शनिवार, 5 फ़रवरी 2022

मदनोत्सव : प्रेम का शालीन पर्व

 मदनोत्सव : प्रेम का शालीन पर्व

वेलेंटाइन डे का भारतीय रूप...

पश्चिमी सभ्यता से ओतप्रोत वेलेन्टाइन डे का बेहतर एवं प्राचीन भारतीय विकल्प मदनोत्सव  मनाया जाता है। भारत समेत दुनिया भर में हर वर्ष चौदह फरवरी को वेलेन्टाइन डे रूप में मनाया जाता है, किन्तु बहुत कम लोगों को पता होगा कि भारतीय परंपरा में इसका शालीन एवं मर्यादित स्वरूप मदनोत्सव चैत्र शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को सदियों से मनाया जा रहा है।


अनंग त्रयोदशी नाम से  यह तिथि विख्यात है। अंतर इतना है कि वेलेन्टाइन डे आज जहाँ उर्च्छृखलता का प्रतीक बनकर रह गया है, वहीं मदनोत्सव पति-पत्नी के आपसी मर्यादित प्रेम की अभिव्यक्ति एवं सुदृढ़ीकरण का शालीन पर्व है।


भारत में पिछले कुछ वर्षों से वेलेन्टाइन डे मनाने का प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है। इसकी चकाचौंध में आज भारतीय समाज में मदनोत्सव विस्मृत-सा होकर रह गया है। मदनोत्सव पर पत्नी पति को अतीव सुंदर मदन यानी कामदेव का प्रतिरूप मानकर उसकी पूजा करती है। कामदेव का एक नाम अनंग भी है। इसीलिए इस तिथि को अनंग त्रयोदशी कहा जाता है।

वेलेन्टाइन डे के विपरीत मदनोत्सव में विवाहेत्तर अथवा विवाहपूर्व संबंधों के लिए कोई स्थान नहीं है, बल्कि यह विशुद्घ रूप से दांपत्य संबंधों को मजबूत करने का पर्व होने के कारण नैतिक-सामाजिक दृष्टि से पूरी तरह स्वीकार्य है, जबकि वेलेन्टाइन डे ऐसी खामियों की वजह से भारतीय समाज में आज भी सर्व स्वीकार्य नहीं है।


श्रीमद भागवत महापुराण के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें पति रूप में चाहने वाली गोपियों के साथ इसी दिवस पर वृंदावन में महारास किया था। श्रीकृष्ण कामदेव से भी अधिक सुंदर होने के कारण मदन मोहन यानी कामदेव को भी मोहित करने वाले अथवा मन्मथ यानी सभी प्राणियों के मन को मथने वाले कामदेव के भी मन को मथने वाले कहे गए है।


गोपियाँ श्रीकृष्ण के प्रति पूर्णत समर्पित थी। अतः श्रीकृष्ण के लिए उनके साथ महारास करने का श्रेष्ठ अवसर मदनोत्सव के अतिरिक्त और क्या हो सकता था।



शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2022

ध्यान और ओषधि

मनुष्य एक बीमारी है। बीमारियां तो मनुष्य पर आती हैं, लेकिन मनुष्य खुद भी एक बीमारी है। मैन इज ए डिसईज। यही उसकी तकलीफ है, यही उसकी खूबी भी। यही उसका सौभाग्य है, यही उसका दुर्भाग्य भी। जिस अर्थों में मनुष्य एक परेशानी, एक चिंता, एक तनाव, एक बीमारी, एक रोग है, उस अर्थों में पृथ्वी पर कोई दूसरा पशु नहीं है। वही रोग मनुष्य को सारा विकास दिया है। क्योंकि रोग का मतलब यह है कि हम जहां हैं, वहीं राजी नहीं हो सकते। हम जो हैं, वही होने से राजी नहीं हो सकते। वह रोग ही मनुष्य की गति बना, रेस्टलेसनेस बना। लेकिन वही उसका दुर्भाग्य भी है, क्योंकि वह बेचैन है, परेशान है, अशांत है, दुखी है, पीड़ित है।

मनुष्य को छोड़ कर और कोई पशु पागल होने में समर्थ नहीं है। जब तक कि मनुष्य किसी पशु को पागल न करना चाहे, तब तक कोई पशु अपने से पागल नहीं होता, न्यूरोटिक नहीं होता। जंगल में पशु पागल नहीं होते, सर्कस में पागल हो जाते हैं। जंगल में पशु विक्षिप्त नहीं होते, अजायबघर में, ‘जू’ में विक्षिप्त हो जाते हैं! कोई पशु आत्महत्या नहीं करता, स्युसाइड नहीं करता, सिर्फ आदमी अकेला आत्महत्या कर सकता है।
यह जो मनुष्य नाम का रोग है, इस रोग को सोचने, समझने, हल करने के दो उपाय किए गए हैं। एक  है उपाय..औषधि। और दूसरा ध्यान है उपाय..मेडिटेशन। ये दोनों एक ही रोग का इलाज हैं।
इसे थोड़ा ऐसा समझना अच्छा होगा कि औषधिशास्त्र, मेडिसिन मनुष्य के रोग को एटामिक, आणविक दृष्टि से देखता है। औषधिशास्त्र मनुष्य के एक-एक रोग को अलग-अलग व्यवहार करता है। औषधिशास्त्र एक-एक रोग को आणविक मानता है। ध्यान मनुष्य को ‘ऐज ए होल’ बीमार मानता है, एक-एक रोग को नहीं। ध्यान मनुष्य के व्यक्तित्व को बीमार मानता है। औषधिशास्त्र मनुष्य के ऊपर बीमारियां आती हैं, विजातीय हैं, फॉरेन हैं, ऐसा मानता है।
लेकिन धीरे-धीरे यह दूरी कम हुई है और धीरे-धीरे मेडिसिन ने भी कहना शुरू किया है..डोंट ट्रीट दि डिजीज, ट्रीट दि पेशेंट। मत करो इलाज बीमारी का; बीमार का इलाज करो। यह बड़ी कीमती बात है। क्योंकि इसका मतलब यह है कि बीमारी भी बीमार के जीने का एक ढंग है, ए वे ऑफ लाइफ। हर आदमी एक सा बीमार नहीं हो सकता। बीमारियां भी हमारी इंडिविजुअलिटी रखती हैं, व्यक्तित्व रखती हैं। ऐसा नहीं है कि मैं क्षय रोग से, टी.बी. से बीमार पडूं और आप भी पड़ें, तो हम दोनों एक ही तरह के बीमार होंगे। हमारी टी.बी. भी दो तरह की होंगी, क्योंकि हम दो व्यक्ति हैं। और हो सकता है कि जो इलाज मेरी टी.बी. को ठीक कर सके वह आपकी टी.बी. को ठीक न कर सके। इसलिए बहुत गहरे में बीमारी नहीं है, बहुत गहरे में बीमार है।
औषधिशास्त्र, मेडिसिन..आदमी की ऊपर से बीमारियों को पकड़ता है। मेडिटेशन, ध्यान का शास्त्र..आदमी को गहराई से पकड़ता है। इसे ऐसा कह सकते हैं कि औषधि मनुष्य को ऊपर से स्वस्थ करने की चेष्टा करती है। ध्यान मनुष्य को भीतर से स्वस्थ करने की चेष्टा करता है। न तो ध्यान पूर्ण हो सकता है औषधिशास्त्र के बिना और न औषधिशास्त्र पूर्ण हो सकता है ध्यान के बिना। असल में आदमी चूंकि दोनों है..भाषा ठीक नहीं है यह कहना कि आदमी दोनों है, क्योंकि इसमें कुछ बुनियादी भूल हो जाती है।
मनुष्य हजारों वर्षों से इस तरह सोचता रहा है कि आदमी का शरीर अलग है और आदमी की आत्मा अलग है। इस चिंतन के दो खतरनाक परिणाम हुए। एक परिणाम तो यह हुआ कि कुछ लोगों ने आत्मा को ही मनुष्य मान लिया, शरीर की उपेक्षा कर दी। जिन कौमों ने ऐसा किया उन्होंने ध्यान का तो विकास किया, लेकिन औषधि का विकास नहीं किया। वे औषधि का विज्ञान न बना सके। शरीर की उपेक्षा कर दी गई। ठीक इसके विपरीत कुछ कौमों ने आदमी को शरीर ही मान लिया और उसकी आत्मा को इनकार कर दिया। उन्होंने मेडिसिन और औषधि का तो बहुत विकास किया, लेकिन ध्यान के संबंध में उनकी कोई गति न हो पाई। जब कि आदमी दोनों है एक साथ। 
नहीं, असल में आदमी का शरीर और आदमी की आत्मा एक ही चीज के दो छोर हैं।  आदमी मनस-शरीर है, या शरीर-मनस है।
मेरी दृष्टि में, आत्मा का जो हिस्सा हमारी इंद्रियों की पकड़ में आ जाता है उसका नाम शरीर है और आत्मा का जो हिस्सा हमारी इंद्रियों की पकड़ के बाहर रह जाता है उसका नाम आत्मा है। अदृश्य शरीर का नाम आत्मा है, दृश्य आत्मा का नाम शरीर है। ये दो चीजें नहीं हैं, ये दो अस्तित्व नहीं हैं, ये एक ही अस्तित्व की दो विभिन्न तरंग-अवस्थाएं हैं।
असल में दो, द्वैत, डुआलिटी की धारणा ने मनुष्य-जाति को बड़ी हानि पहुंचाई। सदा हम दो की भाषा में सोचते रहे और मुसीबत हुई। पहले हम सोचते थेः मैटर और एनर्जी। अब हम ऐसा नहीं सोचते। अब हम यह नहीं कहते कि पदार्थ अलग और शक्ति अलग। अब हम कहते हैं, मैटर इज एनर्जी। अब हम कहते हैं, पदार्थ ही शक्ति है। सच तो यह है कि यह पुरानी भाषा हमें दिक्कत दे रही है। पदार्थ ही शक्ति है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। कुछ है, एक्स, जो एक छोर पर पदार्थ दिखाई पड़ता है और दूसरे छोर पर एनर्जी, शक्ति दिखाई पड़ता है। ये दो नहीं हैं। ये एक ही ऊर्जा, एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं।
ठीक वैसे ही आदमी का शरीर और उसकी आत्मा एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं। बीमारी दोनों छोरों में किसी भी छोर से शुरू हो सकती है। शरीर के छोर से शुरू हो सकती है और आत्मा के छोर तक पहुंच सकती है। असल में जो भी शरीर पर घटित होता है, उसके वाइब्रेशंस, उसकी तरंगें आत्मा तक सुनी जाती हैं।
इसलिए कई बार यह होता है कि शरीर से बीमारी ठीक हो जाती है और आदमी फिर भी बीमार बना रह जाता है। शरीर से बीमारी विदा हो जाती है और डाक्टर कहता है कि कोई बीमारी नहीं है और आदमी फिर भी बीमार रह जाता है और बीमार मानने को राजी नहीं होता कि मैं बीमार नहीं हूं। चिकित्सक के जांच के सारे उपाय कह देते हैं कि अब सब ठीक है, लेकिन बीमार कहे चला जाता है कि सब ठीक नहीं है। इस तरह के बीमारों से डाक्टर बहुत परेशान रहते हैं, क्योंकि उनके पास जो भी जांच के साधन हैं वे कह देते हैं कि कोई बीमारी नहीं है।
लेकिन कोई बीमारी न होने का मतलब स्वस्थ होना नहीं है। स्वास्थ्य की अपनी पाजिटिविटी है। कोई बीमारी का न होना सिर्फ निगेटिव है। हम कह सकते हैं कि कोई कांटा नहीं है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि फूल है। कांटा नहीं है, इससे सिर्फ इतना ही पता चलता है कि कांटा नहीं है। लेकिन फूल का होना कुछ बात और है।
लेकिन चिकित्सा-शास्त्र अब तक, स्वास्थ्य क्या है, इस दिशा में कुछ भी काम नहीं कर पाया है।  उसका कारण यही है कि चिकित्सा-शास्त्र बाहर से पकड़ता है। बाहर से बीमारी ही पकड़ में आती है। वह जो भीतर है मनुष्य का आंतरिक अस्तित्व, वह जो इनरमोस्ट बीइंग, वह जो भीतरी आत्मा, स्वास्थ्य सदा वहीं से पकड़ा जा सकता है।
ओशो रजनीश



रविवार, 30 जनवरी 2022

प्रेम सेक्स समाधि

 जब तक काम के निसर्ग को परिपूर्ण आत्‍मा से स्‍वीकृति नहीं मिल जाती है, तब तक कोई किसी को प्रेम कर ही नहीं सकता। काम दिव्‍य है, डिवाइन है।

      सेक्‍स की शक्‍ति परमात्‍मा की शक्‍ति है, ईश्‍वर की शक्‍ति है।

      इसलिए तो उससे ऊर्जा पैदा होती है। और नये जीवन विकसित होते है। वही तो सबसे रहस्‍यपूर्ण शक्‍ति है, वहीं तो सबसे ज्‍यादा मिस्‍टीरियस फोर्स है। उससे दुश्‍मनी छोड़ दें। अगर आप चाहते है कि कभी आपके जीवन में प्रेम की वर्षा हो जाये तो उससे दुश्‍मनी छोड़ दे। उसे आनंद से स्‍वीकार करें। उसकी पवित्रता को स्‍वीकार करें, उसकी धन्‍यता को स्‍वीकार करें। और खोजें उसमें और गहरे और गहरे—तो आप हैरान हो जायेंगे। जितनी पवित्रता से काम की स्‍वीकृति होगी, उतना ही काम पवित्र होता हुआ चला जायेगा। और जितना अपवित्रता और पाप की दृष्‍टि से काम का विरोध होगा, काम उतना ही पाप-पूर्ण और कुरूप होता चला जायेगा।

       जब कोई अपनी पत्‍नी के पास ऐसे जाये जैसे कोई मंदिर के पास जा रहा है। जब कोई पत्‍नी अपने पति के पास ऐसे जाये जैसे सच में कोई परमात्‍मा के पास जा रहा हो। क्‍योंकि जब दो प्रेमी काम से निकट आते है जब वे संभोग से गुजरते है तब सच में ही वे परमात्‍मा के मंदिर के निकट से गुजर रह होते है। वहीं परमात्‍मा काम कर रहा है, उनकी उस निकटता में। वही परमात्‍मा की सृजन-शक्‍ति काम कर रही है।

       मनुष्‍य को समाधि का, ध्‍यान का जो पहला अनुभव मिला है कभी भी इतिहास में,तो वह संभोग के क्षण में मिला है और कभी नहीं। संभोग के क्षण में ही पहली बार यह स्‍मरण आया है आदमी को कि इतने आनंद की वर्षा हो सकती है।

       जिन्‍होंने सोचा, जिन्‍होंने मेडिटेट किया, जिन लोगों ने काम के संबंध पर और मैथुन पर चिंतन किया और ध्‍यान किया, उन्‍हें यह दिखाई पडा कि काम के क्षण में, मैथुन के क्षण में मन विचारों से शून्‍य हो जाता है। एक क्षण को मन के सारे विचार रूक जाते है। और वह विचारों का रूक जाना और वह मन का ठहर जाना ही आनंद की वर्षा का कारण होता है।

      तब उन्‍हें सीक्रेट मिल गया, राज मिल गया कि अगर मन को विचारों से मुक्‍त किया जा सके किसी और विधि से तो भी इतना ही आनंद मिल सकता है। और तब समाधि और योग की सारी व्‍यवस्‍थाएं विकसित हुई। जिनमें ध्‍यान और सामायिक और मेडिटेशन और प्रेयर (प्रार्थना) इनकी सारी व्‍यवस्‍थाएं विकसित हुई। इन सबके मूल में संभोग का अनुभव है। और फिर मनुष्‍य को अनुभव हुआ कि बिना संभोग में जाये भी चित शून्‍य हो सकता है। और जो रस की अनुभूति संभोग में हुई थी। वह बिना संभोग के भी बरस सकती है। फिर संभोग क्षणिक हो सकता है। क्‍योंकि शक्‍ति और उर्जा का वहाँ बहाव और निकास है। लेकिन ध्‍यान सतत हो सकता है।

एक युगल संभोग के क्षण में जिस आनंद को अनुभव करता है, उस आनंद को एक योगी चौबीस घंटे अनुभव कर सकता है। लेकिन इन दोनों आनंद में बुनियादी विरोध नहीं है। और इसलिए जिन्‍होंने कहा कि विषयानंद और ब्रह्मानंद भाई-भाई है। उन्‍होंने जरूर सत्‍य कहा है। वह सहोदर है, एक ही उदर से पैदा हुए है, एक ही अनुभव से विकसित हुए है। उन्‍होंने निश्‍चित ही सत्‍य कहां है।

      अगर चाहते है कि पता चले कि प्रेम क्‍या है—तो  काम की पवित्रता, दिव्‍यता, उसकी ईश्वरीय अनुभूति की स्‍वीकृति होगी। उतने ही आप काम से मुक्त होते चले जायेगे। जितना अस्‍वीकार होता है, उतना ही हम बँधते है। 

      जितना स्‍वीकार होता है उतने हम मुक्‍त होते है।

      अगर परिपूर्ण स्‍वीकार है, टोटल एक्‍सेप्‍टेबिलिटी है जीवन की, जो निसर्ग है उसकी तो आप पाएंगे.....वह परिपूर्ण स्‍वीकृति आस्‍तिकता व्‍यक्‍ति को मुक्‍त करती है।

      नास्‍तिक  जीवन के निसर्ग को अस्‍वीकार करते है, निषेध करते है। यह बुरा है, पाप है, यह विष है, यह छोड़ो , वह छोड़ो। जो छोड़ने की बातें कर रहे है, वह ही नास्‍तिक है।

      जीवन जैसा है, उसे स्‍वीकार करो और जीओं उसकी परिपूर्णता में। वही परिपूर्णता रोज-रोज सीढ़ियां ऊपर उठती जाती है। वही स्‍वीकृति मनुष्‍य को ऊपर ले जाती है। और एक दिन उसके दर्शन होते है,जिसका काम में पता भी नहीं चलता था। काम अगर कोयला था तो एक दिन हीरा भी प्रकट होता है प्रेम का। 

      

ओशो रजनीश



कुछ फर्ज थे मेरे, जिन्हें यूं निभाता रहा।  खुद को भुलाकर, हर दर्द छुपाता रहा।। आंसुओं की बूंदें, दिल में कहीं दबी रहीं।  दुनियां के सामने, व...