गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 5

  श्री भगवानुवाच:

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप।। 5।।


भगवान बोले: हे अर्जुन, मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके हैं, परंतु हे परंतप! उन सबको तू नहीं जानता है और मैं जानता हूं।


कृष्ण ने अर्जुन से कहा, मेरे और तेरे, हे परंतप! बहुत-बहुत अनेक जन्म हो चुके हैं, लेकिन उन्हें तू नहीं जानता और मैं जानता हूं।

इस संबंध में दोत्तीन बातें स्मरणीय हैं।

एक तो, जो हम नहीं जानते, वह नहीं है, ऐसा मानने की जल्दी नहीं कर लेनी चाहिए। अर्जुन जो नहीं जानता है, वह नहीं है, ऐसी निष्पत्ति निकाल लेनी बहुत चाइल्डिश, जुवेनाइल है, बचकानी है। बहुत कुछ है जो हम नहीं जानते हैं, फिर भी है। हमारे न जानने से नहीं नहीं हो जाता। लेकिन अर्जुन की जो भूल है, वह नेचरल फैलेसी है, बड़ी प्राकृतिक भूल है। हम भी यही भूल करते हैं। मनुष्य की सहज भूलों में एक भूल है, जो नहीं जानते, हम मानते हैं, वह नहीं है। न मालूम किस भ्रांति के कारण हम ऐसा सोचते हैं कि हमारा जानना ही सब कुछ है।


अगर हमारा जानना ही सब कुछ है--अगर मैं आपसे पूछूं कि उन्नीस सौ इकसठ, एक जनवरी थी या नहीं? आप कहेंगे, थी; मैं था। लेकिन अगर मैं पूछूं कि एक जनवरी, उन्नीस सौ इकसठ की कोई याददाश्त बताइए, अगर थी! तो क्या किया था सुबह उठकर? दोपहर क्या किया था? सांझ क्या बोले थे? रात नींद आई थी, नहीं आई थी? स्वप्न कौन-सा आया था? आप कहेंगे, कुछ भी याद नहीं है। अगर एक जनवरी, उन्नीस सौ इकसठ की कोई भी याद नहीं है, तो एक जनवरी, उन्नीस सौ इकसठ थी, इसके कहने का हक क्या है? आप कहेंगे, थी तो जरूर, मैं था, लेकिन याद! याद बिलकुल नहीं है।

याद दिलाई जा सकती है। क्योंकि एक गहरा नियम है मन का कि जो भी जाना जाता है, वह कभी भूलता नहीं। विस्मृति असंभव है। जिस बात को हम कहते हैं विस्मृति हो गई, उसका भी इतना ही मतलब है कि हम उसे पकड़ नहीं पा रहे हैं। हम नहीं पकड़ पा रहे हैं, कहां रख गई वह याद, किस कोने-कातर में मन के समा गई!

छोटा मन है, करोड़ों स्मृतियां हैं। मन को छांटना पड़ता है स्मृतियों को। छांट-छांटकर काम की बचा लेता है, बाकी को कचरेघर में डाल देता है। लेकिन कचराघर भी भीतर ही है। जैसे अपने घर में कोई नीचे, तहखाने में चीजों को डालता चला जाता है, जो बेकार हैं। लेकिन बिलकुल बेकार नहीं है, कभी काम में आ सकती हैं, इसलिए इकट्ठी भी करता चला जाता है।

हम भी अपने मन में सब इकट्ठा करते चले जाते हैं। इसलिए जो आपको एक जनवरी उन्नीस सौ इकसठ याद न आती हो, वह आपको सम्मोहित करके, बेहोश किया जाए, तो याद आ जाती है। आप एक जनवरी उन्नीस सौ इकसठ का ऐसे ही वर्णन कर देंगे, जैसे आज का भी करना मुश्किल पड़ेगा। बिलकुल कर देंगे। बेहोशी की, सम्मोहन की अवस्था में सब याद आ जाएगा, सब उठ आएगा।

अभी मनोवैज्ञानिक सम्मोहन के द्वारा जन्म के पहले दिन तक की स्मृति तक ले जाने में समर्थ हो गए हैं। पहले दिन जब आपका जन्म हुआ था, कुछ भी तो याद न होगी उसकी। लोग कहते हैं, इसलिए मान लेते हैं कि हुआ था। अगर कोई दिक्कत आ जाए और सारे प्रमाण पूछे जाएं, तो सिवाय उधार प्रमाणों के कोई प्रमाण न मिलेगा आपके पास। कोई कहता है, इसलिए आप कहते हैं कि मैं पैदा हुआ था। लेकिन आपको कोई याद है? आप विटनेस हैं? उस घटना के गवाह हैं? आप कहेंगे, मैं तो गवाह नहीं हूं। तब बड़ी मुश्किल है। आपके जन्म की गवाही आप न दे सकें, तो दूसरों की गवाही का भरोसा क्या है? जन्म है आपका, गवाही है दूसरे की!

लेकिन पहले दिन जन्म की स्मृति भी भीतर है।  मां के पेट में भी नौ महीने आप रहे। जन्म का ठीक दिन वह नहीं है, जिसको हम जन्म-दिन कहते हैं। उसके ठीक नौ महीने पहले असली जन्म हो चुका। जिसे हम जन्म-दिन कहते हैं, वह तो मां के शरीर से मुक्त होने का दिन है, जन्म का दिन नहीं। नौ महीने तक सेटेलाइट था आपका शरीर; मां के शरीर के साथ घूमता था, उपग्रह था। अभी इतना समर्थ न था कि स्वयं ग्रह हो सके। इसलिए घूमता था; सेटेलाइट था। अब इस योग्य हो गया कि मां से मुक्त हो जाए, अब अलग जीवन शुरू करे। लेकिन जन्म तो उसी दिन हो गया, जिस दिन गर्भ धारण हुआ है।

 मनोवैज्ञानिक नौ महीने की स्मृतियां भी उठाने में सफल हुए हैं। जब मां क्रोध में होती है, तब भी बच्चे की पेट में स्मृति बनती है। जब मां दुखी होती है, तब भी बच्चे की स्मृति बनती है। जब मां बीमार होती है, तब भी बच्चे की स्मृति बनती है। क्योंकि बच्चे की देह मां की देह के साथ संयुक्त होती है। और मां के मन और देह पर जो भी पड़ता है, वह संस्कारित हो जाता है बच्चे में।

इसलिए अक्सर तो माताएं जब बाद में बच्चों के लिए रोती हैं और पीड़ित और परेशान होती हैं, उनको शायद पता नहीं कि उसमें कोई पचास प्रतिशत हिस्सा तो उन्हीं का है, जो उन्होंने जन्म के पहले ही बच्चे को संस्कारित कर दिया है। अगर बच्चा क्रोध कर रहा है, और गालियां बक रहा है, और दुखी हो रहा है, और दुष्टता बरत रहा है, तो मां सोचती है कि यह कहां से, कैसे ये सब कहां सीख गया! दिखता है, कहीं दुष्ट-संग में पड़ गया है।

दुष्ट-संग में बहुत बाद में पड़ा होगा; दुष्ट-संग में बहुत पहले नौ महीने तक पड़ चुका है। और नौ महीने बहुत संस्कार संस्कारित हो गए हैं। उनकी भी स्मृतियां हैं। लेकिन और भी गहरे लोग गए हैं। पिछले जन्मों की स्मृतियों में भी गए हैं।

कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन, जो तुझे पता नहीं है, वह मुझे पता है। वे इतनी सरलता से कहते हैं कि जो तुझे पता नहीं है, वह मुझे पता है। वे इतनी सहजता से कहते हैं कि उनका वचन बड़ा प्रामाणिक और आथेंटिक मालूम पड़ता है।

ध्यान रहे, झिझक कृष्ण में जरा भी नहीं है। जरा-सी भी झिझक बताती है कि आदमी को खुद पता नहीं है। किसी और से पता होगा; सेकेंड हैंड पता होगा।

कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, जो तुझे पता नहीं है, वह मुझे पता है। हमारे और भी जन्म हुए हैं। मैं इसी जन्म की बात नहीं कर रहा हूं। लेकिन वे इतनी सरलता से कहते हैं, जरा भी झिझक नहीं।

और एक बात और ध्यान देने योग्य है। दार्शनिकों और ऋषियों के वचनों में एक फर्क दिखाई पड़ेगा। दार्शनिक जब भी बोलेंगे, तो हाइपोथेटिकल बोलेंगे। वे बोलेंगे,  यदि ऐसा हो, तो ऐसा होगा। ऋषि जब बोलेंगे, तो उनका बोलना स्टेटमेंट का होगा, वक्तव्य का होगा। वे कहेंगे, ऐसा है।

इसलिए जब पहली बार उपनिषद का अनुवाद हुआ पश्चिम में, तो पश्चिम के विचारक बहुत मुश्किल में पड़े कि उपनिषद के लोग कैसे हैं! ये सीधा कह देते हैं कि ब्रह्म है। पहले बताना चाहिए, क्यों, क्या कारण है, क्या दलील है, क्या प्रमाण है; फिर निष्कर्ष देना चाहिए कि ब्रह्म है। ये तो सीधा कह देते हैं, कैटेगोरिकल, हाइपोथेटिकल नहीं। सीधा वक्तव्य दे देते हैं कि ब्रह्म है। इसके आगे-पीछे कुछ भी नहीं। ये वक्तव्य ऐसे दे देते हैं, जैसे कोई कहे, सूरज है।

पश्चिम के जिन लोगों को यह चकित होने का कारण बना, उसका आधार है। पश्चिम में ऋषियों की वाणी बहुत कम पैदा हुई। पश्चिम में दार्शनिक बोलते रहे, फिलासफर्स बोलते रहे। वे जो भी कहते हैं, उसको दलील, आर्ग्युमेंट से कहते हैं। लेकिन ध्यान रहे, दलील और तर्क इस बात की खबर देते हैं कि यह एक निष्कर्ष है, अनुभव नहीं। और सत्य एक अनुभव है, निष्कर्ष नहीं। ट्रुथ इज़ नाट ए कनक्लूजन, बट एन एक्सपीरिएंस। निष्कर्ष नहीं है सत्य। वह दो और दो चार होते हैं, ऐसा जोड़ा गया हिसाब नहीं है, जाना गया अनुभव है।

इसलिए कृष्ण जब कहते हैं कि अर्जुन, तुझे पता नहीं और मुझे पता है। और जब मैं कहता हूं कि सूर्य को मैंने कहा था, तो मैं किसी और जन्म की बात कर रहा हूं। यह इस जन्म की बात नहीं है।

एक और ध्यान देने की बात है, कि ज्ञान कृष्ण के समय या बुद्ध के समय या महावीर के समय में इतना झिझकता हुआ नहीं था, जितना आज है। बहुत बोल्ड था, बहुत साहसी था। जो कहना है, कहता था। आज ज्ञान बहुत झिझकता हुआ है। जो भी कहना है, वह सीधा कहना मुश्किल है। क्या कारण होगा? कारण एक ही है। आज जिसे हम ज्ञान कहते हैं, सौ में निन्यानबे मौके पर उधार होता है, इसलिए झिझकता है।



उधार है ज्ञान, इसलिए झिझकता हुआ है। ज्ञान ने साहस खो दिया। बल्कि और मजे की बात है, अज्ञान बहुत साहसी है आज। अज्ञान इतना साहसी कभी भी न था।


आज हालत बिलकुल उलटी है। आज जिसको कहना है, आत्मा नहीं है, बिना दलील के कहता है, आत्मा नहीं है, ईश्वर नहीं है; कोई दलील देने की जरूरत नहीं है। और जिसको कहना है, ईश्वर है, वह हजार दलीलें इकट्ठी करता है कि यह कारण, यह कारण, इसलिए। जैसे कि कुम्हार घड़े को बनाता है, ऐसे भगवान जगत को बनाता है। कुम्हार, भगवान को सिद्ध करने के लिए दलील है। बेचारा कुम्हार, उसका कोई हाथ नहीं! इतनी कमजोर दलीलों पर कहीं ज्ञान खड़ा हुआ है?

ज्ञान अनुभव है।

जब कृष्ण कहते हैं, बिना दलील; कृष्ण आर्ग्युमेंट नहीं दे रहे हैं। कोई आर्ग्युमेंट ही नहीं देते। वे कहते हैं, अर्जुन तुझे पता नहीं और मुझे पता है, इसलिए मैं कहता हूं। वे दलील नहीं जुटाते।

यह वक्तव्य सीधा और साफ है। और सीधा और साफ जब भी वक्तव्य होता है, तो वह प्राणों के अंतस्तल को छेद पाता है। दलीलें जहां नहीं पहुंचती हैं, वहां सीधे वक्तव्य पहुंच जाते हैं। प्रमाण जहां नहीं पहुंचते, वहां आंखों की गवाही पहुंच जाती है।

अर्जुन दलील मांग रहा है। कृष्ण दलील नहीं दे रहे। अर्जुन दलील ही मांग रहा है, कि कोई सर्टिफिकेट दिखाओ कि तुम थे। तुम सूरज के पहले थे? कहीं किसी कारपोरेशन के दफ्तर में कहीं कोई जन्मत्तारीख? कहीं कुछ लिखा-पढ़ी है? नहीं; वे इतना ही कहते हैं कि अर्जुन, तू जानता नहीं और मैं जानता हूं।

इतना साहस था जब सत्य में, तब अगर सत्य परिणाम लाता था, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। और आज अगर अज्ञान साहसी है, तो अज्ञान दुष्परिणाम लाता है, तो भी कुछ आश्चर्य नहीं है।


शरीर केंद्रित दृष्टि शरीर के बाहर की बातों को सुन नहीं पाती। अर्जुन भी शरीर केंद्रित है। उसकी सारी चिंतना, उसका सारा संताप शरीर केंद्रित, बाडी ओरिएंटेड है। वह कहता है, ये मेरे प्रियजन मर जाएंगे।



कृष्ण कहते हैं, ये कोई नहीं मरने वाले हैं। ये पहले भी थे और फिर भी रहेंगे। वही-वही सवाल लौट-लौटकर चला आता है। अभी कृष्ण पहले समझाते हैं कि कोई ये मरेंगे नहीं। ये पहले भी थे, पीछे भी रहेंगे। तू इनकी फिक्र मत कर। कुछ समझता नहीं है अर्जुन। अब वह फिर वही पूछता है, आप! आप सूर्य के पहले कहां थे? आप तो अभी पैदा हुए हैं!

वही शरीर से बंधी हुई दृष्टि! लेकिन कृष्ण एक सीधा वक्तव्य देते हैं। दलील दे सकते थे। लेकिन जिनके पास अनुभव है, वे दलील हमेशा पीछे देते हैं, वक्तव्य पहले दे देते हैं। जिनके पास अनुभव नहीं है, वे दलील पहले देते हैं, वक्तव्य पीछे देते हैं। जिनके पास अनुभव है, वे दलील का उपयोग सिद्ध करने के लिए नहीं करते। वे दलील का उपयोग ज्यादा से ज्यादा समझाने के लिए करते हैं।

तो पहली तो बात यह समझ लें कि कृष्ण ने बेझिझक कहा कि तू नहीं जानता और मैं जानता हूं। इतना बेझिझक अनुभव ही हो सकता है। लेकिन गुरु भी झिझकते हुए हो सकते हैं। और तब अगर शिष्य झिझकते हुए हो जाएं, तो बहुत कठिनाई क्या है? गुरु भी सोच-विचार करके उत्तर देते हों, तो फिर शिष्य भी उत्तर से वंचित रह जाएं, तो हैरानी क्या है?

यह सोच-विचार नहीं है कृष्ण की तरफ, यह सीधी प्रतीति है कि तू नहीं जानता। यह ठीक वैसे ही है जैसे एक अंधे आदमी से कोई आंख वाला कहे कि सूरज है; मैं जानता हूं और तू नहीं जानता। यह इतनी ही सरल और सीधी बात उन्होंने कही है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

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