गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 18

  अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।। २६।।

और यदि तू इसको सदा जन्मने और सदा मरने वाला मानेतो भी हे अर्जुनइस प्रकार शोक करना योग्य नहीं है।


कृष्ण का यह वचन बहुत अदभुत है। यह कृष्ण अपनी तरफ से नहीं बोलतेयह अर्जुन की मजबूरी देखकर कहते हैं। कृष्ण कहते हैंलेकिन तुम कैसे समझ पाओगे कि आत्मा अमर हैतुम कैसे जान पाओगे इस क्षण में कि आत्मा अमर हैछोड़ोतुम यही मान लोजैसा कि तुम्हें मानना सुगम होगा कि आत्मा मर जाती हैसब समाप्त हो जाता है। लेकिन महाबाहो! कृष्ण कहते हैं अर्जुन सेअगर ऐसा ही तुम मानते होतब भी मृत्यु के लिए सोच करना व्यर्थ हो जाता है। जो मिट ही जाता हैउसको मिटाने में इतनी चिंता क्या हैजो मिट ही जाएगा--तुम नहीं मिटाओगे तो भी मिट जाएगा--उसको मिटाने में इतने परेशान क्यों होऔर जो मिट ही जाता हैउसमें हिंसा कैसी?

एक यंत्र को तोड़ते वक्त तो हम नहीं कहते कि हिंसा हो गई। एक घड़ी को फोड़ दें पत्थर पर पटककरतब तो नहीं कहते कि हिंसा हो गईतब तो हम नहीं कहते कि बड़ा पाप हो गया! क्योंक्योंकि कुछ भी तो नहीं था घड़ी मेंजो न मिटने वाला हो।

तो कृष्ण कहते हैंजो मिट ही जाने वाले यंत्र की भांति हैंजिनमें कोई अजरअमर तत्व ही नहीं हैतो मिटा दो इन यंत्रों कोहर्ज क्या हैफिर चिंतित क्यों होते होऔर कल तुम भी मिट जाओगेतो किस पर लगेगा पापकौन होगा भागीदार पाप काकौन भोगेगाकौन किसी यात्रा पर तुम जा रहे होजहां कि इनको मारने का जिम्मा और रिस्पांसिबिलिटी तुम्हारी होने को हैतुम भी नहीं बचोगे। ये भी मर जाएंगेतुम भी मर जाओगेधूल धूल में गिर जाएगी। तो चिंता क्या करते हो?

लेकिन ध्यान रहेयह कृष्ण अपनी तरफ से नहीं बोलते। कृष्ण इतनी बात कहकर अर्जुन की आंखों में देखते होंगेकुछ परिणाम नहीं होता है। परिणाम आसान भी नहीं है। आपकी आंखों में देखूंतो जानता हूं कि नहीं होता है।


आत्मा अमर हैसुनने से नहीं होता है कुछ। देखा होगा कृष्ण ने कि वह अर्जुन वैसा ही निढाल बैठा है। ये बातें उसके सिर पर से गुजर जाती हैं। सुनता है कि आत्मा अमर हैलेकिन उसकी चिंता में कोई अंतर नहीं पड़ता। तो कृष्ण यह वचन मजबूरी में अर्जुन की तरफ से बोलते हैं। वे कहते हैंछोड़ोमुझे छोड़ो। मैं जो कहता हूंउसे जाने दो। फिर ऐसा ही मान लोतुम जो कहते होवही ठीक है। लेकिन ध्यान रहेवे कहते हैंऐसा ही मान लो। कहते हैंऐसा ही स्वीकार कर लेते हैं। तुम जो कहते होवही मान लेते हैं कि आत्मा मर जाती हैतो फिर तुम चिंता कैसे कर रहे होफिर चिंता का कोई भी कारण नहीं। फिर धूल धूल में गिर जाएगी। मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी। पानी पानी में खो जाएगा। आग आग में लीन हो जाएगी। आकाश आकाश में तिरोहित हो जाएगा। फिर चिंता कैसी?

यह अर्जुन के ही तर्क सेअर्जुन की ही ओर से कृष्ण कोशिश करते हैं। यह कृष्ण का वक्तव्य बताता है कि अर्जुन को देखकर कैसी निराशा उन्हें न हुई होगी। यह वक्तव्य बहुत मजबूरी में दिया हुआ वक्तव्य है। यह वक्तव्य खबर देता है कि अर्जुन बैठा सुनता रहा होगा। फिर भी उसकी आंखों में वही प्रश्न रहे होंगेवही चिंता रही होगीवही उदासी रही होगी। सुन लिया होगा उसने और कुछ भी नहीं सुना होगा।

कृष्ण को ऐसा ही लगा होगा। नहीं सुन रहा हैनहीं सुन रहा हैनहीं समझ रहा है। बात भी सुनने और समझने से आने वाली कहां है! कसूर भी उसका क्या है! 

बात अस्तित्वगत हैबात अनुभूतिगत है। मात्र सुनने से कैसे समझ में आ जाएगी?

नहींअभी कृष्ण को और मेहनत लेनी पड़ेगी। और-और आयामों से दरवाजे उसके खटखटाने पड़ेंगे। अभी तक वे जो कह रहे थेपर्वत के शिखर से कह रहे थे। अब वे अंधेरी गली का तर्क ही अंधेरी गली के लिए उपयोग कर रहे हैं।
(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...