गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 2 भाग 29

  कामद्वंद्व और शास्त्र से--निष्कामनिर्द्वंद्व और स्वानुभव की ओर—


यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।। ४२।।

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।। ४३।।


हे अर्जुनजो सकामी पुरुष केवल फल श्रुति में प्रीति रखने वालेस्वर्ग को ही परम श्रेष्ठ मानने वालेइससे बढ़कर कुछ नहीं है--ऐसे कहने वाले हैंवे अविवेकीजन जन्मरूप कर्मफल को देने वाली और भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए बहुत-सी क्रियाओं के विस्तार वाली इस प्रकार की जिस दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहते हैं।


भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।। ४४।।


उस वाणी द्वारा हरे हुए चित्त वालेतथा भोग और ऐश्वर्य में आसक्ति वालेउन पुरुषों के अंतःकरण में निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती है।


कर्मयोग की बात करते हुए कृष्ण ने अर्जुन को कहा है कि वे सारे लोगजो सुखकामनाविषय और वासना से उत्प्रेरित हैंजो स्वर्ग से ऊपर जगत में कुछ भी नहीं देख पाते हैंजिनका धार्मिक चिंतनमनन और अध्ययन भी विषय-प्रेरित ही होता हैजो संसार में तो सुख की मांग करते ही हैंजो परलोक में भी सुख की ही मांग किए चले जाते हैंजिनके परलोक की दृष्टि भी वासना का ही विस्तार हैऐसे व्यक्ति निष्काम-कर्म की गहराई को समझने में असमर्थ हैं।

कर्मयोग को अगर एक संक्षिप्त से गणित के सूत्र में कहेंतो कहना होगाकर्म - कामना = कर्मयोग। जहां कर्म से कामना ऋण (घटा) कर दी जाती हैतब जो शेष रह जाता हैवही कर्मयोग है। लेकिन कामना को शेष करने का अर्थ केवल सांसारिक कामना को शेष कर देना नहीं हैकामना मात्र को शेष कर देना है। इस बात को थोड़ा गहरे में समझ लेना जरूरी है।

संसार की कामना को शेष कर देना बहुत कठिन नहीं हैकामना मात्र को शेष करना असली तपश्चर्या है। संसार की कामना तो शेष की जा सकती है। अगर परलोक की कामना का प्रलोभन दिया जाएतो संसार की कामना छोड़ने में कोई भी कठिनाई नहीं है। अगर किसी से कहा जाएइस पृथ्वी पर धन छोड़ोक्योंकि परलोक मेंयहां जो थोड़ा छोड़ता हैबहुत पाता है। तो उस थोड़े को छोड़ना बहुत कठिन नहीं है।  वह सौदा है। हम सभी छोड़ते हैंपाने के लिए हम सभी छोड़ते हैं। पाने के लिए कुछ भी छोड़ा जा सकता है।

लेकिन पाने के लिए जो छोड़ना हैवह निष्काम नहीं है। वह पाना चाहे परलोक में होवह पाना चाहे भविष्य में होवह पाना चाहे धर्म के सिक्कों में होइससे बहुत फर्क नहीं पड़ता है। पाने की आकांक्षा को आधार बनाकर जो छोड़ना हैवही कामना हैवही कामग्रस्त चित्त है। वैसा चित्त कर्मयोग को उपलब्ध नहीं होता।

यहां कहा जाए पृथ्वी पर स्त्रियों को छोड़ दोक्योंकि स्वर्ग में अप्सराएं उपलब्ध हैंयहां कहा जाए पृथ्वी पर शराब छोड़ दोक्योंकि बहिश्त में शराब के चश्मे बह रहे हैंतो इस छोड़ने में कोई भी छोड़ना नहीं है। यह केवल कामना को नए रूप मेंनए लोक मेंनए आयाम में पुनः पकड़ लेना है। यह प्रलोभन ही है।

इसलिए जो व्यक्ति भीकहीं भीकिसी भी रूप में पाने की आकांक्षा से कुछ करता हैवह कर्मयोग को उपलब्ध नहीं हो सकता है। क्योंकि कर्मयोग का मौलिक आधारकामनारहितफल की कामनारहित कर्म है। कठिन है बहुत। क्योंकि साधारणतः हम सोचेंगे कि फिर कर्म होगा ही कैसेहम तो कर्म करते ही इसलिए हैं कि कुछ पाने को हैकोई लक्ष्यकोई फल। हम तो चलते ही इसलिए हैं कि कहीं पहुंचने को है। हम तो श्वास भी इसीलिए लेते हैं कि पीछे कुछ होने को है। अगर पता चले कि नहींआगे की कोई कामना नहींतब तो फिर हम हिलेंगे भी नहींकरेंगे भी नहीं। कर्म होगा कैसे?

गीता के संबंध में और कृष्ण के संदेश के संबंध में जिन लोगों ने भी चिंतन किया हैउनके लिए जो बड़े से बड़ा मनोवैज्ञानिक सवाल हैउलझाव हैवह यही है कि कृष्ण कहते हैंकर्म वासनारहितकामनारहित! तो कर्म होगा कैसेक्योंकि कर्म का मोटिवेशनकर्म की प्रेरणा कहां से उत्पन्न होती हैकर्म की प्रेरणा तो कामना से ही उत्पन्न होती है। कुछ हम चाहते हैंइसलिए कुछ हम करते हैं। चाह पहलेकरना पीछे। विषय पहलेकर्म पीछे। आकांक्षा पहलेफिर छाया की तरह हमारा कर्म आता है। अगर हम छोड़ दें चाहनाडिजायरइच्छाविषयतो कर्म आएगा कैसेमोटिवेशन नहीं होगा।

अगर हम पश्चिम के मनोविज्ञान से भी पूछें--जो कि मोटिवेशन पर बहुत काम कर रहा है--कर्म की प्रेरणा क्या हैतो पश्चिम के पूरे मनोवैज्ञानिक एक स्वर से कहते हैं कि बिना कामना के कर्म नहीं हो सकता है।

कृष्ण का मनोविज्ञान आधुनिक मनोविज्ञान से बिलकुल उलटी बात कह रहा है। वे यह कह रहे हैं कि कर्म जब तक कामना से बंधा हैतब तक सिवाय दुख और अंधकार के कहीं भी नहीं ले जाता है। जिस दिन कर्म कामना से मुक्त होता है--परलोक की कामना से भीस्वर्ग की कामना से भी--जिस दिन कर्म शुद्ध होता हैप्योर एक्ट हो जाता हैजिसमें कोई चाह की जरा भी अशुद्धि नहीं होतीउस दिन ही कर्म निष्काम है और योग बन जाता है।

और वैसा कर्म स्वयं में मुक्ति है। वैसे कर्म के लिए किसी मोक्ष की आगे कोई जरूरत नहीं है। वैसे कर्म का कोई मोक्ष भविष्य में नहीं है। वैसा कर्म अभी और यहीं मुक्ति है। वैसा कर्म मुक्ति है। वैसे कर्म का मुक्ति फल नहीं हैवैसे कर्म की निजता ही मुक्ति है।

इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी हैक्योंकि आगे बार-बारउसके इर्द-गिर्द बात घूमेगी। और कृष्ण के संदेश की बुनियाद में वह बात छिपी है। क्या कर्म हो सकता है बिना कामना केक्या बिना चाह के हम कुछ कर सकते हैंतो फिर प्रेरणा कहां से उपलब्ध होगीवह स्रोत कहां से आएगावह शक्ति कहां से आएगीजो हमें खींचे और कर्म में संयुक्त करे?

जिस जगत में हम जीते हैं और जिस कर्मों के जाल से हम अब तक परिचित रहे हैंउसमें शायद ही एकाध ऐसा कर्म हो जो अनमोटिवेटेड हो--शायद ही। अगर कभी ऐसा कोई कर्म भी दिखाई पड़ता होजो अनमोटिवेटेड मालूम होता हैजिसमें आगे कोई मोटिवजिसमें आगे कोई पाने की आकांक्षा नहीं होतीउसमें भी थोड़ा भीतर खोजेंगेतो मिल जाएगी।

रास्ते पर आप चल रहे हैं। आपके आगे कोई हैउसका छाता गिर गया। आप उठाकर दे देते हैं--अनमोटिवेटेड। उठाते वक्त आप यह भी नहीं सोचते कि क्या फलक्या उपलब्धिक्या मिलेगानहींयह सोच नहीं होता। छाता गिराआपने उठायादे दिया। दिखाई पड़ता हैअनमोटिवेटेड है। क्योंकि न घर से सोचकर चले थे कि किसी का छाता गिरेगातो उठाएंगे। छाता गिराउसके एक क्षण पहले तक छाता उठाने की कोई भी योजना मन में न थी। छाता गिरने और छाता उठाने के बीच भी कोई चाह दिखाई नहीं पड़ती है।

लेकिन फिर भीमनोविज्ञान कहेगाअनकांशस मोटिवेशन है। अगर छाता देने के बाद वह आदमी धन्यवाद न देतो दुख होगा। छाता दबा ले और चल पड़ेतो आप चौकन्ने से खड़े रह जाएंगे कि कैसा आदमी हैधन्यवाद भी नहीं! अगर पीछे इतना भी स्मरण आता है कि कैसा आदमी हैधन्यवाद भी नहीं! तो मोटिवेशन हो गया। सचेतन नहीं थाआपने सोचा नहीं थालेकिन मन के किसी गहरे तल पर छिपा था। अब पीछे से हम कह सकते हैं कि धन्यवाद पाने के लिए छाता उठायाआप कहेंगेनहींधन्यवाद का तो कोई विचार ही न थायह तो पीछे पता चला।

लेकिन जो नहीं थावह पीछे भी पता नहीं चल सकता है। जो बीज में न छिपा होवह प्रकट भी नहीं हो सकता है। जो अव्यक्त न रहा होवह व्यक्त भी नहीं हो सकता है। कहीं छिपा थाकिसी अनकांशसकिसी अचेतन के तल पर दबा थाराह देखता था। नहींसचेतन कोई कामना नहीं थीलेकिन अचेतन कामना थी।

जीवन में ऐसे कुछ क्षण हमें मालूम पड़ते हैंजहां लगता हैअनमोटिवेटेडनिष्काम कोई कृत्य घटित हो गया है। लेकिन उसे भी पीछे से लौटकर देखेंतो लगता हैकामना कहीं छिपी थी। इसलिए पश्चिम का मनोविज्ञान कहेगा कि चाहे दिखाई पड़े और चाहे न दिखाई पड़ेजहां भी कर्म हैवहां कामना हैइतना ही फर्क हो सकता है कि वह चेतन है या अचेतन है।

लेकिन कृष्ण कहते हैंऐसा कर्म हो सकता हैजहां कामना नहीं हो। यह वक्तव्य बहुत महत्वपूर्ण है। इसे समझने के लिए दो-चार ओर से हम यात्रा करेंगे।  क्योंकि जो हमारी जिंदगी में परिचित नहीं हैउसे हमें किसी और की जिंदगी में झांकना पड़े। और हमारी जिंदगी ही इति नहीं है। हमें किसी और जिंदगी में झांकना पड़ेदेखना पड़े कि क्या यह संभव हैइज़ इट पासिबलपहले तो यही देख लें कि क्या यह संभव हैअगर संभावना दिखाई पड़ेतो शायद कल सत्य भी हो सकती है।

दिन में जो आदमी एक कृत्य भी अनमोटिवेटेड कर लेवह कृष्ण की गीता को समझ पा सकता है। एक कृत्य भी चौबीस घंटे में अनमोटिवेटेड कर लेजिसमें कि कुछ न होचेतन-अचेतन कोई मांग न हो--बस किया और हट गए और चले गए--तो कृष्ण की गीता कोऔर कृष्ण के कर्मयोग को समझने का मार्ग खुल जाएगा। रोज गीता न पढ़ेंचलेगा। लेकिन एक कृत्य चौबीस घंटे में ऐसा कर लिया जाएजिसमें हमारी कोई भी कामना नहीं हैबसजिसमें करना ही पर्याप्त है और हम बाहर हो गए और चल पड़े।

कठिन नहीं है। अगर थोड़ी खोज-बीन करेंतो बहुत कठिन नहीं है। छोटी-छोटीछोटी-छोटी घटनाओं में उसकी झलक मिल सकती है।


और यह जो कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैंवह पूरा का पूरा प्रयोगात्मक है। होगा ही। यह कोई गुरुकुल में बैठकरकिसी वृक्ष के तलेकिसी आश्रम में हुई चर्चा नहीं है। यह युद्ध के स्थल परजहां सघन कर्म प्रतीक्षा कर रहा हैवहां हुई चर्चा है। यह चर्चा किसी शांत वट-वृक्ष के नीचे बैठकर कोई तत्व-चर्चा नहीं हैयह कोरी तत्व-चर्चा नहीं है। यह सघन कर्म के बीचठीक युद्ध के क्षण में--युद्ध से ज्यादा सघन कृत्य और क्या होगा--वहां हुई यह चर्चा है। और अर्जुन से कृष्ण कह रहे हैं कि अगर स्वर्ग तक की भी कामना मन में है--किसी भी विषय की--तो सब व्यर्थ हो जाता है।

कर्मयोग का सारकर्म ऋण कामना है। काम से कामना गई...।

हमने तो काम शब्द ही रखा हुआ है कर्म के लिए। क्योंकि काम कामना से ही बनता है। हम तो कहते हैंकाम वही हैजो कामना से चलता है।

लेकिन कृष्ण कहते हैंकाम से अगर कामना घट जाए तो कर्मयोग। तो फिर साधारण कर्म नहीं रह जाता है वहयोग बन जाता है। और योग बन जाएतो न पाप हैन पुण्य हैन बंधन हैन मुक्ति है--दोनों के बाहर है व्यक्ति।
(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन) 
हरिओम सिगंल

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