गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 3 भाग 10

  

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।। १०।।


प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजा को रचकर कहा कि इस यज्ञ द्वारा तुम वृद्धि को प्राप्त होओ   और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित कामनाओं को देने   वाला होवे।


यज्ञपूर्वक कर्म, इसे कहने के ठीक पीछे कृष्ण कहते हैं, सृष्टि के प्रथम क्षण में स्रष्टा ने भी ऐसे ही यज्ञरूपी कर्म का विस्तार किया है।

इसे भी थोड़ा समझ लेना उपयोगी है।

हम निरंतर परमात्मा को स्रष्टा कहते हैं। हम निरंतर परमात्मा को बनाने वाला,  कहते हैं। लेकिन बनाना, सृजन, निर्माण--किसी भी चीज का--दो ढंग से हो सकता है। अगर परमात्मा भी मैं के भाव से सृजन करे, तो वह यज्ञ नहीं रह जाएगा। परमात्मा के लिए यह सृजन बिलकुल  मैं-भाव से रिक्त और शून्य है। कहना चाहिए, यह सारी सृष्टि परमात्मा के लिए सहज आविर्भाव  है। मैं सृजन करूं, मैं बनाऊं, ऐसा कहीं कोई भाव नहीं है। हो भी नहीं सकता। क्योंकि मैं सिर्फ वहीं पैदा होता है, जहां तू की संभावना हो। परमात्मा के लिए कोई भी तू नहीं है, अकेला है। इसलिए मैं का कोई भाव परमात्मा में नहीं हो सकता। और जिस दिन हम में भी मैं का कोई भाव नहीं रह जाता, हम परमात्मा के हिस्से हो जाते हैं।

यह सारी सृष्टि परमात्मा के भीतर किसी वासना के कारण नहीं है, फल नहीं है। यह सारी सृष्टि, कहना चाहिए, परमात्मा का स्वभाव है। ऐसे ही जैसे बीज टूटकर अंकुर बन जाता है और जैसे अंकुर टूटकर वृक्ष बन जाता है और जैसे वृक्ष फूलों से भर जाता है, ठीक ऐसे ही परमात्मा के लिए सृष्टि अलग चीज नहीं है। परमात्मा का स्वभाव है।


इसलिए मैं निरंतर एक बात कहना पसंद करता हूं कि हम परमात्मा को क्रिएटर कहकर थोड़ी-सी गलती करते हैं, स्रष्टा कहकर थोड़ी-सी गलती करते हैं। क्योंकि जब हम परमात्मा को स्रष्टा कहते हैं, तो हम सृष्टि और स्रष्टा को अलग तोड़ देते हैं। ऐसा नहीं है। ज्यादा उचित होगा कि हम परमात्मा को स्रष्टा न कहकर, सृजन की प्रक्रिया कहें।  ज्यादा उचित होगा कि हम सृष्टि और स्रष्टा को दो में न तोड़ें, बल्कि एक में ही रखें। वही है।

प्रथम दिन--कहने के लिए प्रथम दिन, बात करने के लिए प्रथम दिन, अन्यथा सृष्टि के लिए कोई प्रथम दिन नहीं है और कोई अंतिम दिन नहीं है--कृष्ण कह रहे हैं, प्रथम दिन जगत का स्रष्टा जगत को जो जीवन, गति और सृजन देता, वह भी यज्ञ है। और जिस दिन कोई दूसरा व्यक्ति भी उसी तरह यज्ञरूपी कर्म में संयुक्त हो जाता है, वह भी स्रष्टा का हिस्सा हो जाता है, वह भी उसका अंग हो जाता है।

परमात्मा इस बड़े सृजन को फैलाकर भी निरंतर यही कह रहा है, इस बड़ी धारा को चलाकर निरंतर यही कह रहा है--पहले दिन, बीच के दिन, आखिरी दिन--एक ही बात है कि हम इस छोटे-से मैं को बीच में न ले आएं। उस मैं के कारण ही सारा उपद्रव, सारा विघ्न, सारा उत्पात खड़ा हो जाता है। उस मैं के आस-पास ही कर्म बंधन बन जाता है। जैसे परमात्मा मुक्त...।

कभी आपने खयाल किया कि परमात्मा कहीं दिखाई नहीं पड़ता। सृष्टि दिखाई पड़ती है और स्रष्टा दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन कभी सोचा आपने कि इसका कारण क्या होगा? अनेक लोग कहते हैं, ईश्वर कहां है? असल में जिसका मैं नहीं है, वह दिखाई कहां पड़े! असल में जिसको कभी खयाल ही नहीं आया कि मैंने सृष्टि की है, वह दिखाई कहां पड़े! जो किया है, वह दिखाई पड़ रहा है और करने वाला बिलकुल दिखाई नहीं पड़ रहा है! कर्ता बिलकुल अदृश्य है और कर्म बिलकुल दृश्य है।

ऐसे ही कृष्ण कह रहे हैं कि तू ऐसे कर्म में जूझ जा कि कर्म ही दिखाई पड़े और कर्ता बिलकुल दिखाई न पड़े; कर्ता रहे ही न।

परमात्मा को देखते  है। संसार बहुत मौजूद है और परमात्मा बिलकुल गैर-मौजूद है। असल में जिसके पास अहंकार नहीं, वह मौजूद हो भी कैसे सकता है! उसके मौजूद होने का कोई उपाय भी तो नहीं है, वह गैर-मौजूद ही हो सकता है।  उसकी अनुपस्थिति ही उसकी मौजूदगी है।


कृष्ण अर्जुन से यही कह रहे हैं, तू छाया भर हो जा, इस मैं को जाने दे। तू जी, श्वास ले, कर्म कर। भाग मत। क्योंकि भागने में भी तेरा अहंकार तो बना ही रहेगा कि मैं बच निकला, मैं भाग निकला। मैं हूं। मैंने अपने को बंधन से बचा लिया, कर्म से बचा लिया। तेरा मैं तो जाएगा नहीं; बंधन मौजूद होगा। तू तो इतना ही भर कर कि मैं को छोड़ दे और यज्ञरूपी कर्म में प्रवृत्त हो जा। जैसे पूरा परमात्मा जगत को यज्ञरूपी कर्म में निर्मित कर रहा है, ऐसे ही तू भी उसका एक हिस्सा हो जा, तो तू मुक्त हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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