गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 4

  

अर्जुन उवाच:

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।। 4।।


अर्जुन ने पूछा, हे भगवान! आपका जन्म तो आधुनिक अर्थात अब हुआ है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है। इसलिए इस योग को कल्प के आदि में आपने कहा था, यह मैं कैसे जानूं?



कृष्ण ने कहा है कि मैंने ही समय के पहले, सृष्टि के पूर्व में, आदि में सूर्य को कही थी यही बात। फिर सूर्य ने मनु को कही, मनु ने इक्ष्वाकु को कही और ऐसे अनंत-अनंत लोगों ने अनंत-अनंत लोगों से कही। स्वभावतः, अर्जुन के मन में सवाल उठे, आश्चर्य नहीं है। वह पूछता है, आपका जन्म तो अभी हुआ; सूर्य का जन्म तो बहुत पहले हुआ। आपने कैसे कही होगी सूर्य से यह बात?

कृष्ण खींचने की कोशिश करते हैं अर्जुन को, कि छलांग ले। अर्जुन सिकुड़कर अपनी खाई में समा जाता है। वह जो सवाल उठाता है, वे सब सिकुड़ने वाले हैं। वह कहता है, मैं कैसे भरोसा करूं?


अब यह बड़े मजे की बात है। यह ध्यान रहे कि जो आदमी पूछता है, मैं कैसे भरोसा करूं, उसे भरोसा करना बहुत मुश्किल है। या तो भरोसा होता है या नहीं होता है। कैसे भरोसा बहुत मुश्किल है।

जो आदमी कहता है, कैसे भरोसा करूं? दूसरी बात के उत्तर में भी वह कहेगा, कैसे भरोसा करूं? यह कैसे भरोसे का सवाल, इनफिनिट रिग्रेस है। इसका कोई अंत नहीं है।

भरोसा किया जा सकता, नहीं किया जा सकता। लेकिन अगर किसी ने पूछा, कैसे भरोसा करूं, हाउ टु बिलीव, कैसे करूं विश्वास? फिर कठिन है। कठिन इसलिए है कि कैसे का सवाल ही अविश्वास में और गैर-भरोसे में ले जाता है।

अर्जुन संदिग्ध हो गया। यह कैसे हो सकता है? एब्सर्ड, बिलकुल व्यर्थ की बात है; असंगत। संगति भी नहीं, तर्क भी नहीं। कहते हैं, सूर्य को कही थी मैंने यही बात।

देखें, कैसा मजा है! कृष्ण चाहते हैं कि अर्जुन को भरोसा आ जाए, इसलिए वे कहते हैं, सूर्य को भी मैंने कहा था, तुझसे भी वही कहता हूं। कृष्ण चाहते हैं जिससे भरोसा आ जाए; अर्जुन के लिए वही गैर-भरोसे का कारण हो जाता है।

पूछता है, सूर्य से, आपने? आप अभी पैदा हुए, सूर्य कब का पैदा हुआ! जो बात कृष्ण ने कही है, अर्जुन उसके संबंध में सवाल नहीं उठा रहा। वह सत्य क्या है, जो सूर्य से कहा था आपने, वह यह नहीं पूछता। कंटेंट के बाबत उसका सवाल नहीं है। उसका सवाल उस व्यवस्था और कंटेनर के बाबत है, जो कृष्ण ने मौजूद किया। वह कहता है कि कैसे मानूं?

यह ध्यान देने की बात है कि आज तक जगत में सत्य को जानने वाले लोगों ने न जानने वाले लोगों के मन में भरोसे के लिए जितने उपाय किए हैं, न जानने वाले भी कमजोर नहीं हैं, उन्होंने उन सब उपायों को भरोसा न करने का उपाय बना लिया।



जानने वालों ने जितने भी उपाय किए हैं कि न जानने वालों और उनके बीच में भरोसे का एक सेतु पैदा हो जाए कि जिसके आधार पर सत्य कहा जा सके; लेकिन न जानने वाले भी अपने न जानने की जिद्द में उस सेतु को टिकने ही नहीं देते। उस सेतु से जो आएगा, उसकी तो बात ही नहीं है। पहले तो वे उस सेतु पर ही संदेह खड़ा करते हैं कि यह सेतु हो कैसे सकता है?

कृष्ण तो कहते हैं, मैं सखा, मित्र, प्रिय! अर्जुन जो सवाल उठाता है, वह बहुत प्रेमपूर्ण नहीं है। क्योंकि प्रेम भरोसा है। प्रेम भरोसा है, निष्प्रश्न भरोसा। जहां सवाल है भरोसे पर, कि क्यों? वहां प्रेम नहीं है। वहां प्रेम का अभाव है।

कभी आपने खयाल किया है कि जब भी जीवन में प्रेम की घड़ी होती है, तब आप क्यों, कैसे, क्या--सब भूल जाते हैं। प्रेम एकदम भरोसा ले आता है। और अगर प्रेम भरोसा न ला पाए, तो फिर प्रेम कुछ भी नहीं ला सकता। और अगर प्रेम भरोसा न ला पाए, तो प्रेम है ही नहीं।

अर्जुन पूछता है, मानने योग्य नहीं लगती यह बात! यह भी समझ लेने जैसा जरूरी है कि कृष्ण ने क्या कहा था!

सुबह मैंने आपको कहा था, कृष्ण जब कह रहे हैं कि यही मैंने कहा था, तो यह तो कृष्ण भी जानते हैं कि यह शरीर तो अभी पैदा हुआ। यह अर्जुन ही पूछे, तब कृष्ण जानेंगे, ऐसा नहीं है। यह कृष्ण भी जानते हैं कि यह शरीर तो अभी पैदा हुआ है। और अगर इतना भी कृष्ण नहीं जानते, तो बाकी और कुछ पूछना उनसे व्यर्थ है।

बहुत बार जिन्होंने जाना है, उन्होंने न जानने वालों को तो सलाह दी ही है; जो नहीं जानते हैं, वे भी जानने वालों को सलाह देने पहुंच जाते हैं। इस बात को भी भूलकर कि जब जानने वालों को भी आपकी सलाह की जरूरत पड़ती है, तो फिर अब उसकी सलाह की आपको कोई जरूरत नहीं रह गई।

लेकिन वह भीतर की घटना तो हमारी बाहर की आंखों को दिखाई नहीं पड़ती। अर्जुन को भी न दिखाई पड़ी, तो आश्चर्य नहीं है।

अर्जुन ठीक हमारे जैसा सोचने वाला आदमी है, ठीक तर्क से, गणित से, हिसाब से। वह कहता है, आप? स्वभावतः, जो सामने तस्वीर दिखाई पड़ रही है कृष्ण की, वह सोचता है, यही आदमी कहता है? तो इसकी तो जन्मत्तारीख पता है। सूर्य की तो जन्मत्तारीख कुछ पता नहीं है। और यह आदमी जिस दिन पैदा हुआ, उस दिन भी सूरज निकला था। उसके पहले भी निकलता रहा है।

उसका सवाल ठीक मालूम पड़ता है। हमें भी ठीक मालूम पड़ेगा। लेकिन वह इस भीतर के आदमी को देखने में असमर्थ है; हम भी असमर्थ हैं।

कृष्ण जिसकी बात कर रहे हैं, वह इस शरीर की बात नहीं है। वह उस आत्मा की बात है, जो न मालूम कितने शरीर ले चुकी और छोड़ चुकी, वस्त्रों की भांति। न मालूम कितने शरीर जरा-जीर्ण हुए, पुराने पड़े और छूटे! वह उस आत्मा की बात है, जो मूलतः परमात्मा से एक है। वह सूर्य के पहले भी थी। सूर्य बुझ जाएगा, उसके बाद भी होगी।

जहां तक शरीरों का संबंध है, यह सूर्य हमारे जैसे न मालूम कितने करोड़ों शरीरों को बुझा देगा और नहीं बुझेगा। लेकिन जहां तक भीतर के तत्व का संबंध है, ऐसे सूरज जैसे करोड़ों सूरज बुझ जाएंगे और वह भीतर का तत्व नहीं बुझेगा।

लेकिन उसका अर्जुन को कोई खयाल नहीं है, इसलिए वह सवाल उठाता है। उसका सवाल, अर्जुन की तरफ से संगत, कृष्ण की तरफ से बिलकुल असंगत। अर्जुन की तरफ से बिलकुल तर्कयुक्त, कृष्ण की तरफ से बिलकुल अंधा। अर्जुन की तरफ से बड़ा सार्थक, कृष्ण की तरफ से अत्यंत मूढ़तापूर्ण। लेकिन अर्जुन क्या कर सकता है! कृष्ण की तरफ से होगा मूढ़तापूर्ण, उसकी तरफ से तो बहुत तर्कपूर्ण है। यद्यपि अंततः सभी तर्क अत्यंत मूर्खतापूर्ण सिद्ध होते हैं, लेकिन जब तक वे ऊंचाइयां नहीं मिलीं, तब तक अर्जुन की भी मजबूरी है। और उसका सवाल उसकी तरफ से बिलकुल संगत है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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