गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 3 भाग 25

 


श्रद्धा है द्वार


ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।

श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्तेऽपिकर्मभिः।। ३१।।

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।

सर्व ज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः।। ३२।।

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेज्र्ञानवानपि।

प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।। ३३।।


और हे अर्जुन जो कोई भी मनुष्य दोषबुद्धि से रहित और श्रद्धा से युक्त हुए सदा ही मेरे इस मत के अनुसार बर्तते हैं, वे पुरुष संपूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं। और जो दोषदृष्टि वाले मूर्ख लोग इस मेरे मत के अनुसार नहीं बर्तते हैं, उन संपूर्ण ज्ञानों में भ्रमित चित्त वालों को तू कल्याण मार्ग से भ्रष्ट हुए ही जान। क्योंकि सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात अपने स्वभाव से परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा!


कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि जो मैंने कहा है, श्रद्धापूर्ण हृदय से उसे अंगीकार करके जो जीता और कर्म करता है, वह समस्त कर्मों से मुक्त हो जाता है, वह समस्त कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है।

श्रद्धा शब्द को थोड़ा समझेंगे, तो इस सूत्र के हृदय के द्वार खुल जाएंगे। श्रद्धा शब्द के आस-पास बड़ी भ्रांतियां हैं। सबसे बड़ी भ्रांति तो यह है कि श्रद्धा का अर्थ लोग करते हैं, विश्वास, बिलीफ; या कुछ लोग श्रद्धा का अर्थ करते हैं, फेथ, अंधविश्वास। दोनों ही अर्थ गलत हैं। क्यों? जो भी विश्वास करता है, उसके भीतर अविश्वास सदा ही मौजूद होता है।


असल में अविश्वासी के अतिरिक्त और कोई विश्वास करता ही नहीं है। यह उलटी लगेगी बात। लेकिन विश्वास की जरूरत ही इसलिए पड़ती है कि भीतर अविश्वास है। जैसे बीमार को दवा की जरूरत पड़ती है, ऐसे अविश्वासी चित्त को विश्वास की जरूरत पड़ती है। भीतर है संदेह, भीतर है अविश्वास, उसे दबाने के लिए विश्वास, बिलीफ को हम पकड़ते हैं।

श्रद्धा विश्वास नहीं है। भीतर अविश्वास हो और उसे दबाने के लिए कुछ पकड़ा हो, तो उसका नाम विश्वास है। और भीतर अविश्वास न रह जाए, शून्य हो जाए, तब जो शेष रह जाती है, वह श्रद्धा है। भीतर अविश्वास हो...एक आदमी को विश्वास न हो कि ईश्वर है और विश्वास करे, जैसा कि अधिक लोग किए हुए हैं, विश्वास बिलकुल नहीं है, लेकिन किए हुए हैं। विश्वास भी नहीं है, अविश्वास करने की हिम्मत भी नहीं है। भीतर अविश्वास है गहरे में, ऊपर से विश्वास के वस्त्र ओढ़े हुए हैं।  ऐसा विश्वास  चमड़ी से ज्यादा गहरा नहीं होता। जरा जोर से खरोंचो, भीतर का अविश्वास बाहर निकल आता है।

श्रद्धा का ऐसा अर्थ नहीं है। श्रद्धा बहुत ही कीमती शब्द है। श्रद्धा का अर्थ है, जहां से अविश्वास नष्ट हो गया--विश्वास आ गया नहीं। श्रद्धा का अर्थ है, जहां अविश्वास नहीं रहा। जब भीतर कोई अविश्वास नहीं होता, तब श्रद्धा फलित होती है। कहें, श्रद्धा अविश्वास का अभाव है।  विश्वास की उपस्थिति नहीं, अविश्वास की अनुपस्थिति। इसलिए कोई आदमी कितना ही विश्वास करे, कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होता। उसके भीतर अविश्वास खड़ा ही रहता है और कांटे की तरह चुभता ही रहता है।

अब एक आदमी कहे चला जाता है, आत्मा अमर है; और फिर भी मरने से डरता चला जाता है। एक तरफ कहता है, आत्मा अमर है, दूसरी तरफ मरने से भयभीत होता है। यह कैसा विश्वास है? इसके पीछे अविश्वास खड़ा है। कहता है, आत्मा अमर है, और डरता है मरने से। अगर आत्मा अमर है, तो मरने का डर? मरने का डर बेमानी है। अब यह कैसे आश्चर्य की बात है!

लेकिन अगर ठीक से देखेंगे, तो आश्चर्य नहीं मालूम पड़ेगा। सौ में निन्यानबे मौकों पर संभावना यही है कि चूंकि मरने का डर है, इसलिए आत्मा अमर है, इस विश्वास को किए चले जाते हैं। डर है भीतर कि मर न जाएं, तो आत्मा अमर है, इस पाठ को रोज-रोज पढ़े चले जाते हैं; दोहराए चले जाते हैं, आत्मा अमर है; समझाए चले जाते हैं अपने को, आत्मा अमर है। और भीतर जिसे दबाने के लिए आप कह रहे हैं, आत्मा अमर है, वह मिटता नहीं। वह भय और गहरे में सरकता चला जाता है। हमारे सारे विश्वास ऐसे ही हैं।

कृष्ण भी कह सकते थे, विश्वासपूर्वक जो मेरी बात को मानता है, वह कर्म से मुक्त हो जाता है। उन्होंने वह नहीं कहा। यद्यपि गीता के अर्थ करने वाले वही अर्थ किए चले जाते हैं। वे लोगों को यही समझाए चले जाते हैं, विश्वास करो। कृष्ण कह रहे हैं, श्रद्धा, विश्वास नहीं। विश्वास दो कौड़ी की चीज है। श्रद्धा की कोई कीमत ही आंकनी मुश्किल है। श्रद्धा का अर्थ है, ऐसा हृदय जहां विरोध में कोई भी स्वर नहीं है। जहां जो है, वह पूरी तरह से है, जिसके विपरीत कुछ है ही नहीं। जिससे अन्य का कोई अस्तित्व नहीं है। जिससे भिन्न का कोई सवाल नहीं है। जो है, है; पूरा है, टोटल है। श्रद्धा का अर्थ है, हृदय की समग्रता।

कृष्ण कह रहे हैं कि श्रद्धापूर्वक, हृदय की समग्रता से, जिसके भीतर विपरीत कुछ स्वर ही नहीं है, जिसके भीतर अविश्वास की रेखा भी नहीं है, वही व्यक्ति इस मार्ग पर चलकर कर्मों को क्षीण करके मुक्त हो जाता है।

तो पहला फर्क विश्वास और श्रद्धा में ठीक से समझ लें। और आपके पास जो हो, उसे जरा ठीक से देख लें। वह विश्वास है या श्रद्धा है? और ध्यान रहे, अविश्वासी तो कभी श्रद्धा पर पहुंच भी सकता है, विश्वासी कभी नहीं पहुंच पाता है। उसके कारण हैं। जिस आदमी के हाथ में कुछ भी नहीं है, कंकड़-पत्थर भी नहीं हैं, वह आदमी हीरों की खोज कर सकता है। लेकिन जिस आदमी ने कंकड़-पत्थर के रंगीन टुकड़ों को समझा हो हीरे-जवाहरात और उन पर मुट्ठी बांधे रहे, वह कभी हीरों की खोज पर ही नहीं निकलता है।

अविश्वासी तो किसी दिन श्रद्धा को पा सकता है। उसके कारण हैं। क्योंकि अविश्वास में जीना असंभव  है। अविश्वास आग है, जलाती है, पीड़ा देती है, चुभाती है; अंगारे हैं उसमें। अविश्वास में कोई भी खड़ा नहीं रह सकता। उसे आज नहीं कल या तो श्रद्धा में प्रवेश करना पड़ेगा या विश्वास में प्रवेश करना पड़ेगा।

ध्यान रहे, श्रद्धा का विरोध अविश्वास से नहीं है; श्रद्धा का विरोध विश्वास से है। बिलीफ करने वाले लोग कभी भी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होते हैं। यह बहुत उलटी-सी बात लगेगी। क्योंकि हम तो सोचते हैं, पहले विश्वास करेंगे, फिर धीरे-धीरे श्रद्धा आ जाएगी। ऐसा कभी नहीं होता। क्योंकि जिसने विश्वास कर लिया, वह झूठी श्रद्धा में पड़ जाता है। और झूठे सिक्के असली सिक्कों के मार्ग में अवरोध बन जाते हैं। आप ठीक से जांच कर लेना कि आपके पास जो है, वह विश्वास है कि श्रद्धा है।

और ध्यान रहे, विश्वास सदा मिलता है दूसरों से, श्रद्धा सदा आती है स्वयं से। एक आदमी हिंदू है, यह विश्वास है, श्रद्धा नहीं; क्योंकि अगर वह मुसलमान के घर में रखकर बड़ा किया गया होता, तो मुसलमान होता। एक आदमी मुसलमान है, यह विश्वास है, श्रद्धा नहीं; क्योंकि वह ईसाई के घर में रखकर बड़ा किया गया होता, तो ईसाई होता। और एक आदमी आस्तिक है; यह विश्वास है, श्रद्धा नहीं। वह रूस में अगर पैदा हुआ होता, तो नास्तिक हो गया होता। जो हमें बाहर से मिल जाता है, वह विश्वास है। जो हमारे भीतर से जन्मता है, वह श्रद्धा है।

इसलिए और तीसरी बात, विश्वास हमेशा मुर्दा होता है, डेड। श्रद्धा सदा जीवंत होती है, लिविंग। और मुर्दे आपको डुबा सकते हैं, पार नहीं करवा सकते। मरे हुए विश्वास सिर्फ डुबा सकते हैं, पार नहीं करवा सकते। और मरे हुए विश्वास जंजीर बन सकते हैं, मुक्ति नहीं बन सकते। और मरे हुए विश्वास बांध सकते हैं, खोल नहीं सकते। इसलिए कृष्ण जब कह रहे हैं, श्रद्धापूर्वक, तो विश्वास को बिलकुल काट डालना; विश्वास से कुछ लेना-देना कृष्ण का नहीं है। विश्वास--जिनके पास श्रद्धा नहीं है, वे अपने को श्रद्धा का धोखा देते हैं विश्वास से। जैसे आपके पास असली मोती नहीं हैं, तो इमिटेशन के मोती गले में डालकर घूम लेते हैं। किसी को धोखा नहीं होता। मोती को तो धोखा होता ही नहीं। उसको तो पता ही है! आपको भी धोखा नहीं होता। आपको भी पता है। और जिनको आप धोखा दे रहे हैं, उनको धोखा देने से कोई प्रयोजन नहीं है। उनको कोई प्रयोजन नहीं है। विश्वास आरोपित है, श्रद्धा जन्मती है। यह फर्क है।

दूसरी बात, अगर श्रद्धा जन्मती है, तो आ कैसे जाएगी? विश्वास तो उधार लिया जा सकता  है। कोई बाप से, कोई गुरु से, कोई कहीं से, कोई कहीं से उधार ले लेता है, विश्वास बना लेता है। बिना विश्वास के जीना बहुत मुश्किल है। मुश्किल इसीलिए है कि अविश्वास में जीना मुश्किल है।

और इसलिए एक अदभुत घटना घटती है कि नास्तिक को हम अविश्वासी कहते हैं। कहना नहीं चाहिए। नास्तिक पक्का विश्वासी होता है ईश्वर के न होने में। नास्तिक भी अविश्वास में नहीं जीता, नकारात्मक, निगेटिव बिलीफ में जीता है। उसका भी पक्का विश्वास होता है और वह भी लड़ने-मारने को तैयार हो जाता है। अगर आप कहो कि ईश्वर है, तो उसके ईश्वर नहीं होने की धारणा को चोट लगे, तो वह भी लड़ने को तैयार हो जाता है।

नास्तिक के अपने विश्वास हैं। आस्तिक से उलटे हैं, यह दूसरी बात है, पर उसके अपने विश्वास हैं। उनके बिना वह भी नहीं जीता। हां, उसके विश्वास और तरह के हैं। यह बिलकुल दूसरी बात है, इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता है। बिना विश्वास के जीना मुश्किल है। अविश्वास इतनी तकलीफ पैदा कर देता है कि आपको श्रद्धा की यात्रा करनी ही पड़ेगी। लेकिन आप विश्वास...।

इसे थोड़ा दो-चार आयाम से देखना पड़े। और धार्मिक चित्त को इसे समझ लेना बहुत ही आधारभूत है।

विश्वास और अविश्वास दोनों ही तर्क से जीते हैं। विश्वास भी, अविश्वास भी, दोनों का भोजन तर्क है। नास्तिक तर्क देता है, ईश्वर नहीं है। आस्तिक तर्क देता है, ईश्वर है। लेकिन दोनों तर्क देते हैं और दोनों का तर्क पर भरोसा है। सारी दुनिया के आस्तिकों ने, ईश्वर है, इसके प्रमाण दिए हैं। नास्तिकों ने प्रमाणों का खंडन किया है कि ईश्वर नहीं है। विश्वास, अविश्वास दोनों ही तर्क से चलते हैं। और श्रद्धा, श्रद्धा इस अनुभूति का नाम है कि तर्क ना-काफी है। तर्क पर्याप्त नहीं है, इस प्रतीति से श्रद्धा की शुरुआत होती है। जिस मनुष्य को जीवन में गहरे देखकर ऐसा दिखाई पड़ता है कि तर्क की सीमा है और जीवन तर्क की सीमा के आगे भी है। जिस व्यक्ति को ऐसा दिखाई पड़ता है कि तर्क थोड़ी दूर तक चलता है और फिर नहीं चलता। जिसे अनुभव होता है कि जीवन में बहुत कुछ है जो तर्क के बाहर पड़ जाता है, जो तर्क में नहीं है। जीवन खुद तर्क के बाहर है। जीवन खुद अतर्क्य है। आप न होते, तो आप किसी से भी नहीं कह सकते थे कि मैं क्यों नहीं हूं? आप हैं, तो आप किसी से पूछ नहीं सकते कि मैं क्यों हूं?

जिंदगी बिलकुल अतर्क्य है। जिंदगी के पास कोई तर्क नहीं है। हैं तो हैं, नहीं हैं तो नहीं हैं। प्रेम अतर्क्य है, प्रार्थना भी अतर्क्य है। जीवन में जो भी गहरा और महत्वपूर्ण है, वह तर्क से समझ में आता नहीं, पकड़ में आता नहीं, तर्क चुक जाता है और जीवन बाहर रह जाता है। ऐसे अनुभव से पहली बार श्रद्धा की ओर कदम उठते हैं। कैसे पता चलता है कि जीवन अतर्क्य है? कैसे पता चलता है कि बुद्धि थक जाती है और जीवन नहीं चुकता? आदमी कितना सोचता है, कितना सोचता है, फिर कहीं नहीं पहुंचता। सिद्धांत हाथ में आ जाते हैं कोरे, राख; अनुभव कोई भी हाथ में नहीं आता। सब गणित हार जाते हैं; कुछ अनजाना पीछे शेष रह जाता है; अननोन सदा ही पीछे शेष रह जाता है। जो हम जानते हैं, वह बहुत क्षुद्र है। जो हमारे जानने के क्षुद्र को घेरे हुए है अनजाना, वह बहुत विराट है।

अठारहवीं सदी का वैज्ञानिक सोचता था कि सौ वर्ष में वह घटना घट जाएगी कि दुनिया में जानने को कुछ भी शेष नहीं रहेगा। उसे पक्का विश्वास था विज्ञान पर। सौ साल पहले वैज्ञानिक को पक्का विश्वास था विज्ञान पर, कि हम सब जान लेंगे, जो भी अनजाना है, जान लिया जाएगा। आज वैज्ञानिक कहता है कि जो हमने जाना, वह तो कुछ नहीं, लेकिन जितना हमने जानने की कोशिश की, उससे हजार गुना अनजाना प्रकट हो गया है। एक इंच हम जानते हैं, हजार इंच और खुल जाते हैं, जो अनजाने हैं। एक सवाल हल होता है, हजार सवाल खड़े हो जाते हैं। और अब वैज्ञानिक हिम्मत बांधकर नहीं कह पाता कि हम कभी भी सब जान लेंगे। अब वह इतना ही कह पाता है कि हम जो भी जानेंगे, वह उसके मुकाबले ना-कुछ होगा, जो अनजाना छूट जाएगा। विज्ञान सौ साल में हारा। दार्शनिक हजारों साल कोशिश करके हार गए और उन्होंने कहा, कुछ है, जो विचार के बाहर छूट जाता है। इस बात की प्रतीति कि कुछ है, जो विचार के बाहर छूट जाता है, श्रद्धा के जन्म का पहला अंकुर है।

क्या आपको जीवन रहस्य मालूम पड़ता है? तो आपकी जिंदगी में श्रद्धा पैदा हो सकती है। और ध्यान रखें, विश्वासी को जिंदगी रहस्यमय नहीं मालूम पड़ती है। उसके लिए तो सब खुला हुआ मामला है। सब गणित साफ है। वह कहता है, यहां स्वर्ग है, यहां नर्क है; यहां मोक्ष है, यहां भगवान बैठा हुआ है। यहां यह हो रहा है, वहां वह हो रहा है। सब नक्शा साफ है। विश्वासी के पास पूरा गणित है, पूरा मैप है, सब सिद्धांत हैं, सब साफ है। विश्वासी कभी भी रहस्य में नहीं होता। जो आदमी रहस्य में होता है, वह श्रद्धा में जा सकता है। रहस्य श्रद्धा का द्वार है। तर्क, गणित, प्रमाण विश्वासों के द्वार हैं। उनसे हम विश्वास निर्मित कर लेते हैं। क्या आपको जिंदगी में रहस्य मालूम होता है? क्या आपको लगता है कि हम कुछ भी नहीं जानते? तो आपकी जिंदगी में श्रद्धा पैदा हो सकती है।

कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, जो श्रद्धापूर्वक अर्थात जो जीवन के रहस्य को अंगीकार करता है...।

और जो जीवन के रहस्य को अंगीकार करता है, उसके पास संदेह का उपाय नहीं बचता। यह भी समझ लेना जरूरी है। आप में संदेह तभी तक उठते हैं, जब तक आप विश्वास को पकड़ते हैं, क्योंकि सब संदेह विश्वास के खिलाफ उठते हैं। जिस आदमी का कोई विश्वास नहीं, उसके भीतर कोई संदेह भी नहीं पैदा होता। संदेह पैदा होते हैं विश्वास के खिलाफ।

आपने विश्वास किया कि परमात्मा ने दुनिया बनाई, तब सवाल उठता है, क्यों बनाई! एक विश्वास हुआ कि सवाल खड़ा हुआ, क्यों बनाई! फिर दूसरा सवाल उठता है कि ऐसी क्यों बनाई, जिसमें इतना दुख है! फिर तीसरा सवाल उठता है कि जब वही बनाने वाला है, तो इस सब दुख को क्यों नहीं मिटा देता! फिर सवाल उठते चले जाते हैं। आपने तय किया कि ईश्वर ने दुनिया नहीं बनाई। तब फिर सवाल उठता है, फिर कैसे बनी? तो फिर वैज्ञानिक खोजता है कि नेबुला, और अणु, और परमाणु और उन सबसे दुनिया बनती है। लेकिन वे अणु-परमाणु कहां से आते हैं? और तब सवालों की यात्रा फिर शुरू हो जाती है। हर विश्वास सवालों की यात्रा पर ले जाता है। लेकिन रहस्य का बोध सवालों को गिरा देता है और  रहस्य में डुबा देता है। और जब कोई व्यक्ति रहस्य में डूबता है, तो श्रद्धा अंकुरित होती है।

जैसे बीज को अगर पत्थर पर रख दें, तो कभी अंकुर न आएगा। जीसस कहा करते थे कि मैं एक मुट्ठीभर बीज फेंक दूं अंधेरे में; कुछ पत्थर पर गिरें, कुछ रास्ते पर गिरें, कुछ खेत की मेड़ पर गिरें, कुछ खेत के बीच की भूमि में गिर जाएं। जो पत्थर पर गिरेंगे, वे पड़े ही रहेंगे, वे कभी अंकुरित न होंगे। जो रास्ते पर गिरेंगे, वे अंकुरित होना भी चाहेंगे, रास्ता उन्हें अंकुरित होने के लिए सहायता भी देगा। तो इसके पहले कि वे अंकुरित हों, किन्हीं के पैर उनकी संभावनाओं को नष्ट कर जाएंगे। खेत की मेड़ पर जो बीज गिरेंगे, वे अंकुरित हो जाएंगे। लेकिन मेड़ से लोग कभी न कभी गुजरते हैं, वे भी बच न सकेंगे। खेत के ठीक बीच में जो बीज पड़ गए हैं, वे अंकुरित भी होंगे, बड़े भी होंगे, फूल को उपलब्ध भी होंगे।

श्रद्धा का बीज जब रहस्य की भूमि में गिरता है, तभी अंकुरित होता है। रहस्य की भूमि में श्रद्धा अंकुरित होती है। और श्रद्धावान ही--और ध्यान रहे, श्रद्धावान से मेरा मतलब कभी भी भूलकर विश्वास करने वाला नहीं है--श्रद्धावान अर्थात वह जो जीवन को रहस्य की भांति अनुभव करता है। ऐसा व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, अगर मेरे मार्ग पर आ जाए...और ऐसा व्यक्ति सदा ही पूरा का पूरा आ जाता है। क्योंकि रहस्य खंड-खंड नहीं बनाता, तर्क खंड-खंड बनाता है।

यह भी खयाल में ले लें कि  तर्क तोड़ता है; तर्क चल ही नहीं सकता तोड़े बिना। तर्क प्रिज्म की तरह है। जैसे कि कांच के प्रिज्म में से हम सूरज की किरण निकालें, तो सात टुकड़ों में टूट जाती है। ऐसे ही तर्क के प्रिज्म से कुछ भी निकले, तो खंड-खंड हो जाता है। तर्क तोड़ता है, एनालिटिक है। श्रद्धा जोड़ती है, सिंथेटिक है। सब जुड़ जाता है, एक हो जाता है, जैसे किरणें प्रिज्म से वापस लौट गईं और एक हो गईं।

रहस्य टोटल है। विश्वास हमेशा पार्शियल है। आप कभी पूरा विश्वास नहीं कर सकते। लेकिन आप कभी अधूरे रहस्य में नहीं हो सकते। यह आपने कभी खयाल किया, आप यह नहीं कह सकते कि मैं थोड़ा-थोड़ा रहस्य अनुभव कर रहा हूं! रहस्य जब भी अनुभव होता है, तो पूरा अनुभव होता है। रहस्य कभी थोड़ा-थोड़ा अनुभव नहीं होता। मिस्ट्री कभी थोड़ी-थोड़ी अनुभव नहीं होती है, पूरी अनुभव होती है। या तो होती है अनुभव या नहीं होती। लेकिन जब भी होती है, तो पूरी अनुभव होती है।

विश्वास सदा थोड़ा-थोड़ा होता है, इसलिए हिस्सा मन का कटा रहता है। रहस्य का अनुभव मन को इकट्ठा कर देता है। इसलिए जितना सरल चित्त व्यक्ति हो, उतने रहस्य को अनुभव कर पाता है। छोटे बच्चे इसीलिए, उनकी आंखों में, उनके उठने-बैठने, उनके खेलने में परमात्मा की झलक कहीं-कहीं से दिखाई पड़ती है। क्योंकि सारा जीवन रहस्य है। तितलियां उड़ रही हैं, और उनके लिए हीरे-जवाहरात उड़ रहे हैं। पत्थर खिसक रहे हैं, और उनके लिए स्वर्ग का आनंद उतर रहा है। नदी बह रही है, और उनके लिए द्वार खुला है कुबेर के खजाने का। सब रहस्य है। 

बच्चे श्रद्धालु होते हैं। कभी देखा है, बच्चे को बाप का हाथ पकड़े हुए? बाप का हाथ पकड़कर बच्चा चलता है। उसका हाथ बाप के हाथ को पकड़े हुए, देखा है कभी! कितना ट्रस्ट, बाप के हाथ को छोटा-सा बच्चा पकड़े हुए, कितना भरोसा! बाप को खुद इतना भरोसा नहीं है कि हाथ को संभाल पाएगा कि नहीं संभाल पाएगा; रास्ते का पता है या नहीं है! उसको खुद भी पता नहीं है कुछ भी। लेकिन बेटा उसके हाथ को इतने ट्रस्ट...। श्रद्धा के लिए अगर अंग्रेजी में ठीक शब्द है, तो वह ट्रस्ट है--बिलीफ नहीं, फेथ नहीं--ट्रस्ट। बेटा हाथ पकड़े हुए है, जैसे कि बाप परमात्मा है, सब उसे मालूम है।

एक बेटा आया है और अपनी मां की गोद में सिर रखकर सो गया है--ट्रस्ट! जैसे मां की गोद सारे दुखों के बाहर है, सारी चिंताओं के बाहर है। मां नहीं है बाहर चिंताओं के, मां नहीं है बाहर दुखों के, मां परेशानियों में हो सकती है। लेकिन जो छोटा-सा बेटा, दिनभर थका-मांदा बाहर से खेलकर लौट आया है, वह मां की गोद में सिर रखकर सो गया निश्चिंत, उसे परमात्मा की गोद मिल गई--ट्रस्ट। मां को नहीं है, बेटे को है। और इसलिए बेटे के लिए मां की गोद परमात्मा का स्थान बन सकती है। खुद मां को नहीं है वह अनुभव। वह ट्रस्ट ने उस गोद को इतना शांत, और इतने आनंद से भर दिया है।

कृष्ण कहते हैं, जो इतनी श्रद्धा से, जैसे कि छोटा बेटा बाप का हाथ पकड़ ले और बेटा मां की गोद में सिर रखकर सो जाए और समझे कि अब दुनिया में कोई खतरा नहीं है, अब दुनिया में कोई मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, अब बात खतम हो गई, अब वह निश्चिंत सो गया है, अब कोई चिंता नहीं है--इस भांति जो मेरी बात को मानकर चलता है, वह सब कर्मों से मुक्त हो जाता है।

लेकिन मेरी बात को मानकर चलता है। क्या कृष्ण का मतलब यह है कि जो किसी और की बात को मानकर चलता है, वह मुक्त नहीं होता? ऐसा मतलब लगाया जाता है; लगाएंगे ही। अनुयायी तो ऐसे अर्थ लगाएंगे ही। वे कहेंगे कि देखो, कृष्ण ने कहा है कि मेरी बात को मानकर जो चलता है, तो बाइबिल की बात मत मानना, नहीं तो भटक जाओगे; कुरान की बात मत मानना, नहीं तो भटक जाओगे। कृष्ण ने साफ कहा है कि जो मेरी बात मानकर चलता है श्रद्धापूर्वक, वह कर्मों के जाल से मुक्त हो जाता है। इतनी साफ बात और क्या? अब किसी और की मत मान लेना-- महावीर की मत मानना, बुद्ध की मत मानना।

लेकिन यह बिलकुल गलत अर्थ है। कृष्ण के भीतर से जो कह रहा है कि मेरी बात मानकर जो चलता है, वह पहुंच जाता है, वही बुद्ध के भीतर से कहता है कि मेरी बात मानकर जो चलता है, वह पहुंच जाता है। वही क्राइस्ट के भीतर से कहता है कि जो मेरी बात मानकर चलता है, वह पहुंच जाता है। वही मोहम्मद के भीतर से कहता है कि जो मेरी बात मानकर चलता है, वह पहुंच जाता है। वह जिस मैं की बात चल रही है, वह एक ही है। ये दरवाजे पच्चीस हैं, वह आवाज एक की है। इसलिए इस भ्रांति में मत पड़ना कि जो गीता की बात मानकर चलता है, वही पहुंच जाता है। कुरान की भी माने तो पहुंच जाएगा, बाइबिल की भी माने तो पहुंच जाएगा।

असली सवाल कुरान और बाइबिल का नहीं है, असली सवाल श्रद्धापूर्ण हृदय का है। इसमें एम्फेसिस में फर्क करना चाहता हूं। असली सवाल श्रद्धापूर्ण हृदय का है। अगर उतनी ही श्रद्धापूर्ण हृदय से कोई जीसस का हाथ पकड़ ले, तो वहां से भी पहुंच जाता है। कोई मोहम्मद का हाथ पकड़ ले, तो वहां से भी पहुंच जाता है। असली सवाल यह है कि श्रद्धापूर्ण हृदय, अनासक्त कर्म करता हुआ कर्म के बाहर पहुंच जाता है। और मेरी बात, कृष्ण की बात नहीं है। मेरी बात, परमात्मा की बात है।

कृष्ण सिर्फ झरोखा हैं, जिससे परमात्मा झांका है अर्जुन के सामने। कभी वह मोहम्मद से झांकता है, कभी वह मूसा से झांकता है। हजार-हजार झरोखों से वह झांकता है। और जब भी झांकता है, तब उसकी आवाज इतनी ही आथेंटिक होती है। वह कहता है, मेरी बात मानोगे, तो पहुंच जाओगे। और इससे बड़ा विवाद दुनिया में पैदा होता है। क्योंकि कोई कहते हैं, यह मोहम्मद ने कहा; कोई कहते हैं, यह कृष्ण ने कहा; कोई कहते हैं, क्राइस्ट ने कहा। फिर इन तीनों में झगड़ा होता है कि किसकी मानें! वे कहते हैं कि हमारे गुरु ने कहा है, मेरी जीसस ने कहा है, मैं हूं मार्ग, मैं हूं द्वार, जो मुझ पर चलेगा वह पहुंच जाएगा। आई एम दि वे। आई एम दि ट्रुथ, मैं हूं सत्य। मैं हूं द्वार। आओ, मुझ पर चलोगे, तो पहुंच जाओगे। अब वह जीसस का मानने वाला जरूर कहेगा ईसाई कि इतना साफ कहा है, और तुम कहां भटक रहे हो? राम को मानोगे, कृष्ण को मानोगे, बुद्ध को मानोगे, भटक जाओगे, नर्क में पड़ोगे।

लेकिन बड़ी भूल हो गई है। पूरी मनुष्यता से भूल हो गई है। यह जो भीतर से कह रहा है, आई एम दि वे, यह वही है, जो कृष्ण से कह रहा है, अर्जुन, मेरी बात मान, तो कर्म से मुक्त हो जाएगा। यह एक ही जीवन-धारा का अनेक-अनेक झरोखों से झांकना है।

समझें, ऐसा समझें कि गंगा के पास गए और गंगा ने कहा, मेरा पानी पीयोगे, तो प्यास से मुक्त हो जाओगे। फिर वोल्गा के किनारे गए और वोल्गा ने कहा, मेरा पानी पीयोगे, तो प्यास से मुक्त हो जाओगे। तुमने कहा कि यह तो बड़ा कंट्राडिक्टरी मामला है। गंगा भी यही कहती है, वोल्गा भी यही कहती है; हम किसकी मानें? हम तो गंगा को मानने वाले हैं, हम वोल्गा का पानी न पीएंगे। हम तो गंगा का ही पानी पीएंगे। तो आप पागल हैं। गंगा से जिस पानी ने कहा था कि मुझे पीयोगे, तो प्यास से मुक्त हो जाओगे, वही पानी वोल्गा से कह रहा है कि मुझे पीयोगे, तो प्यास से मुक्त हो जाओगे। गंगा और वोल्गा का फर्क पानी का फर्क नहीं है। गंगा और वोल्गा का फर्क सिर्फ तटों का फर्क है, पानी का फर्क नहीं है।

कृष्ण के तट अलग हैं, बुद्ध के तट अलग हैं। लेकिन जो जल की धार उनसे बहती है, वह एक ही परमात्मा की है। इसे स्मरण रखेंगे, तो यह बात ठीक से खयाल में आ सकती है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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