गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 20

  

तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।

स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा।। 23।।


और जो दुखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिए। वह योग न उकताए हुए चित्त से अर्थात तत्पर हुए चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है।


संसार के संयोग से जो तोड़ दे, दुख के संयोग से जो पृथक कर दे, अज्ञान से जो दूर हटा दे, ऐसे योग को अथक रूप से साधना कर्तव्य है, ऐसा कृष्ण कहते हैं। अथक रूप से! बिना थके, बिना ऊबे।

इस बात को ठीक से समझ लें।

मनुष्य का मन ऊबने में बड़ी जल्दी करता है। शायद मनुष्य के बुनियादी गुणों में ऊब जाना एक गुण है। ऐसे भी पशुओं में कोई पशु ऊबता नहीं।  ऊब, मनुष्य का लक्षण है। कोई पशु ऊबता नहीं। आपने कभी किसी भैंस को, किसी कुत्ते को, किसी गधे को ऊबते नहीं देखा होगा, कि बोर्ड हो गया है! नहीं; कभी ऊब पैदा नहीं होती। अगर हम आदमी और जानवरों को अलग करने वाले गुणों की खोज करें, तो शायद ऊब एक बुनियादी गुण है, जो आदमी को अलग करता है।

आदमी बड़ी जल्दी ऊब जाता है, बड़ी जल्दी बोर्ड हो जाता है। किसी भी चीज से ऊब जाता है। ऐसा नहीं कि दुख से ऊब जाता है, सुख से भी ऊब जाता है। अगर सुख ही सुख मिलता जाए, तो तबियत होती है कि थोड़ा दुख कहीं से जुटाओ। और आदमी जुटा लेता है! अगर सुख ही सुख मिले, तो तिक्त मालूम पड़ने लगता है; मुंह में स्वाद नहीं आता फिर। फिर थोड़ी-सी कड़वी नीम मुंह पर रखनी अच्छी होती है। थोड़ा-सा स्वाद आ जाता है।

आदमी ऊबता है, सभी चीजों से ऊबता है। बड़े से बड़े महल में जाए, उनसे ऊब जाता है। सुंदर से सुंदर स्त्री मिले, सुंदर से सुंदर पुरुष मिले, उससे ऊब जाता है। धन मिले, अपार धन मिले, उससे ऊब जाता है। यश मिले, कीर्ति मिले, उससे ऊब जाता है। जो चीज मिल जाए, उससे ऊब जाता है। हां, जब तक न मिले, तब तक बड़ी सजगता दिखलाता है, बड़ी लगन दिखलाता है; मिलते ही ऊब जाता है।

इस बात को ऐसा समझें, संसार में जितनी चीजें हैं, उनको पाने की चेष्टा में आदमी कभी नहीं ऊबता, पाकर ऊब जाता है। पाने की चेष्टा में कभी नहीं ऊबता, पाकर ऊब जाता है। इंतजार में कभी नहीं ऊबता, मिलन में ऊब जाता है। इंतजार जिंदगीभर चल सकता है; मिलन घड़ीभर चलाना मुश्किल पड़ जाता है।

संसार की प्रत्येक वस्तु को पाने के लिए तो हम नहीं ऊबते, लेकिन पाकर ऊब जाते हैं। और परमात्मा की तरफ ठीक उलटा नियम लागू होता है। संसार की तरफ प्रयत्न करने में आदमी नहीं ऊबता, प्राप्ति में ऊबता है। परमात्मा की तरफ प्राप्ति में कभी नहीं ऊबता, लेकिन प्रयत्न में बहुत ऊबता है। ठीक उलटा नियम लागू होगा भी।

जैसे कि हम झील के किनारे खड़े हों, तो झील में हमारी तस्वीर बनती है, वह उलटी बनेगी। जैसे आप खड़े हैं, आपका सिर ऊपर है, झील में नीचे होगा। आपके पैर नीचे हैं, झील में पैर ऊपर होंगे। तस्वीर झील में उलटी बनेगी।

संसार के किनारे हमारी तस्वीर उलटी बनती है। संसार में जो हमारा प्रोजेक्शन होता है, वह उलटा बनता है। इसलिए संसार में गति करने के जो नियम हैं, परमात्मा में गति करने के वे नियम बिलकुल नहीं हैं। ठीक उनसे उलटे नियम काम आते हैं। मगर यहीं बड़ी मुश्किल हो जाती है।

संसार में तो ऊबना आता है बाद में, प्रयत्न में तो ऊब नहीं आती। इसलिए संसार में लोग गति करते चले जाते हैं। परमात्मा में प्रयत्न में ही ऊब आती है। और प्राप्ति तो आएगी बाद में, और प्रयत्न पहले ही उबा देगा, तो आप रुक जाएंगे।

कितने लोग नहीं हैं जो प्रभु की यात्रा शुरू करते हैं! शुरू भर करते हैं, कभी पूरी नहीं कर पाते। कितनी बार आपने तय किया कि रोज प्रार्थना कर लेंगे! फिर कितनी बार छूट गया वह। कितनी बार तय किया कि स्मरण कर लेंगे प्रभु का घड़ीभर! एकाध दिन, दो दिन, काफी! फिर ऊब गए। फिर छूट गया। कितने संकल्प, कितने निर्णय, धूल होकर पड़े हैं आपके चारों तरफ!


बड़े आश्चर्य की बात है कि रोज अखबार पढ़कर नहीं ऊबता जिंदगीभर। रोज रेडियो सुनकर नहीं ऊबता जिंदगीभर। रोज फिल्म देखकर नहीं ऊबता जिंदगीभर। रोज वे ही बातें करके नहीं ऊबता जिंदगीभर। ध्यान करके क्यों ऊब जाता है? आखिर ध्यान में ऐसी क्या कठिनाई है!

कठिनाई एक ही है कि संसार की यात्रा पर प्रयत्न नहीं उबाता, प्राप्ति उबाती है। और परमात्मा की यात्रा पर प्रयत्न उबाता है, प्राप्ति कभी नहीं उबाती। जो पा लेता है, वह तो फिर कभी नहीं ऊबता।


नहीं; परमात्मा की यात्रा पर प्राप्ति के बाद कोई ऊब नहीं है। लेकिन प्राप्ति तक पहुंचने के रास्ते पर अथक...।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, बिना ऊबे श्रम करना कर्तव्य है, करने योग्य है।

यहां एक बात और खयाल में ले लेनी जरूरी है कि कृष्ण ऐसा कहते हैं, अर्जुन कैसे माने और क्यों माने? कृष्ण कहते हैं, करने योग्य है। अर्जुन कैसे माने और क्यों माने? अर्जुन को तो पता नहीं है। अर्जुन तो जब प्रयास करेगा, तो ऊबेगा, थकेगा। कृष्ण कहते हैं।

इसलिए धर्म में  भरोसे का एक कीमती मूल्य है। श्रद्धा का अर्थ होता है, ट्रस्ट। उसका अर्थ होता है, भरोसा। उसका अर्थ होता है, कोई कह रहा है, अगर उसके व्यक्तित्व से वे किरणें दिखाई पड़ती हैं, जो वह कह रहा है, उसका प्रमाण देती हैं; वह जो कह रहा है, जिस प्राप्ति की बात, वहां खड़ा हुआ मालूम पड़ता है...।

अर्जुन भलीभांति कृष्ण को जानता है। कृष्ण को कभी विचलित नहीं देखा है। कृष्ण को कभी उदास नहीं देखा है। कृष्ण की बांसुरी से कभी दुख का स्वर निकलते नहीं देखा है। कृष्ण सदा ताजे हैं।

इसीलिए तो आप, और विशेषकर आधुनिक युग के चिंतक और विचारक बड़ी मुश्किल में पड़ते हैं। वे कहते हैं, कृष्ण की बुढ़ापे की कोई तस्वीर क्यों नहीं है! ऐसा तो नहीं हो सकता कि कृष्ण बूढ़े न हुए हों। जरूरी ही हुए होंगे। कोई नियम तो कृष्ण को छोड़ेगा नहीं। बुद्ध की भी बुढ़ापे की कोई तस्वीर नहीं है। अस्सी साल के होकर मरे। महावीर की भी बुढ़ापे की कोई तस्वीर नहीं है। जरूर कहीं कोई भूल-चूक हो रही है।

लेकिन जो लोग ऐसा सोचते हैं, उन्हें इस मुल्क के चिंतन के ढंग का पता नहीं है। यह मुल्क तस्वीरें शरीरों की नहीं बनाता, मनोभावों की बनाता है। कृष्ण कभी भी बूढ़े नहीं होते, कभी बासे नहीं होते; सदा ताजे हैं। बूढ़े तो होते ही हैं, शरीर तो बूढ़ा होता ही है। शरीर तो जराजीर्ण होगा, मिटेगा। शरीर तो अपने नियम से चलेगा। पर कृष्ण की चेतना अविचलित भाव से आनंदमग्न बनी रहती है, युवा बनी रहती है। वह कृष्ण की चेतना सदा नाचती ही रहती है।

कृष्ण की हमने इतनी तस्वीरें देखी हैं। कई दफे शक होने लगता है कि कृष्ण ऐसा एक पैर पर पैर रखे और बांसुरी पकड़े कितनी देर खड़े रहते होंगे! यह ज्यादा दिन नहीं चल सकता। यह कभी-कभी तस्वीर उतरवाने को, फोटोग्राफर आ गया हो, बात अलग है। बाकी ऐसे ही कृष्ण खड़े रहते हैं?

नहीं, ऐसे ही नहीं खड़े रहते हैं। लेकिन यह आंतरिक बिंब है, यह भीतरी तस्वीर है। यह खबर देती है कि भीतर एक नाचती हुई, प्रफुल्ल चेतना है, एक नृत्य करती हुई चेतना है, जो सदा नाच रही है। भीतर एक गीत गाता मन है, जो सदा बांसुरी पर स्वर भरे हुए है।

यह बांसुरी सदा ऐसी होंठ पर रखे बैठे रहते होंगे, ऐसा नहीं है। यह बांसुरी तो सिर्फ खबर देती है भीतर की। ये तो प्रतीक हैं, सिंबालिक हैं। ये गोपियां चारों वक्त, चारों पहर, चौबीस घंटे आस-पास नाचती रहती होंगी, ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं है कि कृष्ण इसी गोरखधंधे में लगे रहे। नहीं; ये प्रतीक हैं, बहुत आंतरिक प्रतीक हैं।

असल में इस मुल्क की मिथ, इस मुल्क के मिथिक, इस मुल्क के पुराण प्रतीकात्मक हैं। गोपियों से मतलब वस्तुतः स्त्रियों से नहीं है। स्त्रियां भी कभी कृष्ण के आस-पास नाची होंगी। कोई भी इतना प्यारा पुरुष पैदा हो जाए, स्त्रियां न नाचें, ऐसा मौका चूकना संभव नहीं है। स्त्रियां नाची होंगी। लेकिन यह प्रतीक कुछ और है। यह प्रतीक गहरा है।

यह प्रतीक यह कह रहा है कि जैसे किसी पुरुष के आस-पास चारों तरफ सुंदर, प्रेम से भरी हुई, प्रेम करने वाली स्त्रियां नाचती रहें और वह जैसा प्रफुल्लित रहे, वैसे कृष्ण सदा हैं। वह उनका सदा होना है। वह उनका ढंग है होने का। जैसे चारों तरफ सौंदर्य नाचता हो, चारों तरफ गीत चलते हों, चारों तरफ संगीत हो, और घूंघर बजते हों, और चारों तरफ प्रियजन उपस्थित हों, और प्रेम की वर्षा होती हो, ऐसे कृष्ण चौबीस घंटे ऐसी हालत में जीते हैं। ऐसा चारों तरफ उनके हो रहा हो, ऐसे वे भीतर होते हैं।

अर्जुन जानता है कृष्ण को भलीभांति। उदासी कभी उस चेहरे पर निवास नहीं बना पाई। आंखों ने उस चेहरे पर कभी हताशा नहीं देखी। उस व्यक्तित्व में कहीं कोई पड़ाव नहीं बन सका दुख का कभी। लेकिन अर्जुन को तो अभी भरोसा करना पड़ेगा, ट्रस्ट करना पड़ेगा कि कृष्ण कहते हैं, तो यात्रा की जाए।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, कर्तव्य। इसलिए कहते हैं, करने योग्य है अर्जुन!

करोगे, तो जान लोगे। नहीं करोगे, तो नहीं जान पाओगे। कुछ जानने ऐसे हैं, जो करने से ही मिलते हैं। और हम सब ऐसे लोग हैं कि हम सोचते हैं, जानने से ही जानना हो जाए। हम सोचते हैं, कुछ बात जान लें और ज्ञान हो जाए। कृष्ण कहते हैं, कर्तव्य है अर्जुन! करोगे, तो जान पाओगे। करने से ही जानना आएगा। और करने की सबसे बड़ी कठिनाई वे गिना देते हैं साधक को, ऊब। ऊब जाओगे; दो दिन करोगे और ऊब जाओगे।


अब कृष्ण जो कह रहे हैं अर्जुन से, वह बात तो बिलकुल ऐसी लगती है कि जब कोई दुख विचलित न कर सकेगा, संसार से सब संसर्ग टूट जाएगा; पीड़ा-दुख, सबके पार उठ जाएगा मन। ऐसा मालूम तो नहीं पड़ता। जरा-सा कांटा चुभता है, तो भी संसर्ग टूटता नहीं मालूम पड़ता। इस विराट संसार से संसर्ग कैसे टूट जाएगा? कैसे इसके पार हो जाएंगे दुख के? दुख के पार होना असंभव मालूम पड़ता है। लेकिन कृष्ण आदमी भरोसे के मालूम पड़ते हैं। वे जो कह रहे हैं, जानकर ही कह रहे होंगे।


अथक श्रम का अर्थ है, प्रतीक्षा की अनंत क्षमता। कब घटना घटेगी, नहीं कहा जा सकता। कब घटेगी? क्षण में घट सकती है; और अनंत जन्मों में न घटे।  कोई घोषणा नहीं कर सकता कि इतने दिन में घट जाएगी। और जिस बात की घोषणा की जा सके, जानना कि वह क्षुद्र है और आदमी की घोषणाओं के भीतर है। परमात्मा आदमी की घोषणाओं के बाहर है।

हम सिर्फ प्रतीक्षा कर सकते हैं। प्रयत्न कर सकते हैं और प्रतीक्षा कर सकते हैं। और ऊब गए, तो खो जाएंगे। और ऊब पकड़ेगी। ऊब बुरी तरह पकड़ती है। सच तो यह है कि जितने लोग मंदिरों और मस्जिदों में आपको ऊबे हुए दिखाई पड़ेंगे, उतने कहीं न दिखाई पड़ेंगे। मधुशालाओं में भी उनके चेहरों पर थोड़ी रौनक दिखेगी, मंदिरों में वह भी नहीं दिखेगी। होटलों में बैठकर वे जितने ताजे दिखाई पड़ते हैं, उतने  मस्जिदों और गुरुद्वारों में दिखाई नहीं पड़ते। ऊबे हुए हैं! जम्हाइयां ले रहे हैं! सो रहे हैं!


मंदिरों में लोग सो रहे हैं। धर्मसभाओं में लोग सो रहे हैं। ऊबे हुए हैं; जम्हाइयां ले रहे हैं। कैसे, फिर कैसे होगा?

कृष्ण कहते हैं, अथक! बिना ऊबे श्रम करना पड़े योग का।

हां, एक ही भरोसे की बात कही जा सकती है कि वे जो कह रहे हैं, प्राप्ति पर जीवन की सारी खोज पूरी हो जाती है। और प्राप्ति पर फिर कभी ऊब नहीं आती।

और ध्यान रहे, प्रयत्न में ऊब आ जाए तो हर्जा नहीं, प्राप्ति में ऊब नहीं आनी चाहिए। अन्यथा जीवनभर का श्रम व्यर्थ गया। और इस संसार में प्रयत्न में तो बड़ा रस रहता है और पा लेने पर कुछ हाथ नहीं लगता, और ऊब आ जाती है।

लेकिन यह बात ट्रस्ट पर ही ली जा सकती है, भरोसे पर ही। यह श्रद्धा का ही सूत्र है।

पर कृष्ण किसी को धोखा किसलिए देंगे? कोई प्रयोजन तो नहीं है। बुद्ध किसलिए लोगों को धोखा देंगे? महावीर किसलिए लोगों को धोखा देंगे? क्राइस्ट या मोहम्मद किसलिए लोगों को धोखा देंगे? कोई भी तो प्रयोजन नहीं है। फिर एकाध आदमी धोखा देता, तो भी ठीक था। इस पृथ्वी पर न मालूम कितने लोग! किसलिए धोखा देंगे?


और फिर मजे की बात यह है कि ये लोग अगर धोखा देने वाले लोग होते, तो इतनी शांति और इतने आनंद और इतनी मौज और इतने रस में नहीं जी सकते थे। कोई धोखा देने वाला जीता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। ये जो कह रहे हैं, कुछ जानकर कह रहे हैं। लेकिन इस जानने के लिए आपको कुछ करना पड़ेगा। अगर आप सोचते हैं कि सुनकर, पढ़कर, स्मृति से, समझ से काम हो जाएगा, तो कुछ भी काम नहीं होगा। कुछ करना पड़ेगा।

और ध्यान रहे, श्रम का एक कदम भी उतने दूर ले जाता है, जितने विचार के हजार कदम भी नहीं ले जाते। विचार में आप वहीं खड़े रहते हैं। सिर्फ हवा में पैर उठाते रहते हैं; कहीं जाते नहीं। श्रम का एक कदम भी दूर ले जाता है। और एक-एक कदम कोई चले, तो लंबी से लंबी यात्रा पूरी हो जाती है।

लेकिन इस बड़ी यात्रा में सबसे बड़ी बाधा आपकी ऊब से पड़ेगी, आपके घबड़ा जाने से पड़ेगी, कि पता नहीं, पता नहीं कुछ होगा कि नहीं होगा! आपकी प्रतीक्षा जल्दी ही थक जाएगी। उससे सबसे बड़ी कठिनाई पड़ेगी। साधक के लिए ऊब सबसे बड़ी बाधा है।

यह अगर स्मरण रहे, तो जब भी आप ऊब जाएं, तब थोड़े सजग होकर देखना कि ऊब मन को पकड़ रही है, तुड़वा देगी सारी व्यवस्था को। तो ऊब से बचना। और जब ऊब पकड़े तो और जोर से श्रम करना, तो ऊब की जो ताकत है, वह भी श्रम में कनवर्ट होती है, वह भी श्रम में लग जाती है।

ऊबने में भी ताकत खर्च होती है। ऊबने में भी ताकत खर्च होती है; उस ताकत को भी श्रम में लगा देना। जब ऊब पकड़े मन को, तो और तेजी से श्रम करना। अगर ऊब पकड़े मन को, तो बैठकर ध्यान मत करना, दौड़कर ध्यान करना।


और अगर आपने तय कर लिया है कि ऊब को नहीं आने देंगे, तो आप थोड़े ही दिन में पाएंगे कि आप ऊब का अतिक्रमण कर गए। अब आप अथक योग में प्रवेश कर सकते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

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