शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2022

ओंकार

     ओम् अथातोभक्तिजिज्ञासा!

      यह सुबह, यह वृक्षों में शांति, पक्षियों की चहचहाहट... या कि हवाओं का वृक्षों से गुजरना, पहाड़ों का सन्नाटा... या कि नदियां का पहाड़ों से उतरना... या सागरों में लहरों की हलचल, नाद... या आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट—यह सभी ओंकार है।

      ओंकार का अर्थ है : सार—ध्वनि; समस्त ध्वनियों का सार। ओंकार कोई मंत्र नहीं, सभी छंदों में छिपी हुई आत्मा का नाम है। जहां भी गीत है, वहां ओंकार है। जहां भी वाणी है, वहां ओंकार है। जहां भी ध्वनि है, वहां ओंकार है।

      और यह सारा जगत ध्वनियों से भरा है। इस जगत की उत्पत्ति ध्वनि में है। इस जगत का जीवन ध्वनि में है; और इस जगत का विसर्जन भी ध्वनि में है।

      ओम से सब पैदा हुआ, ओम में सब जीता, ओम में सब एक दिन लीन हो जाता है। जो प्रारंभ है, वही अंत है। और जो प्रारंभ है और अंत है, वही मध्य भी है। मध्य अन्यथा कैसे होगा!

      प्रारंभ में ईश्वर था और ईश्वर शब्द के साथ था, और ईश्वर शब्द था, और फिर उसी शब्द से सब निष्पन्न हुआ। वह ओंकार की ही चर्चा है।

      मैं बोलूं तो ओंकार है। तुम सुनो तो ओंकार है। हम मौन बैठें तो ओंकार है। जंहा लयबद्धता है, वहीं ओंकार है। सन्नाटे में भी—स्मरण रखना—जंहा कोई नाद नहीं पैदा होता, वहा भी छुपा हुआ नाद है। मौन का संगीत  शून्य का संगीत। जब तुम चुप हो, तब भी तो एक गीत झर—झर बहता है। जब वाणी निर्मित नहीं होती, तब भी तो सूक्ष्म में छंद बंधता है। अप्रकट है, अव्यक्त है; पर है तो सही। तो शून्य में भी और शब्द में भी ओंकार निमज्जित है।

      ओंकार ऐसा है जैसे सागर। हम ऐसे हैं जैसे सागर की मछली।

      इस ओकार को समझना। इस ओंकार को ठीक से समझा नहीं गया है। लोग तो समझे कि एक मंत्र है, दोहरा लिया। यह दोहराने की बात नहीं है। यह तो तुम्हारे भीतर जब छंदोबद्धता पैदा हो, तभी तुम समझोगे ओंकार क्या है। हिंदू होने से नहीं समझोगे। वेदपाठी होने से नहीं समझोगे। पूजा का थाल सजाकर ओंकार की रटन करने से नहीं समझोगे। जब तुम्हारे जीवन में उत्सव होगा, तब समझोगे। जब तुम्हारे जीवन में गान फूटेगा, तब समझोगे। जब तुम्हारे भीतर झरने बहेगे, तब समझोगे।

      ओम से शुरुआत अदभुत है।

    उस ओम में सब आ गया। जो जानते हैं उनके लिए ओम में सब कह दिया गया। जो नहीं जानते, उनके लिए बात फैलाकर कहनी होगी। अन्यथा शास्त्र पूरा हो गया ओंकार पर।

      ओंकार बनता है तीन ध्वनियों से : अ, उ, म। ये तीन मूल ध्वनिया है;शेष सभी ध्वनियां इन्हीं ध्वनियो के प्रकारातर से भेद हैं। यही असली त्रिवेणी है—अ, उ, म। यही त्रिमूर्ति है। यही शब्दब्रह्म के तीन चेहरे हैं।

      सब शास्त्र अ, उ, म में समाहित हो गये। हिंदुओं के हों, कि मुसलमानो के, कि ईसाइयों के, कि बौद्धों के, कि जैनों के— भेद नहीं पड़ता। जो भी कहा गया है अब तक और जो नहीं कहा गया, सब इन तीन ध्वनियों में समाहित हो गया है। ओम कहा, तो सब कहा। ओम जाना, तो सब जाना।

      इसलिए वेद घोषणा करते हैं कि जिसने ओंकार को जान लिया, उसे जानने को कुछ और शेष नहीं रहा। निश्चित ही यह उस ओंकार की बात नहीं है, जो तुम अपने पूजागृह में बैठकर दोहरा लेते हो। यह ओंकार तो तुम्हारे पूरे जीवन की सुगंध की तरह प्रकट होगा, तो समझोगे। 

इसलिए तो कहते हैं वेद कि ओम को जिन्होंने जान लिया, उन्हें जानने को कुछ शेष न रहा। यह शास्त्र में लिखे हुए ओम की बात नहीं है, यह जीवन में अनुभव किए गए, अनुभूत छंद की बात है।

 मनुष्‍य है एक द्वंद्व। प्रकाश और अंधकार का; प्रेम और घृणा का। यह द्वंद्व अनेक सतहों पर प्रकट होता है। यह द्वंद्व मनुष्‍य के कण—कण में छिपा है। राम और रावण प्रतिपल संघर्ष में रत है। प्रत्‍येक  व्‍यक्‍ति  कूरुक्षेत्र में ही खड़ा है। महाभारत कभी हुआ और समाप्‍त हो गया, ऐसा नही, जारी है। हर नए बच्‍चे  के साथ फिर पेदा होता है।


      इसलिए कूरुक्षेत्र को गीता में धर्मक्षेत्र कहा है, क्यों कि वहां निर्णय होता है। धर्म और अधर्म का। प्रत्‍येक के व्‍यक्‍ति के भीतर निर्णय होना है धर्म अधर्म का। प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति के भीतर निर्णायक घटना घटने को है। इसलिए आदमी को कहीं राहत नहीं। कुछ भी करे, राहत नहीं। क्‍योंकि भीतर कुछ उबल रहा है। भीतर सेनाएं बंटी खड़ी है। क्‍या होगा परिणाम, क्‍या होगी निष्‍पत्‍ति इससे चिंता होती है।

और चिंता के बड़े कारण हैं। क्योंकि घृणा के पक्ष में बड़ी फौजें हैं। घृणा के पक्ष में बडी शक्तियाँ हैं। महाभारत में भी कृष्ण की सारी फौजें कौरवों के साथ थी, केवल कृष्ण, निहत्थे कृष्‍ण  पांडवों के साथ थे। वह बात बड़ी सूचक है। ऐसी ही हालत है। संसार की सारी शक्तियाँ अँधेरे के पक्ष में है। संसार की शक्तियाँ यानी परमात्मा की फौजें। परमात्मा भर तुम्हारे पक्ष में है, निहत्था। भरोसा नहीं आता कि जीत अपनी हो सकेगी। विश्वास नहीं बैठता कि निहत्थे परमात्मा के साथ विजय हो सकेगी।

कृष्ण ही अर्जुन के सारथी थे, ऐसा नहीं, तुम्हारे रथ पर भी जो सारथी बनकर बैठा है वह कृष्ण ही है। प्रत्येक के भीतर परमात्मा ही रथ को सँभाल रहा है। लेकिन सामने विरोध में दिखायी पड़ती है बड़ी सेनाएँ, बड़ा विराट आयोजन। अर्जुन घबडा गया था। हाथ-पैर थरथरा गये थे। गांडीव छूट गया था। पसीना-पसीना हो गया था। अगर तुम भी जीवन के युद्ध में पसीना-पसीना हो जाते हो, तो आश्चर्य नहीं। हार निश्चित मालूम पड़ती है, जीत असंभव आशा।

इस द्वंद्व में ठीक-ठीक पहचान लेना जरूरी है--कौन तुम्हारा मित्र है और कौन तुम्हारा शत्रु है। यही महाभारत की प्रथम घड़ी में अर्जुन ने कृष्ण से कहा था,- मेरे रथ को युद्ध के बीच में ले चलो, ताकि मैं देख लूँ कौन मेरे साथ लड़ने आया है, कौन मेरे विपरीत लड़ने को खड़ा है? किससे मुझे लड़ना है? साफ-साफ समझ लूँ कि कौन साथी-संगी है, कौन शत्रु है?

और युद्ध के मैदान पर जितनी आसान बात थी यह जान लेना, जीवन के मैदान पर इतनी आसान नहीं। वहाँ शत्रु-मित्र सम्मिलित खड़े हैं। वहाँ जहाँ प्रेम है, वहीं घृणा भी दबी हुई पड़ी है। जहाँ करुणा है, उसी के साथ क्रोध भी खड़ा है। सब मिश्रित है। कुरुक्षेत्र के उस युद्ध में तो चीजें साफ थीं, सेनाएँ बँट गयी थीं, बीच में रेखा थी--एक तरफ अपने लोग थे, दूसरी तरफ विरोधी लोग थे, बात साफ थी किसको मारना है, किसको बचाना है। लेकिन जीवन के युद्ध में बात इतनी साफ नहीं है, ज्यादा उलझन की है। तुम जिसको प्रेम करते हो, उसी को घृणा भी करते हो। जिसको चाहते हो और सोचते हो कि जरूरत पड़े तो जान दे दूँ, किसी दिन उसी की जान लेने का मन भी होने लगता है। जिस पर करुणा बरसाते हो, कभी उसी पर क्रोध भी उबल पड़ता है। सब उलझा है। धागे एक-दूसरे में गुँथ गये हैं। जन्मों-जन्मों की गुत्थियाँ हैं।

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2022

मेल  उन चीजों में बनाना होता है जिनमें कोई विरोध हो। धर्म और विज्ञान में तो कोई विरोध नहीं है। इसलिए मेल बनाने की बात ही फिजूल। दो चीजों में दुश्मनी हो तो दोस्ती करवानी होती है, लेकिन दुश्मनी ही न हो तो, तो दोस्ती का सवाल क्या? धर्म और विज्ञान में विरोध नहीं है, विज्ञान और अंधविश्वास में विरोध है। और अंधविश्वास धर्म नहीं है। अंधविश्वास को ही क्योंकि हम धर्म समझते रहे हैं, तो इसलिए कठिनाई खड़ी हो गई। अन्यथा धर्म से ज्यादा वैज्ञानिक तो और कोई चीज नहीं है। विज्ञान तो एक पद्धति है, एक मेथड है सत्य की खोज का। जब उस पद्धति का हम उपयोग करते हैं पदार्थ के लिए तो साइंस जन्म जाती है और जब उसी पद्धति का उपयोग करते हैं हम चेतना की खोज में तो धर्म जन्म जाता है। विज्ञान का एक प्रयोग साइंस है, दूसरा प्रयोग धर्म है। विज्ञान एक पद्धति है, , वैज्ञानिक दृष्टिकोण देखने का एक ढंग है। लेकिन यह प्रश्न इसीलिए उठ आया होगा तुम्हारे मनों में क्योंकि जिसे हम धर्म कहते हैं वह विज्ञान से बड़े विरोध में मालूम पड़ता है। तो स्मरण रखना, वह धर्म ही नहीं है जो विज्ञान के विरोध में पड़ जाता हो। वह होगा कोई अंधापन। कोई सुपरस्टीशन और अंधविश्वास विज्ञान के मार्ग में ही बाधा नहीं है, धर्म के मार्ग में भी बाधा है। इसलिए दुनिया में बढ़ रही वैज्ञानिक रुचि उस सारे धर्म को जला कर नष्ट कर देगी जो धर्म नहीं है। और इस वैज्ञानिक क्रांति से गुजर जाने के बाद जो शेष रह जाएगा वही खरा सच्चा सोना होगा, वही धर्म होगा।


विरोध नहीं है इन दोनों बातों में। और दुनिया के जो लोग सच में धार्मिक थे उनसे ज्यादा वैज्ञानिक आदमी खोजना कठिन है। महावीर, या बुद्ध, या क्राइस्ट इनसे ज्यादा वैज्ञानिक मनुष्य खोजना कठिन है। इन्होंने विज्ञान की खोज अपनी ही चेतना पर की, खुद के भीतर जो रहस्य छिपा है उसे जानना चाहा। रहस्य बाहर ही नहीं है, भीतर भी है। पत्थर-कंकड़ में, पानी में, मिट्टी में ही रहस्य नहीं है, रहस्य मुझमें भी है। हमारे भीतर भी कुछ है तो हम पदार्थ को ही जानते रहेंगे या उसको भी जो हमारे भीतर छिपी हुई चेतना है, जीवंत है? जिसे हम अभी विज्ञान करके जानते हैं वह जो बाहर है उसे खोजता है। और जिसे हम धर्म करके जानते हैं वह उसे जो भीतर है। आज नहीं कल दोनों की खोज एक हो जाने वाली है। यह खोज बहुत दिन तक दो नही रह सकती। तब दुनिया में वैज्ञानिक पद्धति होगी। उसके दो प्रयोग होंगेः पदार्थ पर और परमात्मा पर।

निश्चित ही तथाकथित धर्म इसके विरोध में खड़े होंगे। वे इसलिए खड़े होंगे कि हिंदू और मुसलमान, जैन और ईसाई, अगर विज्ञान का प्रयोग हुआ आत्मा के जीवन में भी तो ये सब नहीं बच सकेंगे। धर्म बचेगा, हिंदू नहीं बच सकेगा, मुसलमान, जैन, ईसाई नहीं बच सकेगा। क्योंकि विज्ञान जिस दिशा में भी काम करता है वही युनिवर्सल पर, सार्वलौकिक पर पहुंच जाता है। कोई हिंदू गणित हो सकता है, या मुसलमान कैमिस्ट्री हो सकती है, या ईसाई फिजिक्स हो सकती है? कोई हंसेगा अगर कोई यह कहेगा कि मुसलमानों की फिजिक्स अलग, हिंदुओं की अलग, तो हम हंसेंगे, हम कहेंगे, तुम पागल हो। पदार्थ के नियम तो वही हैं, एक ही हैं सारी दुनिया में, सब लोगों के लिए, तो एक ही फिजिक्स है, न हिंदुओं की अलग है, न मुसलमानों की, न ईसाईयों की। धर्म भी कैसे अलग-अलग हो सकते हैं? जब पदार्थ के नियम एक हैं, तो परमात्मा के नियम कैसे अलग-अलग हो सकते हैं?

जो बाहर की दुनिया है जब उसके नियम सार्वलौकिक हैं, युनिवर्सल हैं, तो मनुष्य के भीतर जो चेतना छिपी है, जीवन छिपा है, उसके नियम भी अलग-अलग नहीं हो सकते, उसके नियम भी एक ही होंगे। इसलिए वैज्ञानिक धर्म के जन्म में ये तथाकथित धर्म सब बाधा बने हुए हैं। वे नहीं चाहते कि वैज्ञानिक धर्म का जन्म हो। साइंटिफिक रिलीजन का जन्म दुनिया के सभी संप्रदायों की मृत्यु की घोषणा होगी। इसलिए वे विरोध में हैं। इसलिए वे विज्ञान के विरोध में हैं। क्योंकि वैज्ञानिकता का अंतिम प्रयोग उन सबको बहा ले जाएगा और समाप्त कर देगा। और मुझे तो लगता है इससे शुभ घड़ी दूसरी नहीं हो सकती। कि ये सब बह जाएं, दुनिया से संप्रदाय बह जाएं--हिंदू, मुसलमान, जैन, ईसाई का फासला बह जाए, आदमी बच रहे। क्योंकि इस फासले ने बहुत खतरा पैदा कर दिया है, इस फासले ने मनुष्य को मनुष्य से तोड़ दिया है। और जो चीज मनुष्य को मनुष्य से ही तोड़ देती हो वह चीज मनुष्य को परमात्मा से कैसे जोड़ सकेगी? वह नहीं जोड़ सकती। इसलिए धर्मों के नाम पर जो कुछ हुआ है, चर्च और मंदिर और शिवालय ने जो कुछ किया है, उसने मनुष्य को कल्याण और मंगल की दिशा नहीं दी, बल्कि हिंसा, रक्तपात, युद्ध और घृणा का मार्ग दिया है। सारी जमीन पर मनुष्य मनुष्य को एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया है। धर्म तो प्रेम है, लेकिन धर्मों ने तो घृणा सिखा दी। धर्म तो सबको एक कर देता, लेकिन धर्मों ने तो सबको तोड़ दिया है।

एक छोटी सी घटना मैं तुम्हें कहूं, शायद उससे मेरी बात समझ में आ जाए। एक काले आदमी ने एक चर्च के द्वार पर संध्या जाकर द्वार खटखटाया, पादरी ने द्वार खोला, लेकिन देखा काला आदमी है, वह चर्च तो सफेद लोगों का था, काले आदमी के लिए उस चर्च में कोई जगह न हो सकती थी। पुराने दिन होते तो वह पादरी उसे हटा देता और कहता कि यहां तुमने आने की हिम्मत कैसे की? तुम्हारी छाया पड़ गई इन सीढ़ियों पर, सीढ़ियां अपवित्र हो गईं, इन्हें साफ करो। उसकी हत्या भी की जा सकती थी। ऐसे शूद्रों के कानों में तथाकथित धार्मिक कहे जाने वाले दुष्ट लोगों ने सीसा पिघलवा कर भरवा दिया है जिन्होंने जाकर मंदिर के पास खड़े होकर वेद-मंत्र सुन लिए हों। क्योंकि शूद्रों के कान पवित्र वेद-मंत्रों को सुनने के लिए नहीं हैं। ऐसे आदमियों की छाया पड़ जाना भी पाप और अपराध रहा है इस देश में भी, इस देश के बाहर भी। पुराने दिन होते तो शायद उस काले आदमी की जिंदगी खतरे में पड़ जाती। लेकिन दिन बदल गए हैं, लेकिन आदमी का दिल तो नहीं बदला।

उस पादरी ने कहाः मित्र, यह शब्द बिलकुल झूठा रहा होगा, क्योंकि जो उसके इरादे थे वे मित्र के बिलकुल नहीं थे। लेकिन उसने कहाः मित्र, जैसे हम सब झूठी भाषाएं बोलते हैं, वह भी बोला, और जो हमारे बीच सबसे ज्यादा चालाक, सबसे ज्यादा कनिंग हैं, वे ऐसी भाषा को बहुत, बहुत कुशल होते हैं, उसने उस नीग्रो को कहाः मित्र, इस चर्च में आए हो स्वागत है, लेकिन जब तक हृदय पवित्र नहीं है तब तक चर्च में आने से भी क्या होगा? परमात्मा के दर्शन तो तभी हो सकते हैं जब हृदय पवित्र और शांत हो। तो जाओ, पहले हृदय को करो पवित्र और फिर आना।

नीग्रो वापस लौट गया। उस पुरोहित ने मन में सोचा होगा, न होगा कभी मन पवित्र और न यह आएगा। उसके आने की कोई संभावना नहीं है। दिन आए और गए, माह आए और गए और वर्ष पूरा होने को आ गया। एक दिन चर्च के पास से निकलता दिखाई पड़ा वही नीग्रो, वही काला आदमी। वह पुरोहित हैरानी में पड़ा कि कहीं वह चर्च में तो नहीं आना चाह रहा? लेकिन नहीं, उसने तो चर्च की तरफ आंख भी उठा कर न देखा और वह चला गया अपनी राह। पुरोहित देखता रहा। हैरानी हुई उसे देख कर। उस आदमी में तो कोई बड़ी चीज जैसे बदल गई थी। उसके आस-पास जैसे शांति का एक मंडल चल रहा था। जैसे उसकी आंखों में कोई नई ज्योति, कोई नई लहर आ गई थी, कोई नई खबर। जैसे वह कुछ दूसरा आदमी हो गया था, एकदम शांत और मौन। उसकी काली चमड़ी से भी जैसे कोई चमक पैदा हो गई थी, कोई पवित्रता उससे झलकने लगी थी, उसके उठते कदमों में भी जैसे कोई अलग ही बात थी।

वह चर्च का पादरी दौड़ा और उसे रोका और कहाः महानुभाव, आप फिर दुबारा आए नहीं? वह नीग्रो हंसने लगा, उसने कहाः मैंने तुम्हारी बात मान कर मन को शांत और पवित्र करने की साधना की। और एक दिन रात जब मैं प्रार्थना करके सो गया और मेरा हृदय एकदम मौन था, तो रात मैंने सपने में देखा कि परमात्मा आए हैं और मुझसे पूछते हैं कि तू क्यों इतनी प्रार्थनाएं कर रहा है? क्यों इतनी साधना कर रहा है? क्या चाहता है? तो मैंने कहाः मैं उस चर्च में जाना चाहता हूं जो हमारे गांव में है। तो वह परमात्मा हंसने लगा और उसने कहाः तू पागल है, तू उस चर्च में कभी न जा सकेगा, क्योंकि मैं खुद दस साल से वहां जाने की कोशिश कर रहा हूं, वह पादरी मुझे घुसने नहीं देता। वह पादरी मुझे भीतर नहीं आने देता। तो जब मैं ही नहीं घुस पा रहा हूं, जिसका कि वह  यह मंदिर है, वही नहीं घुस पा रहा है, मंदिर का मालिक बाहर, तो तू कैसे घुस सकेगा? तेरी क्या हैसियत है? तो यह वरदान न मांग, कुछ और मांगना हो तो मांग ले। जब मैं ही नहीं घुस पाता हूं, तो मैं तुझे कैसे वरदान दूं कि तू जा सकेगा? इसलिए उसने कहा कि फिर मैंने आने की हिम्मत न की। जब परमात्मा भी अपने पुरोहित से डरता है तो मेरी क्या सामर्थ्य है।

मैं आपसे कहता हूं, दस साल की बात होती, तो हम किसी तरह सह भी लेते, यह दस साल की बात नहीं है, यह हजारों-हजारों साल की बात है। आज तक परमात्मा किसी पुरोहित के मंदिर में प्रवेश नहीं पा सका है, न कभी आगे भी पा सकेगा। पुरोहित और परमात्मा दोस्त नहीं हैं। पुरोहित शोषण कर रहा है, परमात्मा का दोस्त कैसे हो सकता है? पुरोहित दुकान चला रहा है परमात्मा की, दोस्त कैसे हो सकता है? पुरोहित बेच रहा है परमात्मा को, दोस्त कैसे हो सकता है? और क्योंकि हरेक पुरोहित दुकान चला रहा है, इसलिए दो पुरोहितों में भी दोस्ती नहीं हो सकती। दो दुकानदारों में दोस्ती हो सकती है? जो एक ही धंधा करते हों--प्रतिस्पर्धा हो सकती है, दोस्ती कहां? दुश्मनी हो सकती है, गला-काट प्रतियोगिता हो सकती है, दोस्ती नहीं हो सकती है। इसलिए हिंदू और मुसलमान में झगड़ा है, यह धर्मों का झगड़ा नहीं, यह हिंदू और मुसलमान पुरोहित का झगड़ा है। यह परमात्मा का झगड़ा नहीं, यह परमात्मा के नाम पर बनी हुई दुकानों का झगड़ा है। और इन दुकानों ने हजारों साल में हजारों तरह के अंधविश्वास प्रचलित किए हैं। और आदमी की आंख बंद करने की कोशिश की है। क्योंकि जब लोगों की आंखें खुल जाएंगी, उनका शोषण धर्म के नाम पर नहीं हो सकेगा।

और आई हुई विज्ञान की रोशनी ने इन सारे पुरोहितों को बड़ी घबड़ाहट पैदा कर दी है, वे बड़े बेचैन हो गए हैं। और वे कह रहे हैं कि धर्म और विज्ञान में दुश्मनी है। धर्म बात अलग है, विज्ञान बात अलग है। वह तो पूरी कोशिश उन्होंने यह की है कि विज्ञान विकसित न हो पाए। गैलीलियो से लेकर आज तक धर्म का पुरोहित हर कोशिश कर रहा है कि विज्ञान विकसित न हो पाए। क्योंकि विज्ञान का हर बढ़ता हुआ कदम अंधविश्वास की मौत लाता है। लेकिन इससे धर्म को भयभीत होने का कोई भी कारण नहीं है। धर्म तो है सत्य, विज्ञान की हर जीत सत्य की जीत है। धर्म को उससे कोई नुकसान पहुंचने वाला नहीं है। धर्मों को नुकसान पहुंचेगा, धर्म को नहीं।

तो मैं निवेदन करूं, धर्म और विज्ञान के बीच मेल खोजने की भूल मत करना। अगर मेल करने की कोशिश की तो वे मेल धर्मों और विज्ञान के बीच होगा, जो कभी नहीं हो सकता। लेकिन धर्म और विज्ञान के बीच तो सदा से मेल है। वह तो एक ही सत्य के दो पहलू हैं। इसलिए उस संबंध में मैं नहीं बता सकता कि कैसे मेल हो सकता है, क्योंकि मुझे आज तक यही समझ में नहीं आ पाया कि कोई झगड़ा हुआ है।

एक छोटी सी घटना और दूसरे प्रश्न को मैं लूंगा।

हैनरी थारो मरणशय्या पर पड़ा हुआ था। कभी किसी ने उसे चर्च जाते नहीं देखा। कोई भला आदमी कभी नहीं जाता। भला आदमी था। कभी किसी ने उसे प्रार्थना करते नहीं देखा। कौन सज्जन आदमी कब प्रार्थना करता है? कभी किसी ने उसे बाइबिल की पूजा करते नहीं देखा। मरणशय्या पर पड़ा था। तो गांव के पादरी ने सोचा कि अब यह क्षण अच्छा है, यह मौका अच्छा है, इस वक्त मौत करीब है, घबड़ा गया होगा, अब चलें। मौत का फायदा उठाते रहे हैं पुरोहित, पादरी, तथाकथित धार्मिक लोग। जवानी में तो आदमी को नहीं पकड़ पाते तो फिर बुढ़ापे में पकड़ लेते हैं। मौत करीब होती है, भय सामने होता है, तो प्रलोभन दिया जा सकता है कि आ जाओ हमारी तरफ, मान लो हमारी बात, तो भगवान से तुम्हारे लिए सिफारिश कर देंगे कुछ, अच्छा इंतजाम कर देंगे। मरते वक्त अकेला आदमी घबड़ा उठता है। इसलिए तो चर्चों और मंदिरों में बूढ़े और बुढ़ियां दिखाई पड़ते हैं, कोई जवान आदमी दिखाई नहीं पड़ता। यह आकस्मिक नहीं है, यह कोई एक्सिडेंटल बात नहीं है। इसके पीछे कोई राज है। सोचा कि थारो अब पड़ गया है बीमार और लोग कहते हैं बचेगा नहीं।

तो गांव का पादरी इस मौके को स्वर्ण अवसर समझ कर उसके पास गया। और उसने कहा कि हैनरी थारो, महाशय, अब पश्चात्ताप कर लो। और भगवान से अपना मिलाप कर लो। प्रेम कायम कर लो। उसने जो शब्द कहे पादरी ने वे ये थे कि क्या तुमने परमात्मा और अपने बीच मेल कायम कर लिया है? हैनरी थारो ने आंख खोली, बिलकुल मरने के करीब था, लेकिन बड़ा बहादुर और धार्मिक आदमी रहा होगा, उसने कहाः क्या कहते हैं आप? मुझे याद नहीं पड़ता कि मुझमें और परमात्मा के बीच कभी झगड़ा हुआ हो, मेल करने का सवाल कहां है? मुझे याद नहीं पड़ता कि मैं कभी उससे लड़ा भी हूं, हम सदा के दोस्त हैं। तो मेल किससे करूं और कैसा करूं जब हमारा कोई झगड़ा ही कभी न हुआ हो? कभी जिंदगी में मुझे याद नहीं आता है कि हमारे और उसके बीच कोई कटुता पैदा हुई हो? जिनके मन में कटुता पैदा हुई हो वे जाएं और मेल पैदा करें और प्रार्थनाएं करें, मैं किस बात के लिए प्रार्थना करूं? किस मेल की प्रार्थना करूं।

यही मैं आपसे कहता हूं, मुझे नहीं दिखाई पड़ता है कि विज्ञान और धर्म में कभी कोई शत्रुता है। इसलिए मेल कैसा और किसका? रह गए वे धर्म जिनसे उसकी शत्रुता है, तो जितनी जल्दी उनकी अरथी निकल जाए उतना शुभ है। उतना मनुष्य-जाति के इतिहास में उससे बड़ा कोई स्वर्णिम अवसर न होगा जिस दिन धर्मों की अरथी निकल जाएगी। क्यों? क्योंकि तब धर्म का जन्म हो सकता है, एक ऐसे धर्म का जो सबका होगा और जिसमें सब होंगे। एक ऐसे धर्म का जो वैज्ञानिक होगा, अंधविश्वासी नहीं। एक ऐसे धर्म का जो श्रद्धा पर नहीं बल्कि विचार और विवेक पर खड़ा होगा। एक ऐसे धर्म का जो इस खंड का और उस खंड का नहीं होगा बल्कि अखंड और सार्वलौकिक होगा। वैसे धर्म के जन्म में धर्मों ने ही अटकाव दिया है। इसलिए वे जाते हैं तो बहुत अच्छा है। जो भी धार्मिक लोग हैं उन्हें उनकी विदाई का तत्क्षण आरंभ कर लेना चाहिए, उन्हें विदा दे देनी चाहिए।


पूछा हैः अणु-युग में आत्मा की साधना कहां तक समर्थनीय है?


मेरी पहली बात से कुछ तो खयाल में आया होगा कि अणु और आत्मा का कोई विरोध नहीं है, बल्कि अणु विज्ञान ने, एटामिक साइंस ने यह बात बड़े अदभुत रूप से सिद्ध कर दीः एक छोटे से अणु में परम शक्ति निवास करती है। एक छोटे से पदार्थ के खंड में जिसे हम आंख से भी न देख सकेंगे, जिसे बड़ी-बड़ी दूरबीनें भी देखनें में समर्थ नहीं हैं, जो इतना छोटा है अणुखंड कि अगर हम एक लाख अणुओं को एक के ऊपर एक रखते चले जाएं तो हमारे बाल की मोटाई के बराबर होंगे। एक लाख अणु एक के ऊपर एक रख दिए जाने पर हमारे बाल की मोटाई लेंगे, इतना छोटा सा जो अणु है, उसमें विज्ञान ने इतनी विराट शक्ति खोज निकाली है कि आज सारी दुनिया भयभीत है कि कहीं अणु बमों का विस्फोट हुआ तो फिर मनुष्य बच नहीं सकेगा। इसका क्या अर्थ है? इससे किस बात की सूचना मिलती है? इससे इस बात की सूचना मिलती है कि छोटे को छोटा मत समझ लेना, कोई छोटा, छोटा नहीं है, क्षुद्रतम में विराटतम छिपा हुआ है। जो क्षुद्रतम है उसमें विराट शक्ति का निवास है। क्षुद्र कुछ भी नहीं है, सभी कुछ विराट है। इससे यह खबर मिलती है। और इससे यह भी खबर मिलती है कि जब पदार्थ के एक अणु में इतनी ताकत है तो चेतना के एक अणु में कितनी शक्ति न हो सकेगी?

आत्मा चेतना का अणु है। जैसे पदार्थ को हमने खोजते-खोजते आखिरी जगह जाकर अणु को पकड़ लिया है, वैसे ही जिन लोगों ने चेतना की खोज की है, खोज करते-करते उन्होंने अंततः जाकर आत्मा के अणु को पकड़ लिया। आत्मा इकाई है चैतन्य की और अणु इकाई है पदार्थ की। विज्ञान अणु पर पहुंचा है, धर्म आत्मा पर। दोनों की खोजें हैं। दोनों की खोजें बड़ी वैज्ञानिक हैं। और ऐसी दुनिया में जब कि अणु खोज लिया गया है।


पूछा है मित्र ने कि आत्मा की साधना की क्या सार्थकता है? क्या समर्थता, क्या उसका समर्थन किया जा सकता है?


अणु तक जब तक मनुष्य नहीं पहुंचा था तब तक अगर आत्मा को न भी जानता तो चल सकता था, अब नहीं चल सकेगा। क्योंकि पदार्थ की शक्ति जिस मनुष्य के हाथों में आ गई हो विराट और अपने भीतर जो कुछ भी न जानता हो और अज्ञान से भरा हो, अज्ञान के हाथों में इतनी शक्ति खतरनाक ही सिद्ध हो सकती है, और क्या होगा? एक छोटे बच्चे को हम तलवार पकड़ा दें, तो क्या होगा? ऐसे ही छोटे से बच्चे को जो आत्मा की दृष्टि से बिलकुल बच्चा है, उस आदमी के हाथ में एटम आ गया है, क्या होगा? हिरोशिमा, नागासाकी होंगे। युद्ध होंगे, आज नहीं कल सारी दुनिया को डुबाने का आयोजन होगा। मनुष्य के हाथ में उतनी ही शक्ति शुभ है जितनी उसके भीतर शांति हो। भीतर शांति न हो बाहर शक्ति हो तो बहुत खतरनाक है यह मेल। और भीतर शांति पैदा होती है उसी मात्रा में जिस मात्रा में मनुष्य चेतना से परिचित होता है। बाहर शक्ति उपलब्ध होती है उसी मात्रा में जितना मनुष्य पदार्थ के अंतिम से अंतिम खंड को समझ पाता है। और भीतर शक्ति उपलब्ध होती है, शांति उपलब्ध होती है उसी मात्रा में जितना वह स्वयं की अंतिम से अंतिम,े गहरी से गहरी अवस्था को समझ पाता है।

तो अब तो बहुत जरूरी है अगर आदमी ने आत्मा को न समझा, तो अणु को समझना बहुत महंगा पड़ जाने वाला है। इस नासमझ आदमी के हाथों में अणु सिवाय आत्मघात के और कुछ भी न बन सकेगा। शायद तुम्हें अंदाज भी न हो कि हमने अपने आत्मघात की बड़ी तैयारी कर रखी है। पचास हजार उदजन बम हमने बना रखे हैं, ये उदजन बम बहुत ज्यादा हैं। एक जमीन बहुत छोटी है, इस तरह की सात जमीनों को बिलकुल नष्ट कर देने के लिए काफी हैं। आदमी की संख्या तो बहुत थोड़ी है अभी, कोई तीन, साढ़े तीन अरब, इससे सात गुने आदमी हों तो उन सबको मारने का हमने इंतजाम कर रखा है।

अगर आदमी के भीतर कोई शांति का सुराग नहीं खोजा जा सका तो क्या होगा? यह सारी तैयारी का क्या होगा? एक राजनीतिज्ञ पागल हो जाए, और मजे की बात यह है कि बिना पागल हुए कोई राजनीतिज्ञ कभी कोई होता ही नहीं, और अगर एक राजनीतिज्ञ पागल हो जाए, तो सारी दुनिया के विनाश की ताकत उसके हाथ में है। और राजनीतिज्ञ को हम भलीभांति जानते हैं कि यह किस तरह का आदमी होता है? दुनिया अच्छी होगी तो इस तरह के आदमी का हम चिकित्सालय में इलाज करवाएंगे। लेकिन अभी हम उसको मुख्यमंत्री बनाते हैं, प्रधानमंत्री बनाते हैं। हमारे बीच जो आज सबसे रुग्ण मस्तिष्क का आदमी है उसके हाथ में सबसे ज्यादा ताकत है। और उस ताकत के पास विज्ञान ने अणु की शक्ति दे दी है, अब क्या होगा? अमरीका का एक राजनीतिज्ञ गुस्से में आ जाए, रूस का एक राजनीतिज्ञ गुस्से में आ जाए, क्या होगा? उसका गुस्सा सारी दुनिया की मौत बन सकता है। उसके हाथ में अपरिसीम ताकत मिल गई। इस ताकत के विरोध में सारे जगत मे आत्मिक शक्ति का अविर्भाव होना चाहिए। नहीं तो मनुष्य के जीवन के दिन बहुत इने-गिने हैं। यह जिंदगी बहुत दिन चलने वाली नहीं है। तैयारी हमारी पूरी हो गई है, विस्फोट किसी भी दिन हो सकता है।

इसलिए यह मत पूछो कि अणु-युग में आत्मा की साधना की क्या सार्थकता है? पुराने दिनों में आत्मा न भी साधी जाती तो चल जाता, लकड़ी वगैरह से लड़ाई करनी पड़ती थी, तीर-भाले चलाने पड़ते थे, कुछ बड़ा खतरा नहीं था, हिंसा बहुत सीमित थी। अशांत आदमी के पास बहुत बड़ी ताकत नहीं थी। लेकिन आज तो बहुत बड़ी ताकत है। और आदमी बिलकुल अशांत है। यह आदमी शांत होना चाहिए। इसका शांत हो जाना एकदम अपरिहार्य हो उठा है। एक क्षण भी इसे खोना खतरनाक है।

इसलिए दुनिया में जो भी विचारशील हैं उन्हें यह समझना होगा कि आत्मा की दिशा में जितना काम हो सके और जितनी तीव्रता से हो सके, और जितने लोगों के भीतर आत्मा की प्यास को, खोज को, गहराई को जगाया जा सके, और जितनी तीव्रता से जगाया जा सके, क्योंकि कोई हिसाब नहीं है कि क्षण हमारे हाथ में कितने हैं, उसी मात्रा में, उसी मात्रा में मनुष्य का भविष्य सुरक्षित हो सकता है। अणु की शक्ति खड़ी हो गई है, आत्मा की शक्ति को भी खड़ा करना जरूरी है। और यह बिना आत्मा की तरफ साधना किए नहीं होगा। इसलिए बहुत-बहुत जरूरी है आज, आज से ज्यादा जरूरी यह बात कभी भी नहीं थी, और शायद आगे भी कभी भी न हो। ये क्षण शायद मनुष्य के जीवन में सबसे बड़े संकट के, सबसे बड़ी क्राइसिस के दिन हैं। इसी वक्त अगर हम आत्मिक शक्ति को भी जगा सकें, तो अणु की शक्ति विनाश न बन कर सृजन बन सकती है। उससे बहुत बड़ा सृजन हो सकता है। शायद दुनिया में किसी आदमी के भूखे रहने की अब कोई जरूरत नहीं है। और न किसी आदमी को घातक बीमार होने की जरूरत है। और शायद इतनी जल्दी मरने की भी किसी को कोई जरूरत नहीं है।

अगर अणु की शक्ति का हम सृजनात्मक, क्रिएटिव उपयोग कर सकें, तो यह जमीन वह स्वर्ग बन सकती है जिसकी कहानियां पुराणों में हैं। यह जमीन वह स्वर्ग बन सकती है। इतनी बड़ी शक्ति हमारे हाथ में आ गई है। लेकिन अगर मन हमारा बेचैन और अशांत रहा, तो इसका हम एक ही उपयोग कर सकेंगे, और वह यह कि इसी में हम जल जाएं और नष्ट हो जाएं। जो ताकत सौभाग्य बन सकती थी, वही हमारा दुर्भाग्य बन जाएगी। जो शक्ति हमारे लिए वरदान सिद्ध होती वही अभिशाप हो सकती है। इसलिए बहुत-बहुत जरूरत है कि आत्मा की खोज उस दिशा में साधना हो और उसे पाया जाए। और बहुत लोगों के भीतर वह दीया जल सके।


एक युवक ने पूछा हैः आपकी बातें ठीक मालूम पड़ती हैं, लेकिन उनसे तो क्रांति हो जाएगी, उससे तो विद्रोह पैदा हो जाएगा, उससे तो अराजकता पैदा हो सकती है।


अगर हम ठीक से देखें, तो हमारे समाज में जितनी अराजकता है, जितनी अनार्की है, इससे ज्यादा भी अनार्की किसी समाज में कभी हो सकती है? यह समाज जितना बीमार और रुग्ण, जितना अशांत, अभिशापग्रस्त है, कोई और समाज भी इससे ज्यादा अभिशापग्रस्त हो सकता है? क्या है इसमें जो बचाने जैसा है? क्या है इसमें? सब कुछ सड़-गल गया है, सब कुछ कुरूप हो गया है। तो घबड़ाहट क्या है अगर कोई बात ऐसी मालूम पड़ती हो कि उससे क्रांति हो जाए? क्रांति तो चाहिए, परिवर्तन तो चाहिए। जो समाज परिवर्तित होना बंद कर देता है वह असल में जीवित ही नहीं रह जाता। परिवर्तन तो रोज, जितना जीवित समाज होगा उतने तीव्र परिवर्तन होते हैं उसके भीतर। जितना जीवंत होता है प्रवाह उतनी ही दूर की यात्रा करता है, उतने ही नये पथों को खोजता है। क्रांति तो जीवन है, उससे क्या घबड़ाना? और युवक होकर कोई ऐसी बात करे कि क्रांति हो जाएगी और डरे, तो उसे समझ लेना चाहिए वह बूढ़ा हो चुका है, वह युवक नहीं है। एक बूढ़ा आदमी भयभीत हो सकता है। लेकिन जरूरी नहीं होता कि कोई शरीर से बूढ़ा हो गया हो तो बूढ़ा ही हो गया।

मैं एक गांव में अभी था, उस गांव के एक धनपति ने मुझे फोन किया और कहाः मैं अपनी मां को भी लाना चाहता हूं आपको सुनने, लेकिन उसकी उम्र नब्बे वर्ष है और पिछले चालीस वर्षों से वह चैबीस घंटे माला जपती रहती है, मुझे डर लग रहा है कि कहीं आपकी बातों से उसे चोट न पहुंच जाए, और इस उम्र में कहीं उसके मन को बेचैनी न पैदा हो जाए, तो मैं लाऊं या न लाऊं ? मैंने उनसे कहाः अगर तुम्हारी मां जवान होती तो मैं कहता न भी लाओ तो कोई हर्जा नहीं है, अभी वक्त है, लेकिन तुम्हारी मां के आगे कोई वक्त नहीं है इसलिए तुम जल्दी ले आओ। क्योंकि कुछ हो सकता हो तो हो जाना चाहिए। वह अपनी मां को डरते हुए लेकर आया। सभा के बाद मुझे मिले और कहने लगे, मैं बहुत हैरान हूं, सभा से उठने के बाद उन्होंने अपनी मां को पूछा होगा, कैसा लगा? उनकी मां ने कहाः चालीस साल से मैं माला जपती थी, वह माला हमेशा हाथ में रखती थी, उन्होंने कहाः माला जपने से कुछ भी नहीं होगा, मेरा अनुभव भी कहता है कि कुछ भी नहीं होता, तो मैं माला वहीं छोड़ आई हूं उसी सभा में, उसको वापस नहीं लाई हूं अपने साथ। वह बात खतम हो गई।

मैंने उनके लड़के को कहाः तुम बूढ़े हो, तुम्हारी मां जवान है। नब्बे साल की उम्र में वह माला छोड़ आई उसी भवन में। और उसने कहा कि उन्होंने कहाः माला जपने से कुछ न होगा, यह बात ठीक है, पचास साल का मेरा अनुभव भी कहता है कि कुछ भी नहीं हुआ। मैंने पचास साल जप कर देख लिया। यह बात ठीक है, बात खत्म हो गई। मैं माला वहीं छोड़ आई हूं।

इस स्त्री को कोई बूढ़ा कह सकता है? लेकिन जवान आदमी जब विद्रोह और कं्राति से डरे तो उसे कोई जवान कहेगा? जवानी का मतलब क्या है? जवानी का मतलब हैः जिसका हृदय अभी परिवर्तन के लिए तैयार है। जो नये की खोज में निकल सकता है, जो नये की खोज का साहस कर सकता है, वह जवान है। जो नये से भयभीत होता है और पुराने से चिपट जाता है, वह बूढ़ा हो गया, मन से बूढ़ा हो गया।

हिंदुस्तान में जवान बहुत दिनों से पैदा होने बंद हो गए हैं, यहां बूढ़े आदमी ही पैदा होते हैं, जवान पैदा ही नहीं होता। हमारी सारी भाषा बूढ़ी हो गई। मेरा मतलब समझे बुढ़ापे से? क्रांति से क्या घबड़ाना? क्रांति तो होनी चाहिए, जरूर होनी चाहिए। क्योंकि क्रांति तो जिंदगी को रोज नया-नया करने की प्रक्रिया का नाम है। रोज नई-नई जिंदगी होती जानी चाहिए। ठहर नहीं जाना चाहिए जीवन का प्रवाह।

एक तालाब होता है, उसमें प्रवाह रुक गया होता है। एक नदी होती है, उसमें प्रवाह खुला और मुक्त होता है। नदी बड़ी क्रांतिकारी है, जो नये-नये रास्ते खोजती रहती है, अनजान सागर की तरह उसकी यात्रा चलती जाती है। तालाब शायद डर गया है। तालाब शायद बूढ़ी हो गई नदी, वह घबड़ा गया है, उसने अपने को बंद कर लिया है एक जगह, वह डरता है आगे जाने से। परिवर्तन करना पड़ेगा, न मालूम किन रास्तों पर चलना पड़े, न मालूम सुख हो कि दुख हो, यही ठीक है, जहां हैं वहीं ठीक है। एक स्टेट्स-को पैदा करता है। वहीं रुक जाता है, वहीं बंध जाता है। फिर पता है जो तालाब बंध जाता है तो क्या होता है? सिर्फ मरता है। फिर उसमें कोई जिंदगी नहीं रह जाती। सूखता है और मरता है। सूखता है और मरता है और गंदा होता चला जाता है। क्योंकि गंदगी, जब कोई नदी बहती है तो बह जाती है और नदी रोज फिर पवित्र हो जाती है। और तालाब? तालाब में तो पानी तो उड़ता जाता है, गंदगी ठहरती चली जाती है। धीरे-धीरे पानी तो नहीं रह जाता, कीचड़ रह जाती है, कचरा रह जाता है। वह कचरा इकट्ठा होता चला जाता है।

तो तालाब की जिंदगी होती है एक, एक नदी की जिंदगी होती है। जवान आदमी वही है जो उद्याम नदी के वेग से जीता हो, जो तालाब न बन जाए। और पूरा समाज जब नदी के वेग से जीता है, तो पूरा समाज जिंदा होता है। और जब पूरा समाज ही एक डबरे की तरह हो जाता है, तो मर जाता है। कई कौमों ने अपने आप को डबरा बना लिया है। और वे बड़ी गौरवांवित भी समझती हैं अपने को कि देखो हम कहीं बहते नहीं, हम कहीं जाते नहीं, हम तो जहां के तहां हैं। हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति बड़ी महान है। इसको कहीं जाना नहीं पड़ता, जहां की तहां ठहरी रहती है। लोग आते हैं और चले जाते हैं, लेकिन हम वहीं के वहीं हैं। यह कोई गौरव की बात है? यह कोई सम्मान की बात है? यह तो इस बात की खबर है कि हमने जीना छोड़ दिया है। वह जो डाइनैमिक, वह जो परिवर्तनशील, गत्यात्मक जीवन होना चाहिए, वह जा चुका है। निरंतर-निरंतर गत्यात्मक होना चाहिए।

युवक को तो सोचना चाहिए विद्रोह की भाषा में। लेकिन विद्रोह का क्या मतलब? विद्रोह का क्या यह मतलब है कि मकानों को जला दो, बसों में आग लगा दो, स्कूल के कांच फोड़ दो, शिक्षक का जीना हराम कर दो, यह विद्रोह का मतलब है? अगर यही विद्रोह का मतलब है, तो, तो बात दूसरी है, लेकिन यह विद्रोह का मतलब नहीं है, यह तो मूर्खता का मतलब हो सकता है विद्रोह का नहीं। विद्रोह तो बड़ी गहरी चीज है, विद्रोह तो मूल्यों को बदलने की बात है, वैल्यूज को बदलने की बात है। विद्रोह किसी बस पर पत्थर फेंकने का नाम नहीं है और न कहीं हड़ताल कर देने का नाम है। और जो हम चारों तरफ देख रहे हैं विद्रोह वह विद्रोह नहीं है। विद्रोह तो है जीवन जहां-जहां जकड़ गया हो, जिन-जिन मूल्यों ने जीवन को पकड़ लिया हो और उसकी गति को अवरुद्ध कर लिया हो, उन-उन मूल्यों को बदल देना। हजार-हजार जकड़नें हमारे ऊपर हैं, सारी मनुष्य-जाति के ऊपर, उनको तोड़ना है, वहां विद्रोह करना है।

लेकिन हमारे समाज के अगुआ बहुत होशियार हैं, वे विद्रोही न हो सके, असली विद्रोही न हो सके। इसलिए वे जवान को अंत्यंत टुटपुंजिया विद्रोह करना सिखा देते हैं, वे कहते हैं, पत्थर फेंको बस पर, जैसे बस पर पत्थर फेंकने से और मकान में आग लगा देने से कोई क्रांति होने वाली है। बल्कि सच यह है कि अगर लड़के यही करते रहे और उनकी ताकत इसी में लग गई, तो क्रांति कभी न हो पाएगी। और ये बहुत जो होशियार हैं हमारे समाज में शोषण करने वाले, उनके पक्ष में हैं, उनके हित में हैं। ऐसे में ऊपर से चिंता जाहिर करते हैं कि बहुत बुरा हो रहा है, लेकिन मन से वे इसे पसंद करते हैं कि यह होता रहे, युवक की ताकत इस बेवकूफी में लगी रहे। वह जिंदगी जैसी डबरे में बंद है वहीं बंद रही आएगी। वे चाहते हैं दिल से बहुत भीतर कि यही नासमझियां युवक करता रहे, तो असली क्रांति कभी नहीं कर पाएगा।

मैं तो आपसे कहूंगाः अगर अपने स्कूल के मास्टर के खिलाफ पड़ गए हैं, तो आप नासमझ हैं। अगर लड़ाई ही करनी है तो मनु महाराज से करो, बेचारे मास्टर से क्या करनी। मनु महाराज से लड़ाई लो, अगर लेनी है। मूल्य तीन हजार साल पहले जहां मनु छोड़ गए हैं वहीं रुक गए हैं, वहां से उन्हें आगे बढ़ाना है। वहां टक्कर है, वहां लड़ाई है। मुल्क को जिन्होंने गलत मूल्य दे दिए हैं उनसे लड़ाई है, उनसे टक्कर है। और वह लोगों से नहीं है वह मूल्यों से है, वैल्यूज से है, जो हमें पकड़ लेती है।

अब हिंदुस्तान में आज भी शूद्र हैं, यह बड़ी आश्चर्य की बात है! यह होना चाहिए क्या? आज भी हिंदुस्तान में अजीब-अजीब बातें हैं, जिनकी कि कल्पना करने में भी हंसी आती है। छोटी-छोटी टुच्ची बातों पर विरोध है--मराठी और गुजराती का विरोध है, हिंदी और गैर-हिंदी वाले का विरोध, हिंदू और मुसलमान का विरोध; आने वाले बच्चे हसेंगे हम पर। कैसे लोग थे? कैसे नासमझ? कैसे स्टुपिड? क्या बेवकूफियां करते थे? कैसी टुच्ची बातों पर लड़ते थे, आग लगाते थे, हत्या करते थे, हड़ताल करते थे? हैरान होंगे आने वाले बच्चे कि ये कैसे लोग थे? इन सबको तोड़ देना जरूरी है, इन सब दीवालों को तोड़ देना जरूरी है, इस तरह की नासमझियों को तोड़ देना जरूरी है। और सोचना जरूरी है। और सोचने से जो क्रांति आए, विद्रोह आए, वह बहुत शुभ होगा। इससे घबड़ाएं न।


पूछा है उन्हीं युवक नेः ऐसा जो विद्रोह है, ऐसी जो क्रांति है, ऐसा जो इंकलाब, ऐसा जो परिवर्तन है वह लाने के लिए एक अंधा विवेकहीन युवक कुछ भी नहीं कर सकेगा। चाहिए एक बहुत विचारपूर्ण, जाग्रत, बहुत ओज से भरा हुआ, बहुत विवेक से भरा हुआ, बहुत सावधान।


इतनी सावधानी और विचार से अगर युवक भरेगा तो क्रांति होगी। और उस क्रांति से हित होगा, मंगल होगा। सभी क्रांतियों से मंगल नहीं हो जाता है। अगर क्रांति करने वाला बेहोश है, नासमझ है, तो केवल तोड़-फोड़ करता है, बना कुछ भी नहीं पाता। असली क्रांति वह नहीं है जो केवल तोड़ती है, असली क्रांति तो वह है जो इसलिए तोड़ती है ताकि कुछ बनाया जा सके। जो इसलिए मिटाती है ताकि कुछ निर्मित किया जा सके। जो जमीन को इसलिए खाली करती है पुराने से ताकि नये का भवन खड़ा हो सके। लेकिन विवेक-शून्यता केवल तोड़ती है। विवेक निर्मित करता है, वह विवेक चाहिए, उस विवेक की जागृति चाहिए। वह विचार करने से जीवन के संबंध में पैदा होगी। हम तो विचार करते नहीं हैं, हमने तो मान रखी हैं बातें जो किसी ने कह दी हैं। और जब भी हम मान लेते हैं और विचार नहीं करते, तो हमारे भीतर विवेक कैसे पैदा होगा? हमें हजारों साल से कोई बात कह दी जाती है और हम मानते चले जाते हैं। न हम संदेह करते हैं, न हम विचार करते हैं, न हम ठिठक कर खड़े होते हैं और न पूछते कि यह क्या है? यह सच है? यह ठीक है? हमारा युवक भी नहीं सोच रहा है।

एक डाक्टर के साथ मैं उनके घर से निकला, किसी मरीज को दिखाने ले जा रहा था। एक बिल्ली रास्ता काट गई। वे डाक्टर मुझसे बोले, दो मिनट ठहर जाएं। मैंने कहाः आप ठहरें, मैं किसी दूसरे डाक्टर को लेकर जाऊंगा। उन्होंने कहाः क्यों? मैंने कहाः जो डाक्टर बिल्ली के काटने से रुकता हो, उसकी डाक्टरी पर मुझे शक हो गया है, यह आदमी डाक्टर होने के लायक नहीं है। इसके मन में कोई वैज्ञानिकता नहीं है। बिल्ली के काटने से रास्ता और एक डाक्टर रुकेगा? एक इंजीनियर रुक जाएगा कि उसको छींक आ गई? एक पढ़ा-लिखा आदमी? एक बेचारे ऐसे गरीब आदमी को जिसके पास एक ही आंख है, उसको देख कर दुर्भाग्य समझेगा अपना। तो फिर ऐसे युवक क्या क्रांति लाएंगे? क्या करेंगे? कौन सी वैज्ञानिकता पैदा करेंगे? तो फिर जिंदगी में बहुत विवेक और विचार चाहिए कि हम क्या कर रहे हैं? निरंतर अपने से पूछना चाहिए, निरंतर प्रश्न खड़े करने चाहिए, निरंतर संदेह करना चाहिए, सतत खोज जारी रखनी चाहिए कि यह क्या हो रहा है?

हमारे मुल्क में तो हमने विचार करना कई हजार साल से बंद कर दिया है। हमने वह तकलीफ उठानी ही बंद कर दी है। वह हमने दो-चार लोगों पर छोड़ दिया है। हे भगवान कृष्ण! तुम सोचो और गीता दे दो, हम उसी को सम्हाले रखेंगे, हमें क्यों परेशान करते हो? आपने किताब दे दी, अब हमारा काम है कि हम इसको पढ़ें, इसको सिर नवाएं और गुणगान करें। और हमें कोई करना नहीं है। हे भगवान महावीर! अब तुमने सब सोच लिया है, तुम सर्वज्ञ हो, तुमने सब बता दिया, अब हममें से किसी को भी सोचने की जरूरत नहीं। अब हम सोचने को छुट्टी देते हैं, अब सोचने-विचारने की इस देश में कोई जरूरत नहीं है,क्योंकि सर्वज्ञ हो चुके, और उन्होंने जो कह दिया, वह पूरा हो गया। इस नासमझी का हम फल भोग रहे हैं। उसकी वजह से हमारे मुल्क में कोई विवेकपूर्ण क्रांति नहीं पैदा हो पा रही। क्योंकि हमने सब छोड़ दिया है किसी और पर।

जो आदमी सोचना तक दूसरे पर छोड़ दे, उससे अभागा कोई आदमी हो सकता है? फिर उसके पास बचा क्या आदमी कहने लायक? सोचने की ही ताकत थी जो उसे मनुष्य बनाती थी, वही उसने त्याग दी। अब वह केवल एक अनुकरण करने वाला, पीछे चलने वाला हो गया है।

मैं तुमसे प्रार्थना करूंगाः निश्चित ही विद्रोही बनो, लेकिन तुम्हारा विद्रोह विवेक पर खड़ा हो, निरंतर विचार से जन्मे, तो तुम्हारे विद्रोह से अहित नहीं होगा, मंगल सिद्ध होगा, सबका हित होगा उसमें। और हर चीज पर विद्रोह की जरूरत है। कुछ ऐसा नहीं है कि किसी एक बात पर, अब मैं उस विस्तार में नहीं जा सकूंगा, लेकिन हर मुद्दे पर हर चीज पर बुनियादी विद्रोह और चिंतन की जरूरत हो गई है। पूछना जरूरी हो गया है फिर से, असल में कोई भी कौम बार-बार पूछ लेती है, बार-बार नाप-जोख कर लेती है, नहीं तो भूल में पड़ जाती है।

छोटा बच्चा है, उसके लिए हम कपड़े बनवाते हैं, फिर जवान हो जाए, और वही कपड़े पहने रहे, या तो हम उसको पागल कहेंगे कि यह आदमी पागल है, जो पांच साल के बच्चे के लिए काफी थे, वह यह पचास साल की उम्र में पहने हुए हैै। वही कपड़े पहने हुए है, इसने सोचा भी नहीं, पूछा भी नहीं कि मैं बदल गया हूं, अब कपड़े का बदल लेना जरूरी है। रोज जिंदगी बदल रही है, रोज समय बदल रहा है, जीवन की धारा रोज-रोज नई-नई जगहों को पार कर रही है। नई समस्याएं हैं, नये प्रश्न हैं और हम पुराने कपड़ों में ही कैद। और हमने जिद्द कर रखी है कि अगर गड़बड़ है तो आदमी को काट-छांट कर छोटा कर दो, लेकिन हम कपड़े नहीं बदलेंगे। आदमी के पैर थोड़े छोटे कर दो, हर्जा क्या है? थोड़े हाथ काट कर छोटा कर दो, इसको कहो कि थोड़ा व्यायाम करो, प्राणायाम करो, छोटे बने रहो, बड़े मत बनो। इसको ही समझाओ कि आसन करो, वगैरह करो। लेकिन कपड़े यही ठीक रहेंगे। तुम छोटे रहो, तुम बड़े मत हो जाना। यह आदमी की गलती है अगर यह बड़ा होता है तो। बदलता है तो कपड़े की क्या गलती, कपड़ा तो बेचारा बहुत अच्छा है। और पूर्वज जिस कपड़े को बना गए, बेटों का फर्ज है कि उसी को पहने? यही उनका कर्तव्य है? यही पिताओं के प्रति उनकी आदर-भावना है? श्रद्धा है? यह आदर है? यह श्रद्धा है? अगर वे बापदादे वापस लौट आएं, वे ऐसे नालायक बच्चों को देख कर हैरानी से भर जाएंगे कि हमने जो कपड़े इनके बचपन के लिए बनाए थे, ये बुढ़ापे में पहने हुए हैं। अगर वे वापस लौट आएं, तो हैरान होंगे कि ये कैसे लोग हैं? हमने तीन हजार साल पहले जो बात कही थी, ये उसको पकड़ कर अभी बैठे हुए हैं, बीसवीं सदी में भी वही चलाए जा रहे हैं। सिर पीट लेंगे अपना हमारे नाम पर। और हम सोच रहे हैं हम उनको आदर दे रहे हैं।

जिंदगी रोज बदल जाती है, जिंदगी की समस्याएं बदल जाती हैं, इसलिए समाधान बदलने पड़ते हैं। कौन बदलेगा यह? ये विचारशील, विचारशील युवक चाहिए, जो सोचे, देखे और बदले। तो क्रांति से भयभीत होने की जरूरत नहीं। उसका भी स्वागत जरूरी है।


एक युवक ने पूछा है कि पाकिस्तान से लड़ाई के वक्त, चीन से लड़ाई के वक्त, या सीमांत पर जब भी उपद्रव होता है, तो हम अपने अहिंसा के सिद्धांत का क्या करें?


सिद्धांतों को आग जला कर उसमें डाल देना चाहिए। सिद्धांतों की कोई जरूरत नहीं है। जिंदगी की जरूरत है। सिद्धांत सब झूठे होते हैं, वक्त पर काम नहीं आते। अगर कोई आदमी अहिंसक होगा तो वह यह पूछेगा कि अब युद्ध आ गया है तो हम अहिंसा का क्या करें? जब युद्ध नहीं था तब अहिंसा की जरूरत नहीं थी और अब युद्ध आ गया है तो हम अहिंसा का क्या करें? अगर मैं प्रेमपूर्ण हूं और आप मुझे गाली दे दें, तो मैं पूछूंगा कि अब मैं अपने प्रेम का क्या करूं? यह आदमी मुझे गाली दे रहा है, मैं शांत था और एक आदमी ने आकर मेरा अपमान कर दिया, तो मैं यह पूछूंगा कि अब मैं अपनी शांति का क्या करूं? यह आदमी मेरा अपमान कर रहा है? अगर कोई मेरा अपमान न करता तो मैं शांत बना रहता, अब तो बड़ी मुश्किल की बात हो गई, अब तो यह शांति के सिद्धांत का क्या हो? सिद्धांतों की कसौटी तब होती है जब उनके प्रतिकूल परिस्थिति खड़ी हो जाती है। चीन और पाकिस्तान के उपद्रवों ने यह जाहिर कर दिया कि हमारी सब अहिंसा की बातचीत बकवास और झूठी थी। इस सत्य को हम नहीं देखेंगे। हम फिर वही पुरानी बकवास दोहराए चले जाएंगे जो कि वक्त पर काम नहीं आई।

हमें जानना चाहिए, ठीक से जान लेना चाहिए कि हम केवल अहिंसा की बातें करने वाले लोग हैं। अहिंसा से हमारा कोई संबंध नहीं है। इसलिए यह कोई मुसीबत न हो तो हम मंदिरों में अहिंसा के प्रवचन चलाते हैं और किताबें छापते हैं और अहिंसा परमोधर्मः का गुणगान करते हैं और झंडों पर लिखते हैंः अहिंसा परमोधर्मः। और जब प्रतिकूल परिस्थिति आ जाती है, तो हम कहते हैं, अब तो हमें अहिंसा की रक्षा के लिए तलवार उठानी ही पड़ेगी। बड़ी मजे की बात है, अहिंसा की रक्षा के लिए तलवार उठानी पड़ेगी? तो अहिंसा इतनी कमजोर है कि उसको अपनी रक्षा के लिए हिंसा की जरूरत पड़ती है? तो ऐसी कमजोर अहिंसा को छुट्टी करो, इसकी कोई जरूरत नहीं है। जो वक्त पर हिंसा का सहारा जिसे खुद ही खोजना पड़ता हो तो ऐसी अहिंसा को हम क्या करेंगे? लेकिन हमने धोखा दिया है अपने आप को। हम कुछ बातें कर-कर के, शोरगुल मचा-मचा कर यह समझने लगे हैं कि हम अहिंसक हैं। अहिंसक होना इतना सस्ता नहीं है। धर्म इतना सस्ता नहीं है। अहिंसक होना बड़ी तपश्चर्या सेगुजर जाना है। अहिंसक होने का मतलब हैः जिस व्यक्ति के हृदय से घृणा के, क्रोध के, ईष्र्या के, प्रतिहिंसा के, महत्वाकांक्षा के, एंबीशन के समस्त द्वार समाप्त हो गए हैं, जिसका हृदय प्रेम की एक धारा बन गया है। फिर, फिर उसके साथ कुछ भी स्थिति खड़ी हो जाए, वह मरने को राजी हो जाएगा, लेकिन यह नहीं पूछेगा, अब अहिंसा के सिद्धांत का क्या करें। तो बात ही नहीं है पूछने की।

बुद्ध का एक शिष्य था, पूर्ण। उसकी दीक्षा पूरी हो गई, उसकी शिक्षा पूरी हो गई। उसने बुद्ध से कहाः अब मैं जाऊं और आपने जो प्राणवान संदेश मेरे हृदय में फूंका है, मैं उसकी खबर दूर हवाओं तक पहुंचा दूं, दूर किनारों तक जमीन के।

बुद्ध ने कहाः जरूर जाओ, लेकिन इसके पहले कि तुम जाओ मैं कुछ पूछना चाहता हूं। कहां तुम जाना जाहते हो? किस प्रदेश में? बिहार का एक छोटा सा इलाका था, सूखा, उसने कहा, मैं सूखा की तरफ जाऊंगा, वहां अब तक कोई भी भिक्षु नहीं गया है।

बुद्ध ने कहाः वहां न जाओ तो अच्छा है, तुम युवा हो, अभी नये हो। कहीं और जगह चुन लो तो अच्छा है।

पूर्ण ने कहाः क्यों ऐसा कहते हैं?

बुद्ध ने कहाः वहां के लोग बहुत बुरे हैं। हो सकता है, तुम जाओ, वे गाली-गलौज दें, बुरे भले शब्द कहें, तो तुम्हारे मन को क्या होगा?

पूर्ण ने कहाः यह भी आप मुझसे पूछते हैं? अगर वे मुझे गाली देंगे, अपशब्द कहेंगे, अपमान करेंगे, तो मेरे मन को होगा, भले लोग हैं, सिर्फ गाली देते हैं, इतना ही क्या कम है, मार-पीट भी तो कर सकते थे।

बुद्ध ने कहाः और यह भी हो सकता है कि वे मार-पीट करें, फिर क्या होगा?

तो पूर्ण ने कहाः होगा मेरे मन को भले लोग हैं, सिर्फ मारते हैं, मार भी तो डाल सकते थे।

बुद्ध ने कहाः अंतिम बात और पूछे लेता हूं, फिर कुछ भी नहीं पूछूंगा। और अगर उन्होंने तुम्हें मार ही डाला, तो मरते क्षण में तुम्हारे मन को क्या होगा?

पूर्ण ने कहाः धन्यवाद दूंगा उन लोगों का, भले लोग हैं, उस जीवन से छुटकारा करवा दिया जिसमें कोई भूल-चूक हो सकती थी।

बुद्ध ने कहाः अब तुम कहीं भी जाओ। अब सारा जमीन तुम्हारा घर है और सब तुम्हारे मित्र हैं। क्योंकि जिसके हृदय में ऐसी अहिंसा का जन्म हो गया हो उसका कोई भी शत्रु नहीं है।

इस आदमी को तो हम अहिंसक कह सकते हैं, लेकिन ‘अहिंसा परमोधर्मः’ की जय लगाने वालों को नहीं। बेईमान, अपने आप को धोखा देने का हम बहुत रास्ता खोज लेते हैं, हम बहुत बेईमान हैं। अहिंसा का नारा लगाते हैं, हिंसा भीतर सुलगती रहती है। उसी सुलगने की वजह से जोर-जोर से नारा लगाते हैं। वह जो भीतर सुलग रही है हिंसा, वह जो भीतर चल रहा है क्रोध, वह जो भीतर उबल रही है सब कुछ, और जोर-जोर से नारा लगाते हैं और जोर-जोर से कूदते हैं, झंडा उठाते हैं। और अगर पड़ोस में कोई दूसरा झंडा उठा ले और तुमसे जोर से नारा लगाने लगे, तो तुम दोनों में झगड़ा भी हो सकता है। कि हम श्वेतांबर अहिंसावादी हैं, तुम दिगंबर अहिंसावादी हो, यह नहीं चल सकता। हम और हैं, तुम और हो, आ जाओ फिर, कौन सबसे बड़ा अहिंसावादी है इसको सिद्ध ही करना पड़ेगा। तो अदालत में भी जा सकते हैं, लकड़ी भी चला सकते हैं, हिंसा भी कर सकते हैं, क्योंकि अहिंसा की रक्षा के लिए इन सबकी जरूरत पड़ जाती है। यह हम सब कर सकते हैं।

यह कोई अहिंसा-वहिंसा नहीं, सब झूठी बातचीत है। और बहुत झूठी बातचीत में हम पड़े रहे हैं। और जब तक इस झूठी बातचीत में हम पड़े रहेंगे तो दुनिया में अहिंसा का कैसे जन्म हो सकेगा? एक दुनिया चाहिए जिसमें अहिंसा का जन्म हो। जरूर चाहिए, बिना अहिंसा के मनुष्य का कोई हित नहीं है, कोई मंगल नहीं है। लेकिन कौन लाएगा यह अहिंसा? अहिंसा की बातचीत करने वाले लोग या वे लोग जो अपने हृदय को एक बार प्रेम की क्रांति से गुजर जाने दें? अहिंसा सिद्धांत नहीं है, अहिंसा तो जीवंत प्रेम का नाम है। सिद्धांत की मत पूछें। सिद्धांतों से क्या लेना-देना है? सिद्धांत किसके काम पड़ते हैं? जीवंत प्रेम का नाम है अहिंसा, उसे अपने भीतर पैदा होने दें। और वह जिस दिन पैदा हो जाएगी, उस दिन आपके लिए कोई पाकिस्तानी नहीं है, कोई चीनी नहीं है। तो अहिंसक के लिए कोई अपना देश नहीं, कोई पराया देश नहीं। जो यह न कहता हो कि भारत पर पाकिस्तान का हमला हुआ, बल्कि जो यह कहता है कि भारत और पाकिस्तान की लड़ाई दुर्भाग्यपूर्ण है। जब हम कहते हैं कि भारत पर हमला हुआ, तो हम भारत के हो जाते हैं और दूसरा हमलावर हो जाता है।

दुनिया में ऐसे लोग चाहिए जो हर झगड़े को गृहयुद्ध के रूप में देखें, एक-दूसरे के ऊपर हमले की शक्ल में नहीं। जैसे घर के दो आदमी लड़ पड़े हों, इस तरह से देखें। जो आदमी अहिंसक है वह ऐसे ही देखेगा कि घर के दो लोग लड़ रहे हैं, एक गृहयुद्ध हो रहा है। पाकिस्तान और हिंदुस्तान के भाई लड़ रहे हैं। कोई इस तरह देखेगा, जिसके मन में अहिंसा है। और वैसा आदमी युद्ध समाप्त हो इसका मार्ग खोजेगा। इसके लिए श्रम करेगा, हो सकता है इसके लिए उसे मरना भी पड़े, तो मरेगा। इस भाषा में वह नहीं सोचेगा कि मेरे देश पर हमला हो गया है तो अब, अब अहिंसा के सिद्धांत का क्या करें? जो आदमी कहता है, मेरा देश, उसने तो हिंसा को स्वीकार कर लिया। यह मेरा और दूसरे का देश हिंसा के आधार पर खड़ी की गई सीमाएं हैं। सब दुनिया की सीमाएं वायलेंस की, हिंसा की सीमाएं हैं। प्रेम की कोई सीमा होती है? मैं अगर प्रेम से भर जाऊंगा तो मैं यह कहूंगा कि मेरा प्रेम, देख कर चलना, पाकिस्तान की सीमा आ गई, इसके आगे मत जाना, इधर अपना देश नहीं है। मेरे भीतर प्रेम पैदा होगा तो पाकिस्तान की सीमा पर ठिठक कर रुक जाएगा कि देखना इधर बगल में मुसलमान रहता है, यह अपने वाला नहीं, इधर मत जाना। प्रेम कहीं रुकेगा, अगर पैदा होगा। प्रेम कोई सीमा नहीं मानता, प्रेम असीम है। और जहां-जहां सीमाएं हैं वहां-वहां हिंसा है, वहां-वहां घृणा है। ये देशों की सीमाएं भी हिंसा की सीमाएं हैं। इसलिए अहिंसक देश को स्वीकार नहीं करता और न अहिंसक किसी देश का नागरिक हो सकता है। नागरिक से मेरा मतलब सामान्य काम-काज के अर्थों में नहीं, राजनैतिक चित्तता के अर्थ में, पॅालिटिकल अर्थ में। कोई नागरिक किसी देश का नहीं हो सकता, अहिंसक व्यक्ति तो विश्व नागरिक होगा। दुनिया में ऐसे लोगों की जरूरत है जो छोटे-छोटे देशों की क्षुद्र सीमाओं से अपने को मुक्त करें, छोटे संप्रदायों की सीमाओं से मुक्त करें, तभी शायद एक ऐसी मनुष्यता का जन्म हो सके जहां युद्ध न होते हों, जहां युद्ध समाप्त हो जाएं।

लेकिन राजनैतिक नहीं मान सकता यह कि सीमाएं न हों। क्योंकि जिस दिन सीमाएं नहीं हैं उस दिन राजनीतिज्ञ भी नहीं। वह उसी के साथ जुड़ा हुआ है। उस दिन वह नहीं बच सकेगा। इसलिए राजनीतिज्ञ बड़ा मोह रखता है सीमा का। नक्शे बनाता है और सीमाएं बनाता है। और लड़ता है और लड़वाता है। एक-एक इंच जमीन के लिए करोड़ों-करोड़ों लोगों को कटवाता है। और बड़ा मजा यह है कि जमीन किसके लिए है यह? जमीन के लिए लोग कटते हैं। और जमीन इसलिए है कि लोग इस पर रहें। जमीन लोगों के लिए है कि लोग जमीन के लिए हैं? सीमाएं किसके हित के लिए हैं, इसलिए कि इस पर लोग रोज कटें? अगर इसीलिए ये सीमाएं हैं लोगों के कटने के लिए तो यह किसके मंगल में हैं, किसके हित में हैं? वह दुनिया करीब आ रही है, जो जवान हैं, जो नई पीढ़ी के लोग हैं वे उस तरफ देखें और उस तरफ श्रम करें। एक दुनिया आए जहां कोई सीमाएं न हों, क्षुद्र टुकड़े न हों। मनुष्यता इकट्ठी खड़ी हो सके, ऐसे श्रम में वही लग सकता है जिसका हृदय प्रेम और अहिंसा से भरा हुआ है।


प्रश्न तो और भी बहुत हैं, लेकिन अब कठिन होगा कि मैं और प्रश्नों के उत्तर दूं, एक छोटी सी बात कहूंगा और अपनी चर्चा को पूरा करूंगा।

एक युवक ने पूछा हैः पूरब के ऊपर पश्चिम का प्रभाव पड़ रहा है, क्या यह शुभ है? अध्यात्म के ऊपर भौतिकता का प्रभाव पड़ रहा है, क्या यह शुभ है?


एक छोटी सी कहानी है, मैं अपनी चर्चा पूरी कर दूंगा।

रोम में एक बादशाह बीमार पड़ा, उसकी चिकित्सा होनी कठिन हो गई। वह मरने के करीब आ गया। उसके चिकित्सकों ने अंततः कहा, किसी शांत और समृद्ध व्यक्ति का कोट लाकर यदि राजा को पहना दिया जाए, तो राजा ठीक हो सकता है। और तब तो हर घर यही बात सुनाई पड़ने लगी, वजीर घबड़ाया, साथ में भागते नौकर को उसने कहा, अब क्या होगा? उस नौकर ने कहाः मैंने तो पहले ही समझ लिया था कि यह इलाज बहुत कठिन मालूम होता है। क्योंकि जब आपने यह सुना, आप खुद अपना कोट लेकर नहीं आए, और दूसरे के घर कोट पूछने को गए, आप बड़े वजीर हो राजा के, तभी मैं समझ गया था कि यह कोट मिलना मुश्किल है। क्योंकि यह आदमी को खुद यह खयाल नहीं आता कि मेरा कोट काम आ जाए। वजीर ने कहाः कोट तो मेरे पास बहुत हैं, समृद्धि भी बहुत, लेकिन शांति कहां? फिर तो साफ था कि कोट नहीं मिला। लेकिन दिन के उजाले में कैसे जाए राजा के पास, क्या मुंह लेकर? रात हो गई, सूरज ढल गया, तो वजीर चला चुपके-चुपके अंधेरे में। जाकर राजा के पैरों में सिर रख कर रो लेगा कि यह इलाज नहीं हो सकता। नहीं कोई आदमी मिलता जो सुखी भी हो और शांत भी। समृद्ध लोग हैं, लेकिन वे शांत नहीं।

महल के पास नदी के किनारे धीरे-धीरे चलता था डरा हुआ, भयभीत, क्या मुंह लेकर जाएगा। तभी सुनाई पड़ी उस पार से बांसुरी की आवाज। कोई बहुत, बहुत मधुर स्वरों में गीत गाता था। बड़ी शांति थी उन स्वरों में। एक आशा बंधी, उसके पैर वापस लौट पड़े। वह भागा हुआ उस आदमी के पास पहुंचा, सोचा शायद यह आदमी शांत मालूम पड़ जाए। शांत हृदय से ही ऐसा संगीत पैदा हो सकता है। उसके पास गया, हाथ जोड़ कर अंधेरे में खड़ा हो गया, जैसे ही उसने बांसुरी बंद की, उसने कहा कि मेरे मित्र, कृपा करो, और देखो इनकार मत कर देना, मैं बहुत द्वारों से इनकार पा चुका हूं। राजा मरणासन्न है, बचा लो उसे। तुम्हारे कोट की जरूरत है। चिकित्सक ने कहा है किसी शांत और समृद्ध आदमी का कोट मिल जाए। तुम शांत हो न, देखो न मत करना। उस आदमी ने कहा कि मैं बिलकुल शांत हूं और मैं अपने प्राण भी दे सकता हूं बचाने के लिए, लेकिन अंधेरे में तुम देख नहीं रहे, मैं नंगा बैठा हुआ हूं, कोट मेरे पास नहीं है।

राजा उस रात मर गया। कुछ लोग मिले जिनके पास कोट थे, लेकिन शांति नहीं थी। एक आदमी मिला जिसके पास शांति थी, लेकिन वह नंगा था। राजा मर गया।

अब तक दुनिया में ऐसी ही हालत रही है। पूरब के मुल्कों ने शांति की खोज की, कोट खो दिया। पश्चिम के मुल्कों ने कोट के ढेर लगा लिए, शांति खो दी। और आदमी मरणासन्न है।

और मैं कहता हूं कि किसी ऐसे आदमी का कोट चाहिए जो शांत भी हो सुखी भी हो, तो आदमी बच सकेगा, नहीं तो अब आदमी मरेगा। और ये पूरब-पश्चिम के झगड़े मत खड़े करो, यह भौतिक और अध्यात्म का भेद मत खड़ा करो। एक ऐसा आदमी चाहिए जो सुखी भी हो और शांत भी। इसलिए आने वाली दुनिया में पूरब-पश्चिम दोनों मिट जाने चाहिए। आने वाली दुनिया में एक संस्कृति पैदा होनी चाहिए अखंड, पूरब और पश्चिम की एक, धर्म और विज्ञान की एक, शरीर और आत्मा की एक। सुख और शांति को एक साथ खोजनी वाली संस्कृति को जन्म देना है। वही संस्कृति पूर्ण संस्कृति होगी। अब तक की सब संस्कृतियां अधूरी रही हैं। और अब बड़ा खतरा हो गया है, आदमी बीमार पड़ा है, आदमी...वह राजा मर जाता तो हर्जा नहीं था, राजा पैदा होते हैं। वापस अब आदमी बीमार पड़ा है, पूरी आदमियत बीमार पड़ी है। अब पूरब और पश्चिम अगर न मिल पाए तो यह आदमी नहीं बच सकेगा।

अंत में मैं यही कहता हूं, अब तक हमने धर्म को और विज्ञान को अलग तोड़ कर देखा, शरीर और आत्मा को अलग तोड़ कर देखा, अब यह नहीं चलेगा, इनको जोड़ कर देखना पड़ेगा। आदमी अखंड है। और पूरे मनुष्य की तृप्ति चाहिए--उसके भीतर शांति होनी चाहिए, उसके बाहर सुख। उसके बाहर समृद्धि होनी चहिए और भीतर संगीत होना चाहिए। इसमें कोई दोनों में विरोध नहीं है।

फिर दुबारा आपके पास कभी आऊंगा। आपके बहुत प्रश्न कायम रह गए, उनकी चर्चा करूंगा। तब तक और भी प्रश्न पैदा हो जाएंगे। जो छूट गए प्रश्न उनके लिए क्षमा मांगता हूं, जिनके प्रश्न छूट गए हों।


मेरी बातों को इतने प्रेम से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें।


गांधी

 जब गांधी जी उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड गए थे तब उनकी मां ने उनसे तीन प्रतिज्ञा ली थीं। पहली, वे किसी भी पराई स्त्री की तरफ वासना भरी नजरों से नहीं देखेंगे, जो बहुत ही दुष्कर कार्य है क्योंकि जैसे ही आपको मालूम चलेगा कि आप वासना भरी नजरों से देख रहे हैं, तब तक तो आप देख ही चुके होंगे। मुझे नहीं लगता कि गांधी जी ने इस प्रतिज्ञा का पालन किया होगा, वे कर ही नहीं सकते, इसका पालन कर पाना असंभव है। यद्यपि उन्होंने अपनी तरफ से हर संभव प्रयास किया। दूसरी, उन्हें मांस नहीं खाना चाहिए। गांधी जी ऐसी विकट समस्या से घिर गए--क्योंकि आज लंदन में आपको शाकाहारी भोजनालय मिल सकते हैं, आज वहां स्वास्थ्यवर्द्धक भोजन सामग्री उपलब्ध है परंतु जब गांधी जी शिक्षा ग्रहण करने के लिए गए थे उस समय शाकाहारी भोजन आसानी से प्राप्त नहीं होता था। उन्हें केवल फल, ब्रेड, मक्खन और दूध आदि से ही गुजारा करना पड़ा था। वे करीब-करीब भूखों मर रहे थे। वे लोगों के साथ मिलजुल नहीं सकते थे क्योंकि वे सब लोग "मलेच्छ" थे और महिलाओं से मिलते हुए वे स्वयं इतना डरते थे कि क्या पता...  कब एक ठंडी हवा के झोंके की तरह वासना उनकी नजरों में उतर जाए? वासना कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो आपके दरवाजे पर पहले से दस्तक दे और कहे कि मैं आ रही हूं। तुम एक सुंदर स्त्री को देखते हो और अचानक महसूस करते हो कि वह बहुत सुंदर है--और इतना काफी है! केवल इतना सोचना ही कि वह सुंदर है, इस बात की सूचना देता है कि तुमने उसे वासना भरी नजरों से देख लिया है। अन्यथा इस बात से क्या लेना देना है और तुम क्यों निर्णय कर रहे हो कि वह सुंदर है या कुरूप है? वास्तव में, यदि तुम अपने निर्णयों को बहुत गहराई से देखो तो जिस क्षण तुम कहते हो कि कोई सुंदर है, उसी क्षण, बहुत गहरे में, तुम उसे पाने की चाहत से भरे हो। जब तुम कहते हो कि कोई कुरूप है, तब बहुत गहरे में तुम्हें उस व्यक्ति से कोई भी सरोकार नहीं है, तुम उससे संबंधित नहीं होना चाहते। तुम्हारी "सुंदरता" और "कुरूपता" की परिभाषा असल में किसी के पक्ष या विपक्ष में तुम्हारी अपनी ही वासना की द्योतक है। अतः गांधी जी सदैव महिलाओं से डरते रहे। वे अपने कमरे तक ही सीमित रहते थे क्योंकि यूरोप में सभी जगह महिलाओं की उपस्थिति थी और उन सब से कैसे दूर रहा जा सकता था?

तीसरी प्रतिज्ञा थी कि वे अपना धर्म परिवर्तन नहीं करेंगे।

पहली समस्या अलैक्जेंड्रिया (मिस्र के एक मुख्य शहर) में शुरू हुई। उनके जहाज को उस जगह पर माल उतारने और चढ़ाने के लिए तीन दिन तक इंतजार करना था। उस जहाज पर उपस्थित जितने भी भारतीय लोग थे वे गांधी जी के मित्र बन चुके थे। उन्होंने सहज भाव से गांधी जी से कहा--

"यहां तीन दिन तक अंदर बैठे रहने का क्या औचित्य है? अलैक्जेंड्रिया में रातें बहुत सुंदर होती हैं।" 

पर गांधी जी को इस बात का अर्थ समझ में नहीं आया--"अलैक्जेंड्रिया में रातें सुंदर होती हैं"... 

 इन सब मामलों में वे जरा नासमझ थे। उन्होंने सुप्रसिद्ध पुस्तक "अरेबियन नाईट्स" का कभी नाम तक नहीं सुना था, अन्यथा वे इस बात को थोड़ा बहुत समझ ही जाते। अलैक्जेंड्रिया अरब के बिल्कुल पास है, इसलिए वहां की रातें अरब की रातों जैसी होती हैं।

गांधी जी ने कहा कि ठीक है, यदि रातें बहुत सुंदर होती हैं तो मैं भी आप लोगों के साथ आ रहा हूं। पर वे यह नहीं जानते थे कि वे कहां जा रहे हैं? वे सब लोग उन्हें एक बहुत ही भव्य मकान में ले गए। वहां गांधी जी ने पूछा-

"पंरतु हम कहां जा रहे हैं?" 

उनके मित्रों ने कहा-

"सुंदर रातों की ओर"! 

और वह भवन एक वेश्यालय था। गांधी जी एकदम स्तब्ध रह गए और उनकी जबान जैसे बंद हो गई। वे इतना भी नहीं कह पा रहे थे कि मैं अंदर नहीं जाना चाहता हूं। वे इतना भी नहीं बोल पाए कि मैं वापिस जहाज पर जाना चाहता हूं। इसके दो कारण हैं--पहला,

 "यह सब लोग सोचेंगे कि मैं नपुंसक हूं" 

और दूसरा, वे उस समय बोलने योग्य नहीं थे, जीवन में पहली बार उन्हें ऐसा लगा कि उनका गला रूंध गया है, जाम हो गया है। उन सब लोगों ने जबरदस्ती उन्हें खींचा। वे लोग बोले-

"यह नए हैं, चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।"

और वे उन लोगों के साथ चले गए। उन लोगों ने उन्हें भी एक वेश्या के कमरे में धकेल दिया और दरवाजा बंद कर दिया।

पसीने से तर, कांपते हुए गांधी जी को देखकर वेश्या भी कुछ परेशान हुई। वह बिल्कुल ही भूल गई कि वे केवल एक ग्राहक हैं। उस वेश्या ने उन्हें बिठाया, वे उसके पलंग पर नहीं बैठ रहे थे परंतु उसने आग्रहपूर्वक उन्हें बिठाया। वह बोली-

"आप ठीक से खड़े होने की स्थिति में नहीं हैं, आप नीचे गिर जाएंगे, आप बहुत ज्यादा कांप रहे हैं। आप पहले बैठ जाइए।"

वे इतना भी नहीं कह सके कि वे एक वेश्या के पलंग पर बैठना नहीं चाहते हैं। 

"मेरी मां क्या कहेगी? मैंने तो अभी तक उसकी तरफ देखा नहीं है।"

भीतर ही भीतर, मन ही मन वे अपनी मां से बातचीत कर रहे थे। "मैंने अभी तक उसकी तरफ वासना की दृष्टि से नहीं देखा है। यह केवल एक दुर्घटना है, ये सब बेवकूफ और मंदबुद्धि लोग जबरदस्ती मुझे यहां ले आए हैं।" 

वह महिला समझ गई कि इन्हें यहां जबरदस्ती लाया गया है। वह बोली, 

"बिल्कुल चिंता मत करें, मैं भी एक इंसान हूं, मुझे बताइए कि आप क्या चाहते हैं? मैं आपकी मदद करूंगी।"

 परंतु वे कुछ भी न कह सके।

वह महिला बोली, 

"यह तो बहुत ही मुश्किल है, ऐसे कैसे... ! आप बोल नहीं रहे हैं।"

गांधी जी बोले--"मैं...  बस..."

वह बोली, "कृपया आप लिख कर दीजिए।"

उन्हें कागज पर लिखा-

"मुझे यहां पर आने के लिए बाध्य किया गया है। मैं बस यहां से जाना चाहता हूं और आपको मैं अपनी बहन की तरह ही देखता हूं।"

वह बोली, "अच्छा, ठीक है, आप चिंता मत करें।"

 उस महिला ने दरवाजा खोला और कहा-

"क्या आपके पास जहाज पर वापिस जाने के लिए पैसे हैं या मुझे आपकी मदद के लिए आपके साथ आना चाहिए? क्योंकि अलैक्जेंड्रिया में आधी रात का यह समय बेहद खतरनाक है।"

वे बोले-

"नहीं"। 

उस वेश्या को देखने के बाद कि वह कोई खतरनाक जीव जैसी नहीं है, अब वह ठीक से बात करने लायक हो गए थे। आज तक वह जितनी भी महिलाओं से मिले थे, उन सब में से उस वेश्या ने उनके साथ अधिक मानवता का व्यवहार किया। उसने उन्हें भोजन दिया, पर गांधी जी बोले,

 "नहीं, मैं नहीं खा सकता, मैं ठीक हूं।"

 उसने उन्हें पानी दिया परंतु एक वेश्या के घर का पानी उन्होंने नहीं पिया...  जैसे कि पानी भी वेश्या के घर में होने के कारण दूषित हो गया था। 

गांधी जी ने उस महिला को धन्यवाद दिया और अपनी आत्मकथा में उन्होंने उस महिला और उस पूरी घटना के बारे में लिखा-

"मैं कितना डरा हुआ था कि मैं बोल भी नहीं पा रहा था, यहां तक कि मैं "ना" भी ना कह सका।"

इन तीन प्रतिज्ञाओं ने इंग्लैंड में उन्हें गुलाम बनाए रखा, अन्यथा वे वहां पूर्ण स्वतंत्र होकर जी सकते थे। वे जीवन के अनेक ऐसे आयामों से परिचित हो सकते थे जो भारत में सुलभता से उपलब्ध नहीं थे, परंतु यह असंभव था क्योंकि तीन प्रतिज्ञाएं ही मुख्य बाधा थीं। उन्होंने मित्र नहीं बनाए, वे सामाजिक सभाओं या धर्म सभाओं में नहीं गए। वे केवल अपनी पुस्तकों के साथ ही सीमित रहे और यह प्रार्थना करते रहे--

"किसी तरह मेरा यह कोर्स समाप्त हो जाए तो मैं वापिस भारत जा सकूं।"

इस प्रकार का व्यक्ति एक महान कानूनी विशेषज्ञ नहीं बन सकता। उनका परीक्षा परिणाम बेहतर था, वे अच्छे अंकों से पास हुए। परंतु जब वे भारत आए और उनके पहले ही केस के लिए वे कचहरी गए तो वहां फिर से उनके साथ वही घटना घटी जो उस वेश्या के घर में घटी थी। वे केवल इतना ही बोल पाए-

"माय लॅार्ड" 

और बस...  यही आरंभ और अंत था। लोगों ने कुछ देर इंतजार किया, दोबारा उन्होंने यही कहा, 

"माय लॅार्ड"...  

वे इतनी बुरी तरह कांप रहे थे कि जज को कहना पड़ा-

"इन्हें ले जाएं और कुछ देर आराम करने दें।"

यह गांधी जी का भारत में, भारतीय कोर्ट में पहला और आखिरी केस था। उसके बाद उन्होंने कोई केस लेने की हिम्मत नहीं की क्योंकि "माय लॅार्ड" कहते ही उनके अटक जाने की संभावना थी। इसकी मुख्य वजह बस यही थी कि उनके पास लोगों से मिलने और वार्तालाप करने का अनुभव नहीं था। वे लगभग एक साधु की तरह अकेले और अलग-थलग से जिये थे, मानो वे दूर दराज के किसी मठ में रहे हों।

फिर उन्हें मुंबई लाया गया, जहां वे किसी भी तरह से सहज और निश्चिन्त नहीं थे। और यह व्यक्ति एक दिन पूरे विश्व का महान नेता बन जाता है। इस दुनिया में चीजें बहुत ही अद्भुत तरीके से काम करती हैं। गांधी कोर्ट नहीं जा सके, इसलिए उन्होंने एक मित्रवतमुस्लिम परिवार का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उस परिवार का दक्षिण अफ्रीका में अच्छा व्यापार था और उन्हें एक कानूनी सलाहकार की आवश्यकता थी। उन्हें वहां कोर्ट में नहीं जाना था, केवल भारत और दक्षिण अफ्रीका में उस व्यापार की स्थिति को समझने में वहां के वकील की मदद करनी थी और उसे कानूनी सलाह देनी थी। इस तरह वे वकील के सहायक के रूप में वहां काम करने लगे। उन्हें स्वयं कोर्ट नहीं जाना पड़ता था। अतः इसी कारण से वे अफ्रीका गए, परंतु बीच रास्ते में ही दो दुर्घटनाएं हो गईं जिन्होंने न केवल गांधी की जिंदगी बल्कि पूरे भारत का इतिहास बदल कर रख दिया, यहां तक कि इन घटनाओं का असर संपूर्ण विश्व पर भी पड़ा।

पहली घटना थी कि भारत से जाते समय जो मित्र उन्हें जहाज पर विदा करने के लिए गए थे, उन्होंने जॅान रस्किन की एक पुस्तक "अनटू दिस लास्ट" उन्हें उपहार में दी। इस पुस्तक ने उनका पूरा जीवन ही रूपांतरित कर दिया। यह बहुत ही छोटी सी और साधारण सी पुस्तक है, यह पुस्तक दावा करती है-"अनटू दिस लास्ट" अर्थात"बेचारा, गरीब एवंअंतिम व्यक्ति।" हमें पिछड़े और गरीब व्यक्ति की मदद सबसे पहले करनी चाहिए। और यही उनके संपूर्ण जीवन का दर्शन बन गया कि पिछड़े व दरिद्र व्यक्ति की सहायता सबसे पहले होनी चाहिए।

दक्षिण अफ्रीका में जब गांधी रेलगाड़ी के पहले दर्जे के डिब्बे में यात्रा कर रहे थे, एक अंग्रेज आया और बोला-

"तुम यहां से बाहर निकल जाओ क्योंकि कोई भी भारतीय पहले दर्जे के डिब्बे में यात्रा नहीं कर सकता है।"

गांधी ने कहा-

"परंतु मेरे पास पहले दर्जे का टिकट है, प्रश्न यह नहीं है कि मैं भारतीय हूं या यूरोपीय हूं; सवाल यह है कि मेरे पास पहले दर्जे का टिकट है या नहीं है? लिखित रूप से कहीं भी कुछ ऐसा उपलब्ध नहीं है कि कौन-कौन यात्रा कर सकता है? जिसके पास भी पहले दर्जे का टिकट है, वह यात्रा कर सकता है।"

पर वह अंग्रेज सुनने को राजी नहीं था। उसने आपात्कालीन स्थिति में उपयोग की जाने वाली जंजीर खींची और गांधी का सामान बाहर फेंक दिया। गांधी एक दुबले-पतले, कमजोर व्यक्ति थे; अंग्रेज ने उन्हें भी धक्का देकर बाहर प्लेटफार्म पर उतार दिया और बोला-

"अब करो तुम यात्रा पहले दर्जे में!"

पूरी रात गांधी उस छोटे से स्टेशन के प्लेटफार्म पर पड़े रहे। स्टेशन मास्टर ने उनसे कहा-

"तुमने व्यर्थ में ही परेशानी मोल ले ली; तुम्हें चुपचाप नीचे उतर जाना चाहिए था। तुम यहां नए लगते हो? भारतीय पहले दर्जे में यात्रा नहीं कर सकते हैं। ऐसा कोई कानून नहीं है, पर यहां ऐसा ही चलता है।"

परंतु वह सारी रात गांधी ने एक अजीब सी हलचल में बिताई। गांधी के भीतर ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति विद्रोह का बीज इसी घटना से पड़ा। उसी रात उन्होंने निर्णय ले लिया था कि इस साम्राज्य का अंत होकर रहेगा। गांधी बहुत वर्षों तक अफ्रीका में रहे और वहां उन्होंने अहिंसा द्वारा अपनी लड़ाई लड़ने की संपूर्ण कला सीख ली। जब वे 1920 में भारत आए तब अहिंसक क्रांति के कुशल नायक बन गए और केवल अपनी परंपरागत, रूढ़िवादी और धार्मिक छवि के कारण जल्दी ही उन्होंने पूरे देश के मन पर आधिपत्य कर लिया। कोई भी यह नहीं कह सकता था कि वह संत नहीं हैं क्योंकि वह पांच हजार साल पुराने नियमों का पालन कर रहे थे, जो अति-प्राचीन काल में निर्मित किए गए थे।

वास्तव में, वे यह सलाह भी देते थे कि हमें घड़ी को अतीत की ओर मोड़ देना चाहिए और मनु-काल में, पांच हजार वर्ष पूर्व के वक्त में वापिस लौट जाना चाहिए। उनके लिए चरखा ही एकमात्र महानतम और नवीनतम अविष्कार था। चरखे के बाद...  विज्ञान गायब! विज्ञान का काम चरखे के साथ ही पूरा हो चुका था। निश्चित ही वे उन लोगों के नेता बने जो आधुनिक और सम-सामायिक नहीं थे। 

ओशो रजनीश 

रविवार, 23 अक्तूबर 2022

अंधकार से आलोक की ओर


मानवता को बचाने की बात करने का प्रचार करना सभी धर्मों के ट्रेड सीक्रेट्‌स, व्यावसायिक रहस्यों में से एक है।

यह एक बहुत ही अजीब सा खयाल है, लेकिन यह इतना पुराना है कि कोई इसके भीतर छिपे अभिप्राय को समझता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। कोई भी यह नहीं पूछता कि तुम मानवता को बचाने के लिए क्यों चिंतित हो? और तुम हजारों सालों से मनुष्यता को बचा रहे हो, लेकिन कुछ भी बचता हुआ दिखाई नहीं पड़ता।

 सभी धर्मों ने ‘मौलिक पतन’ नाम की एक नितांत काल्पनिक धारणा निर्मित कर ली है। क्योंकि जब तक पतन न हुआ हो तब तक बचा लेने का प्रश्न ही नहीं उठता है। और मानवता के मौलिक पतन की धार्मिक धारणा बिलकुल बकवास है।

मनुष्य का हर संभव मार्ग से विकास होता रहा है, पतन नहीं। मौलिक पतन के विचार का समर्थन करने का एकमात्र उपाय है चार्ल्स डार्विन द्वारा प्रस्तावित विकासवाद के सिद्धांत का समर्थन; लेकिन धर्म उस सिद्धांत का उपयोग नहीं कर सकते, क्योंकि वे उससे बहुत अपमानित अनुभव करते हैं। चार्ल्स डार्विन का विचार निश्चित रूप से इस प्रकार रखा जा सकता है--अगर मनुष्य के द्वारा नहीं, तो कम से कम बंदरों के द्वारा--कि वह एक मौलिक पतन था।

निश्चित ही अगर मनुष्य बंदरों से विकसित हुआ है तो वह जरूर वृक्षों से गिरा होगा, और जो बंदर नहीं गिरे होंगे वे अवश्य ही उन मूढों पर हंसे होंगे जो गिर गए थे। और इस बात की संभावना है कि ये बंदर कमजोर थे जो वृक्षों पर टिक नहीं पाए।

बंदरों में एक हायरेरकी होती है, कौन ऊंचा, कौन नीचा। शायद यही मानसिकता और यही ऊंच-नीच की भावना मनुष्य में भी चली आ रही है; यह वही का वही मन है। यदि तुम बंदरों को वृक्ष पर बैठा हुआ देखो, तो तुम आसानी से पता लगा सकते हो कि उनमें से मुखिया कौन है: वह वृक्ष पर सबसे ऊंचे स्थान पर बैठा होगा। फिर उसके बाद होगा अति सुंदर, युवा बंदरियों का एक बड़ा समूह--उसका हरम। उसके बाद एक तीसरा समूह होगा।

तो मुखिया बंदर सबसे ऊपर, उसके बाद बंदरियों का हरम जिनको वह नियंत्रित करता है, और उसके बाद चमचों का झुंड! और फिर तुम हायरेरकी की निचली श्रेणियों पर आओ। सबसे निचली शाखाओं पर होते हैं सबसे गरीब बंदर, उनकी न कोई प्रेमिका है, न प्रेमी--न कोई सेवक। लेकिन शायद इसी समूह से मानवता विकसित हुई है।

इस समूह में भी कुछ लोग ऐसे रहे होंगे जो कि इतने कमजोर थे कि वे निचली शाखाओं पर भी नहीं टिक पाए। उन्हें धक्का दिया गया होगा, खींचा गया होगा, फेंका गया होगा, और किसी तरह उन्होंने स्वयं को जमीन पर गिरा हुआ पाया। वह था मौलिक पतन।

बंदर अभी भी आदमी पर हंसते हैं। निश्चित ही यदि तुम बंदर की तरफ से सोचो: दो पैरों पर चलने वाला बंदर... यदि तुम बंदर हो और उसकी तरफ से सोचो, तो किसी बंदर को दो पैरों पर चलते देख कर तुम सोचोगे, ‘‘क्या वह किसी सर्कस वगैरह में शामिल हो गया है? इस बेचारे के साथ क्या हुआ? वह बस जमीन पर रहता है; वह वृक्षों पर कभी नहीं आता, उसे वृक्षों की उन्मुक्त स्वतंत्रता का, वृक्षों की ऊंची शाखाओं पर बैठने के सुख का कुछ पता नहीं। वह वास्तव में गिर गया है, उसका पतन हुआ है।’’

इसके अलावा, मौलिक पतन की धारणा के लिए धर्मों के पास कोई तर्कपूर्ण समर्थन नहीं है। उनके पास तो कहानियां हैं, लेकिन कहानियां तर्क नहीं हैं, कहानियां प्रमाण नहीं हैं। और कहानियों से जो तुम कहना चाहते हो, उससे ठीक विपरीत अर्थ भी लगाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, ईसाइयों की मौलिक पतन की धारणा ईश्वर को असली अपराधी बना देती है, और यदि किसी को बचाए जाने की आवश्यकता है तो वह है ईसाइयों का ईश्वर।

एक पिता जो अपने बच्चे को बुद्धिमान होने और चिरायु होने से रोके, ऐसा पिता निश्चित ही पागल है। यहां तक कि बुरे से बुरा बाप भी अपने बेटे को अक्लमंद और ज्ञानी बनाना चाहता है। एक क्रूरतम पिता भी अपनी संतान को सदैव जीवित रखना चाहता है। परंतु यह परमपिता मनुष्य को दो वृक्षों के फल खाने से रोक देता है--ज्ञान-वृक्ष का फल और अमृत-जीवन के वृक्ष का फल। यह अजीब किस्म का ईश्वर लगता है; किसी भी प्रकार से यह संभव नहीं कि ऐसे ईश्वर को एक अच्छा पिता माना जाए। यह भगवान तो इंसान का दुश्मन जान पड़ता है।

अतः संरक्षण की जरूरत किसे है? "ईश्वर ईर्ष्यालु है"-यह तर्क उस शैतान का था जिसने सर्प के रूप में आकर ईव के मन को फुसलाया था। मेरे अनुसार, बहुत सी ऐसी महत्वपूर्ण चीजें हैं जिन्हें भलीभांति समझने की जरूरत है। उस शैतान ने ईव को क्यों चुना, आदम को क्यों नहीं? वह सीधे ही आदम को चुन सकता था परंतु पुरुष का स्वभाव कम संवेदनशील होता है, वह कमजोर प्रवृत्ति का नहीं होता, अधिक घमंडी और अहंकारी होता है। शायद आदम को सर्प के साथ वार्तालाप करने में कोई रूचि न होती; वह इसे अपनी गरिमा के अनुकूल भी नहीं समझता। और सबसे बड़ी बात यह है कि सांप के तर्क से पूर्णतः सहमत होना भी एक पुरुष के लिए कठिन है। वह निश्चित ही उसके संग विवाद करता, झगड़ता। क्योंकि किसी के साथ राजी होने से अहंकार को ऐसा लगता है कि जैसे वह हार गया। अहंकार केवल असहमति और संघर्ष ही जानता है--जीत या हार; जैसे कोई अन्य रास्ता ही न हो, जैसे केवल दो ही मार्ग हैं-विजय या पराजय। अहंकार के लिए निश्चित ही केवल यही दो रास्ते हैं। परंतु संवेदनशील चेतना के लिए एक मार्ग और है--उसे समझना जो सही है, जो यथार्थ है। प्रश्न मेरा या उसका नहीं है, प्रश्न किसी की जीत-हार का भी नहीं है; यहां प्रश्न है कि सत्य क्या है?

स्त्री स्वभावगत रूप से तर्क में विश्वास नहीं करती। उसने सुना और पाया कि बात बिल्कुल ठीक है। ज्ञान और अमरता वर्जित है। सर्प ने समझाया कि ईश्वर नहीं चाहता कि मनुष्य ईश्वर जैसा हो जाए, यदि तुम बुद्धिमान हुए तो तुम ईश्वर तुल्य हो जाओगे। बुद्धिमान होने के बाद फिर तुम्हारे लिए शाश्वत-जीवन का वृक्ष ढूंढना जरा भी मुश्किल नहीं होगा। वास्तव में ज्ञान का ही दूसरा पहलू है-अमृत। अगर तुम बुद्धिमान हो और तुम्हारे पास सनातन-जीवन है तो फिर ईश्वर की परवाह कौन करेगा? ईश्वर के पास ऐसा क्या है जो तुम्हारे पास नहीं है? केवल तुम्हें गुलाम बनाए और हमेशा निर्भर बनाए रखने के लिए, तुम्हें अनुभवहीन बनाए रखने और अमृत-स्वाद से वंचित रखने के लिए ही ईडन के विशाल उद्यान में उसने केवल दो ही वृक्षों पर प्रतिबंध लगाया है।

यह तर्क एक साफ-सुथरा तथ्य था, बिल्कुल स्पष्ट कथन था। अब तक, जिस व्यक्ति ने सत्य को मानवता तक पंहुचाया, उसे शैतान बता कर निंदित किया गया है। और जिसने इंसान को सत्य तक पंहुचने और जीवन को जानने से रोका, भगवान कहकर उसकी स्तुति की गई है। परंतु पंडित-पुरोहित केवल इसी तरह के भगवान के साथ जी सकते हैं; क्योंकि शैतान तो उनके वजूद को पूरी तरह समाप्त ही कर देगा।

यदि भगवान स्वयं ही अनुपयोगी हो जाए, व्यर्थ हो जाए और मनुष्य ज्ञानी होकर शाश्वत जीवन जिए तो इन सारे पुरोहितों का क्या होगा? सभी धर्मों, चर्चों, मंदिरों और पूजाघरों का क्या होगा? इन लाखों लोगों का क्या होगा जो एक परजीवी की तरह, हर संभव ढंग से मानवता का खून चूस रहे हैं? ये शोषकगण केवल इसी ढंग के परमात्मा के साथ चल सकते हैं। स्वाभाविक रूप से जिसकी शैतान की भांति निंदा होनी चाहिए थी, वह भगवान के रूप में पूजा जा रहा है। और जिसकी भगवान की भांति स्तुति होनी चाहिए थी, वह शैतान के रूप में निंदित है।

सभी पूर्व धारणाएं हटाकर, एक बार जरा गौर से इस कहानी को देखो। इसे अन्य बहुत से पहलुओं से भी समझने की कोशिश करो। यह केवल इसका एक पहलू है, लेकिन यह भी बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि यदि भगवान शैतान बन गया और शैतान भगवान बन गया, तो फिर मनुष्य का कोई पतन नहीं हुआ। यदि आदम और ईव ने शैतान का बुद्धिमत्तापूर्ण सुझाव नहीं माना होता तो वह पतन कहलाता, तब मनुष्य को बचाने की जरूरत अवश्य पड़ती। परंतु उन्होंने इंकार नहीं किया। सर्प निश्चित ही प्रज्ञावान था, शायद तुम्हारे परमात्मा से भी ज्यादा विवेकपूर्ण।

थोड़ा गौर से अवलोकन करो! इस बात को सब भलीभांति समझते हैं, एक बहुत सामान्य व्यक्ति भी यह जानता है कि यदि बच्चों से कहो कि यह फल कतई मत खाना, तुम घर में उपलब्ध सभी खाद्य-सामग्रियों में से कुछ भी खा सकते हो, परंतु यह फल बिल्कुल नहीं खाना। तब बच्चे समस्त प्रकार के उपलब्ध व्यंजनों में रूचि न लेंगे बल्कि उनका सारा रस उस फल को पाने में होगा जिसे खाने से रोका गया है।

निषेध एक तरह का आमंत्रण है।

इस कहानी का भगवान एकदम मूर्ख लगता है। बगीचा बहुत बड़ा था, वहां लाखों वृक्ष थे। यदि इन दो वृक्षों के बाबत कुछ भी न कहता, तो मुझे नहीं लगता कि मनुष्य आज तक भी इन दो वृक्षों को ढूंढने योग्य हो पाता। परंतु उसने अपना धार्मिक प्रवचन इसी उपदेश से प्रारंभ किया--"इन दो वृक्षों के फल मत खाना।" उसने वृक्षों की तरफ संकेत किया--"यही दो वृक्ष हैं जिनसे तुम्हें बचकर रहना है।" यह एक तरह से उत्तेजित करना, भड़काना है। कौन कहता है कि शैतान ने आदम और ईव को बहकाया? यह भगवान की करामात है! और मैं कहता हूं कि शैतान के बिना फुसलाए भी आदम और ईव ये फल अवश्य ही खाते। शैतान की जरूरत ही नहीं, भगवान ने स्वयं ही सब काम कर दिया है। आज नहीं तो कल, इस अदृश्य प्रलोभन को रोकना असंभव हो जाता। परमात्मा द्वारा उन्हें क्यों रोका जाना चाहिए था?

लोगों को आज्ञाकारी बनाने के समस्त प्रयास ही उन्हें अवज्ञाकारी बना देते हैं। लोगों को गुलाम बनाने के समस्त प्रयास ही उन्हें विद्रोही व अधिक स्वतंत्र होने पर मजबूर करते हैं। यहां तक कि सिग्मंड फ्रायड भी परमात्मा से अधिक मनोविज्ञान जानता है। सिग्मंड फ्रायड एक यहूदी है, वह आदम और ईव की परंपरा में से ही है। आदम और ईव उसके पूर्वजों के पूर्वजों के भी पूर्वज हैं। कहीं न कहीं फ्रायड में वही खून प्रवाहित हो रहा है। सिग्मंड फ्रायड अधिक बुद्धिमान है। वस्तुतः इस साधारण से तथ्य को देखने के लिए बहुत ज्यादा बुद्धिमानी की आवश्यकता नहीं है।

क्या भगवान को यह साधारण-सी बात दिखाई नहीं देती कि वह उन बेचारे आदम और ईव को चुनौती दे रहा था? ईमानदार और निष्कपट आत्माओं में वह भ्रष्टाचार का बीजारोपण कर रहा था। परंतु परमात्मा को बचाने के लिए, पंडितों और पुरोहितों ने सर्प को बीच में लाने का प्रावधान ढूंढ लिया और समस्त जिम्मेदारी सर्प पर डाल दी कि केवल सर्प ही मनुष्य के मूल पतन का एकमात्र कारण है।  वास्तव में शैतान प्रथम विद्रोही है; उसने आदम-ईव से जो कहा, उससे ही सच्चे धर्म की शुरूआत हुई। ईश्वर ने जो कहा, वह मनुष्य की आत्महत्या का प्रारंभ बनता, धर्म का नहीं।

पूर्वी देशों में सर्प को संसार के सर्वाधिक बुद्धिमान प्राणी की तरह पूजा जाता है। और मेरी दृष्टि में यह बात, कहीं बेहतर है। यदि सर्प ने वास्तव में आदम-ईव के साथ कुछ ऐसा किया है तो निश्चित ही वह दुनिया का सबसे बुद्धिमान प्राणी है। उसने मनुष्य को अनन्त गुलामी, अज्ञानता और मूर्खता से बचाया। यह मूल पतन नहीं, वरन मूल उत्थान है।

मनुष्यता कभी नीचे नहीं गिरी। हां, इतना ही हुआ है कि सारे धार्मिक सिद्धांत वक्त के संग छोटे पड़ गए और मनुष्य पर कब्जा जमाने में विफल रहे। मनुष्य विकास की ओर गतिमान रहा। सिद्धांत विकसित नहीं होते, नीतियां विकसित नहीं होतीं। नीतियां वैसी ही रहती हैं परंतु मनुष्य उन्हें पीछे छोड़कर उनसे ज्यादा विराट हो जाता है। पंडितगण सिद्धांतों और नीतियों से चिपके रहते हैं। लकीर के फकीर होना ही उनकी विरासत है, शक्ति है, परंपरा और प्राचीन ज्ञान है। वे कसकर इनसे चिपके रहते हैं।

अब, मनुष्य के बारे में क्या कहा जाए जो इन सिद्धांतों से ऊपर उठकर विकास की ओर प्रगतिशील है? निश्चित ही, पंडितों के लिए वही निरंतर पतन है। वे कहेंगे कि मनुष्य नीचे गिर रहा है।

सभी धर्म सोच-विचार से भयभीत होते हैं, प्रश्न उठाने से डरते हैं, संदेह करने से सकुचाते हैं, अवज्ञा से घबराते हैं और इसी कारण सदियों तक पिछड़े बने रहते हैं। एक साधारण सा कारण कि उस समय कई वैज्ञानिक वस्तुएं उपलब्ध नहीं थीं...  चिंतन-मनन की कमी के फलस्वरूप धर्म अंधानुसरण का शिकार हो जाता है। वे लोग जो प्राचीन समय में नियम बना रहे थे, उन्हें अंदाज़ा भी नहीं था कि भविष्य में क्या होने जा रहा है। इसलिए सभी धर्म इस बात से सहमत हैं कि मानवता का निरंतर पतन हो रहा है क्योंकि मनुष्य अपने धर्म-शास्त्रों, सिद्धांतों और मुक्तिदाता मसीहा एवं पैगम्बरों का अनुकरण नहीं कर रहा है।

पर, मुझे नहीं लगता है कि मनुष्य का पतन हो रहा है। वास्तव में, मनुष्य की संवेदनशीलता बढ़ रही है, उसकी बुद्धिमत्ता और आयु बढ़ रही है। प्राचीन परतंत्रता और गुलामी के अनेक तरीकों से मुक्त होने में आज का मनुष्य कहीं अधिक सक्षम है, ज्यादा योग्य है। आज मनुष्य में संदेह उठाने, प्रश्न करने और अपनी जिज्ञासा के बारे में बात करने का साहस है। यह कदापि पतन नहीं है।

यह वास्तविक धर्म के फैलाव की शुरूआत है। जल्दी ही यह एक दावानल बन सकती है, जंगल की आग जैसी फैल सकती है। परंतु पंडितों और पुरोहितों के लिए निश्चित ही यह पतन है। उनके लिए प्रत्येक नूतन चीज पतन है क्योंकि वह उनके पुरातन शास्त्रों के अनुरूप नहीं है।

क्या तुम जानते हो कि भारत में केवल सौ साल पहले तक किसी को भी विदेश जाने की आज्ञा नहीं थी। इसका साधारण सा कारण सिर्फ यह था कि विदेश में तुम ऐसे लोगों से मेलजोल बढ़ा लोगे जिन्हें मनुष्यों की तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता। वे लोग मानव-तल से नीचे की श्रेणी में आते हैं। भारत में निम्नतम वर्ग के लोगों को अछूत कहा जाता है। उन्हें कोई छू भी नहीं सकता। यदि तुम उन्हें छू लेते हो तो तुम्हें स्नान करना होगा और स्वयं को शुद्ध करना होगा। विदेशों के लोग शायद इन अछूतों से भी निम्न कोटि के हैं। उनके लिए एक विशेष शब्द प्रयुक्त किया जाता है-"मलेच्छ"! इस शब्द का अनुवाद करना बहुत मुश्किल है। इसका अर्थ होता है कुछ ऐसा जो बहुत कुरूप हो, असभ्य हो, घृणित हो और इतना दूषित हो कि उसे देखते ही तुम्हें मितली आने लगे। मलेच्छ शब्द का पूरा और सही अर्थ यही होगा कि ऐसे लोग जिनके संपर्क में आने से तुम्हें उबकाई आने लगे, वमन हो जाए।

इसे मनोवैज्ञानिक ढंग से समझा जा सकता है। मुक्ति दिलाना, बचाना, मदद करना, सेवा करना आदि; तुम ये सारे महान कार्य केवल एक ही मकसद के लिए शुरू करते हो--स्वयं से बचने के लिए। तुम अपना स्वयं का सामना नहीं करना चाहते। तुम देखना ही नहीं चाहते कि तुम कहां हो, तुम क्या हो? इसलिए सबसे अच्छा रास्ता यही है कि इंसानियत को बचाना शुरू करो, इससे तुम बहुत जटिलतापूर्वक व्यस्त हो जाओगे। तुम स्वयं के खालीपन को भूलकर कुछ भरा हुआ महसूस करोगे क्योंकि अब तुम एक महान लक्ष्य की चिंता में संलग्न हो। ऐसा करने से तुम्हें अपनी स्वयं की समस्या नगण्य लगने लगेगी। शायद, तुम अपनी समस्याओं को भूल ही जाओ। यह एक मनोवैज्ञानिक तरीका है, परंतु बहुत विषाक्त है। किसी भी प्रकार से बस तुम स्वयं से बहुत दूर निकल जाना चाहते हो। जितना संभव है उतनी दूर निकल जाना चाहते हो, इतनी दूर कि दर्द और चोट देने वाले अपने ही घाव तुम्हें नजर न आएं। इसलिए सर्वोत्तम मार्ग यही है कि समाज-सेवा में लगे रहो।

 रोटरी क्लब की मेज पर उनका "मोटो"लिखा होता था-"हम सेवा करते हैं। यह क्या निरर्थक बात है? आप किसकी सेवा करते हैं और आपको सेवा क्यों करनी चाहिए? आप कौन होते हैं सेवा करने वाले?"परंतु विश्व भर के रोटरी क्लब के सदस्य सेवा में विश्वास करते हैं। बस, केवल विश्वास करते हैं और कभी-कभार वे छोटी-मोटी सेवा कर भी देते हैं, वे सब बहुत चालाक हैं। रोटरी क्लब के लोग आपके घर की समस्त बची हुई दवाओं को इकट्ठा करते हैं, जो आपके उपयोग की नहीं हैं क्योंकि बीमार व्यक्ति अब बीमार नहीं है, वह ठीक हो चुका है। दवा की आधी शीशी बची है, आप इसका क्या करेंगे? तो फिर कुछ ऐसा काम जरूर करना चाहिए जिससे परलोक में, स्वर्ग में आपका खाता खुल जाए। इसका बेहतरीन उपाय यही है कि वह आधी दवा की शीशी रोटरी क्लब को दे दीजिए! इसमें आपका कुछ भी नुकसान नहीं हो रहा है, वैसे भी आप इस शीशी को फेंकने ही वाले थे। आप घर में रखी दवाईयों, गोलियों, इंजेक्शन और अन्य बची हुई सामग्री का क्या करते? अतः आप इसे रोटरी क्लब को दे दीजिए। शहर के जाने-माने व प्रतिष्ठित लोग रोटरी क्लब के सदस्य होते हैं, वे गणमान्य लोग ही प्रत्येक घर से बची हुई दवाएं एकत्रित करते हैं। रोटरी क्लब का सदस्य होना, एक "रोटेरियन" होना बड़े ही गौरव की बात है क्योंकि केवल किन्हीं खास व्यवसायों के उच्च पदासीन व्यक्ति ही इसके सदस्य हो सकते हैं--केवल प्रोफेसर, डॅाक्टर, इंजीनियर, मैनेजर ही रोटेरियन होंगे-प्रत्येक व्यवसाय में से केवल एक।

अतः ऐसे डॅाक्टर जो रोटेरियन हैं वे गरीब लोगों में दवाईयां बांट देंगे। कैसी महान सेवा! वैसे यह डॅाक्टर फीस भी लेते हैं क्योंकि उन बची हुई दवाईयों के बड़े से ढेर में से वह उपयोगी दवाईयों की छंटनी करते हैं। एक रोटेरियन डॅाक्टर महान काम कर रहा है क्योंकि कम से कम वह अपने कीमती समय में से कुछ समय उन बची हुई दवाईयों के ढेर को खंगालने के लिए दे रहा है। "हम सेवा करते हैं"-वह भीतर बहुत ही महान अनुभव करता है; मानो कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण काम कर रहा है।

एक व्यक्ति ने भारत में आदिवासी बच्चों के लिए स्कूल खोलने में अपना पूरा जीवन लगा दिया है। वह गांधी का अनुयायी है। अचानक ही, संयोग से वह एक बार मुझसे मिला क्योंकि मैं आदिवासी इलाके में गया था। मैं प्रत्येक दृष्टिकोण से उन आदिवासियों का अध्ययन कर रहा था क्योंकि वे लोग उस काल के जीवित उदाहरण हैं जब मानव तथाकथित नैतिकता, धर्म, सभ्यता, संस्कृति, शिष्टाचार और रीति-रिवाज से इतना अधिक बोझिल नहीं था। वे आदिवासी आज भी साधारण, भोलेभाले, मौलिक और निर्मल लोग हैं। यह व्यक्ति अलग-अलग शहरों में जाता था और धन एकत्रित करता था ताकि स्कूल खोले जा सकें और शिक्षकों का प्रबंध किया जा सके। उसकी इसी प्रक्रिया के दौरान वह अचानक मुझसे मिला। मैंने कहा-"आप क्या कर रहे हैं? आप को लगता है कि आप इन आदिवासियों के लिए कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं?"बहुत अभिमानपूर्वक वह बोला-"निश्चित ही!"मैंने कहा-"आपको पता भी नहीं है कि आप क्या कर रहे हैं? आप जो स्कूल खोलेंगे, उससे कहीं बेहतर स्कूल सब शहरों में मौजूद हैं। इन सब स्कूलों ने आज तक मनुष्यों की कौन सी मदद की है? यदि ये सब आलीशान और सुविधाजनक स्कूल, कॅालेज, विश्वविद्यालय मानवता की मदद नहीं कर पाए, तो आप क्या सोचते हैं--आपका छोटा सा स्कूल इन आदिवासियों की कोईसहायता कर पाएगा? आप बस इतना ही करेंगे कि जो आदिम निर्मलता और नैसर्गिकता उनमें बची है, आप उसे भी नष्ट कर देंगे। ये आदिवासी अभी तकसभ्यता के बोझ से मुक्त हैं। आपके बनाए हुए स्कूल कुछ नहीं करेंगे बल्कि उनके लिए परेशानी पैदा करेंगे।"

वह व्यक्ति स्तब्ध रह गया। परंतु कुछ पल इंतजार करके बोला-"शायद आप सही हैं, क्योंकि एक बार मेरे मन में भी यह विचार आया था कि पूरे विश्व में दूर-दूर तक फैले हुए, वृहतऔर व्यापक स्कूल, कॅालेज, विश्वविद्यालयों के सामने मेरा यह छोटा सा स्कूल क्या कर पाएगा? परंतु फिर मैंने सोचा कि यह तो गांधी जी का मेरे लिए आदेश था कि आदिवासी इलाकों में जाओ और स्कूल खोलो, इसलिए मैं केवल अपने गुरू की आज्ञा का पालन कर रहा हूं।"

मैंने कहा-"यदि तुम्हारा गुरू नासमझ है तो इसका मतलब यह नहीं है कि तुम उसका आदेश मानना जारी रखो। अब यह सब समाप्त करो! मैं तुम्हें आदेश देता हूं। मैं तुम्हें बताता हूं कि तुम यह सब क्यों करते रहते हो? केवल अपनी पीड़ा से बचने के लिए, अपने कष्ट से मुंह छिपाने के लिए। कोई भी तुम्हारे चेहरे को देखकर बता सकता है कि तुम एक दयनीय और असहाय व्यक्ति हो। तुमने कभी किसी से प्रेम नहीं किया है, तुम्हें कभी किसी से प्रेम नहीं मिला है।"वह बोला-"आपने यह सब कैसे पता लगा लिया? क्योंकि यह बिल्कुल ठीक है। मैं एक अनाथ था, किसी ने मुझे प्रेम नहीं किया और गांधी जी के आश्रम में ही मेरा पालन-पोषण हुआ है। वहां प्रेम की चर्चा हम केवल प्रार्थना के दौरान ही करते थे, अन्यथा प्रेम का गुण वहां जिंदगी में कतई नहीं था। वहां बहुत ही सख्त अनुशासन था, जैसा किसी सैन्य-संगठन में होता है। इसलिए कभी किसी ने मुझे प्रेम नहीं किया, यह ठीक है और आप सही कहते हैं कि मैंने भी कभी किसी से प्रेम नहीं किया है क्योंकि गांधी जी के आश्रम में यह असंभव था कि कोई किसी से प्रेम करे। वहां प्रेम करना एक बहुत बड़ा अपराध था। जिन लोगों की गांधी जी प्रशंसा करते थे, मैं उनमें से एक था। मैं कभी भी उनकी नजरों में निंदनीय नहीं रहा। यहां तक कि उनके अपने पुत्र ने उन्हें धोखा दिया। उनका पुत्र, राजगोपालाचार्य की पुत्री के प्रेम में पड़ गया था, इसलिए उसे आश्रम से निकाल दिया गया था। बाद में उसने उस लड़की से शादी भी कर ली। गांधी जी का अपना निजी सहायक, प्यारेलाल, वह भी एक स्त्री के प्रेम में पड़ गया और उसने कई वर्षों तक इस प्रेम संबंध को सबसे छुपाकर रखा। जब इसका भेद में आश्रम में उजागर हुआ तो यह एक भयंकर और कलंकपूर्ण कृत्य कहलाया!"

मैंने कहा-"यह कैसी निरर्थक बात है! गांधी जी के निजी सहायक की यह दुर्गति! इसका मतलब, बाकी लोगों के बारे में अब क्या खाक पूछें!"

इस आदमी की वहां खूब प्रशंसा हुई क्योंकि वह कभी किसी स्त्री के संपर्क में नहीं आया। गांधी ने उसे आदिवासी इलाकों में भेज दिया और बेचारा वही करता रहा जो उसके गुरू ने आदेश दिया था।

लेकिन उसने मुझसे कहा-"आप ने मुझे विचलित कर दिया है। शायद यह ठीक ही हो कि मैं केवल स्वयं से, अपने घावों से और अपनी ही मानसिक वेदना से बचने की कोशिश कर रहा हूं।"

अतः वे लोग जो मानवता को बचाने में उत्सुक होते हैं, पहली बात तो यह है कि वे सब बहुत अहंकारी होते हैं। वे स्वयं को मुक्तिदाता की तरह देखते हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि वे अत्यंत रुग्ण और व्याकुल प्रवृत्ति के होते हैं। वे अपनी परेशानी एवं मानसिक रुग्णता को भुलाने का प्रयत्न कर रहे हैं। तीसरी बात यह है कि ऐसे लोग जो भी करेंगे, उससे मनुष्य की हालत पहले से भी बदतर हो जाती है क्योंकि ये लोग बेचैन हैं, अंधे हैं और लोगों पर मालकियत करनाऔर समाज का नेतृत्व करना चाहते हैं। जब अंधे नेतृत्व करें तबआज नहीं तो कल, समस्त मानव जाति खाई में गिरने वाली है।

नहीं, मैं किसी को बचाने में उत्सुक नहीं हूं। वास्तव में, किसी को भी बचाव की आवश्यकता नहीं है। हर व्यक्ति जैसा है, वैसा ही बिल्कुल ठीक है। हर व्यक्ति अपने स्वयं के चुनाव से ही वैसा है। मैं कौन होता हूं उसे सताने वाला? मैं जो भी संभव कार्य कर सकता हूं वह यही है कि मैं अपने बारे में बात कर सकता हूं कि मुझे क्या हुआ है। मैं अपनी कहानी कह सकता हूं। शायद मेरी कहानी से किसी को कोई प्रेरणा या दिशा मिल जाए, नई संभावना का द्वार खुल जाए। पर मैं कुछ कर नहीं रहा हूं, केवल स्वयं का अनुभव साझा कर रहा हूं। यह सेवा नहीं है। मैं इसका आनंद ले रहा हूं अतः यह सेवा नहीं है। याद रहे, समाज-सेवक के लिए उदासी और गंभीरता अनिवार्य हैं क्योंकि वह कुछ महान काम कर रहा है। उसने अपने कंधों पर हिमालय उठा रखा है, पूरी दुनिया का बोझ उसके सिर पर है। मैंने कोई भार नहीं उठा रखा है--जगत का या किसी भी व्यक्ति का। और मैं कोई गंभीर कार्य नहीं कर रहा हूं। केवल तुम्हारे संग अपनी अनुभूतियों को बांटने का मजा ले रहा हूं। अनुभव बांटना अपने आप में ही आनंद है। यदि तुम तक कुछ पंहुचे, तो धन्यवाद दो ईश्वर को। उसका वजूद नहीं है।




कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...