गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 3 भाग 30

 


 इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते। एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।। ४०।।


तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।          पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।। ४१।।


इंद्रियां, मन (और) बुद्धि इसके वासस्थान कहे जाते हैं (और) यह (काम) इनके द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके (इस) जीवात्मा को मोहित करता है।

इसलिए, हे अर्जुन! तू पहले इंद्रियों को वश में करके ज्ञान और विज्ञान को नाश करने वाले इस (काम) पापी को निश्चयपूर्वक मार



कृष्ण कहते हैं, अर्जुन! इंद्रियां, मन, यही काम के, वासना के मूल स्रोत हैं। इन्हीं के द्वारा वासना का सम्मोहन उठता है और जीवात्मा को घेर लेता है। यही हैं स्रोत, जहां से विषाक्त झरने फैलते हैं और जीवन को भटका जाते हैं। तू पहले इन पर वश को उपलब्ध हो, तू इन्हें मार डाल। कृष्ण सख्त से सख्त शब्द का उपयोग करते हैं। वे कहते हैं, तू इन्हें मार डाल, तू इन्हें समाप्त कर दे।

इस शब्द के कारण बड़ी भ्रांति पैदा हुई है। इंद्रियों को, मन को मार डाल--इससे अनेक लोगों को ऐसा लगा कि इंद्रियां काट डालो, आंखें फोड़ डालो, टांगें तोड़ दो। न रहेंगे पैर, जब पैर ही न रहेंगे, तो भागोगे कैसे वासना के लिए!

लेकिन उन्हें पता नहीं कि वासना बिना पैर के भागती है, वासना के लिए पैरों की कोई जरूरत नहीं है। लंगड़े भी वासना में उतनी ही तेजी से भागते हैं, जितने तेज से तेज भागने वाले भाग सकते हैं। फोड़ दो आंखों को, लेकिन अंधे भी वासना में उसी तरह देखते हैं, जैसे आंख वाले देखते हैं। बल्कि सच तो यह है, आंख बंद करके वासना जितनी सुंदर होकर दिखाई पड़ती है, खुली आंख से कभी दिखाई नहीं पड़ती। इसलिए जो बहुत खुली आंख से देखता है, वह तो कभी वासना से ऊब भी जाता है। लेकिन जो आंख बंद करके ही देखता है, वह तो कभी नहीं ऊबता है।

इंद्रियों को मार डाल अर्जुन, इस वचन से बड़े ही गलत अर्थ लिए गए हैं। क्योंकि मारने की बात नहीं समझी जा सकी। हम तो मारने से एक ही मतलब समझते हैं कि किसी चीज को तोड़ डालो। जैसे कि एक बीज है। बीज को मारना दो तरह से हो सकता है। एक, जैसा हम समझते हैं। बीज को मार डालो, तो हम कहेंगे, दो पत्थरों के बीच में दबाकर तोड़ दो, मर जाएगा। लेकिन यह बीज का मारना बहुत कुशलतापूर्ण न हुआ। क्योंकि उसमें तो वह भी मर गया, जो वृक्ष हो सकता था। बीज को मारने की कुशलता तो तब है, कि बीज मरे और वृक्ष हो जाए। नहीं तो बीज को मारने से क्या फायदा होगा? निश्चित ही, जब वृक्ष पैदा होता है, तो बीज मरता है। बीज न मरे, तो वृक्ष पैदा नहीं होता। बीज को मरना पड़ता है, मिट जाना पड़ता है। राख, धूल हो जाता है, मिट्टी में मिलकर खो जाता है, तब अंकुर पैदा होता है और वृक्ष बनता है।

इंद्रियों को मारना, दो पत्थरों के बीच में बीज को दबाकर मार डालने जैसी बात समझी है कुछ लोगों ने। और उसके कारण  एक बहुत विक्षिप्त, पागल त्यागवाद पैदा हुआ; जो कहता है, तोड़ दो, मिटा दो! लेकिन जिसे तुम मिटा रहे हो, उसमें कुछ छिपा है। उसे तो मुक्त कर लो। अगर वह मुक्त न हुआ, तो तुम भी मिट जाओगे। उसमें तुम भी मिटोगे, क्योंकि इंद्रियों में कुछ छिपा है, जो हमारा है। मन में कुछ छिपा है, जो हमारा है। मन को तोड़ना है, लेकिन मन में जो ऊर्जा है, वह आत्मा तक पहुंचा देनी है। इंद्रियों को तोड़ना है, लेकिन इंद्रियों में जो छिपा है रस, वह आत्मा तक वापस लौटा देना है। इसलिए मारने का मतलब  रूपांतरण है। असल में रूपांतरण ही ठीक अर्थ में मृत्यु है।

अब यह बड़े मजे की बात है। अगर आप बीज को दो पत्थरों से भी कुचल डालें, तब भी बीज होता है, कुचला हुआ होता है। लेकिन जब एक बीज टूटकर वृक्ष बनता है, तो कहीं भी नहीं होता। कुचला हुआ भी नहीं होता। खयाल किया आपने! जब एक बीज वृक्ष बनता है, तो फिर खोजने जाइए कि बीज कहां है, फिर कहीं नहीं मिलेगा। लेकिन दो पत्थरों के बीच में दबाकर कुचल दिया, तो कुचला हुआ मिलेगा। और कुचली हुई इंद्रियां और भी कुरूप जीवन को पैदा कर देती हैं। बहुत परवर्टेड हो जाती हैं।

तीन शब्द आपको कहना चाहूंगा। एक शब्द है प्रकृति। अगर प्रकृति को कुचला, तो जो पैदा होता है, उसका नाम है विकृति। और अगर प्रकृति को रूपांतरित किया, तो जो पैदा होता है, उसका नाम है संस्कृति। प्रकृति अगर कुरूप हो जाए, कुचल दी जाए, तो विकृत हो जाती है, परवर्ट हो जाती है। और प्रकृति अगर रूपांतरित हो जाए, ट्रांसफार्म हो जाए, सब्लिमेट हो जाए, तो संस्कृति पैदा होती है।

तो इंद्रियों और मन को अर्जुन से जब वे कहते हैं, मार डाल। तो कृष्ण के मुंह में ये शब्द वह अर्थ नहीं रखते, जो अर्थ त्यागवादियों के मुंह में हो जाता है। क्योंकि कृष्ण इंद्रियों के कहीं भी विरोधी नहीं हैं। कृष्ण से, इंद्रियों का कम विरोधी आदमी खोजना मुश्किल है। कृष्ण रोते हुए, उदास, मुरदा आदमी नहीं हैं।

कृष्ण से ज्यादा नाचता हुआ, कृष्ण से ज्यादा हंसता हुआ व्यक्तित्व पृथ्वी पर खोजना मुश्किल है। इसलिए कृष्ण कहीं इंद्रियों को कुचलने के लिए कह रहे हों, यह तो असंभव है। यह कृष्ण के व्यक्तित्व में बात आ ही नहीं सकती। जो आदमी बांसुरी बजा रहा है, जो आदमी रात चांदत्तारों के नीचे नाच रहा है, इस आदमी के मुंह से इंद्रियों को कुचलने की बात समझ में नहीं आती। यह मोर-मुकुट लगाकर खड़ा हुआ आदमी, यह प्रेम से भरपूर व्यक्तित्व, यह जीवन को उसकी सर्वांगता में स्वीकार करने वाला चित्त, यह मारने की बात!

इसके मारने की बात का मतलब कुछ और है। नहीं तो, यह निरंतर अर्थ लिया गया है।

और अर्थ हम वही ले लेते हैं, जो हम लेना चाहते हैं। इंद्रियां दुख में ले जाती हैं, यह सच है। इसलिए जो दुख में ले जाता है, उसको हम मार डालें वायलेंटली, यह हमारा मन होता है। जो दुख में ले जाता है, काट डालो। आंख रूप पर मोहित करती है, फोड़ दो। कान संगीत में डांवाडोल होते हैं, फोड़ दो। लग सकता है तर्कयुक्त। ठीक है, जो दुख में ले जाता है, उसे मिटा दो। लेकिन हमें पता नहीं कि जो दुख में ले जाता है, उसमें भी हमारी ऊर्जा छिपी है; जो दुख में ले जाता है, उसमें भी हम छिपे हैं। उस छिपे हुए को भी अगर हमने कुचल दिया, तो हम ही कुचल जाएंगे।

इसलिए त्यागीत्तपस्वी--तथाकथित--जिसको पता नहीं है, वह आमतौर से खुद के साथ हिंसा करता रहता है। कहीं कोई रूपांतरण नहीं होता है, सिर्फ हिंसा होती है। और अगर हम दूसरे के साथ हिंसा करें, तो हम अदालत में पहुंचा दिए जाएं। और अपने साथ करें...तो अभी तक दुनिया में इतना न्याय नहीं है कि हम उस आदमी को अदालत में पहुंचाएं, जो अपने साथ हिंसा करता है।

अब यह बड़े मजे की बात है! आपकी छाती पर छुरा रख दूं, तो अदालत। और अपनी छाती पर छुरा रख लूं, तो सम्मान है! पागलपन है। छुरा दोनों हालत में छाती पर रखा जाता है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि वह किसकी छाती है। आंखें आपकी फोड़ दूं, तो मुझे सम्मान मिलना चाहिए न, क्योंकि मैंने आपकी इंद्रियां मारने में सहायता दी! आत्मज्ञान का रास्ता दे रहा हूं। लेकिन कोई राजी न होगा। लेकिन अपनी फोड़ लूं, तो आप ही मेरे पैर छूने आएंगे कि यह आदमी परम तपस्वी है, इसने आंखें फोड़ लीं! लेकिन अगर आपकी आंखें फोड़ना अपराध है, तो मेरी आंखें फोड़ना कैसे पुण्य हो जाएगा?

इंद्रियों के विरोध में यह वक्तव्य नहीं है, इंद्रियों के रूपांतरण के लिए यह वक्तव्य है। और मजा यह है कि रूपांतरण से ही इंद्रियां मरती हैं, मारने से कोई इंद्रिय कभी नहीं मरती। इसलिए मैं कहता हूं कि रूपांतरण के लिए यह वक्तव्य है। मारकर देखें किसी इंद्रिय को। और जिस इंद्रिय को मारेंगे, वही इंद्रिय सबसे ज्यादा सशक्त हो जाएगी। सच तो यह है कि जो इंद्रिय मरती है, उसी इंद्रिय पर सारी इंद्रियों की शक्ति दौड़कर लग जाती है। नियम है हमारे शरीर का एक कि शरीर का जो हिस्सा हम कमजोर कर लेते हैं, पूरा शरीर उसे सहारा देने लगता है। देना ही चाहिए। कमजोर को सहारा मिलना ही चाहिए।

शरीर की जिस इंद्रिय से आप लड़ेंगे और कमजोर करेंगे, पूरा शरीर उस इंद्रिय को सहायता देगा और वही इंद्रिय आपके भीतर सब कुछ हो जाएगी। यानी ऐसा हो जाएगा कि अगर आप कामवासना से लड़े, तो आपके भीतर कामवासना की इंद्रिय ही आपका व्यक्तित्व हो जाएगी। सब कुछ वही हो जाएगी। अगर आप लोभ से लड़े, क्रोध से लड़े, ईष्या से लड़े--जिससे भी आप लड़े--तो उसका जो केंद्र आपके भीतर है, वही सबसे ज्यादा सेंसिटिव, संवेदनशील हो जाएगा और आप उसी में घिरे हुए जीएंगे।

कृष्ण का वह मतलब नहीं है। कृष्ण का मतलब है, रूपांतरण। और रूपांतरण ही वस्तुतः इंद्रियों की मृत्यु है। यह रूपांतरण ही इंद्रियों को वश में करना है। इंद्रियां मार डालें, तो फिर वश में करने की कोई जरूरत नहीं रह जाती है।

अगर बाप अपने बेटे को मार डाले और फिर कहे कि बेटा मेरे वश में है,  बेकार की बात करता है।लेकिन मरे हुए बेटे के आज्ञाकारी होने का क्या अर्थ? बेटा होना चाहिए जिंदा, जिंदा से जिंदा, और फिर आज्ञाकारी, तब पिता का कुछ अर्थ है, अन्यथा कोई अर्थ नहीं। मरे-मराए विद्यार्थी को बिठाकर गुरु अगर अकड़ता रहे और मरे हुए विद्यार्थी घिराव न करें, तो ठीक है। जिंदा होने चाहिए--पूरे जिंदा, पूरे जीवंत--और फिर गुरु के चरणों पर सिर रख देते हों, तो कुछ अर्थ है।

इंद्रियां मार डाली जाएं, काट डाली जाएं और आपके वश में हो जाएं, तो होती नहीं हैं, सिर्फ भ्रम पैदा होता है। मरी हुई इंद्रियों को क्या वश में करना! नहीं, इंद्रियां वश में हों। स्वस्थ हों, जीवंत हों, लेकिन मालिक न हों। आपको न चलाती हों, आप उन्हें चलाते हों। आपको आज्ञा न देती हों, आपकी आज्ञा उन तक जाती हो। वे आपकी छाया की तरह चलती हों।

साक्षी व्यक्ति की इंद्रियां अपने आप छाया की भांति पीछे चलने लगती हैं। जो अपने को कर्ता समझता है, वही इंद्रियों के वश में होता है। जो अपने को मात्र साक्षी समझता है, वह इंद्रियों के वश के बाहर हो जाता है। जो इंद्रियों के वश में होता है, उसके वश में इंद्रियां कभी नहीं होतीं। और जो इंद्रियों के वश के बाहर हो जाता है, सारी इंद्रियां समर्पण कर देती हैं उसके चरणों में और उसके वश में हो जाती हैं। समर्पण का, इंद्रियों के समर्पण का सूत्र क्या है? भीतर हम दो तरह के भाव रख सकते हैं, या तो भोक्ता का, कर्ता का, या साक्षी का। कर्ता भोक्ता होता है।


मैंने सुना है, कृष्ण के गांव के बाहर एक तपस्वी का आगमन हुआ। कृष्ण के परिवार की महिलाओं ने कहा कि हम जाएं और तपस्वी को भोजन पहुंचा दें। लेकिन वर्षा और नदी तीव्र पूर पर और तपस्वी पार। उन स्त्रियों ने कहा, हम जाएं तो जरूर, लेकिन नाव लगती नहीं, नदी कैसे पार करेंगे? खतरनाक है पूर, तपस्वी भूखा और उस पार वृक्ष के नीचे बैठा है। भोजन पहुंचाना जरूरी है। क्या सूत्र, कोई तरकीब है? कृष्ण ने कहा, नदी से कहना, अगर तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो, तो नदी राह दे दे। भरोसा तो न हुआ, पर कृष्ण कहते थे, तो उन्होंने कहा, एक कोशिश कर लेनी चाहिए।

जाकर नदी से कहा कि नदी, राह दे दे, अगर तपस्वी उस पार जीवनभर का उपवासा हो। भरोसा तो न हुआ, लेकिन जब नदी ने राह दे दी, तो कोई उपाय न रहा! स्त्रियां पार हुईं। बहुत भोजन बनाकर ले गई थीं। सोचती थीं कि एक व्यक्ति के लिए इतने भोजन की तो जरूरत भी नहीं, लेकिन फिर भी कृष्ण के घर से भोजन आता हो, तो थोड़ा-बहुत ले जाना अशोभन था, बहुत ले गई थीं, सौ-पचास लोग भोजन कर सकें। लेकिन चकित हुईं, भरोसा तो न आया, वह एक तपस्वी ही पूरा भोजन कर गया।

फिर लौटीं। नदी ने तो रास्ता बंद कर दिया था, नदी तो फिर बही चली जा रही थी। तब वे बहुत घबड़ाईं कि अब तो गए! क्योंकि अब वह सूत्र तो काम करेगा नहीं कि तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो...। लौटकर तपस्वी से कहा, आप ही कुछ बताएं। हम तो बहुत मुश्किल में पड़ गए। हम तो नदी से यही कहकर आए थे कि तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो, तो मार्ग दे दे। नदी ने मार्ग दे दिया। तपस्वी ने कहा, वही सूत्र फिर कह देना। पर उन्होंने कहा, अब! भरोसा तो पहले भी न आया था, अब तो कैसे आएगा? तपस्वी ने कहा, जाओ नदी से कहना, तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो, तो राह दे दे।


अब तो भरोसा करना एकदम ही मुश्किल था। लेकिन कोई रास्ता न था, नदी के पार जाना था जरूर। नदी से कहा कि नदी राह दे दे, अगर तपस्वी जीवनभर का उपवासा हो। और नदी ने राह दे दी! भरोसा तो न आया। नदी पार की। कृष्ण से जाकर कहा कि बहुत मुश्किल है! पहले तो हम तुमसे ही आकर पूछने वाले थे कि अदभुत मंत्र दिया! काम कैसे किया? लेकिन छोड़ो उस बात को अब। लौटते में और भी बड़ा चमत्कार हुआ है। पूरा भोजन कर गया तुम्हारा तपस्वी और नदी ने फिर भी राह दी है और हमने यही कहा कि उपवासा हो जीवनभर का...।

कृष्ण ने कहा, तपस्वी जीवनभर का उपवासा ही है, तुम्हारे भोजन करने से कुछ बहुत फर्क नहीं पड़ता। पर वे सब पूछने लगीं कि राज क्या है इसका? अब हमें नदी में उतनी उत्सुकता नहीं है। अब हमारी उत्सुकता तपस्वी में है। राज क्या है? उससे भी बड़ी घटना, नदी से भी बड़ी घटना तो यह है कि आप भी कहते हैं।

तो कृष्ण ने कहा, जब वह भोजन कर रहा था, तब भी वह जानता था, मैं भोजन नहीं कर रहा हूं; वह साक्षी ही था। भोजन डाला जा रहा है, वह पीछे खड़ा देख रहा है। जब वह भूखा था, तब भी साक्षी था; जब भोजन लिया गया, तब भी साक्षी है। उसका साक्षी होने का स्वर जीवनभर से सधा है। उसको अब तक डगमगाया नहीं जा सका। उसने आज तक कुछ भी नहीं किया है; उसने आज तक कुछ भी नहीं भोगा है; जो भी हुआ है, वह देखता रहा है। वह द्रष्टा ही है। और जो व्यक्ति साक्षी के भाव को उपलब्ध हो जाता है, इंद्रियां उसके वश में हो जाती हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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