गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 30

  

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।

नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम।। 31।।



हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन, यज्ञों के परिणामरूप ज्ञानामृत को भोगने वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं और यज्ञरहित पुरुष को यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है, तो फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा?



जीवन जिनका यज्ञरूप है, वासनारहित, अहंकारशून्य, ऐसे पुरुष परात्पर ब्रह्म को उपलब्ध होते हैं, अमृत को उपलब्ध होते हैं, आनंद को उपलब्ध होते हैं। लेकिन जिनका जीवन यज्ञ नहीं है, ऐसे पुरुष तो इस पृथ्वी पर ही आनंद को उपलब्ध नहीं होते, परलोक की बात तो करनी व्यर्थ है। इस सूत्र में कृष्ण ने दोत्तीन बातें अर्जुन से कहीं।

एक, जिनका जीवन यज्ञ बन जाता!

जीवन के यज्ञ बन जाने का अर्थ क्या है? जब तक जीवन वासनाओं के आस-पास घूमता, तब तक यज्ञ नहीं होता है। जब तक जीवन स्वयं के अहंकार के ही आस-पास घूमता, तब तक जीवन यज्ञ नहीं होता। जैसे ही व्यक्ति वासनाओं को क्षीण करता और स्वयं के आस-पास नहीं, परमात्मा के आस-पास परिभ्रमण करने लगता है...।

मंदिर को हम जानते हैं। मंदिर की वेदी के चारों तरफ बनी हुई परिक्रमा को भी हम जानते हैं। लेकिन उसके अर्थ को हम नहीं जानते। हजारों बार मंदिर में गए होंगे और वेदी के आस-पास परिक्रमा लगाकर घर लौट आए होंगे। लेकिन मंदिर में परमात्मा की वेदी के आस-पास जो परिक्रमा है, वह प्रतीक है उस पुरुष का, जिसका अपना अहंकार नहीं रहा, जो अब परमात्मा के आस-पास ही जीवन में परिभ्रमण करता है, जो उसके चारों ओर ही घूमता है। अपना कोई केंद्र ही नहीं रहा, जिस पर घूम सके। परमात्मा का उपग्रह बन जाता है। वही हो जाता केंद्र में, हम हो जाते परिधि पर; उसके आस-पास ही घूमते हैं, परिभ्रमण करते हैं।

जैसे ही कोई व्यक्ति वासना और अहंकार से शून्य होता, उसका जीवन यज्ञ हो जाता है। 

दूसरी बात, कृष्ण कहते हैं, ऐसा पुरुष ज्ञानरूपी अमृत को उपलब्ध होता है। ज्ञानरूपी अमृत को!

इस जगत में अज्ञान के अतिरिक्त और कोई मृत्यु नहीं है। अज्ञान ही मृत्यु है। क्या अर्थ हुआ इसका कि अज्ञान ही मृत्यु है?

अगर अज्ञान मृत्यु है, तो ही ज्ञान अमृत हो सकता है। अज्ञान मृत्यु है, इसका अर्थ हुआ कि मृत्यु कहीं है ही नहीं। हम नहीं जानते हैं, इसलिए मृत्यु मालूम पड़ती है। मृत्यु असंभव है। मृत्यु इस पृथ्वी पर सर्वाधिक असंभव घटना है, जो हो ही नहीं सकती, जो कभी हुई नहीं, जो कभी होगी नहीं। लेकिन रोज मृत्यु मालूम पड़ती है। यह मृत्यु हमें मालूम पड़ती है, क्योंकि हम जानते नहीं हैं। हम अंधेरे में खड़े हैं, अज्ञान में खड़े हैं। जो नहीं मरता, वह मरता हुआ दिखाई पड़ता है। इस अर्थ में अज्ञान ही मृत्यु है। और जिस दिन हम जान लेते हैं, उस दिन मृत्यु तिरोहित हो जाती है। कहीं थी ही नहीं कभी। अमृत ही, अमृतत्व ही शेष रह जाता है, इम्मारटेलिटी ही शेष रह जाती है।

कभी आपने खयाल किया, आपने किसी आदमी को मरते देखा? आप कहेंगे, बहुत लोगों को देखा। पर मैं कहता हूं, नहीं देखा। आज तक किसी व्यक्ति ने किसी को मरते नहीं देखा। मरने की प्रक्रिया आज तक देखी नहीं गई। जो हम देखते हैं, वह केवल जीवन के विदा हो जाने की प्रक्रिया है, मरने की नहीं।

बटन दबाई हमने, बिजली का बल्ब बुझ गया। जो नहीं जानता, वह कहेगा, बिजली मर गई। जो जानता है, वह कहेगा, बिजली अभिव्यक्त थी, अब अप्रकट हो गई। प्रकट थी, अप्रकट हो गई। मर नहीं गई। फिर बटन दबेगा, बिजली फिर वापस लौट आएगी। फिर बटन दबाएंगे, बिजली फिर भीतर तिरोहित हो जाएगी।

जीवन समाप्त नहीं होता, केवल शरीर से विदा होता है। लेकिन विदाई हमें मृत्यु मालूम पड़ती है। क्यों मालूम पड़ती है? क्योंकि हमने कभी अपने भीतर शरीर से अलग किसी अस्तित्व का अनुभव नहीं किया है। हमारा अनुभव यही है कि मैं शरीर हूं, इसलिए जब शरीर समाप्त होगा, जलाने के योग्य हो जाएगा, तब स्वभावतः निष्कर्ष होगा कि मर गए।

शरीर से अलग जिसने अपने भीतर किसी तत्व को नहीं जाना, वह अज्ञानी है। अज्ञानी का मतलब यह नहीं कि जिसे यूनिवर्सिटी की डिग्री नहीं है, विश्वविद्यालय का कोई सर्टिफिकेट नहीं है। सच तो यह है कि विश्वविद्यालय ने जितने सर्टिफिकेट दिए, अज्ञान उतना बढ़ा है, कम नहीं हुआ। कारण है। कारण यह है कि विश्वविद्यालय के सर्टिफिकेट को लोग ज्ञान समझने लगे। इसलिए असली ज्ञान की खोज की कोई जरूरत नहीं मालूम पड़ती। अज्ञानी आदमी के पास सर्टिफिकेट नहीं होता; वह ज्ञान की खोज करता है। तथाकथित ज्ञानी के पास सर्टिफिकेट होता है; वह मान लेता है कि मैं ज्ञानी हूं। मेरे पास यूनिवर्सिटी की डिग्री है। और क्या चाहिए?

ज्ञान तो सिर्फ एक है, स्वयं का ज्ञान। बाकी सब सूचनाएं हैं, इनफर्मेशनस हैं, नालेज नहीं। बाकी सब परिचय है, ज्ञान नहीं।

जान तो सिर्फ अपने को सकता हूं; क्योंकि अपने से जो भिन्न है, उसके भीतर मेरा प्रवेश नहीं हो सकता, सिर्फ बाहर घूम सकता हूं। परिचय ही कर सकता हूं, ऊपर-ऊपर से जान सकता हूं, भीतर तो नहीं जा सकता। भीतर तो सिर्फ एक ही जगह जा सकता हूं, जहां मैं हूं।

यह बहुत मजे की बात है, अपना परिचय नहीं होता और दूसरे का ज्ञान नहीं होता। दूसरे का परिचय होता है, अपना ज्ञान होता है। अपना परिचय नहीं होता; क्योंकि अपने बाहर घूमने का उपाय नहीं है। दूसरे का ज्ञान नहीं होता; क्योंकि दूसरे के भीतर प्रवेश नहीं है।

लेकिन हम बड़े अजीब लोग हैं! हम दूसरे का ज्ञान ले लेते हैं और अपना परिचय कर लेते हैं। हम अपना परिचय कर लेते हैं, जो कि हो नहीं सकता। और हम दूसरे के ज्ञान को ज्ञान समझ लेते हैं, जो कि हो नहीं सकता। यह अज्ञान की स्थिति है। अज्ञान में मृत्यु है।

जब आप एक व्यक्ति को बुझते देखते हैं--बुझते, मरते नहीं। इसलिए बुद्ध ने ठीक शब्द का उपयोग किया है। वह शब्द है, निर्वाण। निर्वाण का अर्थ है, दीए का बुझना। बस, दीया बुझ जाता है; कोई मरता नहीं। दिखाई पड़ती थी ज्योति, अब नहीं दिखाई पड़ती। देखने के क्षेत्र से विदा हो जाती है, अदृश्य में लीन हो जाती है। फिर प्रकट हो सकती है, फिर लीन हो सकती है। यह प्रकट-अप्रकट होने का क्रम अनंत चल सकता है। जब तक कि ज्योति पहचान न ले कि प्रकट में भी मैं वही हूं, अप्रकट में भी मैं वही हूं; न मैं प्रकट होती, न मैं अप्रकट होती, सिर्फ रूप प्रकट होता और अप्रकट होता। वह जो रूप के भीतर छिपा हुआ सत्व है, वह न प्रकट में प्रकट होता, न अप्रकट में अप्रकट होता; न जीवन में जीवित होता, न मृत्यु में मरता। तब अमृत का अनुभव है।

हम दूसरों को मरते देखकर, बुझते देखकर, हिसाब लगा लेते हैं कि सब मरते हैं, तो मैं भी मरूंगा। लेकिन कभी किसी मरने वाले से पूछा कि मर गए? लेकिन वह उत्तर नहीं देता। इसलिए मान लेते हैं कि हां में उत्तर देता होगा। मौन को सम्मति का लक्षण समझने की बात सभी जगह ठीक नहीं है। मरे हुए आदमी से पूछो, मर गए? अगर वह उत्तर दे, तो समझना मरा नहीं; और अगर मौन रह जाए, तो हम समझ लेते हैं कि मर गया!

लेकिन मौन सम्मति का लक्षण नहीं है। नहीं बोल पा रहा है, इसलिए मर गया, ऐसा समझने का कोई कारण नहीं है।



इसलिए कृष्ण ने कहा, ज्ञानरूपी अमृत। कह सकते हैं, अज्ञानरूपी विष, अज्ञानरूपी मृत्यु; ज्ञानरूपी अमृत, ज्ञानरूपी अमृतत्व।

वह जो अल्केमिस्ट कहते हैं कि हम खोज रहे हैं वह तत्व, जिससे आदमी अमर हो जाए। वे कभी न खोज पाएंगे। आदमी अमर है ही; किसी चीज से अमर करने की जरूरत नहीं है। चेतना अमर है ही।

और ऐसा मत सोचना आप कि पदार्थ मरता है और चेतना अमर है। पदार्थ भी अमर है; चेतना भी अमर है। पदार्थ इसलिए अमर है कि वह जीवित ही नहीं है। जो जीवित हो, वह मर सकता है। पदार्थ कैसे मरेगा? वह जीवित ही नहीं है। पदार्थ इसलिए अमर है कि वह जीवित ही नहीं, उसकी मृत्यु का कोई उपाय नहीं। आत्मा इसलिए अमर है कि वह जीवित है, जो जीवित है, वह मर कैसे सकता है!

जीवन की कोई मृत्यु नहीं हो सकती, मृत्यु का कोई जीवन नहीं हो सकता। पदार्थ का सिर्फ अस्तित्व है, जीवन नहीं। आत्मा का जीवन भी है और अस्तित्व भी। इस बात को खयाल में रख लें, एक्झिस्टेंस एंड लाइफ बोथ--आत्मा का। पदार्थ का एक्झिस्टेंस ओनली, सिर्फ अस्तित्व है। पदार्थ सिर्फ है। लेकिन पदार्थ को अपने होने का पता नहीं है। आत्मा है भी और उसे अपने होने का भी पता है। बस यह होने का पता उसे जीवन बना देता है।

लेकिन हम आत्मा तो हैं, हमें अपने होने का भी पता है, हम जीवित भी हैं; लेकिन हम क्या हैं, इसका हमें कोई भी पता नहीं है। होने का पता है, लेकिन क्या हैं, इसका कोई पता नहीं है।

होने का पता हो और यह पता न हो कि क्या हैं, तो अज्ञान की स्थिति है। होने का पता हो और यह भी पता हो कि क्या हैं, तो ज्ञान की स्थिति है। अज्ञानी में उतनी ही आत्मा है, जितनी ज्ञानी में; रत्तीभर कम नहीं है। लेकिन अज्ञानी अपने प्रति बेहोश है। ज्ञानी अपने प्रति होश से भरा हुआ है।

ऐसे व्यक्ति जो ज्ञान-अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं, वे परलोक में परम परात्पर ब्रह्म को पाते हैं।

परलोक का क्या अर्थ? क्या मरने के बाद? आमतौर से हमें यही खयाल है कि परलोक का अर्थ मरने के बाद है। लेकिन जब आत्मा मरती ही नहीं, तो मरने के बाद परलोक का अर्थ ठीक नहीं है। परलोक इस लोक के साथ, यहीं और अभी मौजूद है, जस्ट बाई दि कार्नर। परलोक कहीं मरने के बाद और नहीं है। परलोक यहीं और अभी मौजूद है। पर हमें उसका कोई पता नहीं है। जिसे अपना पता नहीं, उसे परलोक का पता नहीं हो सकता; क्योंकि परलोक में जाने का द्वार स्वयं का अस्तित्व है, स्वयं का ही होना है।

जिसे अपना पता है, वह एक ही साथ परलोक और लोक की देहली पर, बीच में खड़ा हो जाता है। इस तरफ झांकता है तो लोक, उस तरफ झांकता है तो परलोक। बाहर सिर करता है तो लोक, भीतर सिर करता है तो परलोक। परलोक अभी और यहीं है।

ब्रह्म कहीं दूर नहीं, आपके बिलकुल पड़ोस में, आपके पड़ोसी से भी ज्यादा पड़ोस में है। आपके बगल में जो बैठा है आदमी, उसमें और आपमें भी फासला है। लेकिन उससे भी पास ब्रह्म है। आपमें और उसमें फासला भी नहीं है।

जब जरा गर्दन झुकाई देख ली दिल के आईने में है तस्वीरे-यार।

बस, इतना ही फासला है, गर्दन झुकाने का। यह भी कोई फासला हुआ!

बाहर लोक है, भीतर परलोक है।

तो ध्यान रखें, लोक और परलोक का विभाजन समय में नहीं है, स्थान में है। इस बात को ठीक से खयाल में ले लें। लोक और परलोक का विभाजन टाइम डिवीजन नहीं है। कि मैं मरूंगा, मरने की घटना या विदा होने की घटना समय में घटेगी। आज से समझें कल मरूंगा, दस साल बाद मरूंगा, घंटेभर बाद मरूंगा--समय में। समय, घंटा बीत जाएगा, तब मैं मरूंगा। फिर उस मरने के बाद जो होगा, वह परलोक होगा।

हमने अब तक परलोक को टेंपोरल समझा है, टाइम में बांटा है। परलोक भी स्पेसिअल है, स्पेस में बंटा है, टाइम में नहीं। अभी-यहीं, लोक भी मौजूद है, परलोक भी मौजूद है। पदार्थ भी मौजूद है, परमात्मा भी मौजूद है। अभी-यहीं! फासला समय का नहीं, फासला सिर्फ स्थान का है।

और स्थान का भी फासला हमारी दृष्टि का फासला है, अटेंशन का फासला है। अगर हम बाहर की तरफ ध्यान दे रहे हैं, तो परलोक खो जाता है। अगर हम परलोक की तरफ ध्यान दें, तो लोक खो जाता है।

रात आप सो जाते हैं, तब लोक खो जाता है; परलोक शुरू नहीं होता, लोक खो जाता है। रात जब आप सोते हैं, तब आपको याद रहता है कि बाजार में आपकी एक दुकान है? कि आपका एक बेटा है? कि आपकी एक पत्नी है? कि आपका बैंक बैलेंस इतना है? कि आप कर्जदार हैं? कि लेनदार हैं? जब आप सोते हैं, तो लोक खो जाता है एकदम; परलोक शुरू नहीं होता! निद्रा, लोक और परलोक के बीच में है। निद्रा मूर्च्छा है। लोक भी खो जाता है। परलोक भी शुरू नहीं होता। ध्यान भी लोक और परलोक के बीच में है। लोक खोता है, परलोक शुरू हो जाता है।

जैसे एक आदमी अपने मकान के दरवाजे की देहली पर बैठ जाए आंख बंद करके, तो न घर दिखाई पड़े, न बाहर दिखाई पड़े। फिर एक आदमी बाहर की तरफ देखे, तो भीतर का दिखाई न पड़े। फिर एक आदमी मुड़कर खड़ा हो जाए, भीतर का दिखाई पड़े, तो बाहर का दिखाई न पड़े। ऐसी तीन स्थितियां हुईं।

लोक की, जब हम बाहर देख रहे हैं, कांशसनेस, चेतना बाहर की तरफ जाती हुई। परलोक, चेतना भीतर की तरफ जाती हुई। निद्रा, चेतना किसी तरफ जाती हुई नहीं, सो गई है। परलोक यहीं है, अभी है।

कृष्ण जब कहते हैं कि परलोक में ऐसा पुरुष आनंद को उपलब्ध होता है, तो क्या इसका यह मतलब है कि जिस व्यक्ति ने ब्रह्म को जाना, आत्मा की अमरता को जाना, वह मरने के बाद आनंद को उपलब्ध होगा? अभी नहीं होगा? नहीं, अभी हो जाएगा, यहीं हो जाएगा।

लेकिन जो व्यक्ति इस अमृत को नहीं जानता, वह उस परलोक में, उस भीतर के लोक में, उस पार के लोक में, कैसे आनंद को उपलब्ध होगा? वह तो बाहर के लोक में भी आनंद को उपलब्ध नहीं हो पाता। वह संसार में भी दुख पाता है। वह बाहर भी दुख पाता है और भीतर भी दुख पाता है। इसे ठीक से समझ लें।

बाहर इसलिए दुख पाता है कि जिसको यह खयाल है कि मृत्यु है, वह बाहर कभी सुख नहीं पा सकता। मृत्यु का खयाल बाहर के सब सुखों को विषाक्त कर जाता है, पायजनस कर जाता है। बाहर अगर सुख लेना है थोड़ा-बहुत, तो मृत्यु को बिलकुल भूलना पड़ता है। इसलिए हम मृत्यु को भुलाने की कोशिश करते हैं।

लेकिन ध्यान रहे, जिसे भी हम भुलाते हैं, उसकी और याद आती है। स्मृति का नियम है, भुलाएं, याद आएगी। करें कोशिश, जिसे भी भुलाने की, उसकी और भी याद आएगी। किसी को भूल जाना चाहते हैं। किसी को प्रेम किया और अब स्मृति दुख देती है; भूल जाना चाहते हैं। तो भुलाने की कोशिश करें, और याद आएगी। क्यों? क्योंकि भुलाने की कोशिश में भी तो याद करना पड़ता है। मैं चाहता हूं, किसी को भूल जाऊं। तो जब भी चाहता हूं भूल जाऊं, तब भी याद करना पड़ता है। और याद गहन होती चली जाती है।

मृत्यु को हम सब भुलाने की कोशिश किए हुए हैं, इसलिए मरघट हम गांव के बाहर बनाते हैं। बीच में बनाना चाहिए, नियमानुसार; क्योंकि मृत्यु जीवन का केंद्रीय तथ्य है। तथ्य, सत्य नहीं। तथ्य है, केंद्र पर जीवन के।

मौत प्रतिक्षण घटित हो सकती है। जो घटना प्रतिक्षण घटित हो सकती है, उसको गांव के बाहर रखना ठीक नहीं है। अर्थी निकलती है द्वार से, तो लोग घर का दरवाजा बंद करके बच्चों को भीतर कर लेते हैं, भीतर आ जाओ!

मौत याद न आ जाए! क्योंकि जिसे मौत याद आ गई, उसके जीवन में संन्यास को ज्यादा देर नहीं है। जो मौत को भुला ले, वही संसार में हो सकता है। जिसको मौत स्मरण आ जाए, उसका संसार संन्यास बनने लगता है।

इसलिए मौत को छिपाते हैं, हजार ढंग से छिपाते हैं। गांव के बाहर बनाते हैं मरघट। मरा नहीं आदमी कि ले जाने की इतनी जल्दी पड़ती है, जिसका हिसाब नहीं! इतनी जल्दी? रहने दें थोड़ी देर! लोगों को देख लेने दें; स्मरण कर लेने दें कि यही घटना उनकी भी घटने वाली है।

नहीं; बड़ी जल्दी मचती है। घर के लोग रोने-धोने में, पास-पड़ोस के लोग विदा करने में एकदम तीव्रता करते हैं। क्या कारण है? इतनी जल्दी क्या है? जिस आदमी को वर्षों चाहा और प्रेम किया, उसको विदा करने की इतनी शीघ्रता क्या है?

शीघ्रता का आंतरिक कारण है, मनोवैज्ञानिक। मरे हुए की मौजूदगी हमें अपने मरे होने की खबर लाती है। जल्दी ले जाओ। जमीन में गड़ाओ कि आग लगाओ। मिटाओ, निशान हटाओ। मृत्यु का निशान न रह जाए जीवन के पर्दे पर कहीं; उसे अलग कर दो।

और मजे की बात यह है कि जन्म के बाद अगर कोई चीज की सरटेंटी है, कोई चीज निश्चित है, तो वह मृत्यु है। जन्म के बाद अगर कोई चीज प्रेडिक्टेबल है, किसी चीज की भविष्यवाणी की जा सकती है, तो वह मृत्यु है। बाकी किसी चीज की भी भविष्यवाणी की नहीं जा सकती। भविष्यवाणी का यह मतलब नहीं कि तारीख और दिन बताया जा सकता है। भविष्यवाणी का यह मतलब कि मृत्यु होगी, इतना तय है। बाकी सब चीजें हों भी, न भी हों। विवाह हो भी सकता है, न भी हो। स्वास्थ्य रहे भी, न भी रहे। बीमारी आए भी, न भी आए। धन मिले भी, न भी मिले। लेकिन मृत्यु के बाबत ऐसा नहीं कहा जा सकता कि हो भी, न भी हो।

जो इतनी निश्चित है घटना, उसे हम बाहर रखते हैं और कई चीजों से भुलाते हैं। कैसे-कैसे भुलाने का उपाय करते हैं! अर्थी पर फूल ढांक देते हैं--ईसाई ढंग भुलाने का। फूलों से ढांक देते हैं अर्थी को। फूलों के नीचे सड़ा हुआ शरीर है, सड़ता हुआ, डिटेरिओरे होता हुआ शरीर है! फूल से ढांक देते हैं, ताकि फूल दिखाई पड़ें, मरता हुआ शरीर दिखाई न पड़े।

आदमी मरता, उसकी लाश ले जाते। जिस आदमी ने जिंदगीभर राम का नाम नहीं लिया, और जिन्होंने कभी राम का नाम नहीं लिया, वे भी उसकी अर्थी के साथ राम नाम सत्य है, कहते हुए जाते हैं! क्या बात है? अटेंशन हटा रहे हैं, मौत से हट जाए। अगर कुछ न कहते हुए चुपचाप लोग अर्थी के साथ जाएं, तो अर्थी को भूलना मुश्किल हो जाए। कुछ कहते हुए जाते हैं; अर्थी को भूलना आसान हो जाता है। अपने कहने में लग जाते हैं। राम की आड़ में मौत को छिपाने की कोशिश करते हैं। हालांकि राम उन्हीं को मिलता है, जो मौत को पार करते, आमना-सामना करते; उनको नहीं, जो राम की आड़ में मौत को छिपाने की कोशिश करते हैं!

मृत्यु भुलाते हैं हम, जानते नहीं। जो भुलाता है, उसे याद आती चली जाती है। जो जानता है, उसके लिए समाप्त हो जाती है, होती ही नहीं। यह जो हमारा भुलावा चल रहा है जिंदगी में, इससे हम कभी भूल नहीं पाते। हर जगह उसकी खबर मिल जाती है।

फूल सुबह खिलता और सांझ मुर्झा जाता, और कह जाता कि मौत। प्रेम घड़ीभर खिलता और सूख जाता, और खबर दे जाता, मौत है। जवानी आती और चली जाती, और खबर दे जाती, मौत है। हरे पत्ते लगते और पतझड़ में झड़ जाते, और खबर दे जाते, मौत है। सुबह सूरज उगता और सांझ डूबने लगता, और खबर दे जाता, मौत है।

जिसकी जिंदगी में अभी अमृत का पता नहीं चला, उसका सब विषाक्त हो जाता है, सब पायजंड हो जाता है। कोई सुख हो नहीं सकता। जब तक मृत्यु की कालिमा पीछे खड़ी है, सब सुख अंधेरे हो जाते हैं।

सच तो यह है कि सुख के क्षण में मृत्यु की कालिमा और गहन होकर दिखाई पड़ती है। दुख के क्षण में उतनी गहन नहीं होती; सुख के क्षण में बहुत गहन हो जाती है।

कृष्णमूर्ति जैसे आदमी को साफ पता है कि जहां भी प्रेम है; जहां प्रेम की, सुख की झलक आई, वहां तत्काल पता लगता है कि जिसे हम प्रेम कर रहे हैं, वह भी मरेगा; जो प्रेम कर रहा है, वह भी मर जाएगा; बीच में जो प्रेम बह रहा है, वह भी मर जाएगा।

प्रेम के सघन क्षण में मृत्यु बहुत प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ती है। प्रेम सुख लाता है, पीछे से मृत्यु का स्मरण ले आता है। जहां-जहां सुख है, वहां-वहां मौत पीछे खड़ी हो जाती है। इसलिए तो सुख क्षणभंगुर है। हम ले भी नहीं पाते, और मौत उसे हड़प जाती है।

जिसको भीतर के अमृत का पता नहीं, वह परलोक में तो आनंद पा ही नहीं सकता, इस लोक में भी सिर्फ दुख पाता है।

दूसरी बात भी कह देने जैसी है कि जो परलोक में आनंद पाता है, वह इस लोक में भी आनंद पाता है। ये जुड़े हुए हैं। जिसे भीतर आनंद मिला, उसे बाहर भी आनंद ही आनंद हो जाता है। ध्यान रखें, उसकी सारी दृष्टि बदल जाती है।

जिसे भीतर आनंद नहीं मिला, उसे वसंत में भी मृत्यु नजर आती है, पतझड़ दिखाई पड़ता है। उसे बच्चे में भी बुढ़ापे की दृष्टि, बच्चे के पीछे भी बूढ़े का जीर्ण-जर्जर शरीर दिखाई पड़ता है। उसे जवानी की तरंगों में भी मौत का गिर जाना और मिट जाना दिखाई पड़ता है। उसे सुख के क्षण में भी पीछे खड़े दुख की प्रतीति होती है। जिसे अभी पता है कि मृत्यु है, अज्ञान में सब सुख दुख हो जाते हैं।

ज्ञान में सब दुख भी सुख हो जाते हैं। फिर उस तरह के व्यक्ति को पतझड़ में भी आने वाले वसंत की पदचाप सुनाई पड़ती है। वृक्ष से सूखे गिरते पत्ते में भी नए पत्ते के अंकुरित होने की ध्वनि का बोध होता है। सांझ डूबते हुए सूरज में भी सुबह के उगने वाले सूरज की तैयारी का पता चलता है। विदा होते बूढ़े में भी पैदा होने वाले बच्चों के जन्म की खबर मिलती है। मृत्यु का द्वार भी उसे जन्म का द्वार बन जाता है। अंधेरा भी उसे प्रकाश की पूर्व भूमिका मालूम पड़ती है। सुबह अंधेरा जब गहन हो जाता है, तब भी वह जानता है, आने वाली भोर निकट है। अंधेरा उसे भोर का स्मरण; मृत्यु उसे जन्म का स्मरण; दुख भी उसे सुख को लाता हुआ मालूम पड़ता है। दृष्टि बदल जाती है; सब उलटा हो जाता है।

अज्ञान में सुख भी दुख बन जाता है। ज्ञान में दुख भी सुख बन जाता है। अज्ञान में जन्म भी मृत्यु की ही खबर है। ज्ञान में मृत्यु भी जन्म की ही सूचना है। अज्ञान में वरदान भी अभिशाप ही होंगे; वरदान नहीं हो सकते। ज्ञान में वरदान तो वरदान होते ही हैं, अभिशाप भी वरदान हो जाते हैं।

 अज्ञान सब वरदानों को अभिशाप कर लेता है, सब फूलों को कांटा बना लेता है। ज्ञान कांटों को भी फूल बना लेता है। दृष्टि बदली कि सब बदल जाता है।

जिसे परलोक में आनंद है, अंतःलोक में आनंद है, उसे बाहर के जगत में दुख की कोई रेखा भी शेष नहीं रह जाती। और जिसे बाहर के लोक में दुख है, उसे भीतर के लोक का कोई पता ही नहीं होता है, आनंद की तो बात ही मुश्किल है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं अर्जुन से कि ज्ञानरूपी अमृत को पाकर आनंद की वर्षा हो जाती है। अज्ञानरूपी विष में जीते हुए सिवाए दुखों के गहन सागर, अतल सागर के अतिरिक्त कुछ भी हाथ नहीं लगता है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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