गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 21

 


 शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।

कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः।। 23।।


जो मनुष्य शरीर के नाश होने से पहले ही काम और क्रोध से उत्पन्न हुए वेग को सहन करने में समर्थ है, अर्थात काम-क्रोध को जिसने सदा के लिए जीत लिया है, वह मनुष्य इस लोक में योगी है और वही सुखी है।


जीवन में काम और क्रोध के वेग को जिस पुरुष ने जीत लिया, वह इस लोक में योगी है, परलोक में मुक्त है, वही आनंद को भी उपलब्ध है।

काम से अर्थ है, दूसरे से सुख लेने की आकांक्षा। जहां भी दूसरे से सुख लेने की आकांक्षा है, वहीं काम है।

काम बड़ी विराट घटना है। काम सिर्फ यौन नहीं है, सेक्स नहीं है; काम विराट घटना है। यौन भी काम के विराट जाल का छोटा-सा हिस्सा है।

जहां भी दूसरे से सुख पाने की इच्छा है, वहां दूसरे का शोषण करने के भी रास्ते निर्मित होते हैं। जब भी मैं किसी दूसरे से सुख लेना चाहता हूं, तभी शोषण शुरू हो जाता है। और अगर कोई मेरे काम में, मेरे दूसरे से सुख पाने में बाधा बने, तो क्रोध उत्पन्न होता है। इसलिए कृष्ण ने काम और क्रोध को एक साथ ही इस सूत्र में कहा है। संयुक्त वेग हैं।

कामना में बाधा कोई खड़ी करे, काम के पूरे होने में कोई व्यवधान बने, कोई दीवाल बने, कोई आड़े आए, तो क्रोध जन्मता है। काम के वेग को जहां से भी रुकावट मिलती है, वहीं से लौटकर वह क्रोध बन जाता है। काम के वेग को यदि व्यवधान न मिले, रुकावट न मिले और काम का वेग अपनी इच्छा को पूरा कर ले, तो  विषाद बन जाता है।


काम की तृप्ति पर, काम पूरा हो जाए, तो पीछे सिर्फ विषाद की कालिमा छूट जाती है, अंधेरा छूट जाता है। और काम पूरा न हो पाए, कोई व्यवधान डाल दे, तो काम लपट बन जाता है क्रोध की। क्रोध काम का ही अवरुद्ध रूप है; रुका हुआ रूप है। मैं चाहता था कुछ करना, नहीं कर सका, तो जिसने बाधा दी, उस पर मेरे काम की वासना क्रोध की अग्नि बनकर बरस पड़ती है।

मैंने कहा, काम बड़ी घटना है। अगर हम मनसशास्त्रियों से पूछें, तो वे कहते हैं कि मनुष्य काम के लिए ही जी रहा है। अगर हम फ्रायड से पूछें, तो वह कहेगा, काम ही मनुष्य का सब कुछ है, उसकी आत्मा है। और जहां तक साधारण मनुष्य का संबंध है, फ्रायड बिलकुल ही ठीक कहता है। धन भी कमाते हैं इसलिए कि काम खरीदा जा सके। यश भी पाते हैं इसलिए कि काम खरीदा जा सके। चौबीस घंटे दौड़ हमारी, गहरे में अगर खोजें, तो किसी से सुख पाने की दौड़ है।

जब तक भी मुझे अपने भीतर के आनंद का कोई पता नहीं है, तब तक स्वभावतः मैं दूसरे से सुख पाने पर निर्भर रहूंगा। जब तक मुझे भीतर कोई रस आता ही नहीं; जब तक आंख बंद करता हूं, भीतर कोई शांति, कोई आनंद की झलक नहीं मिलती--तब तक मैं किसी और के पास जाऊंगा कि कोई मुझे सुख दे दे।

और मजे की बात तो यह है कि जिसके पास मैं जाऊंगा, वह भी मेरे पास इसीलिए आया है कि मैं उसे सुख दे दूं! और दो भिखारी एक-दूसरे के सामने भिक्षापात्र रखकर बैठ जाएं, तो कुछ हल होने वाला है? कोई हल होने वाला नहीं है। हम सब ऐसे ही भिखारी हैं।

मैं किसी से सोचता हूं कि इससे मिलेगा सुख; उसके पीछे दौड़ता हूं। वह भी मेरे पीछे इसलिए दौड़ रहा है कि मुझसे मिलेगा सुख! हम दोनों लेने की तलाश में हैं, और दोनों के पास देने को नहीं है। देने को होता, अगर मेरे पास किसी को सुख देने को होता, तो सबसे पहले तो मैं ले लेता। अगर मेरे घर में कुआं होता और मैं प्यास अपनी बुझा सकता, तो मैं दूसरे की प्यास भी बुझाने के लिए कुएं पर बुला लेता। लेकिन मेरे घर में कुआं नहीं, मैं प्यासा मरा जा रहा हूं; और एक दूसरे आदमी के पीछे चल रहा हूं, इस आशा में कि उससे मेरी प्यास बुझ जाएगी! वह खुद भी मेरे घर इसीलिए आया हुआ है कि उसकी प्यास मुझसे बुझ जाएगी। न उसके घर कुआं है, न मेरे घर कुआं है! हम दोनों एक-दूसरे को धोखा दे रहे हैं।

मैं उसे ऐसा दिखाने की कोशिश कर रहा हूं कि मैं तुझे सुख दूंगा, क्योंकि इस तरह का आश्वासन अगर मैं न दिलाऊं, तो उससे मुझे सुख मिलने का रास्ता नहीं बनेगा। वह मुझे धोखा दे रहा है कि मैं तुम्हें सुख दूंगा। वह भी इसीलिए धोखा दे रहा है, क्योंकि अगर वह ऐसा आश्वासन न दे, तो मुझसे सुख न पा सकेगा। और हम दोनों एक-दूसरे को धोखा दे रहे हैं।

इस जगत में हम सब एक-दूसरे को धोखा दे रहे हैं इस बात का कि सुख लिया-दिया जा सकेगा। वह संभव नहीं है। जिसके पास भीतर सुख नहीं है, वह किसी को दे नहीं सकता। जो हमारे पास है, वही हम दे सकते हैं। और जो हमारे पास है, वह देने के पहले हमें मिल गया होता है।

इस जगत में वह आदमी सुख दे सकता है, जिसके पास है। लेकिन हमारे पास तो कोई सुख नहीं है। काम से केवल वही व्यक्ति मुक्त होगा, जिसे आनंद के अंतर-स्रोत उपलब्ध हो जाएं, अन्यथा मुक्त नहीं होगा।

तो जब कृष्ण कहते हैं, काम और क्रोध से मुक्त हो जाता है जो, तो उसका अर्थ ही यह है। उसका अर्थ ही यह है कि जब भी मन में काम उठे--तो काम एक ऊर्जा है, एनर्जी है, बड़ी शक्ति है। इसीलिए तो प्रकृति काम-ऊर्जा को संतति के लिए, जन्म के लिए उपयोग में लाती है। बड़ी शक्ति है, विराट शक्ति है काम। जब काम उठे, आपके भीतर जब वासना उठे, किसी से सुख लेने की इच्छा उठे, तब आंख बंद करके दूसरे को भूल जाना और आपके ही भीतर वह ऊर्जा कहां उठ रही है, उस बिंदु पर ध्यान करना।

स्वभावतः, साधारणतः सेक्स सेंटर से ऊर्जा उठती है और बाहर फैल जाना चाहती है। यदि कोई व्यक्ति, जिस क्षण सेक्स की कामना मन को घेर ले, आंख बंद करके अपने सारे ध्यान को सेक्स के सेंटर पर ले जाए, तो दो क्षण में पाएगा कि काम की वासना तिरोहित हो गई। दो क्षण में! इससे ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। और जैसे ही काम की वासना तिरोहित होगी, जो ऊर्जा उठ गई, उसका क्या होगा?

ऊर्जा सदा उपयोग में आती है। उठ जाए तो, कुछ न कुछ उपयोग होता है। जो शक्ति जाग गई, उसका क्या होगा? अब बाहर जाने का कोई मार्ग न रहा, तो शक्ति भीतर जाना शुरू हो जाती है। उस शक्ति के बहाव का नाम कुंडलिनी है। उस शक्ति के भीतर बहने का नाम कुंडलिनी है। सेक्स के, यौन के केंद्र से शक्ति उठती है और रीढ़ के मार्ग से ऊपर की तरफ बहनी शुरू हो जाती है। जैसे कोई सर्प उठता हो।

यौन के केंद्र पर शक्ति का संग्रह है। या तो वहां से बाहर चली जाएगी, या वहां से भीतर चली जाएगी। वह द्वार है। अगर बाहर गई, तो या तो विषाद बनेगी, या क्रोध बनेगी। अगर भीतर गई, तो ठीक उलटी घटना बनेगी। अगर अवरुद्ध हो जाए, तो क्षमा बनेगी, जैसे बाहर अवरुद्ध होने से क्रोध बनती है। अगर भीतर अवरुद्ध हो जाए, तो क्षमा बनेगी। और जैसे बाहर पूरे होने से विषाद बनती है, अगर भीतर पूरी हो जाए, तो आनंद बनेगी।

खयाल रख लें, बाहर ऊर्जा जाए, पूरे लक्ष्य तक पहुंच जाए, तो विषाद फल बनेगा। भीतर उठे, और सहस्रार तक पहुंच जाए ऊपर तक, तो आनंद फलित होगा। अगर बाहर रुकावट बन जाए, तो क्रोध बनेगी; अगर भीतर कहीं रुकावट बन जाए, तो क्षमा बनेगी।

लेकिन हम तो बाहर से ही परिचित हैं। हम बाहर से ही परिचित हैं, हमें भीतर का कोई खयाल नहीं है।

कृष्ण क्यों इस बात को स्पष्ट नहीं कह रहे हैं, यह भी सोचने जैसा है। कृष्ण को अर्जुन को बताना चाहिए कि तू काम-केंद्र पर, सेक्स सेंटर पर ध्यान को केंद्रित कर। यह अर्जुन से कृष्ण क्यों नहीं कह रहे हैं? मैं इसे क्यों कह रहा हूं आपसे? उसका कारण है।

इस देश की एक व्यवस्था थी ब्रह्मचर्य आश्रम की। सारे बच्चे, जो भी गुरु के पास ब्रह्मचर्य के काल में आश्रम में रहते थे, उन सबको अनिवार्य रूप से सेक्स सेंटर पर ध्यान करना सिखा दिया जाता था। ब्रह्मचर्य की साधना ही थी वह। यह सामान्य ज्ञान की बात थी, इसलिए कृष्ण को इसे विशेष रूप से कहने की कोई जरूरत नहीं है। इतना ही वे कह सकते हैं कि अर्जुन, काम और क्रोध से जो मुक्त हो जाता है, वह इस पृथ्वी पर सुख को और उस लोक में भी आनंद को उपलब्ध होता है।

 ब्रह्मचर्य के आश्रम का काल था, वह हमारी जिंदगी से बिलकुल काटकर फेंक दिया गया है। हम गृहस्थ ही शुरू होते हैं, जो कि बहुत ही बेहूदी बात है। बच्चा भी गृहस्थ की तरह शुरू होता है, जो कि बड़ी गलत शुरुआत है। जीवन के सुनिश्चित आधार रखे ही नहीं जाते।

अर्जुन को भलीभांति पता है कि काम की ऊर्जा कैसे अंतर्प्रवाहित होती है, इसलिए उसको उल्लेख नहीं किया है। वह सभी को पता था। उसका उल्लेख करने की कोई जरूरत न थी। वह सामान्य ज्ञान था। वह ऐसा ही सामान्य ज्ञान था, जैसे मैं आपसे कहूं कि जाओ, कार ले जाओ। तो यह सामान्य ज्ञान है कि पेट्रोल डला लेना। इसको कहने की कोई जरूरत न पड़े। पेट्रोल न हो, तो कार नहीं जाएगी, यह सामान्य ज्ञान की बात है।

ठीक ऐसे ही जीवन की ऊर्जा भीतर कैसे यात्रा करती है, उसके मेडिटेशन की विधि सबको ज्ञात थी। वह हर बच्चे को जन्म के बाद पहली चीज थी। जैसे ही बच्चा होश में भरता, जो पहली चीज हम सिखाते थे, वह ब्रह्मचर्य था। जो पहला पाठ हम देते थे उसके जीवन में, वह ब्रह्मचर्य था। क्योंकि वही सबसे बड़ा पाठ है, जो जीवन की ऊर्जा को काम से हटाकर राम की तरफ ले जाता है।

काम है दूसरे पर निर्भरता, राम है स्वनिर्भरता। काम है बहिर्गमन, राम है अंतर्गमन। काम और राम के बीच हमारे सारे जीवन का आंदोलन है। जो बाहर ही दौड़ रहा है, उसे काम ही काम सुनाई पड़ता है। जो भीतर दौड़ रहा है, उसे राम ही राम सुनाई पड़ता है।

 जब आप कामवासना से भरे होते हैं, तब भी रोआं-रोआं खबर देता है, काम, काम। कामवासना से भरे हुए आदमी का हाथ छुएं। हाथ खबर देता है, काम। कामवासना से भरे आदमी की आंख में आंख डालें; खबर आती है, काम। कामवासना से भरे आदमी को कहीं से भी टटोलें; खबर आती है, काम।

राम से भी इतना ही भरा जा सकता है। और जब ऊर्जा अंतर्यात्रा बनकर सहस्रार पर पहुंचकर अंतर्गूंज पैदा करती है, अंतर्नाद पैदा करती है, तो उस व्यक्ति ने जिस शब्द का भी उपयोग करके यह यात्रा की हो--कृष्ण का, या राम का, या क्राइस्ट का, या अल्लाह का--वह शब्द उसके रोएं-रोएं से प्रस्फुटित होने लगता है; गूंजने लगता है। और जिनके पास सुनने के कान हैं, वे सुन सकते हैं। बड़े सूक्ष्म कान चाहिए।


ठीक बाहर जाती ऊर्जा से जो परिणाम होते हैं, उसके ठीक विपरीत भीतर जाती ऊर्जा से परिणाम होते हैं। बाहर है दुख; भीतर है सुख।

कृष्ण कहते हैं, इस पृथ्वी पर भी उस योगी को आनंद है; परलोक में उसकी मुक्ति है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

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