रविवार, 23 अक्तूबर 2022

अंधकार से आलोक की ओर


मानवता को बचाने की बात करने का प्रचार करना सभी धर्मों के ट्रेड सीक्रेट्‌स, व्यावसायिक रहस्यों में से एक है।

यह एक बहुत ही अजीब सा खयाल है, लेकिन यह इतना पुराना है कि कोई इसके भीतर छिपे अभिप्राय को समझता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। कोई भी यह नहीं पूछता कि तुम मानवता को बचाने के लिए क्यों चिंतित हो? और तुम हजारों सालों से मनुष्यता को बचा रहे हो, लेकिन कुछ भी बचता हुआ दिखाई नहीं पड़ता।

 सभी धर्मों ने ‘मौलिक पतन’ नाम की एक नितांत काल्पनिक धारणा निर्मित कर ली है। क्योंकि जब तक पतन न हुआ हो तब तक बचा लेने का प्रश्न ही नहीं उठता है। और मानवता के मौलिक पतन की धार्मिक धारणा बिलकुल बकवास है।

मनुष्य का हर संभव मार्ग से विकास होता रहा है, पतन नहीं। मौलिक पतन के विचार का समर्थन करने का एकमात्र उपाय है चार्ल्स डार्विन द्वारा प्रस्तावित विकासवाद के सिद्धांत का समर्थन; लेकिन धर्म उस सिद्धांत का उपयोग नहीं कर सकते, क्योंकि वे उससे बहुत अपमानित अनुभव करते हैं। चार्ल्स डार्विन का विचार निश्चित रूप से इस प्रकार रखा जा सकता है--अगर मनुष्य के द्वारा नहीं, तो कम से कम बंदरों के द्वारा--कि वह एक मौलिक पतन था।

निश्चित ही अगर मनुष्य बंदरों से विकसित हुआ है तो वह जरूर वृक्षों से गिरा होगा, और जो बंदर नहीं गिरे होंगे वे अवश्य ही उन मूढों पर हंसे होंगे जो गिर गए थे। और इस बात की संभावना है कि ये बंदर कमजोर थे जो वृक्षों पर टिक नहीं पाए।

बंदरों में एक हायरेरकी होती है, कौन ऊंचा, कौन नीचा। शायद यही मानसिकता और यही ऊंच-नीच की भावना मनुष्य में भी चली आ रही है; यह वही का वही मन है। यदि तुम बंदरों को वृक्ष पर बैठा हुआ देखो, तो तुम आसानी से पता लगा सकते हो कि उनमें से मुखिया कौन है: वह वृक्ष पर सबसे ऊंचे स्थान पर बैठा होगा। फिर उसके बाद होगा अति सुंदर, युवा बंदरियों का एक बड़ा समूह--उसका हरम। उसके बाद एक तीसरा समूह होगा।

तो मुखिया बंदर सबसे ऊपर, उसके बाद बंदरियों का हरम जिनको वह नियंत्रित करता है, और उसके बाद चमचों का झुंड! और फिर तुम हायरेरकी की निचली श्रेणियों पर आओ। सबसे निचली शाखाओं पर होते हैं सबसे गरीब बंदर, उनकी न कोई प्रेमिका है, न प्रेमी--न कोई सेवक। लेकिन शायद इसी समूह से मानवता विकसित हुई है।

इस समूह में भी कुछ लोग ऐसे रहे होंगे जो कि इतने कमजोर थे कि वे निचली शाखाओं पर भी नहीं टिक पाए। उन्हें धक्का दिया गया होगा, खींचा गया होगा, फेंका गया होगा, और किसी तरह उन्होंने स्वयं को जमीन पर गिरा हुआ पाया। वह था मौलिक पतन।

बंदर अभी भी आदमी पर हंसते हैं। निश्चित ही यदि तुम बंदर की तरफ से सोचो: दो पैरों पर चलने वाला बंदर... यदि तुम बंदर हो और उसकी तरफ से सोचो, तो किसी बंदर को दो पैरों पर चलते देख कर तुम सोचोगे, ‘‘क्या वह किसी सर्कस वगैरह में शामिल हो गया है? इस बेचारे के साथ क्या हुआ? वह बस जमीन पर रहता है; वह वृक्षों पर कभी नहीं आता, उसे वृक्षों की उन्मुक्त स्वतंत्रता का, वृक्षों की ऊंची शाखाओं पर बैठने के सुख का कुछ पता नहीं। वह वास्तव में गिर गया है, उसका पतन हुआ है।’’

इसके अलावा, मौलिक पतन की धारणा के लिए धर्मों के पास कोई तर्कपूर्ण समर्थन नहीं है। उनके पास तो कहानियां हैं, लेकिन कहानियां तर्क नहीं हैं, कहानियां प्रमाण नहीं हैं। और कहानियों से जो तुम कहना चाहते हो, उससे ठीक विपरीत अर्थ भी लगाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, ईसाइयों की मौलिक पतन की धारणा ईश्वर को असली अपराधी बना देती है, और यदि किसी को बचाए जाने की आवश्यकता है तो वह है ईसाइयों का ईश्वर।

एक पिता जो अपने बच्चे को बुद्धिमान होने और चिरायु होने से रोके, ऐसा पिता निश्चित ही पागल है। यहां तक कि बुरे से बुरा बाप भी अपने बेटे को अक्लमंद और ज्ञानी बनाना चाहता है। एक क्रूरतम पिता भी अपनी संतान को सदैव जीवित रखना चाहता है। परंतु यह परमपिता मनुष्य को दो वृक्षों के फल खाने से रोक देता है--ज्ञान-वृक्ष का फल और अमृत-जीवन के वृक्ष का फल। यह अजीब किस्म का ईश्वर लगता है; किसी भी प्रकार से यह संभव नहीं कि ऐसे ईश्वर को एक अच्छा पिता माना जाए। यह भगवान तो इंसान का दुश्मन जान पड़ता है।

अतः संरक्षण की जरूरत किसे है? "ईश्वर ईर्ष्यालु है"-यह तर्क उस शैतान का था जिसने सर्प के रूप में आकर ईव के मन को फुसलाया था। मेरे अनुसार, बहुत सी ऐसी महत्वपूर्ण चीजें हैं जिन्हें भलीभांति समझने की जरूरत है। उस शैतान ने ईव को क्यों चुना, आदम को क्यों नहीं? वह सीधे ही आदम को चुन सकता था परंतु पुरुष का स्वभाव कम संवेदनशील होता है, वह कमजोर प्रवृत्ति का नहीं होता, अधिक घमंडी और अहंकारी होता है। शायद आदम को सर्प के साथ वार्तालाप करने में कोई रूचि न होती; वह इसे अपनी गरिमा के अनुकूल भी नहीं समझता। और सबसे बड़ी बात यह है कि सांप के तर्क से पूर्णतः सहमत होना भी एक पुरुष के लिए कठिन है। वह निश्चित ही उसके संग विवाद करता, झगड़ता। क्योंकि किसी के साथ राजी होने से अहंकार को ऐसा लगता है कि जैसे वह हार गया। अहंकार केवल असहमति और संघर्ष ही जानता है--जीत या हार; जैसे कोई अन्य रास्ता ही न हो, जैसे केवल दो ही मार्ग हैं-विजय या पराजय। अहंकार के लिए निश्चित ही केवल यही दो रास्ते हैं। परंतु संवेदनशील चेतना के लिए एक मार्ग और है--उसे समझना जो सही है, जो यथार्थ है। प्रश्न मेरा या उसका नहीं है, प्रश्न किसी की जीत-हार का भी नहीं है; यहां प्रश्न है कि सत्य क्या है?

स्त्री स्वभावगत रूप से तर्क में विश्वास नहीं करती। उसने सुना और पाया कि बात बिल्कुल ठीक है। ज्ञान और अमरता वर्जित है। सर्प ने समझाया कि ईश्वर नहीं चाहता कि मनुष्य ईश्वर जैसा हो जाए, यदि तुम बुद्धिमान हुए तो तुम ईश्वर तुल्य हो जाओगे। बुद्धिमान होने के बाद फिर तुम्हारे लिए शाश्वत-जीवन का वृक्ष ढूंढना जरा भी मुश्किल नहीं होगा। वास्तव में ज्ञान का ही दूसरा पहलू है-अमृत। अगर तुम बुद्धिमान हो और तुम्हारे पास सनातन-जीवन है तो फिर ईश्वर की परवाह कौन करेगा? ईश्वर के पास ऐसा क्या है जो तुम्हारे पास नहीं है? केवल तुम्हें गुलाम बनाए और हमेशा निर्भर बनाए रखने के लिए, तुम्हें अनुभवहीन बनाए रखने और अमृत-स्वाद से वंचित रखने के लिए ही ईडन के विशाल उद्यान में उसने केवल दो ही वृक्षों पर प्रतिबंध लगाया है।

यह तर्क एक साफ-सुथरा तथ्य था, बिल्कुल स्पष्ट कथन था। अब तक, जिस व्यक्ति ने सत्य को मानवता तक पंहुचाया, उसे शैतान बता कर निंदित किया गया है। और जिसने इंसान को सत्य तक पंहुचने और जीवन को जानने से रोका, भगवान कहकर उसकी स्तुति की गई है। परंतु पंडित-पुरोहित केवल इसी तरह के भगवान के साथ जी सकते हैं; क्योंकि शैतान तो उनके वजूद को पूरी तरह समाप्त ही कर देगा।

यदि भगवान स्वयं ही अनुपयोगी हो जाए, व्यर्थ हो जाए और मनुष्य ज्ञानी होकर शाश्वत जीवन जिए तो इन सारे पुरोहितों का क्या होगा? सभी धर्मों, चर्चों, मंदिरों और पूजाघरों का क्या होगा? इन लाखों लोगों का क्या होगा जो एक परजीवी की तरह, हर संभव ढंग से मानवता का खून चूस रहे हैं? ये शोषकगण केवल इसी ढंग के परमात्मा के साथ चल सकते हैं। स्वाभाविक रूप से जिसकी शैतान की भांति निंदा होनी चाहिए थी, वह भगवान के रूप में पूजा जा रहा है। और जिसकी भगवान की भांति स्तुति होनी चाहिए थी, वह शैतान के रूप में निंदित है।

सभी पूर्व धारणाएं हटाकर, एक बार जरा गौर से इस कहानी को देखो। इसे अन्य बहुत से पहलुओं से भी समझने की कोशिश करो। यह केवल इसका एक पहलू है, लेकिन यह भी बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि यदि भगवान शैतान बन गया और शैतान भगवान बन गया, तो फिर मनुष्य का कोई पतन नहीं हुआ। यदि आदम और ईव ने शैतान का बुद्धिमत्तापूर्ण सुझाव नहीं माना होता तो वह पतन कहलाता, तब मनुष्य को बचाने की जरूरत अवश्य पड़ती। परंतु उन्होंने इंकार नहीं किया। सर्प निश्चित ही प्रज्ञावान था, शायद तुम्हारे परमात्मा से भी ज्यादा विवेकपूर्ण।

थोड़ा गौर से अवलोकन करो! इस बात को सब भलीभांति समझते हैं, एक बहुत सामान्य व्यक्ति भी यह जानता है कि यदि बच्चों से कहो कि यह फल कतई मत खाना, तुम घर में उपलब्ध सभी खाद्य-सामग्रियों में से कुछ भी खा सकते हो, परंतु यह फल बिल्कुल नहीं खाना। तब बच्चे समस्त प्रकार के उपलब्ध व्यंजनों में रूचि न लेंगे बल्कि उनका सारा रस उस फल को पाने में होगा जिसे खाने से रोका गया है।

निषेध एक तरह का आमंत्रण है।

इस कहानी का भगवान एकदम मूर्ख लगता है। बगीचा बहुत बड़ा था, वहां लाखों वृक्ष थे। यदि इन दो वृक्षों के बाबत कुछ भी न कहता, तो मुझे नहीं लगता कि मनुष्य आज तक भी इन दो वृक्षों को ढूंढने योग्य हो पाता। परंतु उसने अपना धार्मिक प्रवचन इसी उपदेश से प्रारंभ किया--"इन दो वृक्षों के फल मत खाना।" उसने वृक्षों की तरफ संकेत किया--"यही दो वृक्ष हैं जिनसे तुम्हें बचकर रहना है।" यह एक तरह से उत्तेजित करना, भड़काना है। कौन कहता है कि शैतान ने आदम और ईव को बहकाया? यह भगवान की करामात है! और मैं कहता हूं कि शैतान के बिना फुसलाए भी आदम और ईव ये फल अवश्य ही खाते। शैतान की जरूरत ही नहीं, भगवान ने स्वयं ही सब काम कर दिया है। आज नहीं तो कल, इस अदृश्य प्रलोभन को रोकना असंभव हो जाता। परमात्मा द्वारा उन्हें क्यों रोका जाना चाहिए था?

लोगों को आज्ञाकारी बनाने के समस्त प्रयास ही उन्हें अवज्ञाकारी बना देते हैं। लोगों को गुलाम बनाने के समस्त प्रयास ही उन्हें विद्रोही व अधिक स्वतंत्र होने पर मजबूर करते हैं। यहां तक कि सिग्मंड फ्रायड भी परमात्मा से अधिक मनोविज्ञान जानता है। सिग्मंड फ्रायड एक यहूदी है, वह आदम और ईव की परंपरा में से ही है। आदम और ईव उसके पूर्वजों के पूर्वजों के भी पूर्वज हैं। कहीं न कहीं फ्रायड में वही खून प्रवाहित हो रहा है। सिग्मंड फ्रायड अधिक बुद्धिमान है। वस्तुतः इस साधारण से तथ्य को देखने के लिए बहुत ज्यादा बुद्धिमानी की आवश्यकता नहीं है।

क्या भगवान को यह साधारण-सी बात दिखाई नहीं देती कि वह उन बेचारे आदम और ईव को चुनौती दे रहा था? ईमानदार और निष्कपट आत्माओं में वह भ्रष्टाचार का बीजारोपण कर रहा था। परंतु परमात्मा को बचाने के लिए, पंडितों और पुरोहितों ने सर्प को बीच में लाने का प्रावधान ढूंढ लिया और समस्त जिम्मेदारी सर्प पर डाल दी कि केवल सर्प ही मनुष्य के मूल पतन का एकमात्र कारण है।  वास्तव में शैतान प्रथम विद्रोही है; उसने आदम-ईव से जो कहा, उससे ही सच्चे धर्म की शुरूआत हुई। ईश्वर ने जो कहा, वह मनुष्य की आत्महत्या का प्रारंभ बनता, धर्म का नहीं।

पूर्वी देशों में सर्प को संसार के सर्वाधिक बुद्धिमान प्राणी की तरह पूजा जाता है। और मेरी दृष्टि में यह बात, कहीं बेहतर है। यदि सर्प ने वास्तव में आदम-ईव के साथ कुछ ऐसा किया है तो निश्चित ही वह दुनिया का सबसे बुद्धिमान प्राणी है। उसने मनुष्य को अनन्त गुलामी, अज्ञानता और मूर्खता से बचाया। यह मूल पतन नहीं, वरन मूल उत्थान है।

मनुष्यता कभी नीचे नहीं गिरी। हां, इतना ही हुआ है कि सारे धार्मिक सिद्धांत वक्त के संग छोटे पड़ गए और मनुष्य पर कब्जा जमाने में विफल रहे। मनुष्य विकास की ओर गतिमान रहा। सिद्धांत विकसित नहीं होते, नीतियां विकसित नहीं होतीं। नीतियां वैसी ही रहती हैं परंतु मनुष्य उन्हें पीछे छोड़कर उनसे ज्यादा विराट हो जाता है। पंडितगण सिद्धांतों और नीतियों से चिपके रहते हैं। लकीर के फकीर होना ही उनकी विरासत है, शक्ति है, परंपरा और प्राचीन ज्ञान है। वे कसकर इनसे चिपके रहते हैं।

अब, मनुष्य के बारे में क्या कहा जाए जो इन सिद्धांतों से ऊपर उठकर विकास की ओर प्रगतिशील है? निश्चित ही, पंडितों के लिए वही निरंतर पतन है। वे कहेंगे कि मनुष्य नीचे गिर रहा है।

सभी धर्म सोच-विचार से भयभीत होते हैं, प्रश्न उठाने से डरते हैं, संदेह करने से सकुचाते हैं, अवज्ञा से घबराते हैं और इसी कारण सदियों तक पिछड़े बने रहते हैं। एक साधारण सा कारण कि उस समय कई वैज्ञानिक वस्तुएं उपलब्ध नहीं थीं...  चिंतन-मनन की कमी के फलस्वरूप धर्म अंधानुसरण का शिकार हो जाता है। वे लोग जो प्राचीन समय में नियम बना रहे थे, उन्हें अंदाज़ा भी नहीं था कि भविष्य में क्या होने जा रहा है। इसलिए सभी धर्म इस बात से सहमत हैं कि मानवता का निरंतर पतन हो रहा है क्योंकि मनुष्य अपने धर्म-शास्त्रों, सिद्धांतों और मुक्तिदाता मसीहा एवं पैगम्बरों का अनुकरण नहीं कर रहा है।

पर, मुझे नहीं लगता है कि मनुष्य का पतन हो रहा है। वास्तव में, मनुष्य की संवेदनशीलता बढ़ रही है, उसकी बुद्धिमत्ता और आयु बढ़ रही है। प्राचीन परतंत्रता और गुलामी के अनेक तरीकों से मुक्त होने में आज का मनुष्य कहीं अधिक सक्षम है, ज्यादा योग्य है। आज मनुष्य में संदेह उठाने, प्रश्न करने और अपनी जिज्ञासा के बारे में बात करने का साहस है। यह कदापि पतन नहीं है।

यह वास्तविक धर्म के फैलाव की शुरूआत है। जल्दी ही यह एक दावानल बन सकती है, जंगल की आग जैसी फैल सकती है। परंतु पंडितों और पुरोहितों के लिए निश्चित ही यह पतन है। उनके लिए प्रत्येक नूतन चीज पतन है क्योंकि वह उनके पुरातन शास्त्रों के अनुरूप नहीं है।

क्या तुम जानते हो कि भारत में केवल सौ साल पहले तक किसी को भी विदेश जाने की आज्ञा नहीं थी। इसका साधारण सा कारण सिर्फ यह था कि विदेश में तुम ऐसे लोगों से मेलजोल बढ़ा लोगे जिन्हें मनुष्यों की तरह स्वीकार नहीं किया जा सकता। वे लोग मानव-तल से नीचे की श्रेणी में आते हैं। भारत में निम्नतम वर्ग के लोगों को अछूत कहा जाता है। उन्हें कोई छू भी नहीं सकता। यदि तुम उन्हें छू लेते हो तो तुम्हें स्नान करना होगा और स्वयं को शुद्ध करना होगा। विदेशों के लोग शायद इन अछूतों से भी निम्न कोटि के हैं। उनके लिए एक विशेष शब्द प्रयुक्त किया जाता है-"मलेच्छ"! इस शब्द का अनुवाद करना बहुत मुश्किल है। इसका अर्थ होता है कुछ ऐसा जो बहुत कुरूप हो, असभ्य हो, घृणित हो और इतना दूषित हो कि उसे देखते ही तुम्हें मितली आने लगे। मलेच्छ शब्द का पूरा और सही अर्थ यही होगा कि ऐसे लोग जिनके संपर्क में आने से तुम्हें उबकाई आने लगे, वमन हो जाए।

इसे मनोवैज्ञानिक ढंग से समझा जा सकता है। मुक्ति दिलाना, बचाना, मदद करना, सेवा करना आदि; तुम ये सारे महान कार्य केवल एक ही मकसद के लिए शुरू करते हो--स्वयं से बचने के लिए। तुम अपना स्वयं का सामना नहीं करना चाहते। तुम देखना ही नहीं चाहते कि तुम कहां हो, तुम क्या हो? इसलिए सबसे अच्छा रास्ता यही है कि इंसानियत को बचाना शुरू करो, इससे तुम बहुत जटिलतापूर्वक व्यस्त हो जाओगे। तुम स्वयं के खालीपन को भूलकर कुछ भरा हुआ महसूस करोगे क्योंकि अब तुम एक महान लक्ष्य की चिंता में संलग्न हो। ऐसा करने से तुम्हें अपनी स्वयं की समस्या नगण्य लगने लगेगी। शायद, तुम अपनी समस्याओं को भूल ही जाओ। यह एक मनोवैज्ञानिक तरीका है, परंतु बहुत विषाक्त है। किसी भी प्रकार से बस तुम स्वयं से बहुत दूर निकल जाना चाहते हो। जितना संभव है उतनी दूर निकल जाना चाहते हो, इतनी दूर कि दर्द और चोट देने वाले अपने ही घाव तुम्हें नजर न आएं। इसलिए सर्वोत्तम मार्ग यही है कि समाज-सेवा में लगे रहो।

 रोटरी क्लब की मेज पर उनका "मोटो"लिखा होता था-"हम सेवा करते हैं। यह क्या निरर्थक बात है? आप किसकी सेवा करते हैं और आपको सेवा क्यों करनी चाहिए? आप कौन होते हैं सेवा करने वाले?"परंतु विश्व भर के रोटरी क्लब के सदस्य सेवा में विश्वास करते हैं। बस, केवल विश्वास करते हैं और कभी-कभार वे छोटी-मोटी सेवा कर भी देते हैं, वे सब बहुत चालाक हैं। रोटरी क्लब के लोग आपके घर की समस्त बची हुई दवाओं को इकट्ठा करते हैं, जो आपके उपयोग की नहीं हैं क्योंकि बीमार व्यक्ति अब बीमार नहीं है, वह ठीक हो चुका है। दवा की आधी शीशी बची है, आप इसका क्या करेंगे? तो फिर कुछ ऐसा काम जरूर करना चाहिए जिससे परलोक में, स्वर्ग में आपका खाता खुल जाए। इसका बेहतरीन उपाय यही है कि वह आधी दवा की शीशी रोटरी क्लब को दे दीजिए! इसमें आपका कुछ भी नुकसान नहीं हो रहा है, वैसे भी आप इस शीशी को फेंकने ही वाले थे। आप घर में रखी दवाईयों, गोलियों, इंजेक्शन और अन्य बची हुई सामग्री का क्या करते? अतः आप इसे रोटरी क्लब को दे दीजिए। शहर के जाने-माने व प्रतिष्ठित लोग रोटरी क्लब के सदस्य होते हैं, वे गणमान्य लोग ही प्रत्येक घर से बची हुई दवाएं एकत्रित करते हैं। रोटरी क्लब का सदस्य होना, एक "रोटेरियन" होना बड़े ही गौरव की बात है क्योंकि केवल किन्हीं खास व्यवसायों के उच्च पदासीन व्यक्ति ही इसके सदस्य हो सकते हैं--केवल प्रोफेसर, डॅाक्टर, इंजीनियर, मैनेजर ही रोटेरियन होंगे-प्रत्येक व्यवसाय में से केवल एक।

अतः ऐसे डॅाक्टर जो रोटेरियन हैं वे गरीब लोगों में दवाईयां बांट देंगे। कैसी महान सेवा! वैसे यह डॅाक्टर फीस भी लेते हैं क्योंकि उन बची हुई दवाईयों के बड़े से ढेर में से वह उपयोगी दवाईयों की छंटनी करते हैं। एक रोटेरियन डॅाक्टर महान काम कर रहा है क्योंकि कम से कम वह अपने कीमती समय में से कुछ समय उन बची हुई दवाईयों के ढेर को खंगालने के लिए दे रहा है। "हम सेवा करते हैं"-वह भीतर बहुत ही महान अनुभव करता है; मानो कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण काम कर रहा है।

एक व्यक्ति ने भारत में आदिवासी बच्चों के लिए स्कूल खोलने में अपना पूरा जीवन लगा दिया है। वह गांधी का अनुयायी है। अचानक ही, संयोग से वह एक बार मुझसे मिला क्योंकि मैं आदिवासी इलाके में गया था। मैं प्रत्येक दृष्टिकोण से उन आदिवासियों का अध्ययन कर रहा था क्योंकि वे लोग उस काल के जीवित उदाहरण हैं जब मानव तथाकथित नैतिकता, धर्म, सभ्यता, संस्कृति, शिष्टाचार और रीति-रिवाज से इतना अधिक बोझिल नहीं था। वे आदिवासी आज भी साधारण, भोलेभाले, मौलिक और निर्मल लोग हैं। यह व्यक्ति अलग-अलग शहरों में जाता था और धन एकत्रित करता था ताकि स्कूल खोले जा सकें और शिक्षकों का प्रबंध किया जा सके। उसकी इसी प्रक्रिया के दौरान वह अचानक मुझसे मिला। मैंने कहा-"आप क्या कर रहे हैं? आप को लगता है कि आप इन आदिवासियों के लिए कोई बहुत बड़ा काम कर रहे हैं?"बहुत अभिमानपूर्वक वह बोला-"निश्चित ही!"मैंने कहा-"आपको पता भी नहीं है कि आप क्या कर रहे हैं? आप जो स्कूल खोलेंगे, उससे कहीं बेहतर स्कूल सब शहरों में मौजूद हैं। इन सब स्कूलों ने आज तक मनुष्यों की कौन सी मदद की है? यदि ये सब आलीशान और सुविधाजनक स्कूल, कॅालेज, विश्वविद्यालय मानवता की मदद नहीं कर पाए, तो आप क्या सोचते हैं--आपका छोटा सा स्कूल इन आदिवासियों की कोईसहायता कर पाएगा? आप बस इतना ही करेंगे कि जो आदिम निर्मलता और नैसर्गिकता उनमें बची है, आप उसे भी नष्ट कर देंगे। ये आदिवासी अभी तकसभ्यता के बोझ से मुक्त हैं। आपके बनाए हुए स्कूल कुछ नहीं करेंगे बल्कि उनके लिए परेशानी पैदा करेंगे।"

वह व्यक्ति स्तब्ध रह गया। परंतु कुछ पल इंतजार करके बोला-"शायद आप सही हैं, क्योंकि एक बार मेरे मन में भी यह विचार आया था कि पूरे विश्व में दूर-दूर तक फैले हुए, वृहतऔर व्यापक स्कूल, कॅालेज, विश्वविद्यालयों के सामने मेरा यह छोटा सा स्कूल क्या कर पाएगा? परंतु फिर मैंने सोचा कि यह तो गांधी जी का मेरे लिए आदेश था कि आदिवासी इलाकों में जाओ और स्कूल खोलो, इसलिए मैं केवल अपने गुरू की आज्ञा का पालन कर रहा हूं।"

मैंने कहा-"यदि तुम्हारा गुरू नासमझ है तो इसका मतलब यह नहीं है कि तुम उसका आदेश मानना जारी रखो। अब यह सब समाप्त करो! मैं तुम्हें आदेश देता हूं। मैं तुम्हें बताता हूं कि तुम यह सब क्यों करते रहते हो? केवल अपनी पीड़ा से बचने के लिए, अपने कष्ट से मुंह छिपाने के लिए। कोई भी तुम्हारे चेहरे को देखकर बता सकता है कि तुम एक दयनीय और असहाय व्यक्ति हो। तुमने कभी किसी से प्रेम नहीं किया है, तुम्हें कभी किसी से प्रेम नहीं मिला है।"वह बोला-"आपने यह सब कैसे पता लगा लिया? क्योंकि यह बिल्कुल ठीक है। मैं एक अनाथ था, किसी ने मुझे प्रेम नहीं किया और गांधी जी के आश्रम में ही मेरा पालन-पोषण हुआ है। वहां प्रेम की चर्चा हम केवल प्रार्थना के दौरान ही करते थे, अन्यथा प्रेम का गुण वहां जिंदगी में कतई नहीं था। वहां बहुत ही सख्त अनुशासन था, जैसा किसी सैन्य-संगठन में होता है। इसलिए कभी किसी ने मुझे प्रेम नहीं किया, यह ठीक है और आप सही कहते हैं कि मैंने भी कभी किसी से प्रेम नहीं किया है क्योंकि गांधी जी के आश्रम में यह असंभव था कि कोई किसी से प्रेम करे। वहां प्रेम करना एक बहुत बड़ा अपराध था। जिन लोगों की गांधी जी प्रशंसा करते थे, मैं उनमें से एक था। मैं कभी भी उनकी नजरों में निंदनीय नहीं रहा। यहां तक कि उनके अपने पुत्र ने उन्हें धोखा दिया। उनका पुत्र, राजगोपालाचार्य की पुत्री के प्रेम में पड़ गया था, इसलिए उसे आश्रम से निकाल दिया गया था। बाद में उसने उस लड़की से शादी भी कर ली। गांधी जी का अपना निजी सहायक, प्यारेलाल, वह भी एक स्त्री के प्रेम में पड़ गया और उसने कई वर्षों तक इस प्रेम संबंध को सबसे छुपाकर रखा। जब इसका भेद में आश्रम में उजागर हुआ तो यह एक भयंकर और कलंकपूर्ण कृत्य कहलाया!"

मैंने कहा-"यह कैसी निरर्थक बात है! गांधी जी के निजी सहायक की यह दुर्गति! इसका मतलब, बाकी लोगों के बारे में अब क्या खाक पूछें!"

इस आदमी की वहां खूब प्रशंसा हुई क्योंकि वह कभी किसी स्त्री के संपर्क में नहीं आया। गांधी ने उसे आदिवासी इलाकों में भेज दिया और बेचारा वही करता रहा जो उसके गुरू ने आदेश दिया था।

लेकिन उसने मुझसे कहा-"आप ने मुझे विचलित कर दिया है। शायद यह ठीक ही हो कि मैं केवल स्वयं से, अपने घावों से और अपनी ही मानसिक वेदना से बचने की कोशिश कर रहा हूं।"

अतः वे लोग जो मानवता को बचाने में उत्सुक होते हैं, पहली बात तो यह है कि वे सब बहुत अहंकारी होते हैं। वे स्वयं को मुक्तिदाता की तरह देखते हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि वे अत्यंत रुग्ण और व्याकुल प्रवृत्ति के होते हैं। वे अपनी परेशानी एवं मानसिक रुग्णता को भुलाने का प्रयत्न कर रहे हैं। तीसरी बात यह है कि ऐसे लोग जो भी करेंगे, उससे मनुष्य की हालत पहले से भी बदतर हो जाती है क्योंकि ये लोग बेचैन हैं, अंधे हैं और लोगों पर मालकियत करनाऔर समाज का नेतृत्व करना चाहते हैं। जब अंधे नेतृत्व करें तबआज नहीं तो कल, समस्त मानव जाति खाई में गिरने वाली है।

नहीं, मैं किसी को बचाने में उत्सुक नहीं हूं। वास्तव में, किसी को भी बचाव की आवश्यकता नहीं है। हर व्यक्ति जैसा है, वैसा ही बिल्कुल ठीक है। हर व्यक्ति अपने स्वयं के चुनाव से ही वैसा है। मैं कौन होता हूं उसे सताने वाला? मैं जो भी संभव कार्य कर सकता हूं वह यही है कि मैं अपने बारे में बात कर सकता हूं कि मुझे क्या हुआ है। मैं अपनी कहानी कह सकता हूं। शायद मेरी कहानी से किसी को कोई प्रेरणा या दिशा मिल जाए, नई संभावना का द्वार खुल जाए। पर मैं कुछ कर नहीं रहा हूं, केवल स्वयं का अनुभव साझा कर रहा हूं। यह सेवा नहीं है। मैं इसका आनंद ले रहा हूं अतः यह सेवा नहीं है। याद रहे, समाज-सेवक के लिए उदासी और गंभीरता अनिवार्य हैं क्योंकि वह कुछ महान काम कर रहा है। उसने अपने कंधों पर हिमालय उठा रखा है, पूरी दुनिया का बोझ उसके सिर पर है। मैंने कोई भार नहीं उठा रखा है--जगत का या किसी भी व्यक्ति का। और मैं कोई गंभीर कार्य नहीं कर रहा हूं। केवल तुम्हारे संग अपनी अनुभूतियों को बांटने का मजा ले रहा हूं। अनुभव बांटना अपने आप में ही आनंद है। यदि तुम तक कुछ पंहुचे, तो धन्यवाद दो ईश्वर को। उसका वजूद नहीं है।




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