गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 1 भाग 9

  

        येषामर्थें कांक्षितं नो राज्यं भोगा: सुखानि च।

        त इमेsवास्थिता युद्धे प्राणांस्‍त्‍यक्‍त्‍वा धनानि च ।।33।।


हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादिक इच्छित है, वे ही यह सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं।



पग—पग पर अर्जुन की भ्रांतिया जुड़ी हैं। कह रहा है अर्जुन कि जिन पिता, पुत्र, मित्र, प्रियजन के लिए हम राज्य—सुख चाहते हैं..। झूठ कह रहा है। कोई चाहता नहीं। सब अपने लिए चाहते हैं। और अगर पिता—पुत्र के लिए चाहते हैं, तो सिर्फ इसलिए कि वे अपने पिता हैं, अपना पुत्र है। वह जितना अपना उसमें जुड़ा है, उतना ही; इससे ज्यादा नहीं। हां, यह बात जरूर है कि उनके बिना सुख भी बड़ा विरस हो जाएगा। क्योंकि सुख तो मिलता कम है, दूसरों को दिखाई पड़े, यह ज्यादा होता है। सुख मिलता तो न के बराबर है। बड़े से बड़ा राज्य मिल जाए, तो भी राज्य के मिलने में उतना सुख नहीं मिलता, जितना राज्य मुझे मिल गया है, यह मैं अपने लोगों के सामने सिद्ध कर पाऊं, तो सुख मिलता है।


और आदमी की चिंतना की सीमाएं हैं। अगर एक महारानी रास्ते से निकलती हो—स्वर्ण आभूषणों से लदी, हीरे—जवाहरातों से लदी—तो गांव की मेहतरानी को कोई ईर्ष्या पैदा नहीं होती। क्योंकि महारानी रेंज के बाहर पड़ती है। मेहतरानी की चिंतना की रेंज नहीं है वह, वह सीमा नहीं है उसकी। महारानी से कोई ईर्ष्या पैदा नहीं होती, लेकिन पड़ोस की मेहतरानी अगर एक नकली कांच का टुकड़ा भी लटकाकर निकल जाए, तो प्राण में तीर चुभ जाता है। वह रेंज के भीतर है। आदमी की ईर्ष्याएं, आदमी की महत्वाकाक्षाएं निरंतर एक सीमा में बंधकर चलती हैं।


वह जो अर्जुन कह रहा है निरंतर, सरासर झूठ कह रहा है। उसे पता नहीं है। क्योंकि झूठ भी आदमी में ऐसा खून में मिला हुआ है कि उसका पता भी मुश्किल से चलता है। असल में असली झूठ वे ही हैं, जो हमारे खून में मिल गए हैं। जिन झूठों का हमें पता चलता है, उनकी बहुत गहराई नहीं है। जिन झूठों का हमें पता नहीं चलता, जिनके लिए हम  चेतन भी नहीं होते, वे ही झूठ हमारी हड्डी—मांस—मज्जा बन गए हैं। अर्जुन वैसा ही झूठ बोल रहा है, जो हम सब बोलते हैं।


अर्जुन गलत कह रहा है। उसे पता नहीं है। उसे पता हो, तब तो बात और हो जाए। उसे पता पड़ेगा धीरे—धीरे। गलत कह रहा है कि जिनके लिए हम राज्य चाहते हैं। नहीं, उसे कहना चाहिए कि जिनके बिना राज्य चाहने में मजा न रह जाएगा..। चाहते तो अपने ही लिए है, लेकिन जिनकी आंखों के सामने चाहने में मजा आएगा कि मिले, जब वे ही न होंगे, तो अपरिचित, अनजान लोगों के बीच राज्य लेकर भी क्या करेंगे! अहंकार का मजा भी क्या होगा उनके बीच, जो जानते ही नहीं कि तुम कौन हो! जो जानते हैं कि तुम कौन हो, उन्हीं के बीच आकाश छूने पर पता चलेगा कि देखो!


ध्यान रहे, हम अपने दुश्मनों से ही प्रतियोगिता नहीं कर रहे हैं, अपने मित्रों से हमारी और भी गहरी प्रतियोगिता है। अपरिचितों से हमारी कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है, परिचितों से हमारी असली प्रतिस्पर्धा है। इसलिए दो अपरिचित कभी इतने बड़े दुश्मन नहीं हो सकते, जितने दो सगे भाई हो सकते हैं। उन्हीं से हमारी प्रतिस्पर्धा है, उन्हीं के सामने सिद्ध करना है कि मैं कुछ हूं।


वह अर्जुन गलत कह रहा है। लेकिन उसे साफ नहीं है स्वयं को, वह जानकर नहीं कह रहा है। जानकर जो हम झूठ बोलते हैं, बहुत ऊपरी हैं। न—जाने जो झूठ हमसे बोले जाते हैं, वे बहुत गहरे हैं। और जन्मों—जन्मों में हमने उन्हें अपने खून के साथ आत्मसात कर लिया है, एक कर लिया है। वैसा ही एक झूठ अर्जुन बोल रहा है कि जिनके लिए राज्य चाहा जाता है, वे ही न होंगे तो राज्य का क्या करूंगा...।


नहीं। उचित, सही तो यह है कि वह कहे, राज्य तो अपने लिए चाहा जाता है, लेकिन जिनकी आंखों को चकाचौंध करना चाहूंगा, जब वे आंखें ही न होंगी, तो अपने लिए भी चाहकर क्या करूंगा! लेकिन वह अभी यह नहीं कह सकता। इतना ही वह कह सके, तो जगह—जगह गीता का गा चुप होने को तैयार है। लेकिन वह जो भी कहता है, उससे पता चलता है कि वह बातें उलटी कह रहा है।  


अगर वह एक जगह भी सीधी और सच्ची बात कह दे, तो गीता का कृष्‍ण तत्काल चुप हो जाए। कहे, बात खतम हो गई। चलो, वापस लौटा लेते हैं रथ को।  लेकिन वह बात खतम नहीं होती, क्योंकि अर्जुन पूरे समय दोहरे वक्तव्य बोल रहा है। डबल, दोहरे वक्तव्य बोल रहा है। बोल कुछ और रहा है, चाह कुछ और रहा है। है कुछ और, कह कुछ और रहा है। उसकी दुविधा कहीं और गहरे में है, प्रकट कहीं और कर रहा है।



इसे हमें समझकर चलना है, तभी हम कृष्‍ण के उत्तरों को समझ सकेंगे। जब तक हम अर्जुन के प्रश्नों की दुविधा और अर्जुन के प्रश्नों का उलझाव न समझ लें, तब तक कृष्‍ण के उत्तरों की गहराई और कृष्‍ण के उत्तरों के सुलझाव को समझना मुश्किल है।


  (भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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