गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023

" प्रेमी का प्रेम अस्थिर होता है, आवेशपूर्ण होता है, किसी पहाड़ी नदी के समान ! और पति का प्रेम धीर, गम्भीर होता है, गहरा और मन्थर-गंगा के समान । उसमें आवेश और उफान चाहे न आये, किन्तु वह सदा भरा-पूरा है । वह अकस्मात् ही बहाकर चाहे न ले जाये, किन्तु पार अवश्य उतारता है।” "मैं समझती हूँ।” पारंसवी ने पूर्ण विश्वास के साथ अपना कपोल विदुर की हथेली पर टिका दिया, "किन्तु आर्यपुत्र ! बाढ़ तो गंगा में भी आती है।"


विदुर हँसा, “आती है, मात्र वर्षा ऋतु में; और उससे क्षति ही होती है


प्रिये ! जाने क्या-क्या नष्ट हो जाता है । " पारसवी हतप्रभ नहीं हुई, "बाढ़ उतर जाती है, तो उजड़े परिवार फिर से बस जाते हैं। खेतों में नयी उपजाऊ मिट्टी आ जाती है। समग्र रूप से बहुत हानि नहीं होती ।" विदुर की भुजाएँ, आलिंगन

मंगलवार, 10 अक्तूबर 2023

 " विधाता ने हमारा जो यह शरीर बनाया है, यह बहुत समर्थ है और दूसरी ओर बेचारा बहुत असहाय है-पराधीन जो ठहरा। विधाता ने शरीर की आवश्यकताओं को अभिव्यक्ति देने के लिए मन को उसके साथ लगा दिया है; किन्तु मन स्वेच्छाचारी है। वह शरीर की आवश्यकताओं को समझने और अभिव्यक्त करने में मनमानी करता है। परिणाम यह है कि उसके कारण शरीर को कष्ट होता है । भोग की इच्छा शरीर की भी है, और मन की भी; किन्तु भोग का कर्म करना पड़ता है शरीर को, भोग की जितनी आवश्यकता शरीर को है, उतना भोग पाकर शरीर प्रसन्न होता है; किन्तु मन अपनी स्वेच्छाचारिता नहीं छोड़ता । उसे भुगतना कुछ नहीं पड़ता न ! वह तो स्वामी है। दास तो शरीर है। तो स्वामी की इच्छा पूरी करने के लिए भी शरीर को ही श्रम करना पड़ता है। और स्वामी है कि अपने दास के सुख-दुख की चिन्ता नहीं करता । तव जितना भोग शरीर पर आरोपित किया जाता है, वह भोग नहीं शरीर का क्षय होता है आप समझे महाराजकुमार ?" " समझ गया," भीष्म जैसे अपने आप में डूबे हुए-से वोले, "क्या आप


सम्राट् के स्वास्थ्य की सूचना दे रहे हैं ?"


"हाँ महाराजकुमार ! अब समय आ गया है कि आप सम्राट् के शरीर और रोग की स्थिति समझ लें।" राजवैद्य बोले, “सम्राट् का मन न केवल शरीर की आवश्यकता और क्षमता को नहीं समझता, वरन् उसके प्रति सर्वथा आततायी हो गया है। उनका शरीर क्षय के सोपान चढ़ता जा रहा है, और उनका मन भोग का आह्वान करता जा रहा है। वैद्य का धर्म रोग का निदान करना, और उसके लिए औषध प्रस्तुत करना है। सम्राटों का नियन्त्रण, वैद्य का कर्म नहीं है। वह सम्राट् के आत्मीय जनों का कर्म है। इसलिए मैं यह सूचना आपको देने आया हूँ कि सम्राट् का रोग हमारी पहुँच से बाहर जा रहा है। उन्हें सँभालना कठिन हो रहा है। यदि आप सम्राट् को सँभाल लेंगे, तो आज भी हमारा विश्वास है कि हम उनके रोग को सँभाल लेंगे ।" राजवैद्य ने रुककर भीष्म को देखा, "आपने देखा महाराजकुमार ! कभी-कभी वैद्य का धर्म रोगी के निकट नहीं, रोगी


के आत्मीय जनों के निकट भी होता है।" भीष्म गम्भीर दृष्टि से वैद्य की ओर देखते रहे। फिर धीरे से बोले, "कोई चिन्ताजनक बात तो नहीं है। "


"अव वैद्य के रूप में आपके सम्मुख स्पष्ट बोल रहा हूँ," राजवैद्य ने कहा,


"बात चिन्ताजनक स्थिति तक पहुँच गयी है, और बहुत ही शीघ्र चिन्तातीत स्थिति


में पहुँच जायेगी।"


"आपने राजमाता को बताया ?"

कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...