मंगलवार, 18 अक्तूबर 2022

वाल्मीकि रामायण

 वाल्मीकि रामायण का अध्ययन यह स्पष्ट करता है कि रामायण का निर्माण कुछ संवाददाताओ या टेली प्रिन्टरों से भेजे गये समाचारों के आधार पर नहीं हुआ। उसका निर्माण महर्षि वाल्मीकि ने समाधिजनित ऋतम्भरा प्रज्ञा के द्वारा अतीत, अनागत, वर्तमान, स्थूल सूक्ष्म, सन्निकृष्ट तथा विप्रकृष्ट सभी वस्तुओं का साक्षात्कार कर के राम, लक्ष्मण, सीता आदि के हसित, भाषित, इङ्गित, चेष्टित आदि सभी व्यापारों का पूर्णरूप से साक्षात्कार किया। महर्षि वाल्मीकि अलौकिक मुनि थे। वे लौकिक गति और दिव्य गति द्वारा भी सब जगह आ जाकर सब वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त कर सकते थे। अतः सेतुबन्धन और समुद्र आदि के सम्बन्ध में रामायण के वर्णन की उपेक्षा नहीं की जा सकती। इनके विषय में वाल्मीकिरामायण ही सबसे बड़ा प्रमाण माना जायेगा ।

  सेतुबन्धन कल्पना नहीं

रामायण में वर्णित रामेश्वर की स्थापना वर्तमान इतिहास से भी प्रमाणित होती है। सहस्राब्दियों से भारत के कोने-कोने से लोग रामेश्वर का दर्शन करने जाते हैं। गङ्गोत्री से जल लेकर अतिप्राचीन काल से धर्मप्राण जनता वहाँ चढ़ाने जाती है। धर्मशास्त्र की मान्यता के अनुसार सेतुबन्ध रामेश्वर के दर्शन से ब्रह्महत्याओं के पाप दूर होते हैं। पुराणों में इन बातों का विशद वर्णन है। कूर्मपुराण पूर्वभाग के इक्कीसवें अध्याय में आये इन श्लोकों से रामेश्वर की महत्ता तथा प्राचीनता स्पष्ट होती है

"यत्त्वया स्थापितं लिङ्गं द्रचयन्तीह द्विजातयः ।

महापातकसंयुतास्तेषां पापं विनश्यतु ।। ४९ ।। 

अन्यानि चैव पापानि स्नातस्यात्र महोदधी । 

दर्शनादेव लिङ्गस्य नाशं यान्ति न संशयः ॥ ५० ॥

 यावत्स्थास्यन्ति गिरयो यावदेषा च मेदिनी ।

यावत्सेतुश्च तावच्च स्थास्याम्यत्र तिरोहितः ॥ ५१ ॥


इसी प्रकार के अन्य वचन स्कन्दपुराण तथा अन्यान्य पुराणों में भी मिलते हैं। इन वचनों तथा मान्य ग्रन्थों के प्रमाणों के अतिरिक्त रामेश्वर नाम ही रामेश्वर की मूर्ति और मन्दिर का भगवान् राम के साथ असाधारण सम्बन्ध स्थापित करता है, अतः सेतुबन्ध रामेश्वर की घटना वाल्मीकिरामायण द्वारा वर्णित रामेश्वर से भिन्न वस्तु नहीं हो सकती ।


सेतुनिर्माण की घटना मात्र कल्पना नहीं है।

वाल्मीकिरामायण में सेतुनिर्माण की प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन किया गया है। उसका प्रारम्भ, समाप्ति और नाप-जोख सबपर इस रामायण में प्रकाश डाला गया है। वालमिकिरामायण के युद्धकाण्ड के २२ वें सर्ग के ५० से ७२ वें श्लोक तक प्रतिदिन कितना निर्माण हुआ, कितने दिनों में सेतु बनकर तैयार हुआ इसका ब्योरेवार वर्णन किया गया है। पूर्ण सेतु का निर्माण पाँच दिनों में हुआ था। प्रथम दिन १४ योजन, दूसरे दिन २०, तीसरे दिन २१, चौथे दिन २२ एवं पांचवे दिन २३ योजन के अनुपात से पांच दिनों में पूर्ण सेतु बन कर तैयार हुआ था। उसकी लम्बाई १०० योजन तथा चौड़ाई १० योजन थी आनुनिक युग में विभिन्न देशों में निर्मित अत्यन्त विशाल सेतुओं की उपस्थिति उक्त सेतुबन्धन की घटना को वास्तविक मानने को बाध्य करती है ।

समुद्र वर्णन तथा दक्षिण भारत की स्थिति

वाल्मीकि रामायण में समुद्र, समुद्र की लहरें, जलजन्तुओं, रत्नों, तटीय वस्तुओं, चन्द्रमा के कारण आने वाले समुद्री ज्वारभाटों तथा समुद्र से सम्बद्ध अन्यान्य वस्तुओं का जितना सजीव वर्णन किया गया है, उसका जीवन्त वर्णन किसी भी ऐसे व्यक्ति के द्वारा सम्भव नहीं है जिसने कभी समुद्र देखा ही न हो। उदाहरण के लिए सुन्दरकाण्ड के प्रथम सर्ग में हनुमानजी द्वारा समुद्र-गमन के समय का वर्णन प्रस्तुत है --

"यं यं देशं समुद्रस्य जगाम स महाकपिः।

 स तु तस्याङ्गवेगेन सोन्माद इव लक्ष्यते ॥ ६६ ॥

सागरस्योमानामुरसा शैलवर्ष्मणा 

अभिनंस्तु महावेगःपुप्लुवे स महाकपिः ॥ ६७ ॥

 

वाल्मीकिरामायण जैसे प्रामाणिक ग्रन्थ में वर्णित वस्तु के विषय में 'अमुक वस्तु अमुक स्थान पर ही रही होगी' की कल्पना निःसार है। उस रामायण में वर्णित वस्तुओं, घटनाओं एवं स्थानों के विषय में तो निश्चितता है, परन्तु आधुनिक लोगों द्वारा तथाकथित अन्वेषणों के विषय में तो अनिश्चय की स्थिति बनी ही हुई हैं। ऐसी स्थिति में निश्चित प्रमाण को छोड़कर अप्रामाणिक की ओर दौड़ना अन्धकारयुक्त मकान में वस्तुओं को खोजने के लिए प्रयास करने के समान है। महर्षि वाल्मीकि ने भगवान् राम के समुद्र तक पहुँचने के विभिन्न मार्गों का विशद वर्णन किया है। आज भी उन्हीं मार्गों से दक्षिण भारत की तीर्थयात्रा होती है । किष्किन्धा में वाली को मारकर राम ने चौमासा किया था। वह किष्किन्धा दक्षिण भारत में आज भी किष्किन्धा नाम से ही प्रसिद्ध है। वाल्मीकिरामायण में वर्णित किष्किन्धा की स्थिति को छोड़कर बिना किसी प्रमाण के बेलारी या अन्य किसी स्थान पर उस स्थान की कल्पना करना वास्तविकता को अस्वीकार करना है। नासिक, पञ्चवटी आदि स्थानों के विषय में भी शङ्काएँ उठायी गयी है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि नासिक का सम्बन्ध रामायण की महत्त्वपूर्ण घटना शूर्पणखा के नासिका छेदन से हैं पञ्चवटी भी वहीं है। रामायण से भी दोनों स्थानों का पास पास होना प्रमाणित होता है। आधुनिक काल में भी पञ्चवटी और नासिक एक ही स्थान पर है। इन स्थानों का वाल्मीकिरामायण के वर्णन से साहचर्य सम्बन्ध प्रतीत होता है। महाकवि ने रामायण में लगभग दो सौ साठ स्थानों का वर्णन किया है। इनमें से अधिकांश स्थान आज भी दक्षिण भारत में ही हैं। गोदावरी, कृष्णा, वरदा आदि नदियां, आन्ध्र, चोल, पाण्डय, केरल आदि स्थान दक्षिण भारत में ज्यों के त्यों विद्यमान हैं ।

समुद्रसम्बन्धी पर्वतों का वर्णन भी स्वाभाविक ढंग से हुआ है। वे पर्वत आज भी विभिन्न नामों से विभिन्न रूपों में अवस्थित हैं। वाल्मीकिरामायण में लङ्का जाते समय हनुमान का महेन्द्र पर्वत किष्किन्धाकाण्ड (सर्ग ६७ श्लोक ३९ ) तथा लौटते समय अरिष्ट पर्वत ( सुन्दरकाण्ड सर्ग ५६ श्लोक २६ ) पर चढ़ना बताया गया है।


इसी तरह सुबेल, सह्य, मलय इत्यादि पर्वतों का भी वर्णन किया गया है। इन सब वाल्मीकिरामायण में वर्णित एवं आधुनिक जगत् में प्रसिद्ध वस्तुओं एवं स्थानों में वाल्मीकिरामायण में वर्णित अर्थ ही प्रमाणित होता है। अतः यह कहना तथ्यों से विपरीत है कि महर्षि वाल्मीकि को दक्षिण भारत की भौगोलिक स्थिति एवं उसके रीति रिवाजों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी । जहाँ तक दक्षिण में शव गाड़ने की प्रथा का प्रश्न है, आधुनिक इतिहास के आधार पर उसे प्रामाणिक नहीं माना जा सकता। आधुनिक इतिहास मात्र ६ हजार वर्ष पुराना है, जब कि वाल्मीकि रामायण में वर्णित वाली के शव दाह की घटना करोड़ों वर्ष पुरानी घटित घटना है। रामायण की संस्कृति सर्वथा वैदिक संस्कृति है । राम, रावण, वाली इत्यादि वैदिक संस्कृति के व्यक्ति थे । हनुमानजी भारतीय संस्कृति के अध्येता थे। वैदिक संस्कृति में 'भस्मान्तं शरीरम्' इत्यादि वेदमन्त्र के अनुसार प्राधान्येन शवदाह का ही समर्थन किया गया है । अतः वाली एवं रावण के शव दाह का आदेश देना वैदिक संस्कृति के अनुसार सर्वथा उपयुक्त था। शव को गाड़ने की कल्पना कथञ्चित् हो तो वह मध्यकाल की बात हो सकती है। इसको दक्षिण भारत का शाश्वतिक धर्म नहीं माना जा सकता । 

उत्तर भारत में भी साधु-सन्यासी, सन्त, महात्मा इत्यादि को जलाया नहीं जाता, उनकी समाधि बनती है। छोटे एवं असंस्कृत बालकों के शव के साथ भी यही होता है। कहीं कहीं प्लेग इत्यादि की बीमारी में मरे वयस्क पुरुषों के शव को भी गाड़ा हो जाता है, उन्हें जलाया नहीं जाता है। हमारे यहाँ शवों के सम्बन्ध में सर्वत्र दहन, खनन एवं प्लावन की परम्परा है। अतः इनमें से किसी मुस्लिमबहुल प्रदेश में कत्रों को देखकर यह निर्विवाद निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि यहाँ केवल का ही बनती रही हैं, उसी प्रकार किसी स्थान विशेष पर शव गाड़ने को प्रक्रिया को लेकर यह नहीं कहा जा सकता कि वहाँ पर सदा शव गाड़े ही जाते रहे हैं। यह बात तात्कालिक ऐतिहासिक हो सकती है पर शाश्वतिक ऐतिहासिक नहीं है ।


जहाँ तक वाल्मीकिरामायण वर्णित स्थानों का प्रश्न है वह अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है। वानरराज सुग्रीव ने बन्दरों द्वारा सीता के अन्वेषण के लिए जिन स्थानों का वर्णन किया है वे अत्यन्त सजीव हैं तथा किसी भी अन्वेषण करनेवाले के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री सिद्ध हो सकते हैं। प्रारम्भ में जो-जो घटनाएँ जिन-जिन स्थानों पर घटित हुई थीं, लङ्का विजय के पश्चात् लौटते समय भगवान् राम ने भगवती सीता से उन सभी स्थानों तथा घटनाओं का वर्णन किया है


"अप पूर्व महादेव प्रसादमकरोद विभुः ।

 एतत्तु दृश्यते तीर्थं सागरस्य महात्मनः ॥ २० ॥ 

सेतुबन्ध इति ख्यातं त्रैलोक्येन च पूजितम्।

 परमं महापातकनाशनम् ॥ २१ ॥

 " "एष सेतुमया बद्धः सागरे लवणार्णवे ।। १६ ।। " "कैलासशिखराकारे त्रिकूटशिखरे स्थितम् । 

लङ्कामीक्षस्व वेदेहि निर्मितां विश्वकर्मणा ३ ॥ 

" "यत्र त्वं राक्षसेन्द्रेण रावणेन हृता बलात् । 

एषा गोदावरी रम्या प्रसन्नसलिला शुभा ॥४५॥ " ( वा० रा० ६ । सर्ग १२३)

इसी तरह हिरण्यनाम पर्वत १८, किष्किन्धा २२, ऋष्यमूक ३८, पम्पा ४०, पर्णशाला आश्रम ४२-४४, शबरीमिलन स्थल ४१ अगस्त्य एवं शरभङ्ग मुनियों के आश्रम ४६, चित्रकूट ४९, भरद्वाज आश्रम ५१, श्रृंगवेरपुर ५२ इत्यादि स्थानों का वर्णन भगवान् राम ने किया है। इस प्रकार स्पष्ट है कि वाल्मीकि रामायण वर्णित स्थान पूर्ण प्रामाणिक हैं। अभी भी उन स्थानों की उपस्थिति तथा तीर्थ की दृष्टि से उनके महत्व पर किसी भी मान्य विद्वान् ने अपना मतभेद नहीं व्यक्त किया है।  विद्वानों वाल्मीकिरामायण को पूर्ण प्रामाणिक ग्रन्थ माना है । फिर उसी ग्रन्थ के किसी अंश को क्यों अप्रामाणिक माना जाय यह तर्क की दृष्टि से समझ में नहीं आता। ऐसा करना किसी मुर्गी के आधे अङ्ग को पकाकर खा जाने तथा आधे अंग को अण्डा देने के लिए रख छोड़ने की घटना के समान है।

लंका की स्थिति


ऊपर यह स्पष्ट किया जा चुका है कि रामायण में वर्णित स्थानों के लिए वाल्मीकिरामायण ही सबसे बड़ा प्रामाणिक ग्रन्थ है। इस रामायण के अनुसार लङ्का समुद्र तट से सौ योजन दूर थी। इन लोगों द्वारा अभी तो पूर्वी मध्यप्रदेश, दक्षिणी विहार, पश्चिमी बंगाल एवं छोटा नागपुर के आस-पास लङ्का की स्थिति का निर्धारण करना है। उसके लिए अभी कोई प्रमाण भी नहीं है । आज भी लङ्का नाम से ही जब प्रसिद्ध द्वीप है तब फिर 'लक्का' को 'लङ्का' कहा होगा, यह कहने की आवश्यकता ही क्या है ? यह नहीं कहा जा सकता कि लङ्का नाम की कोई चीज नहीं थी। वर्तमान श्रीलङ्का भी हमारे मत में रावण की लङ्का नहीं है। इस लङ्का का दूसरा नाम सिलोन भी है। सिंहल के ग्रन्थों में इस सिंहलद्वीप को रावण की लङ्का से विभिन्न बतलाया गया है। भारतीय पौराणिक भूगोल के अनुसार आज की श्रीलङ्का महाभारत का सिंहलद्वीप ही है। वास्तविकता यह है कि वाल्मीकिरामायण में वर्णित रावण को लङ्का सर्वसाधारण के लिए आज लुप्त हो गयी है। वहाँ दीर्घजीवी लोग रहते हैं। वे सामान्य व्यक्तियों द्वारा नहीं देखे जा सकते। आधुनिक भूगोलवेत्ता भी यह मानते हैं कि सहस्राब्दियों में भूगोल में पर्याप्त परिवर्तन हो जाया करता है। यह मान्यता बहुसम्मत है कि जहाँ आज हिमालय है वहाँ पहले समुद्र था। कुछ टीले ऐसे रहे होंगे जो इस समय आस्ट्रेलिया की ओर बढ़ गये होंगे। अतः रावण की लङ्का आध्यात्मिक एवं भौगोलिक दोनों कारणों से ही लुप्त हो गयी है । लङ्का को मध्य प्रदेश अथवा इधर-उधर खोजना एक व्यर्थं का प्रयास है। वाल्मीकिरामायण की कतिपय घटनाओं को अप्रामाणिक मानने के लिए कुछ भी ठोस तर्क प्रस्तुत नहीं किये गये हैं।


जहाँ तक रावण की जाति एवं संस्कृति का सम्बन्ध है, वाल्मीकिरामायण के अनुसार वह वैदिक संस्कृति में दीक्षित कर्मनिष्ठ ब्राह्मण था वह परम तपस्वी पुलस्त्य का पौत्र तथा विश्रवा मुनि का पुत्र था। आज भी भारत में पुलस्त्य गोत्र प्रचलित है। इन प्रमाणों के रहते हुए भी उसे दूसरी जाति का व्यक्ति मानने की निराधार कल्पना करना सर्वथा अनुचित है ।


यह सही है कि वाल्मीकिरामायण की कथाएँ युगों से गायी जाती रही हैं। ऐसी स्थिति में यदि उन कथाओं में प्रमाणविरुद्ध अंश आ जाय तो उसमें कुछ कल्पना का अंश आ सकता है। पर इन कथाओं में ऐसी कोई प्रमाणविरुद्ध बातें नहीं पायी गयी हैं। इसके विपरीत युगों से प्रचलित इन कथाओं में आश्चर्यजनक रूप से एकरूपता बनी हुई है। यह तथ्य वाल्मीकिरामायण की प्रामाणिकता के लिए सबसे बड़ा आधार है। हमारे यहाँ वेदों की आचार्य परम्परा मानी जाती है। गुरु-शिष्य-सम्प्रदाय-परम्परा से जैसे वेदों की रक्षा होती रही है, वैसे ही गुरु-शिष्यों की परम्परा से ही रामायण तथा पुराणों की भी रक्षा होती रही हैं। इसलिए रामायण में यदि कोई नयी चीज प्रविष्ट हुई तो उसे रामायण का प्रसिद्ध अंश न मानकर क्षेपक की संज्ञा दे दी गयी । वाल्मीकि रामायण के टीकाकारों ने तत्तत् क्षेपकों को न मानने का हेतु यही आधार बताया कि 'यहाँ सम्प्रदाय प्राप्त व्याख्या नहीं है, अतः क्षेपक प्रमाण नहीं माने जा सकते। इसी सम्प्रदाय विशेष के कारण ही वाल्मीकिरामायण के मौलिक रूप की रक्षा होती रही है। अतः यह कहना ठीक नहीं है कि "वाल्मीकिरामायण की कथाओं में कालान्तर में व्यापक काटछाँट की गयी ।" रामायण में महाभारत की चर्चा नहीं है। इधर काव्यों में तथा कालिदास अश्वघोष प्रभृति कवियों ने भी रामायण की चर्चा की है। बौद्ध जातकों तथा जैन पउमचरियं में रामायण का वर्णन है। इनके आधार पर ही रामकथाओं के भिन्न रूप बने भी हैं। अनेक विदेशी विद्वानों ने भी रामकथा के सम्बन्ध में वाल्मीकिरामायण को हो सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक ग्रन्थ माना है। भारतीय संस्कृति का सन्देशवाहक यह महान् ग्रन्थ रामकथासागर में युगों से भारतीयों को गोता लगवाकर आज भी प्रत्येक भारतीय को उसमें गोता लगवाकर उनके जीवन को मानवता के उदात्त आदर्शों के अनुसार जीने की पवित्र प्रेरणा दे रहा है। ऐसे प्रामाणिक ग्रंथ को छोड़कर निरावार कल्पना के सहारे नयी खोजों का दावा करना बौद्धिकस्तर से नीचे उतरने की बात है ।


आधुनिक लोग के अयोध्या, अरण्य, किष्किन्धा, सुन्दर एवं लङ्का इन पाँच ही काण्डों को प्रामाणिक मानते हैं, जो सर्वथा अनुचित है। वैसे तो वाल्मीकिरामायण में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक सर्वत्र ही  राम को विष्णु का अवतार माना गया है। अतः राम को गुप्तकाल में विष्णु का अवतार कहा गया, यह बात पूर्णतया गलत है।


उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि वाल्मीकिरामायण की सभी घटनाएँ पूर्ण प्रामाणिक हैं। भारतीय संस्कृति, परम्परा तथा धार्मिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के मूल रहस्य इसी ग्रन्थ में सुरक्षित हैं। मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम को आधुनिक इतिहास की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। किसी मान्य ग्रन्थ के कुछ अंशों को प्रामाणिक तथा कुछ को अपनी आधारहीन बातों को सिद्ध न कर सकने की दशा में अप्रामाणिक मानने की दुराग्रही दृष्टि का परित्याग करना इस समय अत्यावश्यक है। सभी लोगों को धार्मिक तथा आध्यात्मिक ग्रन्थों की बातों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने के प्रयास से अपने को दूर रखने का प्रयास करना चाहिये ।


धार्मिक ग्रन्थों के विषय में ऐसी बातों से तनाव एवं विवाद का वातावरण पैदा हो जाता है। हमें ऐसा कोई भी कार्य नहीं करना है जिससे इस समय देश में कोई दूसरी समस्या उपस्थित हो। रामायण की घटनाओं के विषय में धर्माचार्यों का निर्णय ही एकमात्र दिशानिर्देक होना चाहिये।  

रामायणमीमांसा से साभार

हरिओम सिगंल 






कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...