गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 5 भाग 15

  तीन सूत्र--आत्म-ज्ञान के लिए



ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।। 16।।


परंतु जिनका वह अंतःकरण का अज्ञान, आत्मज्ञान द्वारा नाश हो गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानंदघन परमात्मा को प्रकाशता है।



जगत एक रहस्य है। रहस्य इसलिए कि इस जगत में अंधकार, जो कि नहीं है, प्रकाश को ढंक लेता है, जो कि है। इस जगत में मृत्यु, जो कि नहीं है, जीवन को धोखा दे देती है, कि है।

जीवन है, और मृत्यु नहीं है। प्रकाश है, और अंधकार नहीं है। फिर भी, अंधकार प्रकाश को ढंके हुए मालूम पड़ता है। फिर भी रोज-रोज जीवन मरता हुआ दिखाई पड़ता है। इसलिए कहता हूं, जीवन एक रहस्य, एक मिस्ट्री है। और उस रहस्य का मूल इसी पहेली में है।



रोज देखते हैं अंधेरे को आप। कभी सोचा भी नहीं होगा कि अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं है। अंधेरा एक्झिस्टेंशियल नहीं है। फिर भी होता है। रास्ता भटक जाते हैं अंधेरे में। गङ्ढे में गिर सकते हैं अंधेरे में। चोर लूट ले सकते हैं अंधेरे में। छुरा भोंका जा सकता है अंधेरे में। अंधेरे में सब कुछ हो सकता है--और अंधेरा नहीं है! टकरा सकते हैं, सिर फूट सकता है--और अंधेरा नहीं है। पर अंधेरे में यह सब हो सकता है।

जब मैं कहता हूं, अंधेरा नहीं है, तो थोड़ा ठीक से समझ लें।

प्रकाश तो है, इसलिए प्रकाश को बुझा सकते हैं, जला सकते हैं। लेकिन अंधेरे को बुझा भी नहीं सकते, जला भी नहीं सकते। चाहें कि दुश्मन के घर पर अंधेरा फेंक दें, तो फेंक भी नहीं सकते। कभी आपने सोचा है कि अंधेरे के साथ कुछ भी करना संभव नहीं है!

और जब रात आप चाहते हैं कि कमरे में अंधेरा भर जाए, तो आप अंधेरे को नहीं बुलाते, केवल प्रकाश को बुझाते हैं। प्रकाश बुझा नहीं कि अंधेरा है। और जब सुबह आप अंधेरे को अलग करना चाहते हैं, या रात अंधेरे को अलग करना चाहते हैं, तो अंधेरे को धक्का नहीं देते, प्रकाश को जलाते हैं। और प्रकाश जला कि अंधेरा नहीं है।

अंधेरा सिर्फ प्रकाश की अनुपस्थिति है, गैर-मौजूदगी है, एब्सेंस है। अंधेरे का अपना कोई विधायक अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व तो प्रकाश का है। या प्रकाश का अस्तित्व नहीं है। जहां प्रकाश नहीं है, वहां अंधेरा मालूम पड़ता है। अंधेरा कोई वस्तु नहीं है। अंधेरे में कोई थिंगहुड, कोई वस्तुगत पदार्थ अंधेरे में नहीं है। फिर भी अंधेरा है तो।

ठीक ऐसे ही आत्म-ज्ञान है। और आत्म-अज्ञान का कोई अस्तित्व नहीं है। लेकिन फिर भी आत्म-अज्ञान से हम भरे हुए हैं। और आत्म-अज्ञान में चिंतित हैं, पीड़ित हैं, परेशान हैं, दुखी हैं, नर्क भोग रहे हैं। जब कि आत्म-अज्ञान का वैसा ही कोई अस्तित्व नहीं है, जैसे अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं है।

आत्मा स्वयं ज्ञान है, इसलिए आत्म-अज्ञान का कोई अस्तित्व हो नहीं सकता। आत्मा ही ज्ञान है। ज्ञान आत्मा का आंतरिक स्वभाव है। इसलिए आत्मा बिना ज्ञान के कभी हो नहीं सकती। और अगर आत्मा बिना ज्ञान के होगी, तो पदार्थ में और आत्मा में फर्क क्या होगा? आत्मा का अर्थ ही यह है कि जो ज्ञान है। आत्मा कभी भी ज्ञान के बिना नहीं हो सकती। ज्ञान और आत्मा पर्यायवाची हैं, सिनानिम। एक ही मतलब है दोनों बात का।

फिर आत्म-अज्ञान का क्या मतलब होगा? ये शब्द तो विरोधी हैं! आत्म-अज्ञान हो ही नहीं सकता। जहां आत्मा है, वहां अज्ञान कैसे होगा? क्योंकि आत्मा ज्ञान है। लेकिन फिर भी आत्म-अज्ञान है। क्या, हुआ क्या है? जो ज्ञान है आत्मा, वह किस चीज से ढंक गई है?

कृष्ण कहते हैं, संसार माया से ढंका; आत्मा आत्म-अज्ञान से ढंकी; ज्ञान अविद्या से ढंका।

क्या इसका अर्थ है? क्या समझें इससे?

इससे सिर्फ एक बात समझ लेने जैसी है। आत्मा तो ज्ञान है, लेकिन ज्ञान यदि चाहे तो सो सकता है; ज्ञान यदि चाहे तो जाग सकता है। सोया हुआ ज्ञान भी ज्ञान है; जागा हुआ ज्ञान भी ज्ञान है। लेकिन सोए हुए ज्ञान के चारों तरफ अज्ञान इकट्ठा हो जाता है। सोया हुआ ज्ञान ऐसे है, जैसे कि आपके खीसे में लाइटर पड़ा हुआ है अनजला; जलने की पूरी क्षमता लिए हुए है। माचिस की काड़ी रखी है अनजली, प्रज्वलित होने को किसी भी क्षण तत्पर। आग छिपी है, सोई है। चारों तरफ अंधेरा है, माचिस रखी है। चारों तरफ अंधेरा है। माचिस से कोई रोशनी निकलती नहीं है। लेकिन माचिस से रोशनी निकल सकती है। और जब निकलती है, तब अंधेरा टूट जाता है। और जब निकलती है, तो इसका यह मतलब नहीं कि आसमान से आ गई। माचिस में थी, तो ही निकली, अन्यथा निकल न सकती। फिर क्या, फर्क क्या है?

आत्म-अज्ञान और आत्म-ज्ञान में फर्क? आत्म-अज्ञान और आत्म-ज्ञान सिर्फ नींद के और जागने का फर्क है। इसलिए हम बुद्ध को कहते हैं, बुद्ध। नाम उनका नहीं है। नाम तो उनका था, सिद्धार्थ गौतम। बुद्ध का मतलब होता है, दि अवेकंड, जो जाग गया। गौतम सिद्धार्थ को हम कहते हैं, बुद्ध। इसलिए कहते हैं कि जो जाग गया। महावीर को हम कहते हैं, जिन। जिन का अर्थ है, जिसने अपने को जीत लिया।

जागना जीतना बन जाता है और सोना हार बन जाती है। जागने में विजय है और निद्रा में पराजय है। बड़ी से बड़ी शक्ति भी सोई हो, तो छोटी से छोटी शक्ति से पराजित हो जाती है। एक पहलवान सोया हो, एक छोटा बच्चा उसकी छाती में छुरा भोंक सकता है। एक हाथी सोया हो, एक छोटी-सी चींटी उसकी नाक में चली जाए, तो मौत हो सकती है।

आत्मा बड़ी विराट शक्ति है, बड़ी प्रज्वलित अग्नि है। लेकिन सोई हो, तो क्रोध जैसी ना-कुछ चीज हावी हो जाती है। काम जैसी ना-कुछ शक्ति हावी हो जाती है। अंधेरा जो बिलकुल नहीं है, घेर लेता है उसको, जो बहुत है, गहरे में है, सदा है, कभी खोती नहीं है। विराट से विराट शक्ति सोई हो, तो क्षुद्र से क्षुद्र शक्ति से हार जाती है।

हमारी हार हमारी नींद है। हमारा आत्म-अज्ञान हमारी तंद्रा है, स्लीपीनेस। हम सब नींद में चलते हुए लोग हैं। इसलिए आत्मा, जो कि कभी अज्ञानी नहीं है, वह भी अज्ञान से ढंकी हुई है। दीया है बुझा हुआ, सोया हुआ। तेल भी है, बाती भी है, माचिस भी है, आग भी जल सकती है। पर सब अंधकार है।

आदमी में वह सब मौजूद है, जो रोशनी बन जाए। सब मौजूद है। कोई भी कमी नहीं। परमात्मा प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण ही भेजता है। और हम सब अपूर्ण जीते हैं और अपूर्ण ही मरते हैं। बल्कि और हैरानी की बात है, जितने पूर्ण पैदा होते हैं, उससे भी ज्यादा अपूर्ण होकर मरते हैं। बच्चा जो संपदा लेकर आता है, बूढ़ा उसे भी गंवाकर विदा हो जाता है। क्या होता है?

हमारी नींद और गहरी होती चली जाती है। जीवन में हमारी तंद्रा और बढ़ती चली जाती है। बचपन में हम जितने होश में होते हैं, जवानी में उतने होश में नहीं होते। जवानी में बड़ी तंद्रा पकड़ लेती है। वह तंद्रा है काम की, सेक्स की। मूर्च्छा है, वासना है, वह पकड़ लेती है।

बुढ़ापे में हम और भी डूब जाते हैं। बुढ़ापे में कौन सी तंद्रा पकड़ती है? जवानी में कामवासना गहरा अंधकार बनकर व्यक्ति को पकड़ लेती है। फिर वह जो भी करता है, उसी वासना के लिए करता है। धन कमाए, पद कमाए, यश कमाए, वह सब समर्पित है काम के लिए, सेक्स के लिए, वासना के लिए।

जवानी में आदमी काम की तंद्रा में डूबा और सोया रहता है। बुढ़ापे में काम तो विदा हो जाता है, क्योंकि इंद्रियां शिथिल होने लगती हैं। शरीर मरने के करीब आने लगता है। इसलिए बुढ़ापे में जीवन का मोह पकड़ता है; लस्ट फार लाइफ पकड़ती है। जीवेषणा पकड़ती है कि मैं मर न जाऊं; मैं बचा रहूं; मैं किसी भी तरह बचा रहूं।

इसलिए बूढ़ा आदमी, जिस तरह जवान आदमी दूसरे को जन्म देने के लिए लालायित होता है, बूढ़ा आदमी अपने को बचाने के लिए लालायित रहता है। दूसरे को जन्म देने की वासना काम बन जाती है; और अपने को बचाने की वासना लोभ बन जाती है। जवानी की बीमारी, काम; बुढ़ापे की बीमारी, लोभ। और अगर बूढ़ा आदमी किसी जवान को समझाता भी है कि काम से बचो, तो जो कारण बताता है, वे लोभ के होते हैं--कि बर्बाद हो जाएगा; धन खो जाएगा; स्वास्थ्य खो जाएगा। जो भी कारण बूढ़े आदमी देते हैं जवानों को, वह लोभ उनके पीछे बुनियाद होती है। काम है पीड़ा, जवानी का अंधकार; और लोभ है, बुढ़ापे की पीड़ा। बूढ़ा आदमी लोभी से लोभी होता चला जाता है।


करीब-करीब जिंदगी ऐसी ही बीतती है। बचपन बड़ी आशाओं से भरा हुआ है। बड़ी आशाओं से भरा हुआ है, सब मिल जाएगा। बड़े कल्पना के फूल और सपनों के गीत। और फिर जवानी आती है। और तब एक-एक चीज डिसइलूजन होने लगती है, एक-एक चीज का भ्रम टूटने लगता है। बुढ़ापा आने के पहले-पहले आदमी की सारी इंद्रियां गूंगी और बहरी हो जाती हैं। फिर बेहोशी और तंद्रा पकड़नी शुरू कर देती है। मरने के पहले अधिकतम लोग पैरालाइज्ड हो जाते हैं, पैरालाइज्ड सब अर्थों में। बहुत गहरे अर्थों में लकवा लग जाता है।

मरने के बहुत पहले बहुत लोग मर जाते हैं। मरने तक जिंदा रहने वाले बहुत कम लोग हैं जमीन पर। मरने तक जिंदा रहने वाले बहुत कम लोग हैं, मरने के बहुत पहले मर जाते हैं! कुछ लोग तीस साल की उम्र में मर जाते हैं, कुछ लोग चालीस साल की उम्र में। यह बात दूसरी है कि दफनाया जाता है कोई सत्तर साल में, कोई अस्सी साल में। दफनाने में और मरने में अक्सर फासला होता है। और जो आदमी मरने तक जिंदा है--उतना ही ताजा, जैसा बचपन में ताजा था, उतना ही प्रफुल्लित--उसे मौत भी न मार पाएगी। मौत आकर गुजर जाएगी और वह मौत के पार भी जिंदा खड़ा रह जाएगा।

लेकिन नींद रोज बढ़ती है। ठीक सुबह जब हम उठते हैं, तो ताजे होते हैं; दोपहर थक गए होते हैं, तंद्रा उतरनी शुरू हो जाती है; सांझ थक जाते हैं, गिर जाते हैं, सो जाते हैं। हर बार, हर जिंदगी में यही सुबह, यही दोपहर, यही सांझ। अंतहीन यही चलता है। बचपन, जवानी, बुढ़ापा; फिर डूबा सूरज; फिर गिर गए बेहोश होकर मिट्टी में। फिर उठेंगे; फिर गिरेंगे। और इस नींद से जागने का हमें कोई खयाल नहीं आता।

कृष्ण कहते हैं, जो जाग जाता है, उसकी आत्मा का ज्ञान अभिव्यक्त हो उठता है; आत्म-अज्ञान गिर जाता है। और ऐसा व्यक्ति ही केवल इस अस्तित्व में परमात्मा को देख पा सकता है। ऐसे ही व्यक्ति को केवल परमात्मा का अनुभव हो सकता है।

सोए हुए आदमी को अपना ही अनुभव नहीं होता, परमात्मा का अनुभव तो बहुत दूर की बात है। नींद में दबे हुए आदमी को अपना ही पता नहीं, परमात्मा का पता तो बहुत कठिन है। लेकिन बहुत लोग हैं, जिन्हें अपना पता नहीं और जो परमात्मा को खोजने निकल जाते हैं। उनकी खोज कभी पूरी नहीं होगी।

आत्म-ज्ञान परमात्म-ज्ञान का द्वार है। और जिसे स्वयं का पता चल गया, दूर नहीं है परमात्मा अब; अब बिलकुल निकट है। अब दर्पण तो मिल ही गया; अब परमात्मा की झलक को पकड़ लेना कठिन नहीं है; पकड़ ही जाएगी। परमात्मा तो सब तरफ मौजूद है। एक दफा हृदय का दर्पण साफ, स्वच्छ...।

अंतःकरण शुद्ध हो जिसका, कृष्ण कहते हैं। शुद्ध और साफ--परमात्मा की झलक पकड़नी शुरू हो जाती है। और फिर ऐसा नहीं है कि उसे देखने कहीं बद्री-केदार या काबा या मक्का या जेरूसलम जाना पड़ता है। जहां हैं आप, वहीं उसकी तस्वीर है। जो भी आप देखते हैं, उसमें वही है। न देखें, आंख बंद कर लें, तो भी वही है। सो जाएं, तो बाहर से शरीर ही सोता है फिर। भीतर तो वह जागकर जानता ही रहता है, देखता ही रहता है। हम जागकर भी सोते हैं, आत्म-ज्ञानी सोया हुआ भी जागता ही रहता है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, आत्म-अज्ञान की जो तंद्रा है, जिसने घेर लिया है, उसे हटा देना पड़े, तोड़ देना पड़े।

कैसे तोड़ें उसे? अगर अंधेरे को हटाना हो, तो क्या करें? अंधेरे को काटें तलवार लाकर? नहीं कटेगा। होता तो कट जाता। अंधेरा नहीं कटेगा तलवार से। दीए को जलाएं; दीए की ज्योति को बड़ा करें। अगर आत्म-अज्ञान मिटाना है, तो आत्म-अज्ञान की फिक्र ही न करें। आत्म-ज्ञान को जगाएं और बढ़ाएं। किन चीजों से आत्म-ज्ञान बढ़ता है?


एक, दोत्तीन सूत्र आपसे कहना चाहूंगा। एक--संकल्प, विल। जिस व्यक्ति को भी आत्म-ज्ञान की ज्योति को जगाना है, उसे संकल्प के सूत्र को पकड़ लेना चाहिए। संकल्प तेल है, उसके बिना दीया नहीं जलेगा भीतर का। संकल्प के बिना आत्म-ज्ञान का दीया नहीं जलेगा। और संकल्प हममें बिलकुल भी नहीं है। है ही नहीं।

इतनी संकल्पहीनता! इतनी कमजोरी! इतना मन हीन, इतना दीन कि कोई क्या कहेगा! इतनी परतंत्रता कि लोग क्या कहेंगे इस पर! तो फिर आत्मा को जगाना बहुत कठिन हो जाएगा। बहुत कठिन हो जाएगा। यह तो बड़ी छोटी-सी बात है। कपड़े तो आपकी मौज है अपनी। इतनी भी स्वतंत्रता नहीं मनुष्य को कि कपड़े खुद पहन ले जो उसे पहनने हैं? इसके लिए भी दूसरे से पूछने जाना पड़ेगा? तो फिर आप हैं या नहीं? और बड़े मजे की बात यह है कि जिनसे आप डर रहे हैं, वे आपसे डर रहे हैं। जिनसे आप डर रहे हैं, वे आपसे डर रहे हैं!

नहीं; ऐसे आत्मा पैदा न होगी। संकल्प का पहला लक्षण यह है कि मुझे जो ठीक लगता है, वह मैं करूंगा। जो मुझे गलत लगता है, वह मैं नहीं करूंगा। चाहे सारी दुनिया कहती हो, करो, तो नहीं करूंगा। और जो मुझे ठीक लगता है, वह मैं करूंगा; चाहे सारी दुनिया कहती हो कि मत करो, तो भी मैं करूंगा।

इस जगत में केवल उन्हीं लोगों की आत्माएं विकसित होती हैं, जो भीड़ के व्यर्थ भय से मुक्त हो जाते हैं।

संकल्प पहला सूत्र है आत्म-ज्ञान को बढ़ाने के लिए, विल पावर।

दूसरा सूत्र है, साहस। हम रोज टालते रहते हैं। रोज टालते रहते हैं, कल करेंगे, परसों करेंगे। सोचते हैं, अभी ठीक समय नहीं आया। असली बात दूसरी होती है। साहस नहीं जुटा पाते हैं, तो अपने को धोखा देते हैं। यह भी समझने की तैयारी नहीं होती कि मैं दुस्साहसी नहीं हूं, साहसी नहीं हूं; कमजोर हूं। यह भी कोई समझ ले, तो मैं कहता हूं, बड़ा साहस है। जो आदमी यह समझ ले कि मैं साहसी नहीं हूं, उसने भी बहुत बड़ा साहस किया। लेकिन हम अपने को साहसी भी समझे जाते हैं और कल पर छोड़े जाते हैं; कल करेंगे, परसों करेंगे। इस आशा में कि नहीं, कर तो हम सकते ही हैं; कल कर लेंगे, परसों कर लेंगे। पोस्टपोनमेंट करते जाते हैं।

साहस का मतलब है, जो ठीक लगे, उसे अभी और आज और यहीं करना शुरू कर देना, क्योंकि कल का कोई भी भरोसा नहीं है। कल आएगा भी, इसका भी कुछ पक्का नहीं है। और साहस का मतलब इतना ही नहीं होता है कि अंधेरे में आप चले जाते हैं, तो बड़े साहसी हैं। साहस का मतलब यह भी नहीं होता है कि किसी से जूझ जाते हैं, लड़ जाते हैं, तो बड़े साहसी हैं। साहस का गहरा आध्यात्मिक अर्थ होता है, अज्ञात में छलांग, अननोन में उतर जाने का साहस।

जो जाना-माना है, उसमें तो हम बड़े मजे से चले जाते हैं। अज्ञात, अननोन में नहीं जा पाते। और ध्यान रहे, परमात्मा अज्ञात है। और ध्यान रहे, आत्मा बिलकुल अज्ञात है, अननोन है। अनजान मार्ग है। अनजान राह है। अपरिचित सागर है। नक्शा पास में नहीं। अकेले जाना है। साथ कोई जा नहीं सकता।

ध्यान रहे, साहस का यह भी मतलब है, अकेले होने की हिम्मत। क्योंकि बाहर तो हम सबके साथ हो सकते हैं, भीतर हमें अकेला ही होना पड़ेगा।

अगर इतना साहस नहीं है अकेले होने का, तो आप कभी भी आत्म-ज्ञान को उपलब्ध न हो सकेंगे। क्योंकि आत्म-ज्ञान में कंपनी, साथी-संगी नहीं हो सकते। अकेले ही होना पड़ेगा। जो आदमी कहता है कि हम तो अकेले न हो सकेंगे, कोई न कोई साथ चाहिए, वह सारी दुनिया की यात्रा कर सकता है, चांद पर भी जा सकता है, कल मंगल पर भी चला जाएगा, लेकिन अपने भीतर नहीं जा सकेगा। क्योंकि वहां अकेले ही जाया जा सकता है, दूसरे के साथ का कोई उपाय नहीं है। साहस का यही अर्थ है।

और तीसरी बात। जो लोग जिंदगी की क्षुद्रतम, अति क्षुद्रतम बातों में ऊर्जा को गंवाते रहते हैं, वे कभी भी आत्म-ज्ञान को उपलब्ध न हो सकेंगे। पहला सूत्र, संकल्प; दूसरा सूत्र, साहस; और तीसरा सूत्र, संयम

जो लोग जीवन की ऊर्जा को व्यर्थ गंवाते रहते हैं, दिन में इतना गंवा देते हैं कि उनके पास कुछ बचता नहीं कि उस शक्ति पर सवार होकर भीतर जा सकें। जिस दीए में छेद हो, और तेल टपक जाता हो। जिस नाव में छेद हो, और पानी भर जाता हो। जिस बाल्टी में छेद हो, और कुएं में डालकर पानी खींचना चाहते हों। वैसी फिर आपकी हालत है। चौबीस घंटे गंवाते हैं। फिर इतना बचता नहीं!

हम ध्यान को बैठते हैं, तो नींद आ जाती है। आ ही जाएगी। ताकत भी तो बचनी चाहिए थोड़ी-बहुत। लास्ट आइटम समझा हुआ है ध्यान को! जब सब कर चुके, सब तरह की बेवकूफियां निपटा चुके--लड़ चुके, झगड़ चुके, क्रोध कर चुके; प्रेम-घृणा, मित्रता-शत्रुता--सब कर चुके, कौड़ी-कौड़ी पर सब गंवा चुके। जब कुछ भी नहीं बचता करने को, रद्दी में दो पैसे का खरीदा हुआ अखबार भी दिन में दस दफे चढ़ चुके। रेडियो का नाब कई दफा खोल चुके, बंद कर चुके। वही बकवास पत्नी से, बेटे से, जो हजार दफा हो चुकी है, कर चुके। जब कुछ भी नहीं बचता है करने को, तब एक आदमी सोचता है कि चलो, अब ध्यान कर लें। तब वह आंख बंद करके बैठ जाता है!

इतनी इंपोटेंस से, इतने शक्ति-दौर्बल्य से कभी ध्यान नहीं होने वाला है। भीतर आप नहीं जाएंगे, नींद में चले जाएंगे। शक्ति चाहिए भीतर की यात्रा के लिए भी। इसलिए आत्म-ज्ञान की तरफ जाने वाले व्यक्ति को समझना चाहिए, एक-एक कण शक्ति का मूल्य चुका रहे हैं आप, और बहुत महंगा मूल्य चुका रहे हैं।

जब एक आदमी किसी पर क्रोध से भरकर आग से भर जाता है, तब उसे पता नहीं कि वह क्या गंवा रहा है! उसे कुछ भी पता नहीं कि वह क्या खो रहा है! इतनी शक्ति पर, जिसमें उसने सिर्फ चार गालियां फेंकीं, इतनी शक्ति को लेकर तो वह गहरे ध्यान में कूद सकता था।

एक आदमी ताश खेलकर क्या गंवा रहा है, उसे पता नहीं। एक आदमी शतरंज के घोड़ों पर, हाथियों पर लगा हुआ है। वह क्या गंवा रहा है, उसे पता नहीं। एक आदमी सिगरेट पीकर धुआं निकाल रहा है बाहर-भीतर। वह क्या गंवा रहा है, उसे पता नहीं। इतनी शक्ति से तो भीतर की यात्रा हो सकती थी।

और ध्यान रहे, बूंद-बूंद चुककर सागर चुक जाते हैं। और आदमी के पास, इस शरीर के कारण, सीमित शक्ति है। जीवन बहुत जल्दी रिक्त हो जाता है।

तीन सूत्र आपसे कहता हूं। इन तीन सूत्रों का यदि खयाल रहे--संकल्प, विल; साहस, करेज; संयम, कंजरवेशन--अगर ये तीन सूत्र खयाल में रह जाएं,  तो आपका आत्म-ज्ञान भभककर जल सकता है। और उस क्षण में आत्म-अज्ञान विलीन हो जाता है। और जो जानता है स्वयं को...।

ये तीन सूत्र खयाल में हों, तो आत्म-अज्ञान कट जाता है। जो शेष रह जाता है, वह आत्म-ज्ञान की ज्योति है। उस ज्योति की निर्मलता में, उस ज्योति के दर्पण में ही प्रभु की छवि पकड़ी जाती है, वही कृष्ण इस सूत्र में कहे हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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