गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 44

  यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।। ६०।।
और हे अर्जुन, इसलिए यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के भी मन को यह प्रमथन स्वभाव वाली इंद्रियां बलात्कार से हर लेती हैं।
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। ६१।।
इसलिए मनुष्य को चाहिए कि उन संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ, मेरे परायण स्थित होवे। क्योंकि, जिस पुरुष के इंद्रियां वश में होती हैं, उसकी ही प्रज्ञा स्थिर होती है।



एक चेतावनी कृष्ण देते हैं, वह यह कि इंद्रियां भी व्यक्ति को खींचती हैं विषयों की ओर। इस बात को थोड़ा गहरे में समझना आवश्यक है। इंद्रियां भी व्यक्ति को खींचती हैं विषयों की ओर। साधक को भी इंद्रियां गिरा देती हैं।
इंद्रियां कैसे गिराएंगी? क्या इंद्रियों के पास अपनी कोई व्यक्ति की आत्मा से अलग शक्ति है? क्या इंद्रियों के पास अपनी कोई अलग ऊर्जा है? क्या इंद्रियां इतनी बलवान हैं स्वतंत्र रूप से कि व्यक्ति की आत्मा को गिराएंगी?
नहीं, इस कारण नहीं। इंद्रियों के पास कोई भी शक्ति नहीं है। इंद्रियां व्यक्ति से स्वतंत्र अस्तित्ववान भी नहीं हैं। लेकिन फिर भी इंद्रियां गिरा सकती हैं, गिराने का कारण बहुत दूसरा है।
वह दूसरा यह है कि इंद्रियों की यांत्रिक आदतें हैं। और आपने जन्मों-जन्मों में जिस इंद्रिय की जो आदत बनाई हैं उसकी, जब आप बदलते हैं तो उसे कुछ भी पता नहीं होता कि आप बदल गए हैं। वह अपनी पुरानी आदत को दोहराए चली जाती है। इंद्रियां यंत्र हैं, उन्हें कुछ पता नहीं होता।
आपने एक ग्रामोफोन पर रिकार्ड चढ़ा दिया। रिकार्ड गाए चला जा रहा है। आधा गीत हो गया, अब आपका मन बिलकुल सुनने को नहीं है, लेकिन रिकार्ड गाए चला जा रहा है। अब रिकार्ड को कोई भी पता नहीं है कि अब आपका मन सुनने का नहीं है। रिकार्ड को पता हो भी नहीं सकता। रिकार्ड तो सिर्फ यंत्र की तरह चल रहा है। लेकिन उठकर आप रिकार्ड को बंद कर देते हैं, क्योंकि रिकार्ड को कभी आपने अपना हिस्सा नहीं समझा।
इंद्रियों के यंत्र के साथ एक दूसरी आइडेंटिटी है कि आप इंद्रियों को अपना ही समझते हैं। इसलिए इंद्रियां जब चलती चली जाती हैं, तो अपना ही समझने के कारण आप भी उनके पीछे चल पड़ते हैं। आप उनको यंत्र की तरह बंद नहीं कर पाते।
अब एक आदमी है; उसे सिगरेट पीने की यांत्रिक आदत पड़ गई है, या शराब पीने की। कसम खाता है, नहीं पीऊंगा। निर्णय करता है, नहीं पीऊंगा। लेकिन उसकी इंद्रियों को कोई पता नहीं; उनके पास बिल्ट-इन-प्रोसेस हो गई है। तीस साल से वह पी रहा है, चालीस साल से वह पी रहा है। इंद्रियों का एक नियमित ढांचा हो गया है कि हर आधे घंटे में सिगरेट चाहिए। हर आधे घंटे पर यंत्र की घंटी बज जाती है, सिगरेट लाओ। तो आदमी कहता है, तलब! तलब लग गई है। तलब वगैरह क्या लगेगी! वह कहता है, सिगरेट पुकारती है। सिगरेट क्या पुकारेगी!
नहीं, चालीस-पचास वर्ष का यांत्रिक जाल है इंद्रियों का। हर आधे घंटे पर सिगरेट मिलती रही है, इंद्रियों के पास व्यवस्था हो गई है। उनके पास बिल्ट-इन-प्रोग्रेम है। उनके पास चौबीस घंटे की योजना है कि जब आधा घंटा हो जाए, तब आपको खबर कर दें कि अब सिगरेट चाहिए। पूरा शरीर! और इंद्रियों के साथ पूरा शरीर है।
तो जब सिगरेट चाहिए, तब शरीर के अनेक अंगों से यह खबर आएगी कि सिगरेट चाहिए। होंठ कुछ पकड़ने को आतुर हो जाएंगे, फेफड़े कुछ खींचने को आतुर हो जाएंगे, खून निकोटिन लेने के लिए प्यासा हो जाएगा, नाक कुछ छोड़ने को आतुर हो जाएगी। मन किसी चीज में व्यस्त होने को आतुर हो जाएगा। यह इकहरी घटना नहीं है, कांप्लेक्स है, इसमें पूरा शरीर संयुक्त है। और पूरा शरीर इंतजार करने लगेगा कि लाओ। सब तरफ से दबाव पड़ने लगेगा कि लाओ।
चालीस-पचास साल का दबाव है। और आपने जो निर्णय लिया है सिगरेट न पीने का, वह सिर्फ चेतन मन से लिया है। और यह दबाव चालीस साल का अचेतन मन के गहरे कोनों तक पहुंच गया है। इसकी बड़ी ताकत है। और मन जल्दी बदलने को राजी नहीं होता, क्योंकि अगर मन जल्दी बदलने को राजी हो, पूरा मन, तो आदमी जिंदा नहीं रह सकता। इसलिए मन को बहुत आर्थोडाक्सी दिखलानी पड़ती है। मन को पूरी कोशिश करनी पड़ती है कि जो चीज चालीस साल सीखी है, वह एक सेकेंड में छोड़ोगे! तब तो जिंदगी बहुत मुश्किल में पड़ जाए।
एक आदमी चालीस साल एक स्त्री को प्रेम करता रहा, जरा-सा गुस्सा आता है, कहता है, छोड़ देंगे! लेकिन कोई छोड़ता-वोड़ता नहीं, क्योंकि वह चालीस साल जो पकड़ा है, उसका वजन ज्यादा है। और अगर ऐसा छोड़ना होने लगे, तो जिंदगी एकदम अस्तव्यस्त हो जाए। इसलिए मन कहता है, जिसको चालीस साल पकड़ा है, कम से कम चालीस साल छोड़ो।
फिर मन के भी संकल्प के क्षण हैं और संकल्पहीनता के क्षण हैं। मन कभी एक ही स्थिति में नहीं होता। कभी वह संकल्प के शिखर पर होता है, तब ऐसा लगता है कि दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती। कभी वह विषाद के गङ्ढे में होता है, तब ऐसा लगता है, कोई जरा-सा धक्का दे जाएगा तो मर जाऊंगा।
तो जब वह संकल्प के शिखर पर होता है, तब वह कहता है, ठीक है, छोड़ देंगे। घंटेभर बाद जब विषाद में उतर जाता है, वह कहता है, क्या छोड़ना है! कैसे छोड़ सकते हैं! नहीं छूट सकती है, अपने वश की बात नहीं है। इस जन्म में नहीं हो सकता है। यह कहता जाता है भीतर, हाथ तब तक सिगरेट को खोल लेते हैं, हाथ तब तक मुंह में लगा देते हैं, दूसरा हाथ माचिस जला देता है। जब तक वह भीतर यह सोच ही रहा है, नहीं हो सकता, तब तक शरीर पीना ही शुरू कर देता है। तब वह जागकर देखता है, क्या हो गया यह? यह तो फिर सिगरेट पी ली? नहीं, यह नहीं हो सकता है! तब निर्णय पक्का हो जाता है कि यह हो ही नहीं सकता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि इंद्रियां खींच-खींचकर गिरा देती हैं साधक को।
इंद्रियां क्या गिराएंगी! साधक का ही अतीत में इंद्रियों को दिया गया बल, साधक का ही इंद्रियों को दिया गया अभ्यास, साधक की ही इंद्रियों को दी गई कंडीशनिंग, संस्कार...।
और संस्कार बड़ी प्रबल चीज है। हम सब संस्कार से जीते हैं। हम चेतना से नहीं जीते, हम जीते संस्कार से हैं। संस्कार बड़ी प्रबल चीज है। इतनी प्रबल चीज है कि जब संस्कार की सारी स्थिति भी चली जाती है, अकेला संस्कार रह जाता है, तो अकेला संस्कार भी काम करता रहता है।
वह जो कृष्ण कह रहे हैं, वह एक बहुत मनोवैज्ञानिक सत्य है, कि आदमी की इंद्रियां, उसकी कंडीशनिंग-- और एक जन्म की नहीं, अनेक जन्मों की। हमने वही-वही, वही-वही किया है। हम वही-वही करते रहे हैं। हम उसी जाल में घूमते रहे हैं। हम रोज एनफोर्समेंट कर रहे हैं। हमने जो किया है, उसको हम रोज बल दे रहे हैं। और फिर जब हम निर्णय लेते हैं कभी, तो हम इसका कोई खयाल ही नहीं करते कि जिन इंद्रियों के खिलाफ हम निर्णय ले रहे हैं, उनका बल कितना है! उसकी कोई तौल नहीं करते कभी। बिना तौले निर्णय ले लेते हैं। फिर पराजय के सिवाय हाथ में कुछ भी नहीं लगता।
तो जो साधक सीधा इंद्रियों को बदलने में लग जाएगा और जल्दी निर्णय लेगा, वह खतरे में पड़ेगा ही। इंद्रियां उसे रोज-रोज पटकेंगी। उसकी ही इंद्रियां। मजा तो यही है, किसी और की हों, तो भी कोई बात है। अपनी ही इंद्रियां! लेकिन फिर क्या रास्ता है? क्योंकि कंडीशनिंग तो बहुत पुरानी है। संस्कार बहुत पुराने हैं, जन्मों-जन्मों के हैं। अनंत जन्मों के हैं। सब इतना सख्ती से मजबूत हो गया है कि जैसे एक लोहे की जैकेट हमारे चारों तरफ कसी हो, जिसमें से हिलना-डुलना भी संभव नहीं है। लोहा है चारों तरफ आदतों का। कैसे होगा?
तब तक न होगा, जब तक हम इंद्रियों को बिलकुल ध्यान में ही न लें और निर्णय अलग किए चले जाएं, उनका ध्यान ही न लें। इसकी फिक्र ही न करें कि चालीस साल मैंने सिगरेट पी, और निर्णय ले लें एक क्षण में कि अब सिगरेट नहीं पीऊंगा, तो कभी नहीं होगा। एक क्षण के निर्णय चालीस साल की आदतों के मुकाबले नहीं टिकने वाले। क्षण का निर्णय क्षणिक है। टूट जाएगा। इंद्रियां पटक देंगी वापस उसी जगह। फिर क्या करना होगा?
असल में जिन इंद्रियों के साथ हमने जो किया है, उनको अनकंडीशंड करना होता है। उनको संस्कारमुक्त करना होता है। जिनकी हमने कंडीशनिंग की है, जब उनको संस्कारित किया है, तो उनको गैर-संस्कारित करना होता है। और गैर-संस्कारित इंद्रियां सहयोगी हो जाती हैं। क्योंकि इंद्रियों को कोई मतलब नहीं है कि आप सिगरेट पीओ, कि शराब पीओ। कोई मतलब नहीं है। सिगरेट पीने जैसी दूसरी अच्छी चीजें भी इंद्रियां वैसे ही पकड़ लेती हैं।
एक आदमी रोज भजन करता है, प्रार्थना करता है सुबह। एक दिन नहीं करता है, तो दिनभर तकलीफ मालूम पड़ती है। इससे यह मत समझ लेना आप कि यह तकलीफ कुछ इसलिए मालूम पड़ रही है कि प्रार्थना में उनको बड़ा आनंद मिल रहा था। क्योंकि जिसको प्रार्थना में आनंद मिल गया, उसके तो चौबीस घंटे आनंद से भर जाते हैं। जिसको एक बार भी प्रार्थना में आनंद मिल गया, उसकी तो बात ही और है।
लेकिन आमतौर से तो प्रार्थना न करने से दुख मिलता है, करने से आनंद नहीं मिलता। यह बड़े मजे की बात है, न करने से दुख मिलता है। वह दुख हैबिचुअल है, वह वैसा ही है जैसा सिगरेट का। उसमें कोई बहुत फर्क नहीं है। रोज करते हैं, रोज आदतें कहती हैं, करो। नहीं किया, तो जगह खाली छूट जाती है। दिनभर वह खाली जगह भीतर ठक-ठक करती रहती है कि आज प्रार्थना नहीं की! फिर काम किया--आज प्रार्थना नहीं की! अब बड़ी मुश्किल हो गई। सिगरेट भी हो तो अभी जला लो और पी लो। अब सुबह तो कल आएगी।
अनकंडीशनिंग! जैसे-जैसे बांधा है, वैसे-वैसे खोलना भी पड़ता है। जैसे-जैसे आदत बनाई है, वैसे-वैसे आदत बिखरानी भी पड़ती है। इंद्रियों को निर्मित किया है, उनको अनिर्मित भी करना होता है।
इस अनिर्मित करने के लिए कृष्ण एक बहुत अदभुत सुझाव देते हैं। वे इस सूत्र में कहते हैं कि जो ज्ञानी पुरुष है, वह सारा बोझ अपने ही ऊपर नहीं ले लेता।
असल में ज्ञानी पुरुष, ठीक से समझो, तो बोझ अपने ऊपर लेता ही नहीं। वह बोझ बहुत कुछ तो परमात्मा पर छोड़ देता है। सच तो यह है कि वह पूरा ही बोझ परमात्मा पर छोड़ देता है। और जो पुरानी आदतें हमला करती हैं, उनको वह पिछले कर्मों का फल मानकर साक्षीभाव से झेलता है। उनसे कोई दुख भी नहीं लेता। कहता है कि ठीक। कल मैंने किया था, इसलिए ऐसा हुआ।

कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति, जो हमले होते हैं, उन हमलों को अतीत कर्मों की शृंखला मानता है। और उनको साक्षीभाव से और शांतभाव से झेल लेता है। और जो संघर्ष है, समाधिस्थ होने की जो यात्रा है, उसमें वह परमात्मा को, प्रभु को, जीवनत्तत्व को, जीवन-ऊर्जा को सहयोगी बनाता है। वह इतना नहीं कहता कि मैं ही लड़ लूंगा, मैं ही कर लूंगा।
कभी इस तत्व को थोड़ा-सा समझ लें और प्रयोग करके देखें। सिगरेट मैं पीता हूं, तो मैं सोचता हूं, मैं ही सिगरेट छोडूंगा। लेकिन मेरा सिगरेट पीने वाला पचास साल पुराना है और मेरा सिगरेट छोड़ने वाला मैं एक क्षण का है। तो मेरा सिगरेट छोड़ने वाला मैं हार जाएगा। लेकिन मैं कहता हूं, सिगरेट पीने वाला पचास साल पुराना है, इंद्रियों की आदत मजबूत है, हमला बार-बार होगा; आज का एक क्षण का मैं तो बहुत कमजोर हूं--मैं परमात्मा पर छोड़ता हूं, तू ही मुझे सिगरेट पीना छुड़ा दे।
यह भी अहंकार नहीं लेता हूं कि मैं छोडूंगा। क्योंकि जो यह अहंकार लेगा कि मैं छोडूंगा, तो वह अहंकार कहां जाएगा जिसने पचास साल कहा है कि मैं पीता हूं। उस अहंकार के मुकाबले यह छोड़ने वाला अहंकार छोटा पड़ेगा और हारेगा। इस छोड़ने वाले अहंकार को परमात्मा के चरणों में रखना जरूरी है। इसे कह देना जरूरी है कि तू सम्हाल। सिगरेट मैंने पी, अब छोड़ना चाहता हूं। लेकिन अकेला बहुत कमजोर हूं। तू साथ देना। जब मैं सिगरेट पीऊं, तब तू साथ देना।
और जब सिगरेट पीने का वापस जोर आए, तब यह मत सोचना कि अब क्या करूं और क्या न करूं! तब बजाय सिगरेट के पक्ष-विपक्ष में सोचने के परमात्मा के समर्पण की तरफ ध्यान देना। ध्यान देना कि अब वह सिगरेट फिर पुकार रही है, अब तू सम्हाल! और जैसे ही परमात्मा का स्मरण और समर्पण का स्मरण, जैसे ही विराट के प्रति समर्पण का स्मरण, कि ऊर्जा इतनी हो जाती है, अनंत की ऊर्जा हो जाती है, कि पचास साल क्या पचास जन्मों की आदत भी कमजोर हो जाती है। टूट जाती है।
तो कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि स्थितप्रज्ञ छोड़ देता है। उस गहरी साधना में लगा व्यक्ति, संयम की उस यात्रा पर निकला व्यक्ति अपने पर ही भरोसा नहीं रख लेता, वह परम तत्व पर भी छोड़ देता है, समर्पण कर देता है। वह समर्पण ही असंयम के क्षणों में, कमजोरी के क्षणों में सहारा बनता है। वह हेल्पलेसनेस ही, वह निरुपाय दशा ही--यह जान लेना कि मैं कमजोर हूं--बड़ी शक्ति सिद्ध होती है। और यह मानते रहना कि मैं बड़ा शक्तिशाली हूं, बड़ी कमजोरी सिद्ध होती है।
इंद्रियां गिरा देती हैं उस संयमी को, जो अहंकारी भी है। इंद्रियां नहीं गिरा पातीं उस संयमी को, जो अहंकारी नहीं है, विनम्र है। जो अपनी कमजोरियों को स्वीकार करता है। जो उनको दबाता नहीं, जो उनको झुठलाता नहीं, लेकिन जो परमात्मा के हाथों में उनको भी समर्पित कर देता है। ऐसा संयमी व्यक्ति धीरे-धीरे रसों से, इंद्रियों के दबाव से, अतीत के किए गए संस्कारों के प्रभाव से, आदतों से, यांत्रिकता से--सभी से मुक्त हो जाता है। और तभी स्थितप्रज्ञ की स्थिति में आगमन शुरू होता है। तभी वह स्वयं में थिर हो पाता है।
(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

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