गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 6

 


 संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।। 6।।


परंतु हे अर्जुन! निष्काम कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात मन, इंद्रियों और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है। और भगवत् स्वरूप को मनन करने वाला निष्काम कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।


फिर पुनः कृष्ण कहते हैं! शायद फिर अर्जुन की आंख में झलक लगी होगी कि जब दोनों ही मार्ग ठीक हैं, और जब कर्म को छोड़ने वाला भी वहीं पहुंच जाता है, जहां कर्म को करने वाला। तो अर्जुन के मन को लगा होगा, फिर कर्म को छोड़ ही दूं। छोड़ना चाहता है। छोड़ना चाहता था, इसीलिए तो यह सारा संवाद संभव हो सका है। सोचा होगा, कृष्ण अब बिलकुल मेरे अनुकूल आए चले जाते हैं। अब तो वही कहते हैं मेरे मन की, मनचाही, मनचीती बात। यही तो मैं चाहता हूं कि छोड़ दूं सब। और जब छोड़ने से भी पहुंच जाते हैं वहां, तो इस व्यर्थ के युद्ध के उपद्रव को मैं मोल क्यों लूं!


ये सब सपने उसकी आंखों में फिर तिर गए होंगे। ये सब उसकी आंखों में भाव फिर आ गए होंगे।  उसे फिर लगा होगा कि फिर मैं ही ठीक था, फिर कृष्ण क्यों इतनी देर तक लंबी बातचीत किए! जब मैंने गांडीव रखा था और शिथिल गात होकर बैठ गया था, तभी मुझसे कहते कि हे अर्जुन, हे महाबाहो, तू तो कर्म-संन्यासी हो गया है। और कर्म-संन्यास से भी लोग वहीं पहुंच जाते हैं, जहां कर्म करने वाले पहुंचते हैं। प्रसन्न हुआ होगा मन में कहीं। जो चाहता था, वही करीब दिखा होगा। वही कृष्ण के मुंह से भी उसे सुनाई पड़ा होगा। वही कृष्ण की बात में भी ध्वनित हुआ होगा।

उसे देखकर ही कृष्ण तत्काल कहते हैं, लेकिन अर्जुन, जब तक आकांक्षा न छूट जाए और कर्म में निष्कामता न सध जाए, तब तक कोई व्यक्ति कर्म को छोड़ना आसान नहीं पाता है।

फिर दुविधा उन्होंने खड़ी कर दी होगी! अर्जुन से फिर छीन लिया होगा उसका मिलता हुआ आश्वासन। सांत्वना बंधती होगी, कंसोलेशन उतर रहा होगा उसकी छाती पर, वह फिर हटा दिया होगा। कहा कि नहीं, आकांक्षा छोड़कर कर्म का जो अभ्यास न कर ले, वह कर्म भी छोड़ पाए, यह बहुत कठिन है। क्योंकि जो आकांक्षा नहीं छोड़ पाता, वह कर्म क्या छोड़ पाएगा! जो आकांक्षा तक छोड़ नहीं सकता, वह कर्म क्या छोड़ पाएगा! और जो आकांक्षा नहीं छोड़ सकता और कर्म छोड़कर भाग जाएगा, बहुत डर तो यही है कि सिर्फ कर्म ही छूटेगा, आकांक्षा न छूटेगी। खतरा है। कर्म छोड़ना एक लिहाज से आसान है।

एक चोर है। हम जब उसे जेल में बंद कर देते हैं, तो चोरी का कर्म छूट जाता है। कर्म-संन्यास हो गया? कर्म तो छूट गया। चोरी तो नहीं कर पाता है अब। लेकिन चोर होना बंद नहीं होता। चोर होना जारी है। चोर वह अब भी है। प्रतीक्षा कर रहा है, कब अवसर मिले। शायद और बड़ा चोर होकर बाहर निकलेगा।

अब तक तो यही हुआ है। अब तक कोई कारागृह किसी चोर को चोरी से मुक्त नहीं करा पाया है, सिर्फ निष्णात चोर बनाकर बाहर भेजता है--ट्रेंड! क्योंकि और सदगुरु वहां उपलब्ध हो जाते हैं! और भी गहन ज्ञानी, अनुभवी पुरुष! और चोर को भी पता चल जाता है कि यह चोरी का दंड नहीं मिल रहा है। यह दंड तो चोरी ठीक से न करने का मिल रहा है। अभ्यास करूं, और-और साधूं कुशलता, तो फिर यह भूल नहीं होगी।

कोई अदालत, कोई जेलखाना अब तक किसी चोर को चोरी से नहीं छुड़ा पाया। कर्म से छुड़ा देता है। वही भ्रम है, जो कई बार कर्मत्यागी भी कर बैठता है

कृष्ण कहते हैं, कर्म से छोड़कर भाग जाना तो कठिन नहीं है, लेकिन अगर आकांक्षा न गई हो और अगर निष्काम कर्म न सध गया हो, तो कर्म छोड़ने से भी कुछ होगा नहीं।

अर्जुन की आंख में देखकर उन्होंने फिर बात खड़ी की होगी। और अर्जुन से कहा होगा, ऐसा मत सोच कि मैं कह रहा हूं कि तू छोड़कर चला जा। पहले तू निष्काम कर्म साध। यदि निष्काम कर्म सध जाए, तो कर्मत्याग भी कर सकता है।

लेकिन बड़े मजे की बात यह है कि अगर निष्काम कर्म सध जाए, तो कर्मत्याग करना, न करना बराबर है। कोई भेद नहीं है। फिर वह व्यक्ति की अंतर्मुखता या बहिर्मुखता पर निर्भर करेगा। अगर निष्काम कर्म सध जाए, तो बहिर्मुखी व्यक्ति कर्म को करता चला जाएगा, अंतर्मुखी व्यक्ति कर्म को अचानक पाएगा कि वे बंद हो गए हैं। लेकिन वासना से मुक्ति तो सधनी ही चाहिए, निष्कामता तो सधनी ही चाहिए। वह तो अनिवार्य शर्त है। उससे कोई बचाव नहीं है। इसलिए कृष्ण ने पुनः अर्जुन को याद दिला दी।

कृष्ण पूरे समय अर्जुन को पढ़ते चलते हैं। और गुरु वही है, जो शिष्य को पढ़ ले। शिष्य तो गुरु को कैसे पढ़ेगा! वह तो बहुत मुश्किल है, असंभव है। अगर शिष्य गुरु को पढ़ सके, तो वह खुद ही गुरु हो गया। उसके लिए अब किसी गुरु की जरूरत नहीं है। गुरु वही है, जो शिष्य को पढ़ ले खुली किताब की तरह, उसके एक-एक अध्याय को उसके जीवन के; उसके मन की एक-एक पर्त को झांक ले। गुरु वह नहीं है कि शिष्य जो कहे, वह उसे बता दे। गुरु वह है, जो वही बताए, जो शिष्य के लिए जरूरी है। गुरु वह नहीं है, जो शिष्य के लिए सिर्फ सिद्धांत जुटा दे। गुरु वह है, जो शिष्य के लिए  रूपांतरण, क्रांति का मार्ग व्यवस्थित कर दे।

अर्जुन तो यही चाहता है कि कृष्ण कह दें कि अर्जुन, छोड़ दे, तो अर्जुन प्रफुल्लित हो जाए। और सारी दुनिया में डंके से कह दे कि कोई मैंने छोड़ा, ऐसा मत कहना। असल में अर्जुन चाहता है कि कृष्ण की गवाही मिल जाए, तो वह सारी दुनिया को कह सके कि मैं कोई कायर नहीं हूं। डर तो उसे यही है गहरे में, बहुत गहरे में। क्षत्रिय है वह। एक ही डर है उसे कि कोई कायर न कह दे। इसलिए वह फिलासफी की बातें कर रहा है। वह यह कह रहा है कि मुझे कोई दार्शनिक सिद्धांत मिल जाए, जिसकी आड़ में मैं पीठ दिखा सकूं और मैं दुनिया से कह सकूं कि मैं कोई कायर नहीं हूं। मैंने कर्म-त्याग कर दिया है। और अगर तुम कहते हो कि मैं गलत हूं, तो पूछो कृष्ण से। कृष्ण की गवाही से छोड़ा है। ये गवाह हैं।

लेकिन उसे पता नहीं कि वह जिस आदमी को गवाह बना रहा है, उस आदमी को गवाह बनाना बहुत आसान नहीं है। और जिस आदमी से वह अपनी कायरता के लिए, भागने के लिए, एस्केप के लिए, पलायन के लिए सहारे खोज रहा है, उस आदमी से इस तरह के सहारे खोजने संभव नहीं हैं। कृष्ण उसे क्रांति दे सकते हैं, सहारा नहीं दे सकते। कृष्ण उसे रूपांतरित कर सकते हैं, लेकिन पलायन नहीं करवा सकते। कृष्ण उसे नया व्यक्तित्व दे सकते हैं, लेकिन उसके भीतर छिपी हुई कमजोरियों के लिए आड़ नहीं बन सकते हैं।

इसलिए बार-बार कृष्ण जब भी--जब भी--कर्म-संन्यास की कोई बात कहते हैं, अर्जुन प्रफुल्लित मालूम होता है। वह कहता है, यही, यही! बिलकुल ठीक कह रहे हैं।

ऐसा मैं देखता हूं रोज। रोज मैं देखता हूं, साधुओं और संन्यासियों और गुरुओं के पास जो लोग बैठे होते हैं, वे कहते हैं कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं महाराज! वे उसी वक्त कहते हैं, बिलकुल ठीक कह रहे हैं, जहां उनको कोई सहारा मिलता है; जहां उन्हें लगता है कि ठीक, अपनी बेईमानी में कुछ सहारा मिल रहा है; अपनी चोरी में कुछ सहारा मिल रहा है। अगर कोई महात्मा समझाता है कि आत्मा तो शुद्ध-बुद्ध है, आत्मा ने कभी पाप ही नहीं किए; तो पापी बड़े सिर हिलाते हैं। वे कहते हैं, बिलकुल ठीक! यही तो हम कहते हैं। पापी को बड़ा रस आता है कि बिलकुल ठीक। महात्मा भी यही कह रहे हैं।

इसलिए महात्माओं के पास अगर पापी इकट्ठे हो जाते हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं है। लेकिन हिम्मत कृष्ण जैसी महात्माओं में जब तक न हो, तब तक सुनने वालों का कोई भी लाभ नहीं होता, हानि होती है। और मेरा ऐसा अनुभव है कि सौ में निन्यानबे महात्मा सुनने वालों को हानि पहुंचाते हैं, सहारा बन जाते हैं।

कृष्ण सहारा नहीं बनेंगे। इसलिए जरा-सी भी कोई बात ऐसी होती है कि अर्जुन उसको घुमा-फिराकर अपना सहारा बना सके, कृष्ण फौरन छिन-भिन्न कर देते हैं; तलवार उठाकर काट देते हैं। वे कहते हैं, इस भूल में मत पड़ जाना। यह मत समझ लेना तू कि कर्म छोड़ना आसान है। जब तक निष्कामता न सध जाए, तब तक कर्म छोड़ना बहुत कठिन है।

और दूसरी बात यह कहते हैं कि अर्जुन, निष्काम कर्म सरल है। जो अर्जुन को कठिन मालूम पड़ रहा है, उसे वे सरल कहते हैं; और जो अर्जुन को सरल मालूम पड़ रहा है, उसे वे कठिन कहते हैं। इसे खयाल में रख लें।

अर्जुन को यही सरल मालूम पड़ रहा है, कर्म-त्याग बिलकुल सरल है। पत्नी को छोड़कर भाग जाना कोई कठिन बात है! दूकान को छोड़कर भाग जाना कोई बहुत कठिन बात है! जब कि दिवाला भी निकल रहा हो, तब तो और भी सरल है, तब तो कर्म-त्याग बिलकुल ही आसान है! दुख की घड़ी में कर्म को छोड़ देना कोई कठिन बात है? सुख की घड़ी में कोई छोड़ता नहीं।

यह अर्जुन कभी भी नहीं आज तक इसके पहले--यह कोई अर्जुन की कृष्ण की पहली मुलाकात नहीं है। जिंदगीभर के साथी हैं। गीता को अब तक पैदा होने का मौका नहीं आया था। अर्जुन अब तक ऐसे उपद्रव में, ऐसे संकट में पड़ा नहीं था। और वह तो जरा दुविधा हो गई, नहीं तो वह संकट में पड़ता नहीं।


अर्जुन क्राइसिस में पड़ गया, क्योंकि परिवार सब बंटा हुआ सामने खड़ा था। यहां भी अपने थे। जीतेंगे तो, हारेंगे तो, मरेंगे अपने ही। कुछ भी हो, अपने मर जाएंगे। इससे बेचैनी खड़ी हो गई। इसलिए मुश्किल में पड़ गया। इसलिए अब वह राह खोजने लगा, ज्ञान की बातें करने लगा। उसके मन में कभी भी, कभी भी हिंसा के प्रति कोई अड़चन न थी। वह इतनी मौज से मार सकता था कि वह हाथ भी नहीं धोता और मजे से खाना खाता। उसको कोई मारने में तकलीफ नहीं थी। मारने में वह कुशलहस्त है। उससे ज्यादा कुशलहस्त आदमी खोजना मुश्किल है मारने में। लेकिन आज क्या अड़चन थी! सोचता है, सरल तो यही है कि सब छोड़ दूं। और कृष्ण कैसा उलटा आदमी मिल गया! कहां गलत आदमी को सारथी बना लिया!

इसलिए भगवान को सारथी बनाने से जरा बचना चाहिए। वे दिक्कत में रखेंगे। आपके रथ को ऐसी जगह ले जाएंगे, जहां आप नहीं चाहते कि जाए। उसी दिन गलती हो गई, जिस दिन कृष्ण को सारथी बना लिया। जिसने भी कृष्ण को सारथी बनाया, फिर रास्ता सुगम नहीं है। रास्ता अड़चन का होगा, यद्यपि परम उपलब्धि आनंद की होगी। मार्ग कठिन होगा, फल अमृत के होंगे। और गलत सारथी मिला, तो मार्ग तो बड़ा सरल होगा, लेकिन फल नर्क हो सकता है। अंधेरी रात के गङ्ढ में गिरा देता है।

जैसे ही कृष्ण को दिखाई पड़ा कि उसको लग रहा है कि अब मैं उसके करीब आ रहा हूं, वे तत्काल हट जाते हैं। आते हैं और हट जाते हैं। उन्होंने फौरन कहा कि ध्यान रख, निष्काम कर्म साधे बिना कर्म-त्याग नहीं हो सकता। पहले तू युद्ध कर। ऐसे कर कि फल की कोई आकांक्षा न हो। अगर तू युद्ध करके फल की आकांक्षा के पार उठ गया, तो ठीक है; फिर तू कर्म भी त्याग कर देना। अर्जुन कहेगा, फिर कर्म-त्याग करने से मतलब ही क्या है! वक्त ही निकल गया। फिर तो राज्य हाथ में होगा। फिर त्याग करने का क्या मतलब है? कृष्ण कहते हैं, युद्ध तो कर ले, फल की आकांक्षा छोड़कर। और जब राज्य मिल जाए और युद्ध गुजर जाए और तू निष्काम साध ले, तब तू त्याग कर देना!

अर्जुन को यह बहुत कठिन लगता है। दुख की घड़ी तो गुजारो और सुख की घड़ी में छोड़ देना! लेकिन ध्यान रहे, धर्म की यही अपेक्षा है। सुख की घड़ी में जो छोड़े, वही धर्म को उपलब्ध होता है। दुख की घड़ी में कोई कितना ही छोड़े, धर्म को उपलब्ध नहीं होता है। दुख की घड़ी में कोई भी छोड़ना चाहता है। दुख की घड़ी में छोड़ना नैसर्गिक है, धार्मिक नहीं। सुख की घड़ी में छोड़ना एक  बड़ी असंभव क्रांति से गुजरना है। वह कृष्ण कहते हैं, उस असंभव क्रांति से गुजरना ही होगा अर्जुन!


(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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