शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 4 भाग 17

 

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।

स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।। 18।।


कर्मणि-कर्म में; अकर्म-अकर्म यः – जो पश्येत् - देखता है; अकर्मणि अकर्म में; च-भी; कर्म सकाम कर्म; यः - जो; सः - वह, बुद्धिमान् बुद्धिमान् है; मनुष्येषु मानव समाज में; सः वह; युक्तः - दिव्य स्थिति को प्राप्तः कृत्स्त्र-कर्म-कृत् - सारे कर्मोंों में लगा रहकर भी ।


जो पुरुष कर्म में अकर्म को देखे, और जो पुरुष अकर्म में कर्म को देखे, वह पुरुष मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह योगी संपूर्ण कर्मों का करने वाला है।


थोड़ी-सी बात इस संबंध में समझ लें।

कृष्ण कहते हैं, जो कर्म में अकर्म को देखे और अकर्म में कर्म को देखे, वह व्यक्ति ज्ञानवान है।

कर्म में अकर्म को देखे, उलटा। कर्म में अकर्म को देखने का अर्थ हुआ, करते हुए भी जाने कि मैं कर्ता नहीं हूं। करते हुए भी जाने कि मैं कर्ता नहीं हूं। करते हुए भी ऐसा तभी जाना जा सकता है, जब साक्षी का भाव हो।



आप भोजन कर रहे हैं। भोजन करते हुए भी जाना जा सकता है कि आप भोजन नहीं कर रहे हैं। अगर साक्षी हों, तो आप देखेंगे कि शरीर को ही भूख लगी है, शरीर ही भोजन कर रहा है, मैं देख रहा हूं। कठिन नहीं है। थोड़े से जागकर देखने की बात है।

और इससे भी जटिल बात दूसरी कृष्ण कहते हैं कि तब न करते हुए भी कर्ता जैसा हो जाता है। वह और भी कठिन है बात समझनी। यह तो पहली बात समझ में आ सकती है कि अगर साक्षी-भाव हो, तो कर्म होते हुए भी ऐसा नहीं लगता कि मैं कर रहा हूं; देख रहा हूं कि हो रहा है। दूसरी बात और भी गहरी है कि न करते हुए भी कर रहा हूं। इसका क्या मतलब हुआ?

असल में जब कोई व्यक्ति पहली घटना को उपलब्ध हो जाता है कि करते हुए न करने को अनुभव करने लगता है, तब अनिवार्य रूप से दूसरी गहराई भी उपलब्ध हो जाती है कि वह न करते हुए भी अनुभव करता है कि कर रहा हूं। क्यों? क्योंकि जो व्यक्ति ऐसा जान लेता है कि मैं साक्षी हूं, वह व्यक्ति अपने को स्वयं से तो तोड़ लेता है और सर्व से जोड़ देता है। जो व्यक्ति ऐसा जान लेता है कि मैं नहीं कर रहा हूं, सब हो रहा है, मैं देख रहा हूं, उसका परमात्मा और उसके बीच तादात्म्य हो जाता है।

फिर वह कुछ भी नहीं करता। हवाएं चल रही हैं, तो भी वह जानता है, मैं ही चला रहा हूं। चांदत्तारे घूम रहे हैं, तो वह जानता है, मैं ही चला रहा हूं।

वह जो भीतर है, अगर जान ले कि मैं साक्षी हूं, तो परमात्मा के साथ एक हो जाता है। फिर जो भी हो रहा है, वही कर रहा है। फिर वह अगर खाली भी बैठा हुआ है, तो भी वही कर रहा है। हवाएं भी वही चला रहा है, वृक्ष भी वही उगा रहा है, फूल भी वही खिला रहा है। वह जो बैठा हुआ है वृक्ष के नीचे आंखें मूंदे हुए, वही चांदत्तारे और सूरज भी चला रहा है।

लेकिन वह दूसरी घटना है। पहले तो कर्म में अकर्म का अनुभव हो, तो फिर अकर्म में कर्म का अनुभव होता है।

और जो इस गहन प्रतीति को उपलब्ध हो जाता है, कृष्ण कहते हैं, वह ज्ञान को, सत्य को, सत्य के अनुभव को उपलब्ध हो जाता है।

और साथ ही आपसे यह भी कह दूं कि जो व्यक्ति साक्षी बन जाता है, उसे निषिद्ध कर्म क्या है, यह पहले से तय नहीं करना पड़ता। जब भी जरूरत होती है, जैसे ही वह साक्षी होता है, दिखाई पड़ जाता है कि यह निषिद्ध है और यह निषिद्ध नहीं है। इसे सोचना नहीं पड़ता। उसकी हालत ठीक ऐसे हो जाती है...।

जैसे एक कमरा है अंधेरा। एक अंधा आदमी है; उसे कमरे के बाहर जाना है, तो वह पूछता है, दरवाजा कहां है? स्वभावतः, अंधे आदमी को दरवाजे का पता नहीं है। वह पूछता है, दरवाजा कहां है? अगर कोई बता दे, बता भी दे, तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता। अंदाज हो जाता है, अनुमान हो जाता है; फिर भी लकड़ी से टटोलता है कि दरवाजा कहां है! बता दिया, तो भी टटोलता है! टटोलता है, तो भी सीधे दरवाजे पर थोड़े ही पहुंच जाता है। कौन टटोलने वाला सीधा पहुंच सकता है? कभी खिड़की को छूता है, कभी कुर्सी को छूता है। फिर टटोल-टटोलकर कहां दरवाजा है, पता लगाता है।

लेकिन आंख वाला आदमी? आंख वाला आदमी पूछता नहीं, दरवाजा कहां है? निकलना है; उठता है और निकल जाता है। आपने कभी खयाल किया, जब आप दरवाजे से निकलते हैं, पहले सोचते हैं, दरवाजा कहां है! फिर देखते हैं कि यह रहा दरवाजा। फिर सोचते हैं, इसी से निकल जाएं। फिर निकल जाते हैं। ऐसी कोई प्रक्रिया होती है? नहीं; आपको पता ही नहीं चलता कि दरवाजा कहां है और आप निकल जाते हैं। दिखता है, तो दरवाजे से निकल जाते हैं।

ठीक ऐसे ही जिस व्यक्ति की साक्षी-भावना गहरी हो जाती है, उसे दिखाई पड़ता है, निषिद्ध कर्म क्या है। दिखाई पड़ता है। टटोलना नहीं पड़ता, पूछना नहीं पड़ता, सोचना नहीं पड़ता, शास्त्र नहीं खोलने पड़ते। बस, दिखाई पड़ता है कि निषिद्ध कर्म क्या है। और जो निषिद्ध है, वह फिर नहीं किया जा सकता। और जो निषिद्ध नहीं है, वही किया जा सकता है। बस, वह निकल जाता है। आप उससे पूछेंगे, तो उसको पीछे पता चलेगा कि मैंने वह कर्म नहीं किया। उसे पता नहीं चलता कि मैंने नहीं किया, क्योंकि इतना पता चलना भी सिर्फ अंधों के लिए है। साक्षी-भाव आंख बन जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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