गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 7

  यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। 7।।


परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।। 8।।


हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तबत्तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं,अर्थात प्रकट करता हूं।

साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए और दूषित कर्म करने वालों का नाश करने के लिए तथा धर्म स्थापन करने के लिए युग-युग में प्रकट होता हूं।





 कृष्ण जैसे लोग करुणा से पैदा होते हैं। वासना से नहीं, करुणा से। वासना और करुणा का थोड़ा भेद समझें, तो यह सूत्र समझ में आ जाएगा।

वासना होती है स्वयं के लिए, करुणा होती है औरों के लिए। वासना का लक्ष्य होता हूं मैं, करुणा का लक्ष्य होता है कोई और। वासना अहंकार केंद्रित होती है, करुणा अहंकार विकेंद्रित होती है। ऐसा समझें कि वासना मैं को केंद्र बनाकर भीतर की तरफ दौड़ती है; करुणा पर (दुसरे) को परिधि बनाकर बाहर की तरफ दौड़ती है।

करुणा, जैसे फूल खिले और उसकी सुवास चारों ओर बिखर जाए। करुणा ऐसी होती है, जैसे हम पत्थर फेंकें झील में; वर्तुल बने, लहर उठे और दूर किनारों तक फैलती चली जाए।

करुणा एक फैलाव है, वासना एक सिकुड़ाव है। वासना संकोच है, करुणा विस्तार है।

कृष्ण कहते हैं, करुणा से; युगों-युगों में जब धर्म विनष्ट होता है, तब धर्म की पुनर्संस्थापना के लिए; जब अधर्म प्रभावी होता है, तब अधर्म को विदा देने के लिए मैं आता हूं।

यहां ध्यान रखें कि यहां कृष्ण जब कहते हैं, मैं आता हूं, तो यहां वे सदा ही इस मैं का ऐसा उपयोग कर रहे हैं कि उस मैं में बुद्ध भी समा जाएं, महावीर भी समा जाएं, जीसस भी समा जाएं, मोहम्मद भी समा जाएं। यह मैं व्यक्तिवाची नहीं है। असल में वे यह कह रहे हैं कि जब भी धर्म के जन्म के लिए और जब भी अधर्म के विनाश के लिए कोई आता है, तो मैं ही आता हूं। इसे ऐसा समझें, जब भी कहीं प्रकाश के लिए और अंधकार के विरोध में कोई आता है, तो मैं ही आता हूं। यहां इस मैं से उस परम चेतना का ही प्रयोजन है।

जो भी व्यक्ति अपनी वासनाओं को क्षीण कर लेता है, तब वह करुणा के कारण लौट आ सकता है; युगों-युगों में, कभी भी, जब भी जरूरत हो उसकी करुणा की, कोई लौट आ सकता है। उस व्यक्ति का कोई नाम नहीं रह जाता, कि वह कौन है। क्योंकि सब नाम वासनाओं के नाम हैं। जब तक मेरी वासना है, तब तक मेरा नाम है, तब तक मेरी एक आइडेंटिटी है।

इसलिए कृष्ण मुझसे नहीं कह सकते कि तुम कृष्ण हो। लेकिन अगर मेरे भीतर कोई वासना न रह जाए, निर्वासना हो जाए, तो कोई अहंकार भी नहीं रह जाएगा, मेरा कोई नाम भी नहीं रह जाएगा। तब मेरा जन्म भी कृष्ण का ही जन्म है। अगर आपके भीतर कोई वासना न रह जाए, तो आपका जन्म भी कृष्ण का ही जन्म है।


असल में ठीक से समझें, तो हमारी अशुद्धियां, हमारे व्यक्तित्व हैं। और जब हम शुद्धतम रह जाते हैं, तो हमारा कोई व्यक्तित्व नहीं रह जाता। इसलिए कहीं भी कोई पैदा हो...।

मोहम्मद ने कहा है कि मुझसे पहले भी आए परमात्मा के भेजे हुए लोग और उन्होंने वही कहा। उनके ही वक्तव्य को पूरा करने मैं भी आया हूं।

जब जीसस का जन्म हुआ, तो सारी दुनिया से बुद्धिमान लोग जीसस के गांव पहुंचे, बड़ी हजारों मील की यात्रा करके। क्योंकि जो भी इस पृथ्वी पर बुद्धिमान थे और जानते थे, उनको तत्काल अनुभव हुआ कि कोई करुणा से प्रेरित आत्मा फिर जन्म गई। इसकी ध्वनियां उन तक पहुंचीं, इसकी लहरें उन तक पहुंचीं।

जब बुद्ध का जन्म हुआ, तो हिमालय से एक महायोगी उतरकर बुद्ध के गांव आया। बुद्ध के द्वार पर खड़ा हुआ। बुद्ध के पिता बुद्ध को लेकर योगी के चरणों में रख दिए और कहा कि आशीर्वाद दें, शुभ वचन कहें, शुभ कामनाएं करें। लेकिन वह योगी रोने लगा। तो बुद्ध के पिता बहुत चिंतित हुए। उन्होंने कहा, कोई अपशगुन है? आप रोते हैं! उस योगी ने कहा, मेरे रोने का कारण दूसरा है। अपशगुन नहीं, महाशगुन है। मैं रोता हूं इसलिए कि उस आदमी का जन्म हुआ फिर, जिसकी कोई वासना नहीं है, जो करुणा से आया है। लेकिन मैं उसके चरणों में बैठने से वंचित रह जाऊंगा, क्योंकि मेरी तो मौत की घड़ी करीब आ रही है। उसके लिए नहीं रोता, अपने लिए रोता हूं। क्योंकि ऐसी चेतना जन्मी है, उसी को खोजते मैं हिमालय से यहां तक आया हूं।

जब भी कोई महाकरुणावान चेतना पृथ्वी पर उतरती है, तो जिनके हृदय भी पवित्र हैं, उनके हृदयों में कंपन शुरू हो जाते हैं। उन तक खबरें पहुंच जाती हैं। वह लहर, वह झील पर पड़ा हुआ पत्थर उन तक लहरें ले जाता है। वे उस ध्वनि तरंग को समझ पाते हैं, वे भागे हुए चले आते हैं।

रोने लगा वह महायोगी। उसने कहा, दुखी हूं, क्योंकि मैं मर जाऊंगा। मेरी तो मौत करीब आ गई, और मैं बुद्ध के चरणों में न बैठ पाऊंगा। अभी ही नमस्कार कर लेता हूं। उस बच्चे के पैरों में सिर रखकर वह योगी चला गया।

जब कृष्ण कहते हैं, तो आमतौर से लोग भूल समझ लेते हैं। वे समझ लेते हैं कि अगर आज अधर्म होगा, दुष्ट होंगे, साधु कष्ट में होंगे, तो कृष्ण लौट आएंगे। कृष्ण नहीं लौटेंगे। जो भी लौटेगा, वही कृष्ण है। कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं है। जहां भी कोई लौटेगा, वही कृष्ण है। लेकिन जब भी जरूरत होती है, अंधेरा घना होता है, तो कोई प्रकाश किरण लौट आती है। क्यों लौट आती है? करुणा के कारण। जरूरत हो तो ही लौटती है, अन्यथा कोई जरूरत नहीं।

आपके घर में कोई बीमार हो तो डाक्टर आता है, न हो तो कोई जरूरत नहीं। अंधेरा हो तो प्रकाश की जरूरत होती हैं, अंधेरा न हो तो कोई जरूरत नहीं। अगर पिछली पीढ़ी में ऐसी आत्माएं मरी हों जो कि वासना से मुक्त हो गई हों, लेकिन पृथ्वी पर कोई जरूरत न हो, तो वे न लौटेंगी। लेकिन अगर जरूरत हो, तो लौट आ सकती हैं।

जरूरत सदा है। अब तक तो ऐसा कोई समय नहीं आया, जब जरूरत न रही हो। जरूरत सदा है। पृथ्वी सदा ही अंधेरे से भरी है। पृथ्वी सदा ही अधर्म से भरी है। लौटना ही पड़ता है। लेकिन लौटने का प्रयोजन स्वयं की कोई वासना नहीं है। लौटने का प्रयोजन दूसरों पर करुणा है।

इस करुणा के दो कारण उन्होंने कहे, असाधुओं के विनाश के लिए, दुष्टों के विनाश के लिए; साधुओं के उद्धार के लिए। ये जरा कठिन हैं दोनों बातें। इन्हें थोड़ा-सा खयाल में ले लेना जरूरी है।

दुष्टों के विनाश के लिए! क्या दुष्टों की हत्या कर देंगे? मार डालेंगे दुष्टों को? तब तो खुद ही दुष्ट हो जाएंगे। फिर वह करुणा न हुई।

दुष्टों के विनाश का क्या अर्थ होता है? दुष्टों के विनाश का एक ही अर्थ होता है कि दुष्टों में दुष्टता न रह जाए, तो दुष्टों का विनाश हो जाता है। दुष्टों के विनाश का अर्थ यह नहीं कि तलवार से दो टुकड़े कर देंगे। क्योंकि तलवार से दो टुकड़े करने में दुष्ट का तो कुछ विनाश न होगा, जिसने विनाश किया वह भी दुष्ट हो जाएगा। दुष्ट के विनाश का क्या अर्थ है? दुष्ट के विनाश का अर्थ है, दुष्ट की दुष्टता खो जाए। दुष्टता मिट जाए, तो ही दुष्ट का विनाश हुआ।

साधुओं के उद्धार के लिए! यह और कठिन बात है। साधु का तो अर्थ ही यही है कि जिसके उद्धार की किसी को जरूरत न हो। साधु अगर अपना उद्धार न कर सके, तो साधु कैसा? दुष्ट न कर सके, समझ में आता है। कृष्ण कहें कि दुष्टों के उद्धार के लिए, चलेगा। लेकिन कृष्ण कहते हैं, दुष्टों के विनाश के लिए और साधुओं के उद्धार के लिए। तो साधारणतः हम सोचते हैं, शायद साधुओं को दुष्ट सताते होंगे, तो उनके उद्धार के लिए।

साधु बड़ा कमजोर है, अगर दुष्ट उसे सता पाए। असल में दुष्ट अगर साधु को सताए, तो दुष्ट को ही बदलना पड़ता है; साधु को नहीं बदलना पड़ता। दुष्ट साधु को सताकर अपनी ही बदलाहट के उपाय में लग रहा है। साधु को नहीं सता पाता।

साधु को दुनिया में कोई भी नहीं सता पाता। और अगर साधु को दुष्ट सता पाते हैं, तो साधु के नाम से दूसरे ढंग के दुष्ट ही बैठे होंगे, अन्यथा नहीं। साधु नहीं होंगे। साधु को सताने का उपाय नहीं है। इसलिए भी उपाय नहीं है कि साधु का मतलब ही यही है कि जिसे अब सताओ और चाहे सम्मान करो, दोनों बराबर हो गए। उसे सताओगे कैसे? उसे जूते की माला पहना दो कि फूल की माला पहना दो, वह दोनों के लिए धन्यवाद देकर अपने रास्ते पर चल पड़ेगा। साधु को सताने का उपाय नहीं है। जिसे हम नहीं सता सकते, वही साधु है।

फिर यह कृष्ण कहते हैं, साधु के उद्धार के लिए! और यह भी बड़े मजे की बात है कि जिस युग में साधु हों, उसमें भी दुष्टों को साधु न सुधार पाएं और कृष्ण को आना पड़े, तो साधु बिलकुल नपुंसक हैं, इम्पोटेंट हैं। फिर साधु किसलिए हैं?

नहीं; जिस युग में दुष्ट होते हैं, उस युग में साधु भी साधु नहीं होते। असल में दुष्टता से भरे हुए युग दुष्टों के युग होते हैं और पाखंडी साधुओं के युग होते हैं। साधु के उद्धार के लिए अर्थात पाखंड से उद्धार के लिए।

और मजा यह है कि दुष्ट का विनाश करना पड़ता है। क्योंकि दुष्टता कुछ है, जिसका विनाश किया जा सके। पाखंड कुछ है नहीं, जिसका विनाश किया जा सके। पाखंड से सिर्फ उद्धार किया जा सकता है। दुष्टता का विनाश किया जा सकता है। दुष्टता का पाजिटिव अर्थ है। पाखंड सिर्फ एक चेहरा है, जिससे उद्धार किया जा सकता है। जिसे उतारकर रख दिया नीचे, तो पीछे का आदमी प्रकट हो जाता है।

साधु के उद्धार के लिए और दुष्ट के विनाश के लिए! और जिस युग में साधु नहीं होते, उस युग में दुष्ट होते हैं। लेकिन साधु सदा होते हैं, तो फिर साधु पाखंडी होते हैं।

पाखंडी साधु के उद्धार के लिए! अन्यथा साधु अगर सच में साधु है, तो कृष्ण से कहेगा, क्षमा करें। आप कष्ट न करें, मैं उद्धार कर लूंगा। अपना उद्धार तो कर ही लूंगा। आपको नाहक कष्ट न दूंगा। आप क्यों परेशान होते हैं!

अगर साधु सच में साधु होगा, तो दुष्ट उसे दुश्मन नहीं मालूम पड़ेगा। दुष्ट उसे सताता हुआ भी मालूम नहीं पड़ेगा। लेकिन साधु के भीतर भी दुष्ट ही छिपा रहता है। फर्क, साधु और दुष्ट के बीच, चेहरों का होता है। और इस अर्थ में दुष्ट कहीं ज्यादा ईमानदार, और साधु कहीं ज्यादा बेईमान होता है।

बेईमानी से उद्धार करना पड़े। धर्म का जब विनाश होता है, तो साधु होंगे कहां? क्योंकि अगर साधु होंगे, तो धर्म का विनाश कैसे होगा? धर्म का विनाश तभी होता है, जब साधु नहीं होते। जब साधु नहीं होते, तभी धर्म का विनाश होता है। और जब धर्म का विनाश होता है, तभी अधर्म प्रभावी होता है।

धर्म नहीं होता, क्योंकि धर्म के लिए भी पृथ्वी पर पैर रखने की जगह चाहिए। धर्म को भी पृथ्वी पर पैर रखने की जगह चाहिए। वह जगह साधुओं के हृदय हैं। अगर साधु न हों, तो धर्म को पैर रखने की जगह नहीं मिलती। धर्म तब अटक जाता है, त्रिशंकु हो जाता है, आकाश में भटक जाता है।

धर्म को पैर रखने के लिए साधुओं के हृदय चाहिए, अधर्म को पैर रखने के लिए असाधुओं के हृदय चाहिए। अधर्म भी खड़ा नहीं हो सकता; अधर्म भी हमारे सहारे खड़ा होता है, हमारे सहारे प्रकट होता है। धर्म भी हमारे सहारे प्रकट होता है। साधु हों, तो धर्म होता है, उसके लिए सहारे होते हैं। असाधु हों, अधर्म होता है, उसके लिए सहारे होते हैं। और जब अधर्म होता है, दुष्ट होते हैं; साधु नहीं होते, धर्म नहीं होता; तो कृष्ण कहते हैं कि मैं, अर्थात कोई भी चेतना जो अपनी सब वासनाओं से मुक्त हो जाती है, लौट आती है करुणावश--साधुओं के उद्धार के लिए, असाधुओं के विनाश के लिए।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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