गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 3 भाग 23

  

प्रकृतेर्गुणसंमूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसुः।

तानकृत्स्नविदोमन्दान्कृत्स्नविन्नविचालयेत्।। २९।।


और प्रकृति के गुणों से मोहित हुए पुरुष गुण और कर्मों में आसक्त होते हैं। उन अच्छी प्रकार न समझने वाले मूर्खों को, अच्छी प्रकार जानने वाला ज्ञानी पुरुष चलायमान न करे।



बहुत कीमती सूत्र कृष्ण इसमें कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, प्रकृति के गुणों से मोहित हुए...।

इस मोहित शब्द को थोड़ा गहरे में समझना जरूरी है। मोहित हुए अर्थात सम्मोहित हुए, हिप्नोटाइज्ड। सुना होगा आपने कि सिंह के सामने शिकार जब जाता है, तो भाग नहीं पाता, सम्मोहित हो जाता है, हिप्नोटाइज्ड हो जाता है, खड़ा रह जाता है; भूल ही जाता है कि भागना है। सिंह की आंखों में देखता हुआ अवरुद्ध हो जाता है, मैग्नेटाइज्ड हो जाता है, रुक ही जाता है। भागना ही भूल जाता है। यह भी भूल जाता है कि मृत्यु सामने खड़ी है। अजगर के बाबत तो कहा जाता है कि शिकार अपने आप खिंचा हुआ उसके पास चला आता है। आकाश में उड़ता हुआ पक्षी खिंचता हुआ चला आता है; कोई परवश, कोई खींचे चला जाता है।


संस्कृत का यह शब्द है, पशु। इसका मतलब इतना ही होता है कि जो पाश में बंधा हुआ खिंचा चला आता है, उसे पशु कहते हैं। जैसे एक गाय को हमने बांध लिया रस्सी में और खींचे चले आ रहे हैं। गाय पाश में बंधी हुई खिंची चली आती है। ऐसे ही प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति के गुणों में खिंचा हुआ पशु की तरह वर्तन करता है, मोहित हो जाता है, हिप्नोटाइज्ड हो जाता है। इसमें दोत्तीन बातें हिप्नोटिज्म की खयाल में लें, तो खयाल में आ सकेगा।

एक चेहरा सुंदर लगता है आपको, खिंचे चले जाते हैं। लेकिन कभी आपने सोचा है कि चेहरे में क्या सौंदर्य हो सकता है! आप कहेंगे, होता है, बिलकुल होता है। लेकिन फिर आपको सम्मोहन के संबंध में बहुत पता नहीं है। 

कृष्ण कह रहे हैं, प्रकृति के गुणों से मोहित हुआ पुरुष...।

वही दुख है, वही पीड़ा है सब की। हम किन-किन चीजों से मोहित होते हैं, जरा खयाल करना, तो बड़ी हैरानी होगी। अगर चित्र देखें, फिल्म देखें, पेंटिंग्स देखें, कविताएं उठाएं, नाटक पढ़ें, उपन्यास देखें; अगर सारी मनुष्य जाति का पूरा का पूरा साहित्य, जिसको हम बड़ा भारी साहित्य कहते हैं, उसे उठाकर देखें, तो बड़ी हैरानी होगी। कुछ चीजों से जनून आदमी को पैदा हो गया है, पागल की तरह। और किसी को खयाल में नहीं है कि क्या हो गया है। और कभी खयाल में नहीं आता कि प्रकृति के गुण इस भांति मोहित कर सकते हैं!

अब स्त्रियों के स्तन सारी मनुष्य जाति को पीड़ित किए हुए हैं। सारे चित्र, सारी तस्वीरें, कविताएं, साहित्य, उन्हीं से भरा हुआ है। सब कवि, सब चित्रकार पागल मालूम पड़ते हैं। स्त्री के स्तन में क्या है? लेकिन छोटे बच्चे की पहली पहचान स्तन से होती है। पहला प्रेम और पहला ज्ञान स्तन से जुड़ता है। पहला एसोसिएशन, उसके दिमाग में पहला इंप्रेशन स्तन का बनता है। फिर वह जिंदगीभर पीछा करता है। वह सम्मोहित हो गया। अब वह बूढ़ा हो गया, अभी भी वह स्तन से सम्मोहित है।

यह बचपन में पड़ी पहली छाप है। इसको बायोलाजिस्ट कहते हैं, यह ट्रॉमेटिक इंप्रेशन (दुर्घटना प्रभाव) है। वे कहते हैं, चूंकि बच्चे के चित्त पर सबसे पहली छाप मां के स्तन की पड़ती है, इसलिए बुढ़ापे के मरते दम तक स्तन पीछा करता है। और कुछ भी नहीं। बस, सम्मोहित हो गया आदमी; फिर बड़े से बड़ा कालिदास हो, कि भवभूति हो, कि पिकासो हो, कि कोई भी हो, बड़े से बड़ा चित्रकार, बड़े से बड़ा कवि, बस वह उसी में उलझा हुआ है। आश्चर्यजनक है।

लेकिन कृष्ण कहते हैं, प्रकृति के गुण को न समझने से और उनसे सम्मोहित हो जाने से, हिप्नोटाइज्ड हो जाने से आदमी अज्ञान में, मोह में, आसक्ति में, दुख में पड़ता है। और नासमझों से भरा हुआ जगत है। ये सभी इसी तरह...मनोवैज्ञानिक फेटिश शब्द का प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं, आदमी अंगों से प्रभावित हो तो हो, वस्त्रों से, वस्तुओं से, उन तक से प्रभावित और पागल हो जाता है। उन सबसे भी उसके संबंध जुड़ जाते हैं और उनके पीछे भी वह उसी तरह मोहित होकर घूमने लगता है। यह जो स्थिति है चित्त की, इस स्थिति से जो नहीं जागेगा, वह कभी धर्म के सत्य को नहीं जान सकता। वह सिर्फ प्रकृति के गुणों में ही भटकता रहेगा।

रंग मोहित करते हैं। अब रंगों में क्या हो सकता है? लेकिन भारी मोहित करते हैं। किसी को एक रंग अच्छा लगता है, तो वह दीवाना हो जाता है। उसको पागल किया जा सकता है, उसी रंग के साथ। बहुत बड़ा चित्रकार हुआ वानगाग, वह पीले रंग से आब्सेस्ड था। पीला रंग देखे, तो पागल हो जाए। धूप में खड़ा रहे, सूरज की धूप में खड़ा रहे, क्योंकि पीली धूप बरसे। जहां पीले फूल खिल जाएं, फिर वह घर के भीतर न आ सकता था। एक साल आरलिस की धूप में खड़े होकर वह पीले रंग को देखता रहा। और इतनी धूप में खड़े होने की वजह से पागल हुआ, दिमाग विक्षिप्त हो गया। लेकिन पीला रंग उसके लिए पागलपन था। जरूर कहीं बचपन में कोई ट्रॉमेटिक एक्सपीरिएंस, बचपन में कभी कोई ऐसी घटना घट गई, जिससे वह पीले रंग से बिलकुल आब्सेस्ड हो गया।


यह अर्जुन को क्या हो गया! इतना बहादुर आदमी, जिसे कभी सवाल न उठे, अचानक युद्ध के मैदान पर खड़ा होकर इतना शिथिल, इतना निर्वीर्य क्यों हुआ जा रहा है? हुआ जा रहा है, क्योंकि बचपन से जिन्हें अपना जाना, आज उनसे ही लड़ने की नौबत है। बचपन से जिन्हें मेरा माना, आज उनसे ही लड़ने की नौबत है। बचपन से कोई भाई था, कोई बंधु था, कोई महापिता थे, कोई कोई था, कोई ससुर था, कोई रिश्तेदार था, कोई मित्र था, कोई गुरु थे, वे सब सामने खड़े हैं। वह सब मेरा घिरकर सामने खड़ा है। और उस मेरे पर हाथ उठाने की हिम्मत अब उसको नहीं होती है। ऐसा नहीं है कि वह कोई अहिंसक हो गया है। ऐसा कुछ भी नहीं है। अगर ये मेरे न होते, तो वह युद्ध में इनको जड़-मूल से काटकर रख देता। उसका हाथ ठहरता भी नहीं। उसकी श्वास रुकती भी नहीं। वह इनको काटने में सब्जी काटने जैसा व्यवहार करता। लेकिन कहां कठिनाई आ गई है? वह मेरा उसका आब्सेशन है। वह मेरा उसका सम्मोहन बन गया है।

कृष्ण कह रहे हैं, प्रकृति में गुण हैं, अर्जुन। और आदमी उनसे मोहित होकर जीता है। साधारण आदमी उनसे मोहित होकर जीता है। वही मोह उसे अंधेरे में घेरे रखता है और वही मोह उसे अंधेरे में धक्का दिए चला जाता है। ज्ञानी पुरुष को एक तो अपने इस सम्मोहन से मुक्त हो जाना चाहिए।

ज्ञानी पुरुष का अर्थ है, डिहिप्नोटाइज्ड, जिसको अब कोई चीज सम्मोहित नहीं करती। रुपया उसके सामने रखें, तो उसे वही दिखाई पड़ता है, जो है। लेकिन रुपए से जो सम्मोहित होता है, उसे रुपया नहीं दिखाई पड़ता। उसे न मालूम क्या-क्या दिखाई पड़ने लगता है! वह शेखचिल्ली की कहानियों में चला जाता है। उसे रुपए में दिखाई पड़ता है कि अब एक से दस हो जाएंगे, दस से हजार हो जाएंगे, हजार से करोड़ हो जाएंगे; और सारी दुनिया ही जीत लूंगा और न मालूम क्या-क्या उस रुपए में स्वप्न उठने लगते हैं। उस एक पड़े हुए रुपए में हजार स्वप्न पैदा होने लगते हैं। लेकिन जिसे सम्मोहन नहीं है, उसे रुपए का ठीकरा ही दिखाई पड़ता है। उपयोगिता है, वह भी दिखाई पड़ती है। लेकिन कोई सपना पैदा नहीं होता। सम्मोहन सपने का उदभावक है। हिप्नोटाइज्ड, मोहग्रस्त चित्त ही कल्पनाओं में, सपनों में भटकता है, आकांक्षाओं में, महत्वाकांक्षाओं में भटकता है।

कृष्ण कहते हैं, ज्ञानी पुरुष स्वयं भी इससे जाग जाता है और ऐसा व्यवहार नहीं करता कि वे अज्ञानी, जो सम्मोहन में भरे जी रहे हैं, उनके जीवन में अस्तव्यस्त होने का कारण बन जाए। इसका यह मतलब नहीं है कि वह उनके सम्मोहन तोड़ने का प्रयास नहीं करता। उनके सम्मोहन तोड़ने का प्रयास किया जा सकता है, लेकिन सम्मोहित हालत में उनके जीवन की धुरी को अस्तव्यस्त करना खतरे से खाली नहीं है।

यह क्यों कह रहे हैं? वे यह इसलिए कह रहे हैं कि अगर तुझे यह भी पता चल गया कि युद्ध व्यर्थ है, तो भी ये युद्ध के लिए तत्पर खड़े लोगों में से किसी को भी पता नहीं है कि युद्ध व्यर्थ है। अगर तू यहां से भागता है, तो सिर्फ कायर समझा जाएगा। अगर तुझे यह भी पता चल गया कि युद्ध व्यर्थ है, तो यहां इकट्ठे हुए युद्ध के लिए तैयार लोगों में से किसी को पता नहीं है कि युद्ध व्यर्थ है। तेरे भाग जाने पर भी युद्ध होगा, युद्ध नहीं रुक सकता है। अगर तुझे पता भी चल गया कि युद्ध व्यर्थ है और तू चला भी जाए, भाग भी जाए, तो केवल जिस धर्म और जिस सत्य के लिए तू लड़ रहा था, उसकी पराजय हो सकती है।

युद्ध तो होगा ही। युद्ध नहीं रुक सकता। ये जो चारों तरफ खड़े हुए लोग हैं, ये पूरी तरह युद्ध से सम्मोहित होकर आकर खड़े हैं। इनको कुछ भी पता नहीं है, इनको कुछ भी बोध नहीं है। इन अज्ञानियों के बीच, इन प्रकृति के गुणों से सम्मोहित पागलों के बीच तू ऐसा व्यवहार कर, जानते हुए भी, देखते हुए भी ऐसा व्यवहार कर कि इन सबके जीवन की व्यवस्था व्यर्थ ही अस्तव्यस्त न हो जाए। और अकेला तू भागकर भी कुछ कर नहीं सकता है। हां, इतना ही कर तू कि अगर तुझे होश आया है, तो तू इतना ही समझ ले कि जिंदगी में सुख-दुख, हार-पराजय सब समान है। वह परमात्मा के हाथ में है। तू कर्ता नहीं है। तू बिना कर्ता हुए कर्म में उतर जा।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल


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