मंगलवार, 25 अक्तूबर 2022

गांधी

 जब गांधी जी उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड गए थे तब उनकी मां ने उनसे तीन प्रतिज्ञा ली थीं। पहली, वे किसी भी पराई स्त्री की तरफ वासना भरी नजरों से नहीं देखेंगे, जो बहुत ही दुष्कर कार्य है क्योंकि जैसे ही आपको मालूम चलेगा कि आप वासना भरी नजरों से देख रहे हैं, तब तक तो आप देख ही चुके होंगे। मुझे नहीं लगता कि गांधी जी ने इस प्रतिज्ञा का पालन किया होगा, वे कर ही नहीं सकते, इसका पालन कर पाना असंभव है। यद्यपि उन्होंने अपनी तरफ से हर संभव प्रयास किया। दूसरी, उन्हें मांस नहीं खाना चाहिए। गांधी जी ऐसी विकट समस्या से घिर गए--क्योंकि आज लंदन में आपको शाकाहारी भोजनालय मिल सकते हैं, आज वहां स्वास्थ्यवर्द्धक भोजन सामग्री उपलब्ध है परंतु जब गांधी जी शिक्षा ग्रहण करने के लिए गए थे उस समय शाकाहारी भोजन आसानी से प्राप्त नहीं होता था। उन्हें केवल फल, ब्रेड, मक्खन और दूध आदि से ही गुजारा करना पड़ा था। वे करीब-करीब भूखों मर रहे थे। वे लोगों के साथ मिलजुल नहीं सकते थे क्योंकि वे सब लोग "मलेच्छ" थे और महिलाओं से मिलते हुए वे स्वयं इतना डरते थे कि क्या पता...  कब एक ठंडी हवा के झोंके की तरह वासना उनकी नजरों में उतर जाए? वासना कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो आपके दरवाजे पर पहले से दस्तक दे और कहे कि मैं आ रही हूं। तुम एक सुंदर स्त्री को देखते हो और अचानक महसूस करते हो कि वह बहुत सुंदर है--और इतना काफी है! केवल इतना सोचना ही कि वह सुंदर है, इस बात की सूचना देता है कि तुमने उसे वासना भरी नजरों से देख लिया है। अन्यथा इस बात से क्या लेना देना है और तुम क्यों निर्णय कर रहे हो कि वह सुंदर है या कुरूप है? वास्तव में, यदि तुम अपने निर्णयों को बहुत गहराई से देखो तो जिस क्षण तुम कहते हो कि कोई सुंदर है, उसी क्षण, बहुत गहरे में, तुम उसे पाने की चाहत से भरे हो। जब तुम कहते हो कि कोई कुरूप है, तब बहुत गहरे में तुम्हें उस व्यक्ति से कोई भी सरोकार नहीं है, तुम उससे संबंधित नहीं होना चाहते। तुम्हारी "सुंदरता" और "कुरूपता" की परिभाषा असल में किसी के पक्ष या विपक्ष में तुम्हारी अपनी ही वासना की द्योतक है। अतः गांधी जी सदैव महिलाओं से डरते रहे। वे अपने कमरे तक ही सीमित रहते थे क्योंकि यूरोप में सभी जगह महिलाओं की उपस्थिति थी और उन सब से कैसे दूर रहा जा सकता था?

तीसरी प्रतिज्ञा थी कि वे अपना धर्म परिवर्तन नहीं करेंगे।

पहली समस्या अलैक्जेंड्रिया (मिस्र के एक मुख्य शहर) में शुरू हुई। उनके जहाज को उस जगह पर माल उतारने और चढ़ाने के लिए तीन दिन तक इंतजार करना था। उस जहाज पर उपस्थित जितने भी भारतीय लोग थे वे गांधी जी के मित्र बन चुके थे। उन्होंने सहज भाव से गांधी जी से कहा--

"यहां तीन दिन तक अंदर बैठे रहने का क्या औचित्य है? अलैक्जेंड्रिया में रातें बहुत सुंदर होती हैं।" 

पर गांधी जी को इस बात का अर्थ समझ में नहीं आया--"अलैक्जेंड्रिया में रातें सुंदर होती हैं"... 

 इन सब मामलों में वे जरा नासमझ थे। उन्होंने सुप्रसिद्ध पुस्तक "अरेबियन नाईट्स" का कभी नाम तक नहीं सुना था, अन्यथा वे इस बात को थोड़ा बहुत समझ ही जाते। अलैक्जेंड्रिया अरब के बिल्कुल पास है, इसलिए वहां की रातें अरब की रातों जैसी होती हैं।

गांधी जी ने कहा कि ठीक है, यदि रातें बहुत सुंदर होती हैं तो मैं भी आप लोगों के साथ आ रहा हूं। पर वे यह नहीं जानते थे कि वे कहां जा रहे हैं? वे सब लोग उन्हें एक बहुत ही भव्य मकान में ले गए। वहां गांधी जी ने पूछा-

"पंरतु हम कहां जा रहे हैं?" 

उनके मित्रों ने कहा-

"सुंदर रातों की ओर"! 

और वह भवन एक वेश्यालय था। गांधी जी एकदम स्तब्ध रह गए और उनकी जबान जैसे बंद हो गई। वे इतना भी नहीं कह पा रहे थे कि मैं अंदर नहीं जाना चाहता हूं। वे इतना भी नहीं बोल पाए कि मैं वापिस जहाज पर जाना चाहता हूं। इसके दो कारण हैं--पहला,

 "यह सब लोग सोचेंगे कि मैं नपुंसक हूं" 

और दूसरा, वे उस समय बोलने योग्य नहीं थे, जीवन में पहली बार उन्हें ऐसा लगा कि उनका गला रूंध गया है, जाम हो गया है। उन सब लोगों ने जबरदस्ती उन्हें खींचा। वे लोग बोले-

"यह नए हैं, चिंता करने की आवश्यकता नहीं है।"

और वे उन लोगों के साथ चले गए। उन लोगों ने उन्हें भी एक वेश्या के कमरे में धकेल दिया और दरवाजा बंद कर दिया।

पसीने से तर, कांपते हुए गांधी जी को देखकर वेश्या भी कुछ परेशान हुई। वह बिल्कुल ही भूल गई कि वे केवल एक ग्राहक हैं। उस वेश्या ने उन्हें बिठाया, वे उसके पलंग पर नहीं बैठ रहे थे परंतु उसने आग्रहपूर्वक उन्हें बिठाया। वह बोली-

"आप ठीक से खड़े होने की स्थिति में नहीं हैं, आप नीचे गिर जाएंगे, आप बहुत ज्यादा कांप रहे हैं। आप पहले बैठ जाइए।"

वे इतना भी नहीं कह सके कि वे एक वेश्या के पलंग पर बैठना नहीं चाहते हैं। 

"मेरी मां क्या कहेगी? मैंने तो अभी तक उसकी तरफ देखा नहीं है।"

भीतर ही भीतर, मन ही मन वे अपनी मां से बातचीत कर रहे थे। "मैंने अभी तक उसकी तरफ वासना की दृष्टि से नहीं देखा है। यह केवल एक दुर्घटना है, ये सब बेवकूफ और मंदबुद्धि लोग जबरदस्ती मुझे यहां ले आए हैं।" 

वह महिला समझ गई कि इन्हें यहां जबरदस्ती लाया गया है। वह बोली, 

"बिल्कुल चिंता मत करें, मैं भी एक इंसान हूं, मुझे बताइए कि आप क्या चाहते हैं? मैं आपकी मदद करूंगी।"

 परंतु वे कुछ भी न कह सके।

वह महिला बोली, 

"यह तो बहुत ही मुश्किल है, ऐसे कैसे... ! आप बोल नहीं रहे हैं।"

गांधी जी बोले--"मैं...  बस..."

वह बोली, "कृपया आप लिख कर दीजिए।"

उन्हें कागज पर लिखा-

"मुझे यहां पर आने के लिए बाध्य किया गया है। मैं बस यहां से जाना चाहता हूं और आपको मैं अपनी बहन की तरह ही देखता हूं।"

वह बोली, "अच्छा, ठीक है, आप चिंता मत करें।"

 उस महिला ने दरवाजा खोला और कहा-

"क्या आपके पास जहाज पर वापिस जाने के लिए पैसे हैं या मुझे आपकी मदद के लिए आपके साथ आना चाहिए? क्योंकि अलैक्जेंड्रिया में आधी रात का यह समय बेहद खतरनाक है।"

वे बोले-

"नहीं"। 

उस वेश्या को देखने के बाद कि वह कोई खतरनाक जीव जैसी नहीं है, अब वह ठीक से बात करने लायक हो गए थे। आज तक वह जितनी भी महिलाओं से मिले थे, उन सब में से उस वेश्या ने उनके साथ अधिक मानवता का व्यवहार किया। उसने उन्हें भोजन दिया, पर गांधी जी बोले,

 "नहीं, मैं नहीं खा सकता, मैं ठीक हूं।"

 उसने उन्हें पानी दिया परंतु एक वेश्या के घर का पानी उन्होंने नहीं पिया...  जैसे कि पानी भी वेश्या के घर में होने के कारण दूषित हो गया था। 

गांधी जी ने उस महिला को धन्यवाद दिया और अपनी आत्मकथा में उन्होंने उस महिला और उस पूरी घटना के बारे में लिखा-

"मैं कितना डरा हुआ था कि मैं बोल भी नहीं पा रहा था, यहां तक कि मैं "ना" भी ना कह सका।"

इन तीन प्रतिज्ञाओं ने इंग्लैंड में उन्हें गुलाम बनाए रखा, अन्यथा वे वहां पूर्ण स्वतंत्र होकर जी सकते थे। वे जीवन के अनेक ऐसे आयामों से परिचित हो सकते थे जो भारत में सुलभता से उपलब्ध नहीं थे, परंतु यह असंभव था क्योंकि तीन प्रतिज्ञाएं ही मुख्य बाधा थीं। उन्होंने मित्र नहीं बनाए, वे सामाजिक सभाओं या धर्म सभाओं में नहीं गए। वे केवल अपनी पुस्तकों के साथ ही सीमित रहे और यह प्रार्थना करते रहे--

"किसी तरह मेरा यह कोर्स समाप्त हो जाए तो मैं वापिस भारत जा सकूं।"

इस प्रकार का व्यक्ति एक महान कानूनी विशेषज्ञ नहीं बन सकता। उनका परीक्षा परिणाम बेहतर था, वे अच्छे अंकों से पास हुए। परंतु जब वे भारत आए और उनके पहले ही केस के लिए वे कचहरी गए तो वहां फिर से उनके साथ वही घटना घटी जो उस वेश्या के घर में घटी थी। वे केवल इतना ही बोल पाए-

"माय लॅार्ड" 

और बस...  यही आरंभ और अंत था। लोगों ने कुछ देर इंतजार किया, दोबारा उन्होंने यही कहा, 

"माय लॅार्ड"...  

वे इतनी बुरी तरह कांप रहे थे कि जज को कहना पड़ा-

"इन्हें ले जाएं और कुछ देर आराम करने दें।"

यह गांधी जी का भारत में, भारतीय कोर्ट में पहला और आखिरी केस था। उसके बाद उन्होंने कोई केस लेने की हिम्मत नहीं की क्योंकि "माय लॅार्ड" कहते ही उनके अटक जाने की संभावना थी। इसकी मुख्य वजह बस यही थी कि उनके पास लोगों से मिलने और वार्तालाप करने का अनुभव नहीं था। वे लगभग एक साधु की तरह अकेले और अलग-थलग से जिये थे, मानो वे दूर दराज के किसी मठ में रहे हों।

फिर उन्हें मुंबई लाया गया, जहां वे किसी भी तरह से सहज और निश्चिन्त नहीं थे। और यह व्यक्ति एक दिन पूरे विश्व का महान नेता बन जाता है। इस दुनिया में चीजें बहुत ही अद्भुत तरीके से काम करती हैं। गांधी कोर्ट नहीं जा सके, इसलिए उन्होंने एक मित्रवतमुस्लिम परिवार का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उस परिवार का दक्षिण अफ्रीका में अच्छा व्यापार था और उन्हें एक कानूनी सलाहकार की आवश्यकता थी। उन्हें वहां कोर्ट में नहीं जाना था, केवल भारत और दक्षिण अफ्रीका में उस व्यापार की स्थिति को समझने में वहां के वकील की मदद करनी थी और उसे कानूनी सलाह देनी थी। इस तरह वे वकील के सहायक के रूप में वहां काम करने लगे। उन्हें स्वयं कोर्ट नहीं जाना पड़ता था। अतः इसी कारण से वे अफ्रीका गए, परंतु बीच रास्ते में ही दो दुर्घटनाएं हो गईं जिन्होंने न केवल गांधी की जिंदगी बल्कि पूरे भारत का इतिहास बदल कर रख दिया, यहां तक कि इन घटनाओं का असर संपूर्ण विश्व पर भी पड़ा।

पहली घटना थी कि भारत से जाते समय जो मित्र उन्हें जहाज पर विदा करने के लिए गए थे, उन्होंने जॅान रस्किन की एक पुस्तक "अनटू दिस लास्ट" उन्हें उपहार में दी। इस पुस्तक ने उनका पूरा जीवन ही रूपांतरित कर दिया। यह बहुत ही छोटी सी और साधारण सी पुस्तक है, यह पुस्तक दावा करती है-"अनटू दिस लास्ट" अर्थात"बेचारा, गरीब एवंअंतिम व्यक्ति।" हमें पिछड़े और गरीब व्यक्ति की मदद सबसे पहले करनी चाहिए। और यही उनके संपूर्ण जीवन का दर्शन बन गया कि पिछड़े व दरिद्र व्यक्ति की सहायता सबसे पहले होनी चाहिए।

दक्षिण अफ्रीका में जब गांधी रेलगाड़ी के पहले दर्जे के डिब्बे में यात्रा कर रहे थे, एक अंग्रेज आया और बोला-

"तुम यहां से बाहर निकल जाओ क्योंकि कोई भी भारतीय पहले दर्जे के डिब्बे में यात्रा नहीं कर सकता है।"

गांधी ने कहा-

"परंतु मेरे पास पहले दर्जे का टिकट है, प्रश्न यह नहीं है कि मैं भारतीय हूं या यूरोपीय हूं; सवाल यह है कि मेरे पास पहले दर्जे का टिकट है या नहीं है? लिखित रूप से कहीं भी कुछ ऐसा उपलब्ध नहीं है कि कौन-कौन यात्रा कर सकता है? जिसके पास भी पहले दर्जे का टिकट है, वह यात्रा कर सकता है।"

पर वह अंग्रेज सुनने को राजी नहीं था। उसने आपात्कालीन स्थिति में उपयोग की जाने वाली जंजीर खींची और गांधी का सामान बाहर फेंक दिया। गांधी एक दुबले-पतले, कमजोर व्यक्ति थे; अंग्रेज ने उन्हें भी धक्का देकर बाहर प्लेटफार्म पर उतार दिया और बोला-

"अब करो तुम यात्रा पहले दर्जे में!"

पूरी रात गांधी उस छोटे से स्टेशन के प्लेटफार्म पर पड़े रहे। स्टेशन मास्टर ने उनसे कहा-

"तुमने व्यर्थ में ही परेशानी मोल ले ली; तुम्हें चुपचाप नीचे उतर जाना चाहिए था। तुम यहां नए लगते हो? भारतीय पहले दर्जे में यात्रा नहीं कर सकते हैं। ऐसा कोई कानून नहीं है, पर यहां ऐसा ही चलता है।"

परंतु वह सारी रात गांधी ने एक अजीब सी हलचल में बिताई। गांधी के भीतर ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति विद्रोह का बीज इसी घटना से पड़ा। उसी रात उन्होंने निर्णय ले लिया था कि इस साम्राज्य का अंत होकर रहेगा। गांधी बहुत वर्षों तक अफ्रीका में रहे और वहां उन्होंने अहिंसा द्वारा अपनी लड़ाई लड़ने की संपूर्ण कला सीख ली। जब वे 1920 में भारत आए तब अहिंसक क्रांति के कुशल नायक बन गए और केवल अपनी परंपरागत, रूढ़िवादी और धार्मिक छवि के कारण जल्दी ही उन्होंने पूरे देश के मन पर आधिपत्य कर लिया। कोई भी यह नहीं कह सकता था कि वह संत नहीं हैं क्योंकि वह पांच हजार साल पुराने नियमों का पालन कर रहे थे, जो अति-प्राचीन काल में निर्मित किए गए थे।

वास्तव में, वे यह सलाह भी देते थे कि हमें घड़ी को अतीत की ओर मोड़ देना चाहिए और मनु-काल में, पांच हजार वर्ष पूर्व के वक्त में वापिस लौट जाना चाहिए। उनके लिए चरखा ही एकमात्र महानतम और नवीनतम अविष्कार था। चरखे के बाद...  विज्ञान गायब! विज्ञान का काम चरखे के साथ ही पूरा हो चुका था। निश्चित ही वे उन लोगों के नेता बने जो आधुनिक और सम-सामायिक नहीं थे। 

ओशो रजनीश 

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