सोमवार, 12 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 2 भाग 48

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।। ६६।।


अयुक्त पुरुष के अंतःकरण में श्रेष्ठ बुद्धि नहीं होती है और उसके अंतःकरण में भावना भी नहीं होती है और बिना भावना वाले पुरुष को शांति भी नहीं होती है। फिर शांतिरहित पुरुष को सुख कैसे हो सकता है?






अयुक्त पुरुष को शांति नहीं। युक्त पुरुष को शांति है। अयुक्त पुरुष क्या? युक्त पुरुष क्या? अयुक्त पुरुष को भावना नहीं, शांति नहीं, आनंद नहीं। यह युक्त और अयुक्त का क्या अर्थ है?

अयुक्त का अर्थ है, अपने से ही अलग, अपने होने से ही दूर पड़ गया, अपने से ही बाहर पड़ गया, अपने से ही टूट गया--स्प्लिट।
लेकिन अपने से कोई कैसे टूट सकता है? अपने से कोई कैसे अयुक्त हो सकता है? अपने से टूटना तो असंभव है। अगर हम अपने से ही टूट जाएं, इससे बड़ी असंभव बात कैसे हो सकती है! क्योंकि अपने का मतलब ही यह होता है कि अगर मैं अपने से ही टूट जाऊं, तो मेरे दो अपने हो गए--एक जिससे मैं टूट गया, और एक जो मैं टूटकर हूं। अपने से टूटना हो नहीं सकता।

और अपने से जुड़ने का भी क्या मतलब, अपने से युक्त होने का भी क्या मतलब, जब टूट ही नहीं सकता हूं! तो फिर बात कहां है?
सच में कोई अपने से टूटता नहीं, लेकिन अपने से टूटता है, ऐसा सोच सकता है, ऐसा विचार सकता है। ऐसे भाव, ऐसे सम्मोहन से भर सकता है कि मैं अपने से टूट गया हूं।

आप रात सोए। सपना देखा कि अहमदाबाद में नहीं, कलकत्ते में हूं। कलकत्ते में चले नहीं गए। ऐसे सोए-सोए कलकत्ता जाने का अभी तक कोई उपाय नहीं है। अपनी खाट पर अहमदाबाद में ही पड़े हैं। लेकिन स्वप्न देख रहे हैं कि कलकत्ता पहुंच गए। सुबह जल्दी काम है अहमदाबाद में। अब चित्त बड़ा घबड़ाया, यह तो कलकत्ता आ गए! सुबह काम है। अब वापस अहमदाबाद जाना है! अब सपने में लोगों से पूछ रहे हैं कि अहमदाबाद कैसे जाएं! ट्रेन पकड़ें, हवाई जहाज पकड़ें, बैलगाड़ी से जाएं। जल्दी पहुंचना है, सुबह काम है और यह रात गुजरी जाती है।

आपकी घबड़ाहट उचित है, अनुचित तो नहीं। अहमदाबाद में काम है; कलकत्ते में हैं। बीच में फासला बड़ा है। सुबह करीब आती जाती है। वाहन खोज रहे हैं। लेकिन क्या अहमदाबाद आने के लिए वाहन की जरूरत पड़ेगी? क्योंकि अहमदाबाद से आप गए नहीं हैं क्षणभर को भी, इंचभर को भी। न भी मिले वाहन, तो जैसे ही नींद टूटेगी, पाएंगे कि लौट आए। मिल जाए, तो भी पाएंगे कि लौट आए। असल में गए ही नहीं हैं, लौट आना शब्द ठीक नहीं है। सिर्फ गए के भ्रम में थे।

तो जब कृष्ण कहते हैं, अयुक्त और युक्त, तो वास्तविक फर्क नहीं है। कोई अयुक्त तो होता नहीं कभी, सिर्फ अयुक्त होने के भ्रम में होता है, स्वप्न में होता है। सिर्फ एक ड्रीम क्रिएशन है, एक स्वप्न का भाव है कि अपने से अलग हो गया हूं। युक्त पुरुष वह है, जो इस स्वप्न से जाग गया और उसने देखा कि मैं तो अपने से कभी भी अलग नहीं हुआ हूं।

अयुक्त पुरुष में भावना नहीं होती। क्यों नहीं होती? भावना से मतलब आप मत समझ लेना आपकी भावना, क्योंकि हम सब अयुक्त पुरुष हैं, हममें भावना बहुत है। इसलिए कृष्ण इस भावना की बात नहीं कर रहे होंगे, जो हममें है।

एक आदमी कहता है कि भावना बहुत है। पत्नी मर गई है, रो रहा है। बेटा बीमार पड़ा है, आंसू गिरा रहा है। कहता है, भावना बहुत है। यह भावना नहीं है, यह फीलिंग नहीं है, यह सिर्फ सेंटिमेंटलिटी है। फर्क क्या है? अगर यह भावना नहीं है, सिर्फ भावना का धोखा है, तो फर्क क्या है?

एक आदमी रो रहा है अपने बेटे के पास बैठा हुआ--मेरा बेटा बीमार है और चिकित्सक कहते हैं, बचेगा नहीं, मर जाएगा। रो रहा है; छाती पीट रहा है। उसके प्राणों पर बड़ा संकट है। तभी हवा का एक झोंका आता है और टेबल से एक कागज उड़कर उसके पैरों पर नीचे गिर जाता है। वह उसे यूं ही उठाकर देख लेता है। पाता है कि उसकी पत्नी को लिखा किसी का प्रेम-पत्र है। पता चलता है पत्र को पढ़कर कि बेटा अपना नहीं है, किसी और से पैदा हुआ है। सब भावना विदा हो गई। कोई भावना न रही। दवाई की बोतलें हटा देता है। जहर की बोतलें रख देता है। रात एकांत में गरदन दबा देता है। वही आदमी जो उसे बचाने के लिए कह रहा था, वही आदमी गरदन दबा देता है।

भावना का क्या हुआ? यह कैसी भावना थी? यह भावना नहीं थी। यह मेरे के लिए भावना का मिथ्या भ्रम था। मेरा नहीं, तो बात समाप्त हो गई।

टाल्सटाय ने एक कहानी लिखी है। लिखा है कि एक आदमी का बेटा बहुत दिन से घर के बाहर चला गया। बाप ही क्रोधित हुआ था, इसलिए चला गया था। फिर बाप बूढ़ा होने लगा। बहुत परेशान था। अखबारों में खबर निकाली, संदेशवाहक भेजे। फिर उस बेटे का पत्र आ गया कि मैं आ रहा हूं। आपने बुलाया, तो मैं आता हूं। मैं फलां-फलां दिन, फलां-फलां ट्रेन से आ जाऊंगा।
स्टेशन दूर है, देहात में रहता है बाप। अपनी बग्घी कसकर वह उसे लेने आया। मालगुजार है, जमींदार है। लेकिन उसके आने पर पता चला कि ट्रेन आ चुकी है। वह सोचता था चार बजे आएगी, वह दो बजे आ गई। तो धर्मशाला में ठहरा जाकर। अब अपने बेटे की तलाश करे कि वह कहां गया!

धर्मशाला में कोई जगह खाली नहीं है। धर्मशाला के मैनेजर को उसने कहा कि कोई भी जगह तो खाली करवाओ ही। वह जमींदार है। तो उसने कहा कि अभी एक कोई भिखमंगा-सा आदमी आकर ठहरा है इस कमरे में--उसको निकाल बाहर कर दें? उसने कहा कि निकाल बाहर करो। उसे पता नहीं कि वह उसका बेटा है। उसे निकाल बाहर कर दिया गया। वह अपने कमरे में आराम से...। उसने आदमी भेजे कि गांव में खोजो।

वह बेटा बाहर सीढ़ियों पर बैठा है। सर्द रात उतरने लगी। उस गरीब लड़के ने बार-बार कहा कि मुझे भीतर आ जाने दें, बर्फ पड़ रही है और मुझे बहुत दर्द है पेट में। पर उसने कहा कि यहां गड़बड़ मत करो; भाग जाओ यहां से; रात मेरी नींद हराम मत कर देना। फिर रात पेट की तकलीफ से वह लड़का चीखने लगा। तो उसने नौकरों से उसे उठवाकर सड़क पर फिंकवा दिया।

फिर सुबह वह मर गया। सुबह जब वह जमींदार उठा, तो वह लड़का मरा हुआ पड़ा था। लोगों की भीड़ इकट्ठी थी। लोग कह रहे थे, कौन है, क्या है, कुछ पता लगाओ। किसी ने उसके खीसे में खोज-बीन की तो चिट्ठी मिल गई। तब तो उन्होंने कहा कि अरे, वह जमींदार जिसको खोज रहा है, यह वही है। यह जमींदार को लिखी गई चिट्ठी-पत्री, यह अखबारों की कटिंग! यह उसका लड़का है।

वह जमींदार बाहर बैठकर अपना हुक्का पी रहा है। जैसे ही उसने सुना कि मेरा लड़का है, एकदम भावना आ गई। अब वह छाती पीट रहा है, अब वह रो रहा है। अब उस लड़के को--मरे को--कमरे के अंदर ले गया है। जिंदा को रात नहीं ले गया। मरे को दिन में कमरे के अंदर ले गया। अब उसकी सफाई की जा रही है--मरे पर। मरे को नए कपड़े पहनाए जा रहे हैं! वह जमींदार का बेटा है। अब उसको घर ले जाने की तैयारी चल रही है। और रात उसने कई बार प्रार्थना की, मुझे भीतर आने दो, तो उसको नौकरों से सड़क पर फिंकवा दिया। यह भावना है?

नहीं, यह भावना का धोखा है। भावना मेरेत्तेरे से बंधी नहीं होती, भावना भीतर का सहज भाव है। अगर भावना होती, तो उसे कमरे के बाहर निकालना मुश्किल होता। अगर भावना होती, तो रात उसके पेट में दर्द है, सर्द रात है, बर्फ पड़ती है, उसे बाहर बिठाना मुश्किल होता। यह सवाल नहीं है कि वह कौन है। सवाल यह है कि भाव है भीतर!

ध्यान रहे, भावना स्वयं की स्फुरणा है। दूसरे का सवाल नहीं कि वह कौन है। मर रहा है एक आदमी, नौकरों से फिंकवा दिया उसको उठवाकर!

टाल्सटाय ने जब यह कहानी लिखी, तो उसने अपने संस्मरणों में लिखा है कि यह कहानी मेरी एक अर्थों में आटोबायोग्राफी भी है। यह मेरा आत्मस्मरण भी है। क्योंकि खुद टाल्सटाय शाही परिवार का था।

उसने लिखा है, मेरी मां मैं समझता था बहुत भावनाशील है। लेकिन यह तो मुझे बाद में उदघाटन हुआ कि उसमें भावना जैसी कोई चीज ही नहीं है। क्यों समझता था कि भावना थी? क्योंकि थिएटर में उसके चार-चार रूमाल भीग जाते थे आंसुओं से। जब नाटक चलता और कोई दुख, ट्रेजेडी होती, तो वह ऐसी धुआंधार रोती थी कि नौकर रूमाल लिए खड़े रहते--शाही घर की लड़की थी--तत्काल रूमाल बदलने पड़ते थे। चार-चार, छह-छह, आठ-आठ रूमाल एक नाटक, एक थिएटर में भीग जाते। तो टाल्सटाय ने लिखा है कि मैं उसके बगल में बैठकर देखा करता था, मेरी मां कितनी भावनाशील!

लेकिन जब मैं बड़ा हुआ तब मुझे पता चला कि उसकी बग्घी बाहर छह घोड़ों में जुती खड़ी रहती थी और आज्ञा थी कि कोचवान बग्घी पर ही बैठा रहे। क्योंकि कब उसका मन हो जाए थिएटर से जाने का, तो ऐसा न हो कि एक क्षण को भी कोचवान ढूंढ़ना पड़े। बाहर बर्फ पड़ती रहती और अक्सर ऐसा होता कि वह थिएटर में नाटक देखती, तब तक एक-दो कोचवान मर जाते। उनको फेंक दिया जाता, दूसरा कोचवान तत्काल बिठाकर बग्घी चला दी जाती। वह औरत बाहर आकर देखती कि मुरदे कोचवान को हटाया जा रहा है और जिंदा आदमी को बिठाया जा रहा है। और वह थिएटर के लिए रोती रहती, वह थिएटर में जो ट्रेजेडी हो गई!

तो टाल्सटाय ने लिखा है कि एक अर्थ में यह कहानी मेरी आटोबायोग्राफिकल भी है, आत्म-कथ्यात्मक भी है। ऐसा मैंने अपनी आंख से देखा है। तब मुझे पता चला कि भावना कोई और चीज होगी। फिर यह चीज भावना नहीं है।

जिसको हम भावना कहते हैं, कृष्ण उसको भावना नहीं कह रहे। भावना उठती ही उस व्यक्ति में है, जो अपने से संयुक्त है, जो अपने में युक्त है। युक्त यानी योग को उपलब्ध, युक्त यानी जुड़ गया जो, संयुक्त। अयुक्त अर्थात वियुक्त--जो अपने से जुड़ा हुआ नहीं है। वियुक्त सदा दूसरों से जुड़ा रहता है। युक्त सदा अपने से जुड़ा रहता है।

वियुक्त सदा दूसरों से जुड़ा रहता है। उसके सब लिंक दूसरों से होते हैं। वह किसी का पिता है, किसी का पति है, किसी का मित्र है, किसी का शत्रु है, किसी का बेटा है, किसी का भाई है, किसी की बहन है, किसी की पत्नी है। लेकिन खुद कौन है, इसका उसे कोई पता नहीं होता। उसकी अपने बाबत सब जानकारी दूसरों के बाबत जानकारी होता है। पिता है, अर्थात बेटे से कुछ संबंध है। पति है, यानी पत्नी से कोई संबंध है। उसकी अपने संबंध में सारी खबर दूसरों से जुड़े होने की होती है।

अगर हम उससे पूछें कि नहीं, तू पिता नहीं, भाई नहीं, मित्र नहीं--तू कौन है? हू आर यू? तो वह कहेगा, कैसा फिजूल सवाल पूछते हैं! मैं तो पिता हूं, मैं तो पति हूं, मैं तो क्लर्क हूं, मैं तो मालिक हूं। लेकिन ये सब फंक्शंस हैं। यह सब दूसरों से जुड़े होना है।

अयुक्त व्यक्ति दूसरों से जुड़ा होता है। जो दूसरों से जुड़ा होता है, उसमें भावना कभी पैदा नहीं होती। क्योंकि भावना तभी पैदा होती है, जब कोई अपने से जुड़ता है। जब अपने भीतर के झरनों से कोई जुड़ता है, तब भावना का स्फुरण होता है। जो दूसरों से जुड़ता है, उसमें भावना नहीं होती--एक। जो दूसरों से जुड़ा होता है, वह सदा अशांत होता है--दो। क्योंकि शांति का अर्थ ही अपने भीतर जो संगीत की अनंत धारा बह रही है, उससे संयुक्त हो जाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

शांति का अर्थ है, इनर हार्मनी; शांति का अर्थ है, मैं अपने भीतर तृप्त हूं, संतुष्ट हूं। अगर सब भी चला जाए, चांदत्तारे मिट जाएं, आकाश गिर जाए, पृथ्वी चली जाए, शरीर गिर जाए, मन न रहे, फिर भी मैं जो हूं, काफी हूं--मोर दैन इनफ--जरूरत से ज्यादा, काफी हूं।

पाम्पेई नगर में, पाम्पेई का जब विस्फोट हुआ, ज्वालामुखी फूटा, तो सारा गांव भागा। आधी रात थी। गांव में एक फकीर भी था। कोई अपनी सोने की तिजोरी, कोई अपनी अशर्फियों का बंडल, कोई फर्नीचर, कोई कुछ, कोई कुछ, जो जो बचा सकता है, लोग लेकर भागे। फकीर भी चला भीड़ में; चला, भागा नहीं।

भागने के लिए या तो पीछे कुछ होना चाहिए या आगे कुछ होना चाहिए। भागने के लिए या तो पीछे कुछ होना चाहिए, जिससे भागो; या आगे कुछ होना चाहिए, जिसके लिए भागो।

सारा गांव भाग रहा है, फकीर चल रहा है। लोगों ने उसे धक्के भी दिए और कहा कि यह कोई चलने का वक्त है! भागो। पर उसने कहा, किससे भागूं और किसके लिए भागूं? लोगों ने कहा, पागल हो गए हो! यह कोई वक्त चलने का है। कोई टहल रहे हो तुम! यह कोई तफरीह हो रही है!

उस आदमी ने कहा, लेकिन मैं किससे भागूं! मेरे पीछे कुछ नहीं, मेरे आगे कुछ नहीं। लोगों ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा और उससे कहा कि कुछ बचाकर नहीं लाए! उसने कहा, मेरे सिवाय मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैंने कभी कोई चीज बचाई नहीं, इसलिए खोने का उपाय नहीं है। मैं अकेला काफी हूं।

कोई रो रहा है कि मेरी तिजोरी छूट गई। कोई रो रहा है कि मेरा यह छूट गया। कोई रो रहा है कि मेरा वह छूट गया। सिर्फ एक आदमी उस भीड़ में हंस रहा है। लोग उससे पूछते हैं, तुम हंस क्यों रहे हो? क्या तुम्हारा कुछ छूटा नहीं? वह कहता है कि मैं जितना था, उतना यहां भी हूं। मेरा कुछ भी नहीं छूटा है।

उस अशांत भीड़ में अकेला वही आदमी है, जिसके पास कुछ भी नहीं है। बाकी सब कुछ न कुछ बचाकर लाए हैं, फिर भी अशांत हैं। और वह आदमी कुछ भी बचाकर नहीं लाया और फिर भी शांत है। बात क्या है?

युक्त पुरुष शांत हो जाता है, अयुक्त पुरुष अशांत होता है। ज्ञानी युक्त होकर शांति को उपलब्ध हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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