हम खेल को कर्म बना लेते हैं। कृष्ण कहते हैं, कर्म को खेल बनाओ। हम दूसरे छोर हैं, ठीक उलटे। हम खेल को कर्म बना लेते हैं! कृष्ण कहते हैं, जीवन नाटक हो जाए। हमने उलटी कुशलता अर्जित की है। हम नाटक को जीवन बना लेते हैं।

देखा है, सिनेमागृह में बैठे लोगों को? रूमाल गीले कर रहे हैं; आंसू पोंछ रहे हैं। पर्दे पर कुछ भी नहीं है, सिवाय छायाओं के। सिवाय प्रकाश के और छायाओं के मेल-जोल के, पर्दे पर कुछ भी नहीं है। खाली पर्दा है। आंसू पोंछ रहे हैं! हृदय की धड़कन बढ़ गई है। कोई का ब्लडप्रेशर बढ़ गया होगा! निकलते हैं सिनेमागृह से, देखें लोगों के चेहरे, तो पता चलेगा, नाटक जिंदगी बन गई है। वह तो सिनेमागृह में अंधेरा रहता है, यह बड़ा अच्छा है। आदमी अपना चुपचाप रो लेता है; पोंछ लेता है; बैठ जाता है। देखें सिनेमागृह में! अब की बार सिनेमा न देखें, जाएं तो देखने वालों को देखें। अच्छा तो यह हो, अपने को देखें, तो और मजा आएगा कि क्या कर रहे हैं! यह क्या हो रहा है!

कृष्ण कहते हैं, यह पूरा जीवन ही नाटक है। हम कहते हैं, नाटक! नाटक खुद ही जीवन है। अगर यह बात दिखाई पड़ जाए कि फिल्म के पर्दे पर सिवाय विद्युत के किरणों के जाल के और कुछ भी नहीं, तो किसी दिन यह भी पता चल जाएगा कि इस पृथ्वी पर भी विद्युत की किरणों के जाल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। यहां भी कुछ भी नहीं है। तब यह सब नाटक हो जाता है, तब एक अभिनय हो जाता है।

इसलिए कृष्ण एक कुशल अभिनेता हैं। बांसुरी भी बजा सकते हैं, सुदर्शन भी उठा सकते हैं। परम ज्ञान की बात भी कर सकते हैं, गंवार ग्वालों के साथ नाच भी सकते हैं। गीता का उपदेश भी दे सकते हैं, स्त्रियों के वस्त्र उठाकर वृक्ष पर भी बैठ सकते हैं। ऐसा  असंगत आदमी पृथ्वी पर दूसरा नहीं हुआ है।

लेकिन उस असंगति में एक राज है। इतना असंगत वही हो सकता है, जो बिलकुल गंभीर नहीं है। सिर्फ खेल समझ रहा है। इसलिए ठीक है।

 हम समय को तीन हिस्सों में बांटते हैं--हम मनुष्य का मन समय को तीन हिस्सों में बांटता है--भविष्य, वर्तमान, अतीत; । समय बंटा हुआ नहीं है। परमात्मा से अगर जाकर पूछेंगे, तो वह कहेगा, तीन? समय तो सदा वर्तमान है। समय न तो पास्ट है, और न फ्यूचर है। समय सिर्फ वर्तमान ही है। हम बांटते हैं।


सच तो यह है कि अगर हम और थोड़ी बुद्धिमानी करें, तो हमें वर्तमान को अलग कर देना चाहिए, क्योंकि वर्तमान का हमें कोई अनुभव ही नहीं है। हमें या तो अतीत का अनुभव है या भविष्य का। या तो हमें उस राख के ढेर का पता है, जो हमारी आकांक्षाओं की हमारे पीछे लग गई है। या तो हमें उस सबका पता है, जो बीत गया--अतृप्ति के ढेर। और या हमें पता है वह, जो अभी नहीं बीता; होना चाहिए, होगा--आकांक्षाओं के इंद्रधनुष। वर्तमान का हमें कोई भी पता नहीं है। हमारे लिए समय अतीत और भविष्य है।

वर्तमान हम किसे कहते हैं? हम वर्तमान उस क्षण को कहते हैं, जिस क्षण में हमारा भविष्य अतीत बनता है, दि फ्यूचर पासेस इनटु दि पास्ट। हम उस संक्रमण के क्षण को, ट्रांजीशन को, उस दरवाजे को वर्तमान कहते हैं, जिससे भविष्य अतीत बनता है; जिससे जीवन मृत्यु बनती है; जिससे जो नहीं था, वह नहीं था में वापस चला जाता है।

हमारे लिए वर्तमान सिर्फ एक द्वार है, बहुत बारीक, जिसे हम कभी नहीं पकड़ पाते हैं कि वह कहां है। जब हम पकड़ पाते हैं, तब तक अतीत हो चुका होता है। जब तक हम नहीं पकड़ पाते हैं, तब तक वह भविष्य रहता है। लेकिन परमात्मा की स्थिति बिलकुल और है। परमात्मा के लिए भविष्य है ही नहीं। और कोई अतीत भी नहीं है। परमात्मा के लिए सिर्फ वर्तमान है; मात्र वर्तमान। इसलिए परमात्मा के लिए समय इटरनिटी है, एक अनंतता है। बहाव नहीं है, एक अनंतता है; एक ठहरी हुई अनंतता। सब ठहरा हुआ है, सरोवर की भांति।

परमात्मा के लिए काज और इफेक्ट नहीं हैं, कार्य और कारण नहीं हैं। हमारे लिए हैं। कार्य का मतलब, भविष्य; कारण का मतलब, अतीत। वर्तमान, जिसमें से कारण कार्य बनता है या कार्य पुनः कारण बनता है। परमात्मा के लिए कार्य-कारण नहीं हैं।

हमारी स्थिति करीब-करीब ऐसी है, पूरे हमारे दिमाग की, चाहे वह वैज्ञानिक का दिमाग हो, चाहे दार्शनिक का हो, चाहे गहरे से गहरे सोचने वाले का हो। मनुष्य के मस्तिष्क के सोचने का ढंग करीब-करीब ऐसा है, जैसे कि एक छोटा-सा छेद हो दीवाल में और एक बिल्ली कमरे के भीतर बंद हो। धुंधला प्रकाश हो। और हम छेद से देख रहे हों।

बिल्ली निकले छेद के सामने से। पहले उसका चेहरा दिखाई पड़े। छेद छोटा है। चेहरा दिखाई पड़ता है। फिर उसकी पीठ दिखाई पड़ती है। फिर उसकी पूंछ दिखाई पड़ती है। फिर बिल्ली लौटती है; फिर उसका चेहरा पहले दिखाई पड़ता है, फिर उसकी पीठ दिखाई पड़ती है, फिर उसकी पूंछ दिखाई पड़ती है। फिर हम कहते हैं, हेड मस्ट बी दि काज एंड टेल मस्ट बी दि इफेक्ट। क्योंकि हमेशा सिर के पीछे पूंछ है। कहीं से भी बिल्ली घूमती हो कमरे में, हमारे छेद में से दिखाई पड़ता है पहले सिर, फिर पीठ, फिर पूंछ। निश्चित ही सिर कारण है, पूंछ कार्य है।

बेचारी बिल्ली को पता ही नहीं। वहां हेड, टेल एक ही हैं; वहां कोई कार्य-कारण नहीं हैं। वहां दोनों ही एक हैं। वहां बिल्ली के लिए सिर और पूंछ एक ही चीज के दो हिस्से हैं।

परमात्मा के लिए बीज और वृक्ष, कार्य और कारण नहीं हैं; एक ही चीज के दो हिस्से हैं। परमात्मा के लिए जन्म और मृत्यु, अतीत और भविष्य नहीं हैं; एक ही चीज के दो छोर हैं। हेड एंड टेल, सिर और पूंछ। हमारे लिए सब दिक्कत है। हमारे देखने के ढंग की वजह से सारी दिक्कत है। बहुत छोटा छेद है हमारे सोचने का। वह छोटा छेद क्यों है? क्योंकि वर्तमान बहुत छोटा है हमारा, इसलिए छेद छोटा है। वर्तमान बड़ा हो जाए, छेद बड़ा हो जाए। वर्तमान ही रह जाए, तो सब दीवाल गिर जाती है। फिर अस्तित्व को हम वैसा ही जानते हैं, जैसा वह है। अस्तित्व में न तो कुछ बीता है, न कुछ होने वाला है। सब है। सब मौजूद है।

कृष्ण इसलिए कहते हैं, फल की कोई स्पृहा नहीं। भविष्य ही नहीं, फल की स्पृहा कैसे करेंगे! यही क्षण सब कुछ है। ऐसा जो जान लेता है, वह भी इसी स्थिति को उपलब्ध हो जाता है।

इस सूत्र को गहरे में अनुभव करने की जरूरत है। यह सार सूत्रों में से एक है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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