गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 34

  

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।। ४९।।

इस समत्व रूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यंत तुच्छ है, इसलिए हे धनंजय, समत्वबुद्धियोग का आश्रय ग्रहण कर, क्योंकि फल की वासना वाले अत्यंत दीन हैं।


कृष्ण कहते हैं, धनंजय, बुद्धियोग को खोजो। द्वंद्व को छोड़ो, स्वयं को खोजो; बुद्धि को खोजो। क्योंकि स्वयं का जो पहला परिचय है, वह बुद्धि है। स्वयं का जो पहला परिचय है। अपने से परिचित होने चलेंगे, तो द्वार पर ही जिससे परिचय होगा, वह बुद्धि है। स्वयं का द्वार बुद्धि है। और स्वयं के इस द्वार में से प्रवेश किए बिना कोई भी न आत्मवान होता है, न ज्ञानवान होता है। यह बुद्धि का द्वार है। लेकिन बुद्धि के द्वार पर हमारी दृष्टि नहीं जाती, क्योंकि बुद्धि से हमेशा हम कर्मों के चुनाव का काम करते रहते हैं।
बुद्धि के दो उपयोग हो सकते हैं। सब दरवाजों के दो उपयोग होते हैं। प्रत्येक दरवाजे के दो उपयोग हैं। होंगे ही। सब दरवाजे इसीलिए बनाए जाते हैं; उनसे बाहर भी जाया जा सकता है, उनसे भीतर भी जाया जा सकता है। दरवाजे का मतलब ही यह होता है कि उससे बाहर भी जाया जा सकता है, उससे भीतर भी जाया जा सकता है। जिससे भी बाहर जा सकते हैं, उससे ही भीतर भी जा सकते हैं। लेकिन हमने अब तक बुद्धि के दरवाजे का एक ही उपयोग किया है--बाहर जाने का। हमने अब तक उसका एक्जिट का उपयोग किया है, एंट्रेंस का उपयोग नहीं किया। जिस दिन आदमी बुद्धि का एंट्रेंस की तरह, प्रवेश की तरह उपयोग करता है, उसी दिन--उसी दिन--जीवन में क्रांति फलित हो जाती है।


अर्जुन भी बुद्धि का उपयोग कर रहा है। ऐसा नहीं कि नहीं कर रहा है; कहना चाहिए, जरूरत से ज्यादा ही कर रहा है। इतना ज्यादा कर रहा है कि कृष्ण को भी उसने दिक्कत में डाला हुआ है। बुद्धि का भलीभांति उपयोग कर रहा है। निर्बुद्धि नहीं है, बुद्धि काफी है। वह काफी बुद्धि ही उसे कठिनाई में डाले हुए है। निर्बुद्धि वहां और भी बहुत हैं, वे परेशान नहीं हैं।
लेकिन बुद्धि का वह एक ही उपयोग जानता है। वह बुद्धि का उपयोग कर रहा है कि यह करूं तो ठीक, कि वह करूं तो ठीक? ऐसा होगा, तो क्या होगा? वैसा होगा, तो क्या होगा? वह बुद्धि का उपयोग कर रहा है बहिर्जगत के संबंध में; वह बुद्धि का उपयोग कर रहा है फलों के लिए; वह बुद्धि का उपयोग कर रहा है कि कल क्या होगा? परसों क्या होगा? संतति कैसी होगी? कुल नाश होगा? क्या होगा? क्या नहीं होगा? वह बुद्धि का सारा उपयोग कर रहा है। सिर्फ एक उपयोग नहीं कर रहा है--भीतर प्रवेश का।
कृष्ण उससे कहते हैं, धनंजय, कर्म के संबंध में ही सोचते रहना बड़ी निकृष्ट उपयोगिता है बुद्धि की। उसके संबंध में भी सोचो, जो कर्म के संबंध में सोच रहा है। कर्म को ही देखते रहना, बाहर ही देखते रहना, बुद्धि का अत्यल्प उपयोग है--निकृष्टतम!
अगर इसे ऐसा कहें कि व्यवहार के लिए ही बुद्धि का उपयोग करना--क्या करना, क्या नहीं करना--बुद्धि की क्षमता का न्यूनतम उपयोग है। और इसलिए हमारी बुद्धि पूरी काम में नहीं आती, क्योंकि उतनी बुद्धि की जरूरत नहीं है। जहां सुई से काम चल जाता है, वहां तलवार की जरूरत ही नहीं पड़ती।
अगर वैज्ञानिक से पूछें, तो वह कहता है कि श्रेष्ठतम मनुष्य भी अपनी बुद्धि के पंद्रह प्रतिशत से ज्यादा का उपयोग नहीं करते हैं; कुल पंद्रह प्रतिशत, वह भी श्रेष्ठतम! श्रेष्ठतम यानी कोई आइंस्टीन या कोई बर्ट्रेंड रसेल। तो जो दुकान पर बैठा है, वह आदमी कितनी करता है? जो दफ्तर में काम कर रहा है, वह आदमी कितनी करता है? जो स्कूल में पढ़ा रहा है, वह आदमी कितना काम करता है बुद्धि से? दो-ढाई परसेंट, इससे ज्यादा नहीं। दो-ढाई परसेंट भी पूरी जिंदगी नहीं करता आदमी उपयोग, केवल अठारह साल की उम्र तक। अठारह साल की उम्र के बाद तो मुश्किल से ही कोई उपयोग करता है। क्योंकि कई बातें बुद्धि सीख लेती है, कामचलाऊ सब बातें बुद्धि सीख लेती है, फिर उन्हीं से काम चलाती रहती है जिंदगीभर।
अठारह साल के बाद मुश्किल से आदमी मिलेगा, जिसकी बुद्धि बढ़ती है। आप कहेंगे, गलत। सत्तर साल के आदमी के पास अठारह साल के आदमी से ज्यादा अनुभव होता है। अनुभव ज्यादा होता है, बुद्धि ज्यादा नहीं होती; अठारह साल की ही बुद्धि होती है। उसी बुद्धि से वह, उसी चम्मच से वह अनुभव को इकट्ठा करता चला जाता है। चम्मच बड़ी नहीं करता; चम्मच वही रहती है; बस उससे अनुभव को इकट्ठा करता चला जाता है। अनुभव का ढेर बढ़ जाता है उसके पास; बाकी चम्मच जो उसकी बुद्धि की होती है, वह अठारह साल वाली ही होती है।
एक और बुद्धि का महत उपयोग है--बुद्धियोग--बुद्धिमानी नहीं, बुद्धिमत्ता नहीं, इंटलेक्चुअलिज्म नहीं, सिर्फ बौद्धिकता नहीं। बुद्धियोग का क्या मतलब है कृष्ण का? बुद्धियोग का मतलब है, जिस दिन हम बुद्धि के द्वार का बाहर के जगत के लिए नहीं, बल्कि स्वयं को जानने की यात्रा के लिए प्रयोग करते हैं। तब सौ प्रतिशत बुद्धि की जरूरत पड़ती है। तब स्वयं-प्रवेश के लिए समस्त बुद्धिमत्ता पुकारी जाती है।
अगर बायोलाजिस्ट से पूछें, तो वह कहता है, आदमी की आधी खोपड़ी बिलकुल बेकाम पड़ी है; आधी खोपड़ी का कोई भी हिस्सा काम नहीं कर रहा है। बड़ी चिंता की बात है जीव-शास्त्र के लिए कि बात क्या है? इसकी शरीर में जरूरत क्या है? यह जो सिर का बड़ा हिस्सा बेकार पड़ा है, कुछ करता ही नहीं; इसको काट भी दें तो चल सकता है; आदमी में कोई फर्क नहीं पड़ेगा; पर यह है क्यों? क्योंकि प्रकृति कुछ भी व्यर्थ तो बनाती नहीं। या तो यह हो सकता है कि पहले कभी आदमी पूरी खोपड़ी का उपयोग करता रहा हो, फिर भूल-चूक हो गई हो कुछ, आधी खोपड़ी के द्वार-दरवाजे बंद हो गए हैं। या यह हो सकता है कि आगे संभावना है कि आदमी के मस्तिष्क में और बहुत कुछ पोटेंशियल है, बीजरूप है, जो सक्रिय हो और काम करे।
दोनों ही बातें थोड़ी दूर तक सच हैं। ऐसे लोग पृथ्वी पर हो चुके हैं, बुद्ध या कृष्ण या कपिल या कणाद, जिन्होंने पूरी-पूरी बुद्धि का उपयोग किया। ऐसे लोग भविष्य में भी होंगे, जो इसका पूरा-पूरा उपयोग करें। लेकिन बाहर के काम के लिए थोड़ी-सी ही बुद्धि से काम चल जाता है। वह न्यूनतम उपयोग है--निकृष्टतम।
अर्जुन को कृष्ण कहते हैं, धनंजय, तू बुद्धियोग को उपलब्ध हो। तू बुद्धि का भीतर जाने के लिए, स्वयं को जानने के लिए, उसे जानने के लिए जो सब चुनावों के बीच में चुनने वाला है, जो सब करने के बीच में करने वाला है, जो सब घटनाओं के बीच में साक्षी है, जो सब घटनाओं के पीछे खड़ा है दूर, देखने वाला द्रष्टा है, उसे तू खोज। और जैसे ही उसे तू खोज लेगा, तू समता को उपलब्ध हो जाएगा। फिर ये बाहर की चिंताएं--ऐसा ठीक, वैसा गलत--तुझे पीड़ित और परेशान नहीं करेंगी। तब तू निश्चिंत भाव से जी सकता है। और वह निश्चिंतता तेरी समता से आएगी, तेरी बेहोशी से नहीं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)
हरिओम सिगंल

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