गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 36


 ज्ञान पवित्र करता है


न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

तत्स्वयं योगसंसिद्धिः कालेनात्मनि विन्दति।। 38।।


इसलिए इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निस्संदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने काल से अपने आप समत्व बुद्धिरूप योग के द्वारा अच्छी प्रकार शुद्धांतःकरण हुआ पुरुष आत्मा में अनुभव करता है।


ज्ञान से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। ज्ञान के सदृश कुछ भी नहीं है। ज्ञान से ज्यादा पवित्र करने वाला कोई स्रोत, कोई झरना नहीं है। ज्ञान है मुक्ति। ज्ञान है अमृत।

ज्ञान की यह जो पवित्र करने की क्षमता है, यह जो ज्ञान की स्वच्छ करने की क्षमता है, यह जो ज्ञान की  रूपांतरित करने की शक्ति है, इसके संबंध में कृष्ण कह रहे हैं। तीन बातें कह रहे हैं। ज्ञान से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। ज्ञान के सदृश पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं। ज्ञान को उपलब्ध हुआ आत्मा में प्रवेश कर जाता है। इन तीनों को अलग-अलग समझें।

अपवित्रता क्या है?  अपवित्र क्यों है मनुष्य? कौन-सी है गंदगी उसके प्राणों पर, जो भारी है। कौन-सा है अस्वच्छ कचरा, जो उसके चित्त पर बोझ है? कौन-सी अशुचि है? कौन है, क्या है, जो उसे रुग्ण और बीमार किए है?

मन में जैसे ही उठती है वासना, वैसे ही अशुचि प्रवेश कर जाती है। मन में जैसे ही उठती है कामना, वैसे ही मन गंदगी से भर जाता है। मन में जैसे ही उठी इच्छा कि ज्वर प्रवेश कर जाता है। उत्तप्त हो जाता है सब। अस्वस्थ हो जाता है सब। कंपनशील हो जाता है सब। कामना ही अशुचि है, अस्वच्छता है, अपवित्रता है।

जब भी मन में कुछ चाह उठती है, तब देखें। भीतर से सुगंध खो जाती और दुर्गंध शुरू हो जाती है। जब भी मन में कोई चाह उठती है, तब भीतर से शांति खो जाती और अशांति के वर्तुल खड़े हो जाते हैं, भंवर खड़े हो जाते हैं। जब भी मन में कोई चाह उठती है, तभी दीनता पकड़ लेती है। आदमी भिखारी की तरह भिक्षापात्र लेकर खड़ा हो जाता है, भिक्षु हो जाता है।

जब भी मन में चाह उठती है, तभी दूसरे से तुलना शुरू हो जाती है; ईष्या निर्मित होती है। और ईर्ष्या से ज्यादा गंदी और कोई चीज नहीं है चित्त में। जलन से, प्रतिस्पर्धा से, तुलना से भरा हुआ मन ही कुरूप है।

जैसे ही वासना उठती मन में, हिंसा उठती है। क्योंकि वासना को पूरा हिंसा के बिना किया नहीं जा सकता। फिर जो पाना है, वह किसी भी तरह पाना है। फिर चाहे कुछ भी हो, फिर उसे पा ही लेना है। फिर अंधा होता आदमी। जब वासना घनी होती है, तब ब्लाइंडनेस पैदा होती है। अंधा होता है। फिर आंख बंद करके दौड़ता पागल की तरह! क्योंकि अकेला ही नहीं दौड़ रहा है; और बहुत अंधे भी दौड़ रहे हैं। कोई और न छीन ले! संघर्ष होता। वैमनस्य होता। क्रोध होता। घृणा होती।

और मजा यह है कि सफल हो जाए वासना,  तो भी विषाद हाथ में आता है। और असफल हो जाए वासना, तो भी विषाद हाथ में आता है। दोनों ही स्थिति में अंततः दुख के आंसू हाथ में पड़ते हैं।

इसे थोड़ा खयाल में ले लेना जरूरी है। क्योंकि हमारा मन कहेगा, नहीं; अगर सफल हो जाए, फिर क्या? फिर तो सब ठीक है!

यही है राज कि सफल होकर भी वासना कहीं भी नहीं ठीक करती। असफल होकर तो करती ही नहीं; सफल होकर भी नहीं करती।


ध्यान रखें, आंसू आनंद में भी उठ सकते हैं। लेकिन आनंद के आंसू बड़े पवित्र होते हैं, उनकी सुवास की कोई सीमा नहीं है। दुख में भी आंसू गिरते हैं, तब उनकी अपवित्रता, उनकी गंध का कोई हिसाब नहीं है। आंसू वही होते हैं; भीतर का चित्त बदला होता है।

वासना, कामना, इच्छा कीड़ा है, जो भीतर गंदगी को पैदा करता है। हम सब हजार इच्छाओं में जीते हैं, हजार तरह की गंदगियों में जीते हैं।

ज्ञान की स्वच्छ करने की शक्ति यही है कि ज्ञान के उतरते ही इच्छा तिरोहित होती है। इच्छा की जगह अस्तित्व शुरू होता है।  फिर मांगता नहीं कि क्या मिले; जो मिला है, उसे परम प्रभु को धन्यवाद देकर चुपचाप स्वीकार करता है। दौड़ता नहीं है उसका चित्त कल के लिए; आज काफी है, पर्याप्त है। आज ही मिल गया है, यही क्या कम है। आज हूं, इतनी भी तो मेरी पात्रता नहीं है। जो मिला, वह मेरी योग्यता कहां है?

लेकिन कोई हममें से नहीं सोचता यह कि जो हमें मिला, उसकी हमारी योग्यता है? अगर मुझे आंखें न मिली होतीं, तो क्या मैं कह सकता था कि मेरी योग्यता है, मुझे आंखें दो! अगर मेरे पास हाथ न होते, तो क्या था प्रमाण मेरे पास कि मेरी योग्यता है, मुझे हाथ दो! अगर मैं जीवित ही न होता, तो क्या था उपाय कि मैं कहता कि मैं जीवन का अधिकारी हूं, मुझे जीवन दो! जो हमें मिला है, उसका हमें कोई हिसाब नहीं है, उसका कोई अनुग्रह नहीं है। क्योंकि वासना उसे दिखाई ही नहीं पड़ने देती, जो है। वासना कहती है वह, जो नहीं है।

बहुत कुछ है, जो नहीं है। अनंत है विस्तार जीवन का। सभी कुछ मेरे पास नहीं है। यद्यपि मेरे पास जो है, वह सभी कुछ से जरा भी कम नहीं है। लेकिन उसको देखे कौन? उसकी तरफ नजर कौन उठाए?


वासना हमें बुरी तरह भिखारी बना देती है।


ज्ञान स्वच्छ करता है वासना से; तृप्त करता है, जो है, उसमें। दौड़ाता नहीं उसके पीछे, जो नहीं है। हृदय से आलिंगन करा देता है उसका, जो है। अदभुत है तृप्ति, संतुष्टि फिर। उस संतुष्टि में वासना के सारे रोग और सारे विकार विदा हो जाते हैं; मन स्वच्छ हो जाता है। एकदम स्वच्छ और ताजा हो जाता है।

क्षण में जो जीता है, कल का जिसे हिसाब नहीं है, बीते कल का; आने वाले कल की जिसे अपेक्षा नहीं है; जो अभी और यहीं है, उसकी स्वच्छता का कोई अंत नहीं है। वह पवित्रतम है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की तरह पवित्र करने वाला, ज्ञान के सदृश पवित्र करने वाली कोई कीमिया, कोई केमिस्ट्री नहीं है।

इसलिए अगर बुद्ध की आंखों में पवित्रता दिखाई पड़ती है ऐसी, कि जिससे झीलें भी झेंप जाएं। कि बुद्ध के चेहरे पर रेखाएं दिखाई पड़ती हैं ऐसी, कि छोटे बच्चे भी, नवजात शिशु भी शर्माएं। कि बुद्ध के चलने में चारों तरफ हवा बहती है स्वच्छता की, निर्मल, कि मलय पर्वत से उठी हुई सुगंधित हवाएं भी फिर से विचार करें कि वे मलय पर्वत से आती हैं या कहीं और से! अगर महावीर की नग्नता में भी पवित्रतम के दर्शन होते हैं, तो उसका कारण है। अगर जीसस सूली पर लटके हैं और मृत्यु के क्षण में भी उनके भीतर से जीवन की ऊर्जा ही झलकती और प्रकट होती है।

ज्ञान ही एकमात्र पवित्रता है

कृष्ण कहते हैं, ज्ञान से ऊपर कुछ भी नहीं।

है भी नहीं। परम शिखर जीवन के अनुभव का, जान लेना है। निकृष्टतम खाई अज्ञान की, न जानने में पड़े रहना है। आत्म-अज्ञान गहनतम नर्क है; आत्म-ज्ञान श्रेष्ठतम स्वर्ग है। जो नहीं जानता अपने को, उससे नीचे और कुछ नहीं हो सकता। जो जान लेता अपने को, उसके ऊपर कुछ और नहीं है।

दो ही छोर हैं, अज्ञान और ज्ञान। इन दो के अतिरिक्त और कोई पोल्स नहीं हैं अस्तित्व के। एक तरफ अज्ञान का छोर है, जहां हम अपने को नहीं जानते। और जो अपने को नहीं जानता, वह और कुछ क्या जानेगा, खाक! कैसे जानेगा? उपाय क्या है? जो अपने को ही नहीं जानता, वह और क्या जानेगा? उसका सब जानना धोखा है। और जो अपने को जान लेता है, उसे और कुछ जानने को बचता नहीं। जिसने अपने को जान लिया, उसने सब जान लिया।

जाना जिसने स्वयं को, जाना उसने सब। स्वयं को जाना, तो सर्वज्ञ हुआ। सभी कुछ जान लिया। क्यों? इतना बड़ा वक्तव्य!  ऐसा निरपेक्ष वक्तव्य, कि जिसने अपने को नहीं जाना, उसने कुछ भी नहीं जाना। निश्चय ही, क्योंकि जानने की पहली किरण स्वयं से अगर न टूटे, तो और कहीं से नहीं टूट सकती।

जिसके अपने ही घर का दीया बुझा है, जिसको अपना बुझा दीया ही जिंदगी बनी है, अपना दीया जलाने का स्मरण भी जिसे नहीं आया अब तक, उसे कहीं और प्रकाश कहां हो सकता है? उसके हाथ में भी प्रकाश दे दो, तो बेमानी है।


अज्ञानी के हाथ में सारे जगत का ज्ञान दे दें, तो खतरा ही है। अज्ञानी के हाथ में ज्ञान न हो, वही बेहतर। आज यही तो हुआ है सारी दुनिया में। विज्ञान ने ज्ञान की राशि लगा दी अज्ञानी के हाथ में। यहां ज्ञान की जो बात कृष्ण कह रहे हैं, वह आत्मज्ञान है। स्वयं का ज्ञान प्राथमिक, मूलभूत ज्ञान है। उस ज्ञान को पा लेने से, कृष्ण कहते हैं, आत्मा में प्रवेश हो जाता है।

यह आखिरी बात भी समझ लेनी जैसी है।

आत्मा में प्रवेश हो जाता है। आत्मा से एकता हो जाती है। आत्मा में द्वार मिल जाता है। आत्मा ही हो जाता है, वैसा जानने वाला। तो क्या हम आत्मा नहीं हैं? हम सभी आत्मा हैं। सब किताबों में लिखा है! खुद कृष्ण ही कहते हैं कि सबके भीतर आत्मा है, वह मरती नहीं। जब हम सभी आत्मा हैं, तो अब ज्ञान की और क्या जरूरत है?


आपके घर में खजाना गड़ा है और आपको पता नहीं कि कहां गड़ा है। कुछ मतलब है? कोई बाजार में क्रेडिट मिलेगी उसकी? भिखमंगा हूं मैं और घर में खजाना गड़ा है। मेरा भिखमंगापन मिटेगा इससे? गड़ा रहे घर में खजाना; मुझे कुछ पता नहीं है, वह कहां है! जो खजाना पता न हो, वह न होने के बराबर है। जिसका पता हो, वही है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो जान लेता, वही आत्मा को उपलब्ध होता है। ज्ञान ही आत्मा है। अज्ञान का क्या अर्थ है, कि आत्मा है? सुनी हुई बातों की, खबरों की कोई कीमत है!

हम सबने सुना है, आत्मा है, बड़े निश्चिंत हैं। सोचते हैं, है ही। फर्क क्या है हममें और ज्ञानी में? थोड़ा ही फर्क है कि वह जानता है और हम नहीं जानते। फर्क कुछ भी नहीं है, हम सोचते हैं। फर्क बहुत बड़ा है। क्योंकि यह न जानना, न होने के बराबर है,  बिलकुल समतुल।

जब तक अज्ञान है, तब तक अनात्मा है। जब ज्ञान है, तभी आत्मा है। ज्ञान के पहले यह कहना कि मेरे भीतर आत्मा है, धोखा है बड़े से बड़ा। दूसरे के लिए नहीं, अपने लिए धोखा है। क्योंकि हो सकता है, दोहराते-दोहराते कि मैं आत्मा हूं, मैं यह भूल ही जाऊं कि मुझे पता नहीं है और मैं उधार शब्द दोहरा रहा हूं!


इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो जानता है, वही आत्मा को उपलब्ध होता है, वही प्रवेश कर पाता है, वही आत्मा हो पाता है।

आत्मा होना खेल नहीं है, बड़ी से बड़ी तपश्चर्या है। स्वयं को जानना लंबी यात्रा है। लेकिन दूसरे के उधार शब्दों को कंठस्थ कर लेना बड़ी सुगम बात है। स्कूल के बच्चे कर सकते हैं। बूढ़े भी वही करते रहते हैं।


 धर्म गणित की भांति नहीं है कि सीख लिया, दो और दो चार। धर्म फिजिक्स की भांति, भौतिकशास्त्र की भांति नहीं है कि सीख लिया, ग्रेविटेशन क्या है, गुरुत्वाकर्षण क्या है; कि न्यूटन के कानून क्या हैं; कि आइंस्टीन की रिलेटिविटी, सापेक्षता क्या है। सीख लिया, पढ़ लिया और सीख गए और जान गए। धर्म विज्ञान, साहित्य, काव्य, गणित, भाषा--इनमें से किसी की भांति नहीं है।

धर्म है प्रेम की भांति। वही जानता है, जो करता है। वही जानता है, जो धर्म हो जाता है। 

आत्मा शब्द थोड़ा-सा गलत है। उसमें अपने का खयाल पैदा होता है। आत्मा यानी मेरी, अपनी, स्वयं की! आत्मा शब्द थोड़ा-सा गलत है। 

आत्मा यानी परमात्मा। जैसे ही किसी ने जाना कि मैं क्या हूं, वैसे ही उसने जाना कि मैं सब हूं।

जैसे ही बूंद ने पहचाना कि मैं कौन हूं, कि बूंद ने समझा कि मैं सागर हूं। जब तक बूंद ने नहीं जाना कि मैं कौन हूं, तब तक वह बूंद है। जिस दिन जाना कि मैं कौन हूं, उस दिन वह सागर है। क्योंकि एक छोटी-सी बूंद में पूरा का पूरा सागर मौजूद है। एक छोटी-सी बूंद के गुणधर्म को हम समझ लें, पूरे सागर का गुणधर्म समझ में आ जाता है। छोटी-सी बूंद  छोटा-सा सागर। कहीं सागर छोटे हुए! सागर तो पूरा है। छोटा-सा दिखाई पड़ता है। है पूरा का पूरा।

आत्मा का जानना यानी परमात्मा का जानना है।

इसलिए ज्ञान सर्वोच्च है, क्योंकि उसी से हम सर्वोच्च शिखर परमात्मा को स्पर्श कर पाते हैं। अज्ञान निकृष्ट है, क्योंकि उसी के कारण हम सर्वोच्च के प्रति पीठ कर पाते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल 

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