बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

गीता दर्शन अध्याय 3 भाग 21

 

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।। २७।।

प्रकृतेः प्रकृति का क्रियमाणानि किये जाकर गुणैः- गुणों के द्वारा; कर्माणि कर्म; सर्वशः- सभी प्रकार के अहङ्कार विमूढ- अहंकार से मोहित आत्मा-आत्मा; कर्ता- करने वाला; अहम् - मैं हूँ: इति- इस प्रकार मन्यते-सोचता है।


(वास्तव में) संपूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए हुए हैं,

(तो भी) अहंकार से मोहित हुए अंतःकरण वाला पुरुष,

मैं कर्ता हूं, ऐसे मान लेता है।



समस्त कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा किए हुए हैं। लेकिन अज्ञान से, अहंकार से भरा हुआ पुरुष, मैं कर्ता हूं, ऐसा मान लेता है। दो बातें हैं।

सच ही, सब कुछ किया हुआ है प्रकृति का। जिसे आप कहते हैं, मैं करता हूं, वह भी प्रकृति का किया हुआ है। जिसे आप कहते हैं, मैं चुनता हूं, वह भी प्रकृति का चुना हुआ है। आप कहते हैं कि कोई चेहरा मुझे प्रीतिकर लगता है, चुनता हूं इस चेहरे को, विवाह करता हूं। लेकिन कभी आपने सोचा कि यह चेहरा आपको प्रीतिकर क्यों लगता है? अंधा है चुनाव! क्या कारण हैं इसके प्रीतिकर लगने का? यह आंख, यह नाक, यह चेहरा, प्रीतिकर क्यों लगता है? बस, लगता है। कुछ और कह सकेंगे, क्यों लगता है? शायद कहें कि आंख काली है। लेकिन काली आंख क्यों प्रीतिकर लगती है? यह आंख आपकी आंख में प्रीतिकर लगती है। यह आपकी प्रकृति और इस आंख की प्रकृति के बीच हुआ तालमेल है। इसमें आप कहां हैं?

आप कहते हैं, यह चीज मुझे बड़ी स्वादिष्ट लगती है। कभी आपने सोचा कि स्वादिष्ट लगती है, आपको? लेकिन बुखार चढ़ जाता है, और फिर स्वादिष्ट नहीं लगती। सिर्फ आपकी जीभ पर प्रकृति के रसों का और भोजन के रसों का तालमेल है। आप नाहक बीच में पड़ जाते हैं। आप नाहक हर जगह बीच में खड़े हो जाते हैं।

आप कहते हैं, मुझे जीने की इच्छा है। लेकिन आपको जीने की इच्छा है या आप ही जीने की इच्छा के एक अंग हैं? एक आदमी कहता है, मैं आत्महत्या कर रहा हूं। यह आदमी स्वयं आत्महत्या कर रहा है कि जीवन के सारे गुण उस जगह आ गए हैं, जहां आत्महत्या घटित होती है? यदि हम कर्मों में गहरे उतरकर देखें, और अहंकार में भी, तो अहंकार एक भ्रांति है। जीवन कर रहा है, सब कुछ जीवन कर रहा है। सुख-दुख, जो आपको सुखद लगता है, वह भी प्रकृति का गुणधर्म है। जो आपको दुखद लगता है, वह भी प्रकृति का गुणधर्म है।


जिसे हम सुख कहते हैं, वह भी तालमेल है। जिसे हम दुख कहते हैं, वह भी तालमेल है या तालमेल का अभाव है। लेकिन मैं सुखी होता हूं, मैं दुखी होता हूं, वह भ्रांति है। सिर्फ मेरे भीतर जो प्रकृति है और मेरे बाहर जो प्रकृति है, उसके बीच संबंध निर्मित होते हैं। जन्म भी एक संबंध है, मृत्यु भी एक संबंध है। लेकिन मैं कहता हूं, मैं जन्मा; और मैं कहता हूं, मैं मरा। और जवानी भी एक संबंध है, मेरे भीतर की प्रकृति और बाहर की प्रकृति के बीच। और बुढ़ापा भी एक संबंध है। लेकिन मैं कहता हूं, मैं जवान हुआ और मैं बूढ़ा हुआ। हार भी एक संबंध है, मेरी प्रकृति के बीच और बाहर की प्रकृति के बीच। जीत भी एक संबंध है, मेरी प्रकृति के बीच और बाहर की प्रकृति के बीच। लेकिन मैं हारता हूं, मैं जीतता हूं-- अकारण, व्यर्थ।

कृष्ण कह रहे हैं, ज्ञानी पुरुष इस अहंकार, इस अज्ञान, इस भ्रम से बच जाता है कि मैं कर्ता हूं, और देखता है, प्रकृति करती है। और जैसे ही खयाल आता है कि प्रकृति करती है, कि सब सुख-दुख खो जाते हैं। और जैसे ही खयाल आता है कि प्रकृति के गुणधर्मों का फैलाव सब कुछ है, हम उसमें ही उठी हुई एक लहर से ज्यादा नहीं, उसके ही एक अंश--वैसे ही जीवन से आसक्ति-विरक्ति खो जाती है, और आदमी अनासक्त, वीतराग, ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। अर्जुन से वे कह रहे हैं कि तू लड़ रहा है, ऐसा मत सोच, प्रकृति लड़ रही है।

कौरवों की एक प्रकृति है, एक गुणधर्म है; पांडवों की एक प्रकृति है, एक गुणधर्म है। तालमेल नहीं है। संघर्ष हो रहा है। जैसे सागर की लहर आती और तट से टकराती। लेकिन हम कभी ऐसा नहीं कहते कि सागर की लहर तट से लड़ रही है। लेकिन अगर लहर को होश आ जाए और लहर चेतन हो जाए, तो लहर तैयारी करके आएगी कि लड़ना है तट से। और तट तैयारी रखेगा कि लड़ना है लहर से। अभी दोनों को कोई होश नहीं है, इसलिए कोई लड़ाई नहीं है। लहर तट से टकराती, बिखरती, तट भी टूटता रहता। दोनों गुणधर्म चलते रहते हैं। कहीं कोई जीतता नहीं, कहीं कोई हारता नहीं। आदमी, आदमियों की लहरें जब लड़तीं हैं, तो हम लड़ते हैं, प्रकृति को भूलकर।

कृष्ण के हिसाब से धर्म और अधर्म की लड़ाई है। कृष्ण के हिसाब से प्रकृति के बीच ही उठी हुई दो लहरों का संघर्ष है। इसमें अर्जुन नाहक ही...। हां, अर्जुन लहर के ऊपर है, एक लहर के ऊपर है; इसलिए भ्रम में हो सकता है कि मैं लड़ रहा हूं। इस भ्रम में हो सकता है कि मैं हारूंगा, मैं जीतूंगा। इस भ्रम में हो सकता है कि मैं मारूंगा, मिटूंगा। वह सिर्फ लहर के ऊपर है, जैसे समुद्र की लहर के ऊपर झाग होती है। झाग भी अकड़ उठे, अगर उसको होश आ जाए। लहर के ऊपर होती है। जैसे कि सम्राटों के सिर पर राजमुकुट होते हैं, ऐसे ही लहर पर झाग होती है। अर्जुन भी झाग है एक लहर की, वह दुर्योधन भी झाग है एक लहर की। दोनों लहरें टकराएंगी और प्रकृति निर्णय करती रहेगी कि क्या होना है।

जिस दिन कोई व्यक्ति जीवन को अहंकार से मुक्त करके देख पाता, उसी दिन हार-जीत, सुख-दुख, सब खो जाते हैं। ज्ञानी तब कर्म करता और कर्ता नहीं बनता है। ज्ञानी तब सब कुछ होता और फिर भी भीतर से कुछ भी नहीं होता है। तब ज्ञानी जवान होता और जवान नहीं होता, भीतर वही रहता है, जो बचपन में था। और बूढ़ा होता और बूढ़ा नहीं होता है, भीतर वही रहता है, जो जवानी में था। और मरता है और नहीं मरता, भीतर वही रहता है, जो जीवन में था। तब ज्ञानी भीतर अस्पर्शित।




लेकिन स्पर्शित हो जाते हैं हम अहंकार के कारण। अहंकार बहुत सेंसिटिव है; छुआ नहीं कि दुखा नहीं। छुओ और दुखा। बस, अहंकार ही सारा स्पर्श ले लेता है। रास्ते पर आप जा रहे हैं, कोई हंस देता है। और आपका अहंकार स्पर्श ले लेता है; दुखी होने लगे। बड़ी मुश्किल है। एक लहर हंसती है, उसे हंसने दें। और एक लहर को हक है कि दूसरी लहर को देखकर हंसे। आप क्यों परेशान हैं? नहीं, लेकिन आप परेशान न होते, अगर आपने जाना होता कि प्रकृति ऐसी है।

आप गिर पड़े हैं। केले के छिलके पर पैर फिसल गया और चार लोग हंस दिए हैं। बिलकुल ठीक है; इसमें कहीं कोई गड़बड़ नहीं है। जैसे छिलके के ऊपर पैर पड़ता है, आप गिर जाते हैं, वैसे ही उनके ऊपर आपके गिरने की घटना पड़ती है और हंसी फूट जाती है। यह सब प्रकृति का गुणधर्म है। आपके हाथ में नहीं है, छिलके पर पैर पड़ा, गिर गए। उनके हाथ में नहीं, कि हंसी बिखर गई। और आप अब दुखी होकर चले जा रहे हैं। अब कल आप जरूर उनके रास्ते पर छिलके बिछाएंगे। जरूर कल उनको गिराकर हंसना चाहेंगे। अब आप जाल में पड़ते हैं, अब आप व्यर्थ के जाल में पड़ते हैं। वह जाल अहंकार स्पर्शित होने से हुआ है।

कृष्ण इतना ही कहते हैं कि ज्ञानी करता है कर्म, लेकिन कर्ता नहीं बनता है। बस जो कर्ता नहीं बनता, वह जीवन के परम सत्य को उपलब्ध हो जाता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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