गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 28

  व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।। ४१।।


हे अर्जुनइस कल्याणमार्ग में निश्चयात्मक-बुद्धि एक ही है और अज्ञानी (सकामी) पुरुषों की बुद्धियां बहुत भेदों वाली अनंत होती हैं।


मनुष्य का मन एक हो सकता हैअनेक हो सकता है। मनुष्य का चित्त अखंड हो सकता हैखंड-खंड हो सकता है। मनुष्य की बुद्धि स्वविरोधी खंडों में बंटी हुई हो सकती हैविभाजित हो सकती हैअविभाजित भी हो सकती है। साधारणतः विषयी चित्तइच्छाओं से भरे चित्त की अवस्था एक मन की नहीं होती हैअनेक मन की होती हैबहुचित्त होते हैं। और ऐसा ही नहीं कि बहुचित्त होते हैंएक चित्त के विपरीत दूसरा चित्त भी होता है।

चित्त हमारा बंट जाता है अनेक खंडों मेंऔर विपरीत आकांक्षाएं एक साथ पकड़ लेती हैं। और अनंत इच्छाएं एक साथ जब मन को पकड़ती हैंतो अनंत खंड हो जाते हैं। और एक ही साथ हम सब इच्छाओं को करते चले जाते हैं। एक आदमी कहता हैमुझे शांति चाहिएऔर साथ ही कहता हैमुझे प्रतिष्ठा चाहिए। उसे कभी खयाल में नहीं आता कि वह क्या कह रहा है!

कृष्ण कह रहे हैं कि विषय-आसक्त चित्त--चूंकि विषय बहुत विपरीत हैं--एक ही साथ विपरीत विषयों की आकांक्षा करके विक्षिप्त होता रहता है और खंड-खंड में टूट जाता है। जो व्यक्ति निष्काम कर्म की तरफ यात्रा करता हैअनिवार्यरूपेण--क्योंकि कामना गिरती हैतो कामना से बने हुए खंड गिरते हैं। जो व्यक्ति अपेक्षारहित जीवन में प्रवेश करता हैचूंकि अपेक्षा गिरती हैइसलिए अपेक्षाओं से निर्मित खंड गिरते हैं। उसके भीतर एकचित्ततायूनिसाइकिकनेसउसके भीतर एक मन पैदा होना शुरू होता है।

और जहां एक मन हैवहां जीवन का सब कुछ है--शांति भीसुख भीआनंद भी। जहां एक मन हैवहां सब कुछ है--शक्ति भीसंगीत भीसौंदर्य भी। जहां एक मन हैउस एक मन के पीछे जीवन में जो भी हैवह सब चला आता है। और जहां अनेक मन हैंतो पास में भी जो हैवह भी सब बिखर जाता है और खो जाता है। लेकिन हम सब पारे की तरह हैं--खंड-खंडटूटे हुएबिखरे हुए। खुद ही इतने खंडों में टूटे हैंकि कैसे शांति हो सकती है!

कृष्ण कह रहे हैंयह जो विषयों की दौड़ है चित्त कीयह सिर्फ अशांति को...। अशांति का अर्थ ही सिर्फ एक हैबहुत-बहुत दिशाओं में दौड़ता हुआ मनअर्थात अशांति। न दौड़ता हुआ मनअर्थात शांति। कृष्ण कहते हैंनिष्काम कर्म की जो भाव-दशा हैवह एक मन और शांति को पैदा करती है। और जहां एक मन हैवहीं निश्चयात्मक बुद्धि है।



इसको आखिरी बात समझ लें। तो जहां एक मन हैवहां अनिश्चय नहीं है। अनिश्चय होगा कहांअनिश्चय के लिए कम से कम दो मन चाहिए। जहां एक मन हैवहां निश्चय है।

इसलिए आमतौर से आदमी लेकिन क्या करता हैवह कहता है कि निश्चयात्मक बुद्धि चाहिएतो वह कहता हैजोड़त्तोड़ करके निश्चय कर लो। दबा दो मन को और छाती पर बैठ जाओऔर निश्चय कर लो कि बसनिश्चय कर लिया। लेकिन जब वह निश्चय कर रहा है जोर सेतभी उसको पता है कि भीतर विपरीत स्वर कह रहे हैं कि यह तुम क्या कर रहे होयह ठीक नहीं है। वह आदमी कसम ले रहा है कि ब्रह्मचर्य साधूंगानिश्चय करता हूं। लेकिन निश्चय किसके खिलाफ कर रहे होजिसके खिलाफ निश्चय कर रहे होवह भीतर बैठा है।

कृष्ण कुछ और बात कह रहे हैं। वे यह नहीं कह रहे हैं कि तुम निश्चय करो। वे यह कह रहे हैंजो निष्काम कर्म की यात्रा पर निकलता हैउसे निश्चयात्मक बुद्धि उपलब्ध हो जाती हैक्योंकि उसके पास एक ही मन रह जाता है। विषयों में जो भटकता नहींजो अपेक्षा नहीं करताजो कामना की व्यर्थता को समझ लेता हैजो भविष्य के लिए आतुरता से फल की मांग नहीं करताजो क्षण में और वर्तमान में जीता है--वैसे व्यक्ति को एक मन उपलब्ध होता है। एक मन निश्चयात्मक हो जाता हैउसे करना नहीं पड़ता।
(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

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