गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 20

 

 निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।

शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।। 21।।



और जीत लिया है अंतःकरण और शरीर जिसने, तथा त्याग दी है संपूर्ण भोगों की सामग्री जिसने, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर संबंधी कर्म को करता हुआ भी पाप को नहीं प्राप्त होता है।


जिसने छोड़ी आशा, आकांक्षा, भविष्य, फल की स्पृहा; जिसने छोड़ा अभिमान, जिसने छोड़ा दूसरे की आंखों में अपने प्रतिबिंब को इकट्ठा करने का मोह--ऐसा व्यक्ति कर्म की जो आवश्यकता है, या जो आवश्यक कर्म हैं शरीर के, उन्हें करता रहता है। भूख लगती है, भोजन कर लेता है। नींद आती है, सो जाता है। सर्दी लगती है, वस्त्र ओढ़ लेता है। गर्मी लगती है, वस्त्र अलग कर देता है। जो आवश्यक है शरीर के लिए, करता रहता है, लेकिन फिर कर्मबंध को उपलब्ध नहीं होता।

महावीर भी उठते और चलते हैं, वैसे ही जैसे कोई और उठता और चलता है। बुद्ध भी भोजन करते हैं, वैसे ही जैसे कोई और भी भोजन करता है। कृष्ण भी वस्त्र पहनते हैं, वैसे ही जैसे कोई और पहनता है। लेकिन बिलकुल वैसे ही नहीं; बुनियादी अंतर भी है। ठीक वैसे ही नहीं, गहरे में भेद है। और बड़ा भेद है। गहरे में जो भेद है, वह देख लेना चाहिए।


जब साधारणतः कोई आदमी भोजन करता है, तो सिर्फ भोजन नहीं करता। भोजन करते हुए और बहुत कुछ भी करता है।

आप खयाल करना, जब भोजन करते हों। सिर्फ भोजन नहीं करते, भोजन करते हुए और हजार काम भी आपका मन करता रहता है। हो सकता है, दुकान पर हों, दफ्तर में हों, बाजार में हों, मंदिर में हों; भोजन की थाली पर हों और साथ ही दुकान पर हों। होता ही है। फिर इससे उलटा भी होता है, होगा ही, कि दुकान पर होंगे और भोजन की थाली पर होंगे।

भोजन करते हुए, साधारणतः, हम भोजन ही नहीं करते और हजार काम भी करते हैं। कृष्ण जैसा या बुद्ध या महावीर जैसा व्यक्ति जब भोजन करता है, तब भोजन ही करता है! फिर और कुछ नहीं करता। एक तो यह अंतर स्पष्ट समझ लें। यह अंतर गहरा है! ऊपर से दिखाई नहीं पड़ता है। भीतर से खोजेंगे, तो दिखाई पड़ेगा।

क्यों? हम भोजन करते हुए और पच्चीस काम मन में क्यों करते हैं? क्योंकि वासना है। भोजन का काम शरीर करता रहता है, वासना अपने जाल बुनती रहती है। भोजन का काम आटोमैटिक होता है, यंत्रवत होता है, मशीन की तरह होता है। होशपूर्वक नहीं होता, बेहोशी में होता है। आपकी कोई जरूरत ही नहीं होती। आप कहीं भी हों, दुकान पर बैठे रहें, दिमाग से, मन से; हाथ भोजन को मुंह में डालते रहेंगे; जीभ उसको भीतर सरकाती रहेगी; पेट उसको पचाता रहेगा--यंत्रवत। आपकी मौजूदगी नहीं होती।

कृष्ण या बुद्ध जैसे व्यक्ति जो करते हैं, वही करते हैं। पूरे मौजूद होते हैं। उनकी टोटल प्रेजेंस वहां होती है। यह अंतर गहरा है और इसके गहरे परिणाम हैं। क्या गहरे परिणाम होंगे?

जो व्यक्ति भोजन करते हुए पूरा भोजन करते समय मौजूद है, वह ज्यादा भोजन कभी न कर पाएगा। वह कम भोजन भी न करेगा, ज्यादा भी न करेगा। जो व्यक्ति भोजन करते हुए मौजूद नहीं है, बहुत कम संभावना है कि वह सम्यक आहार कर सके। वह या तो कम करेगा, या ज्यादा करेगा। अगर वासना बहुत तेजी से दौड़ रही है, जल्दी भागने को है, तो कम करेगा। या कम समय में ज्यादा करेगा, वह भी खतरनाक है। और ज्यादा तो करेगा ही। क्यों?

शरीर अंधा है, शरीर के पास अपनी आंख नहीं है। शरीर पर काम को छोड़ना, अंधे के हाथ में काम को छोड़ना है। शरीर मैकेनिकल है, हैबीचुअल है। ग्यारह बजे आप रोज खाना खाते हैं। भूख न भी लगी हो, तो भी शरीर कहता है, भूख लगी है। अगर घड़ी किसी ने आगे-पीछे कर दी हो और अभी दस ही बजे हों, घड़ी में ग्यारह बज जाएं; घड़ी देखी, शरीर फौरन कहता है, भूख लगी! अभी ग्यारह बजे नहीं हैं।

ग्यारह बजे भूख लगती है। एक घंटे खाना न खाएं, तो लोग कहते हैं, भूख मर जाती है। अगर भूख आथेंटिक हो, असली हो, तो बढ़नी चाहिए; मरनी नहीं चाहिए। भूख थी ही नहीं, सिर्फ हैबीचुअल ट्रिक, शरीर की आदत कि रोज चौबीस घंटेभर बाद पेट में चीजें डाली जाती हैं। ठीक चौबीस घंटे बाद उसने कहा कि डालो, समय हो गया। अंधे की तरह, मशीन की तरह, यंत्र की तरह सूचना कर देता है। फिर कल जितनी डाली थीं, उतनी डालो।

कल की जरूरत और हो सकती थी, आज की जरूरत और। रोज जरूरत बदलती जाती है। बचपन में जरूरत और होती है, जवानी में और होती है, बुढ़ापे में और होती है।

जवानी की आदत खाने की, बुढ़ापे में भी नहीं छूटती। शरीर को जरूरत कम रह जाती है, लेकिन शरीर पुरानी आदत से उतना ही खाए चला जाता है। तो जवानी में जिस भोजन ने शरीर को फायदा पहुंचाया, वही भोजन बुढ़ापे में नुकसान पहुंचाने लगता है। क्योंकि भोजन कम होना चाहिए। उम्र के साथ कम होते जाना चाहिए।

लेकिन यह होश कौन रखे? यह होश रखने वाला तो मौजूद ही नहीं रहा कभी। वह तो कभी दुकान पर होता है, कभी बाजार में होता है। कभी दूसरे गांव में होता है। कभी कहीं होता है, कभी कहीं होता है। सिर्फ भोजन की थाली पर नहीं होता है।

कृष्ण जैसे, बुद्ध जैसे व्यक्ति जब भोजन करते हैं, तो सिर्फ भोजन करते हैं। इसलिए असम्यक आहार कभी नहीं हो पाता है। असम्यक बांधता है, सम्यक मुक्त करता है। जो भी चीज सम्यक है, वह कभी बंधन नहीं बनती। और जो भी चीज सम्यक से यहां-वहां डोली कि बंधन बन जाती है।

ऐसा जागा हुआ पुरुष शरीर के कर्मों को आवश्यक मानकर होशपूर्वक करता है; बंधता नहीं।

और भी एक बात, कि जब हम होशपूर्वक करते हैं, तो हम चीजों का उपयोग करते हैं। और जब हम बेहोशी से करते हैं, तो चीजें हमारा उपयोग कर लेती हैं।

खयाल करना, चीजों को आप खाते हैं या चीजें अपने आपको आपके भीतर पहुंचा देती हैं? पेट भर गया है और मिठाइयां सामने आ गई हैं। तो आप इस भ्रम में होते हैं कि आप चीजों को भीतर डाल रहे हैं। अगर चीजों के पास जबान हो, तो वे कहें कि हम तुम्हें भीतर डालने के लिए मजबूर कर रहे हैं। हम तुम्हारे भीतर जा रहे हैं। और चूंकि हम तुम्हारे भीतर जाना चाहते हैं, इसलिए हम तुम्हारा उपयोग कर रहे हैं तुम्हारे भीतर जाने के लिए।

वे कर्म हमें बांध लेते हैं, जिनमें हम मजबूर होते हैं। वे कर्म हमें नहीं बांधते, जिनमें हम स्वेच्छया स्वतंत्र होते हैं। जिस भोजन को आपने किया है, वह आपको नहीं बांधता; लेकिन जिस भोजन ने आपको करने के लिए मजबूर किया है, वह आपको बांधता है। जो नींद आप सोए हैं, वह आपको नहीं बांधती; लेकिन जिस नींद में आप पड़े रहे हैं, वह नींद आपको बांध लेती है।


शरीर के आवश्यक कर्मों को होशपूर्वक, साक्षी-भाव से, सम्यक रूप से जो निपटा देता है, वह कर्मों के बंधन में नहीं पड़ता है। वह करते हुए भी मुक्त है। उसे कुछ भी नहीं बांधता है।

ध्यान रहे, अति बांधती है, दि एक्सट्रीम इज़ दि बांडेज। अति बंधन है, मध्य मुक्ति है। लेकिन मध्य में वही हो सकता है, जो बहुत होश से भरा हुआ है--जतन। वह कबीर के शब्द जतन से भरा हुआ है। बड़े होश से भरा हुआ है, वही मध्य में रह सकता है। जरा चूके कि अति शुरू हो जाती है।

या तो आदमी ज्यादा खा लेता है, या उपवास कर देता है। ज्यादा खाने वाले अक्सर उपवास कर देते हैं। ज्यादा खाने वालों को करना पड़ता है उपवास। इसलिए जब भी जिस समाज में ज्यादा खाना हो जाता है, उसमें उपवास का कल्ट पैदा हो जाता है। गरीब समाजों में उपवास का सिद्धांत नहीं चलता। अमीर समाजों में उपवास का सिद्धांत जारी हो जाता है।

आज अमेरिका में उपवास का कल्ट जोर पर है। सब ओवर फीडिंग चलता है, तो उपवास चलेगा। ज्यादा आदमी खाए जा रहा है, पांच-पांच बार खा रहा है, तो फिर उपवास करना पड़ता है। फिर जो उपवास करता है, उपवास तोड़कर फिर जोर से खाने में लगता है।

अति सदा अति पर परिवर्तित हो जाती है। इसलिए जो आदमी उपवास करता है, उपवास में करता क्या है? उपवास तोड़कर क्या खाएगा, इसका विचार करता है। जितना भोजन का विचार कभी नहीं किया था, उतना उपवास में करता है। उपवास में सभी पाकशास्त्री हो जाते हैं! एकदम भोजन का चिंतन करते हैं! सारा रस भोजन पर वर्तुल बना लेता है। एक अति से दूसरी अति! फिर जब ज्यादा भोजन कर लेते हैं, ज्यादा भोजन से परेशान होते हैं, तो उपवास का खयाल पकड़ता है। लेकिन मध्य में नहीं ठहरते।

कृष्ण जिस आदमी की बात कर रहे हैं, वह न अति भोजन करता है, न अल्प भोजन करता है। वह उतना ही करता है, जितना जरूरी है, नेसेसरी है। आवश्यक कभी नहीं बांधता, अनावश्यक बांध लेता है।

आवश्यक का कौन निर्धारण करे? कोई दूसरा नहीं कर सकता। मैं नहीं कह सकता, आपके लिए क्या आवश्यक है। एक आदमी के लिए तीन घंटे की नींद आवश्यक हो सकती है; एक आदमी के लिए छः घंटे की हो सकती है। तीन घंटे वाला छः घंटे वाले को कहेगा, तामसी हो। छः घंटे वाला अगर कमजोर हुआ, तो अपने को तामसी समझकर तीन घंटे की नींद शुरू कर देगा। अगर ताकतवर हुआ, तो तीन घंटे वाले को कहेगा, तुमको इन्सोमेनिया है, अनिद्रा है। तुम इलाज करवाओ। अगर तीन घंटे वाला कमजोर हुआ, तो डाक्टर के पास ट्रैंक्वेलाइजर के लिए पहुंच जाएगा। अगर ताकतवर हुआ, तो कहेगा कि हम साधक हैं; हम तीन घंटे सोते हैं। क्योंकि कृष्ण ने कहा है गीता में, या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी, कि जब सब सोते हैं, तब संयमी जागते हैं; हम इसलिए जागते हैं रात में।

कोई नियम नहीं हो सकता। एक-एक व्यक्ति की जरूरत अलग-अलग है। इतनी अलग-अलग है जिसका कोई हिसाब नहीं। उम्र के साथ जरूरत बदलेगी। काम के साथ जरूरत बदलेगी। विश्राम के साथ जरूरत बदलेगी। भोजन के साथ जरूरत बदलेगी। प्रतिदिन के मन की अवस्था के साथ जरूरत बदलेगी। एक आदमी भी तय नहीं कर सकता कि मैं आज छः घंटे सोया, तो कल भी छः घंटे ही सोऊं।

कल की जरूरत कल तय होगी; क्योंकि आज जो भोजन किया, हो सकता है, कल वह भोजन न मिले। कल अगर भूखे रहे, तो नींद कम हो जाएगी। क्योंकि भोजन पेट में हो, तो पचाने के लिए नींद को लंबा हो जाना पड़ता है। अगर ज्यादा देर में पचने वाला भोजन पेट में हो, तो नींद को और लंबा हो जाना पड़ता है। अगर जल्दी पच जाने वाला भोजन पेट में हो, तो नींद सिकुड़ जाती है, छोटी हो जाती है। कल अगर दिनभर मजदूरी की, गङ्ढे खोदे, तो नींद लंबी हो जाती है। कल अगर दिनभर आरामकुर्सी पर बैठकर विश्राम किया, तो नींद सिकुड़ जाती है, छोटी हो जाती है।

रोज, प्रतिपल, इसलिए जो होश से जीता है, वह रोज जो जरूरी है, उसमें जीता है। गैर-जरूरी को काटता चला जाता है। कट ही जाता है गैर-जरूरी। होशपूर्ण चित्त में गैर-जरूरी अपने आप गिर जाता है।

गैर-जरूरी बांधता है; आवश्यक कर्म बांधते नहीं। इसलिए कृष्ण ठीक कहते हैं, आवश्यक कर्म करता है ऐसा व्यक्ति। और आवश्यक कर्म शरीर के बांधते नहीं हैं। अनावश्यक गिर जाता है। अनावश्यक के साथ जंजीरें भी गिर जाती हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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