गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 6 भाग 4

 


यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।

सर्वसंकल्प संन्यासी योगारूढस्तदोच्यते।। 4।।


और जिस काल में न तो इंद्रियों के भोगों में आसक्त होता है तथा न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है।



न इंद्रियों में आसक्ति है जिसकी, न कर्मों में; ऐसे क्षण में, जहां ये दो आसक्तियां शेष नहीं हैं--ऐसे क्षण में ऐसा पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है।

दो बातों को थोड़ा-सा समझ लेना उपयोगी है, इंद्रियों में आसक्ति नहीं है जिसकी और न कर्मों में। दोनों संयुक्त हैं। इंद्रियों में आसक्ति हो, तो ही कर्मों में आसक्ति होती है। इंद्रियों में आसक्ति न हो, तो कर्मों में आसक्ति का कोई उपाय नहीं है। इसलिए कृष्ण जब भी कुछ कहते हैं, तो उसमें एक वैज्ञानिक प्रक्रिया की सीढ़ी होती है। पहले कहते हैं, इंद्रियों में आसक्ति नहीं जिसकी। इंद्रियों में आसक्ति नहीं, तो कर्म में आसक्ति हो ही नहीं सकती। कर्म की सारी आसक्ति, इंद्रिय की आसक्ति का फैलाव है।

आप अगर धन इकट्ठा कर रहे हैं और धन को इकट्ठा करने में जो कर्म करना पड़ता है, उसमें बड़े आसक्त हैं, तो ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जो सिर्फ कर्म करने के लिए आसक्त हो। धन इंद्रियों के लिए जो दे सकता है, उसका आश्वासन ही आसक्ति का कारण है। धन इंद्रियों के लिए जो दे सकता है, उसका आश्वासन ही कर्म का आकर्षण है।

अगर कल पता चल जाए कि धन अब कुछ भी नहीं खरीद सकता, तो सारा आकर्षण क्षीण हो जाएगा। तब दुकान पर बैठकर आप दो पैसे ज्यादा छीन लें ग्राहक से, इसकी उत्सुकता में न रह जाएंगे। कभी भी न थे। दो पैसे छीनने को कोई भी उत्सुक न था। दो पैसे में कुछ मूल्य है! मूल्य क्या है? मूल्य इंद्रियों की तृप्ति है। धन का ठीक-ठीक जो मूल्य है, वैल्यू है, वह इकॉनामिक नहीं है, वह आर्थिक नहीं है। धन की गहरी मूल्यवत्ता मानसिक है। धन का वास्तविक मूल्य अर्थशास्त्री तय नहीं करते राजधानियों में बैठकर। धन का वास्तविक मूल्य मन की वासनाएं तय करती हैं, इंद्रियां तय करती हैं।

इसलिए महावीर जैसा व्यक्ति अगर धन नहीं साथ रखता, तो उसका कारण धन का त्याग नहीं है। उसका गहरा कारण इंद्रियों के लिए तृप्ति के आयोजन की जो आकांक्षा है, उसका विसर्जन है। फिर धन को रखने का कोई कारण नहीं रह जाता। फिर वह सिर्फ बोझ हो जाएगा। उसको ढोने की नासमझी महावीर नहीं करेंगे।


धन के लिए आदमी इतना आकुल-व्याकुल श्रम करता है। इतना दौड़ता है। वह इंद्रियों के लिए दौड़ रहा है। धन में भरोसा है, विश्वास है। धन खरीद सकता है सब कुछ। धन सेक्स खरीद सकता है। धन भोजन खरीद सकता है। धन वस्त्र खरीद सकता है। धन मकान खरीद सकता है। धन सुविधा खरीद सकता है। धन जो खरीद सकता है, उसमें ही धन का मूल्य है। धन सब कुछ खरीद सकता है। सिर्फ सुख को छोड़कर, धन सब कुछ खरीद सकता है।

लेकिन अगर यह आपको पता चल जाए कि धन सुख नहीं खरीद सकता, तो धन की दौड़ बंद हो जाए। इसलिए धन आश्वासन देता है कि मैं सुख खरीद सकता हूं। मैं ही सुख खरीद सकता हूं! खरीदता है दुख, लेकिन आश्वासन सुख का है।

सभी नर्कों के द्वार पर जो तख्ती लगी है, वह स्वर्गों की लगी है। इसलिए जरा सम्हलकर भीतर प्रवेश करना। तख्ती तो स्वर्ग की लगी है। नर्क वाले लोग इतने तो होशियार हैं ही कि बाहर जो दरवाजे पर नेम-प्लेट लगाएं, वह स्वर्ग की लगाएं। नहीं तो कौन प्रवेश करेगा? लिखा हो साफ कि यहां नर्क है, कोई प्रवेश नहीं करेगा।

तो आप इस भ्रम में मत रहना कि नर्क के द्वार पर दो हड्डियों का क्रास बनाकर और एक मुर्दे का चेहरा लगा होगा और लिखा होगा, डेंजर, इनफिनिट वोल्टेज! ऐसा कुछ नहीं लिखा होगा। लिखा है, स्वर्ग। आओ, कल्पवृक्ष यहीं है! तभी तो कोई नर्क के द्वार में प्रवेश करेगा। द्वार तो सब स्वर्ग के ही प्रवेश करते हैं लोग, पहुंच जाते हैं नर्क में, यह बात दूसरी है। द्वार तो सभी स्वर्ग के मालूम होते हैं।

इंद्रियां तृप्ति चाहती हैं। धन तृप्ति को दिलाने का आश्वासन दिलाता है। जीवन कर्म में रत हो जाता है। कर्म की आसक्ति, मूल में इंद्रियों की ही तृप्ति के लिए दौड़ है।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों में जिसकी आसक्ति न रही।

किसकी न रहेगी इंद्रियों में आसक्ति? हम तो जानते ही नहीं कि इंद्रियों के जोड़ के अलावा भी हममें कुछ और है। है कुछ और? अगर आंख फूट जाए मेरी--आपकी नहीं कह रहा--अगर मेरी आंख फूट जाए, मेरे कान टूट जाएं, मेरे हाथ कट जाएं, मेरी जीभ न हो, मेरी नाक न हो, तो मैं क्या हूं? कुछ भी न रहा। इन पांच इंद्रियों के जोड़ से अगर मेरी एक-एक इंद्रिय निकाल ली जाए, तो पीछे क्या बचेगा? कुछ भी बचता हुआ मालूम नहीं पड़ता।

आदमी की आंख चली जाती है, तो आधा आदमी चला जाता है। कान चले जाते हैं, तो और गया। हाथ चले जाते हैं, तो और गया। अगर हमारी पांचों इंद्रियां छीनी जा सकें और हमें किसी तरह जिंदा रखा जा सके, तो हममें क्या बचेगा? कुछ भी नहीं बचेगा। क्योंकि हमारा सारा अनुभव इंद्रियों के अनुभव का जोड़ है। अगर हमें लगता है कि मैं कुछ हूं, तो वह मेरी इंद्रियों का जोड़ है।

तो जिसको ऐसा लगता है कि मैं इंद्रियों का जोड़ हूं, वह पुरुष कहीं इंद्रियों की आसक्ति से मुक्त हो सकेगा? अगर मैं इंद्रियों का जोड़ हूं, तो इंद्रियों की आसक्ति से मुक्त होना तो सिर्फ आत्मघात है; और कुछ भी नहीं। मैं मर जाऊंगा, और क्या होगा!

लेकिन कृष्ण तो कहते हैं कि इंद्रियों की आसक्ति से जो पार हो गया, वह योगारूढ़ हो गया। वे कहते हैं, मर नहीं जाएगा, बल्कि वही पूरे अर्थों में जीवन को पाएगा।

पर हमें उस जीवन का कोई भी पता नहीं है। हमें तो इंद्रियों का जोड़ ही हमारा जीवन है। अगर हमारी इंद्रियों के अनुभव एक-एक करके हटा दिए जाएं, तो पीछे जीरो, शून्य बचेगा, कुछ भी नहीं बचेगा। हाथ कुछ भी नहीं लगेगा। सब जोड़ कट जाएगा। तो हम कैसे इंद्रियों से, इंद्रियों की आसक्ति से मुक्त हो जाएं? इंद्रियों की आसक्ति से मुक्त होने के लिए पहला सूत्र खयाल में रखें, तभी हो सकेंगे।

जब कोई इंद्रिय मांग करे, जब कोई इंद्रिय चुनाव करे, जब कोई इंद्रिय भोग करे, जब कोई इंद्रिय तृप्ति के लिए आतुर होकर दौड़े, तब आपको कुछ करना पड़ेगा इस सत्य को पहचानने के लिए कि मैं इंद्रिय नहीं हूं।

जब आप भोजन करते हैं, तो आप भोजन की इंद्रिय ही हो जाते हैं। उस समय थोड़ा स्मरण रखना जरूरी है, सच में मैं भोजन कर रहा हूं? भोजन करते वक्त चौंककर एक बार देखना जरूरी है, मैं भोजन कर रहा हूं? कहीं भी भीतर खोजें, मैं भोजन कर रहा हूं?

तो आपको एक फर्क दिखाई पड़ेगा। आप भोजन कर ही नहीं रहे हैं; आप तो भोजन से बहुत दूर हैं। शरीर भोजन कर रहा है। भोजन आपको छूता भी नहीं कहीं। आपकी कांशसनेस को, आपकी चेतना को कहीं स्पर्श भी नहीं करता है। कर भी नहीं सकता है।

चेतना को कोई पदार्थ कैसे स्पर्श करेगा! लेकिन चेतना चाहे, तो पदार्थ के प्रति आसक्त हो सकती है। पदार्थ स्पर्श नहीं करता; लेकिन चेतना चाहे, तो आकर्षित हो सकती है। चेतना चाहे, तो पदार्थ के साथ अपने को बंधन में अनुभव कर सकती है, बंधा हुआ मान सकती है।

जब आप भोजन करते हैं, तो कहते हैं, मैं भोजन कर रहा हूं। भूल जरा और गहरी है; जब आपको भूख लगती है, तभी से शुरू हो जाती है। तब आप कहते हैं, मुझे भूख लगी है। थोड़ा गौर से देखें, आपको कभी भी भूख लगी है? आप कहेंगे, निश्चित ही, रोज लगती है। फिर भी मैं आपसे कहता हूं, आपको भूख कभी भी नहीं लगी; भ्रांति हुई है। भूख तो शरीर को ही लगती है। आपको सिर्फ पता चलता है कि शरीर को भूख लगी है। लेकिन इतनी लंबी प्रक्रिया में आप नहीं जाते। सीधी छलांग लगा देते हैं कि मुझे भूख लगी है। भूख शरीर को लगती है, आप सिर्फ कांशस होते हैं कि शरीर को भूख लगी है। आप सिर्फ होश से भरते हैं कि शरीर को भूख लगी है। लेकिन चूंकि शरीर को आपने माना मैं, इसलिए आप कहते हैं कि मुझे भूख लगी है।

अब जब भूख लगे, तो आप गौर से देखें कि आपकी चेतना, जिसे पता चलता है कि भूख लगी है और आपका शरीर जहां भूख लगती है, ये एक चीजें नहीं हैं; दो चीजें हैं। जब पैर में चोट लगती है, तो आपको चोट नहीं लगती। आपको पता चलता है कि शरीर को चोट लगी है। लेकिन भाषा ने बड़ी भ्रांतियां खड़ी कर दी हैं। भाषा में संक्षिप्त, हम कहते हैं, मुझे चोट लगी है। अगर सिर्फ भाषा की भूल हो, तब तो ठीक है। लेकिन गहरे में चेतना की भूल हो जाती है।

जब आप जवान होते हैं, तो कहते हैं, मैं जवान हो गया। जब आप बूढ़े होते हैं, तो कहते हैं, मैं बूढ़ा हो गया। वही भूल है। वह जो भूख वाली भूल है, वह फैलती चली जाती है। आप जरा भी बूढ़े नहीं हुए। आंख बंद करके पता लगाएं कि चेतना बूढ़ी हो गई? चेतना पर कहीं भी बुढ़ापे की झुर्रियां न दिखाई पड़ेंगी। और चेतना पर कहीं भी बुढ़ापे का कोई झुकाव नहीं आया होगा। चेतना वैसी की वैसी है, जैसे बच्चे में थी। जन्म के वक्त जितनी ताजी थी, मरते वक्त भी उतनी ही ताजी होती है।

चेतना बासी होती ही नहीं। लेकिन शरीर बासा होता चला जाता है। शरीर जीर्ण-जर्जर होता चला जाता है। और हम चौबीस घंटे की पुरानी भ्रांति को दोहराए चले जाते हैं कि मैं शरीर हूं, इसलिए आदमी रोता है कि मैं बूढ़ा हो गया।

चेतना कभी बूढ़ी नहीं होती। और इसीलिए, अगर आपकी आंख बंद रखी जाएं, और आपको आपके शरीर का पता न चलने दिया जाए, और सालभर बीत जाए, दस साल बीत जाएं; आपको भोजन दे दिया जाए, लेकिन कभी दर्पण न देखने दिया जाए, तो क्या दस साल बाद आप सिर्फ भीतर चेतना के अनुभव से कह सकेंगे कि मैं दस साल बूढ़ा हो गया? आप न कह सकेंगे। आपको पता ही नहीं चलेगा।

इसीलिए कई दफे बड़ी भूलें हो जाती हैं। कई दफे भूलें हो जाती हैं। कई दफे किन्हीं गहरे क्षणों में बूढ़े भी बच्चों के जैसा व्यवहार कर जाते हैं। वह इसीलिए कर जाते हैं, और कोई कारण नहीं है। भीतर चेतना तो कभी बूढ़ी होती नहीं, ऊपर की खोल ही बूढ़ी होती है। इसलिए कभी-कभी बूढ़े भी जवानों जैसा व्यवहार कर जाते हैं, उसका कारण वही है। भीतर चेतना कभी बूढ़ी नहीं होती।

और वैज्ञानिक हार्मोन्स खोज ही लिए हैं, आज नहीं कल वे इंजेक्शन तैयार कर ही लेंगे कि एक बूढ़े आदमी को इंजेक्शन दे दिया, उसकी दस साल उम्र कम हो गई! एक इंजेक्शन दिया, उसकी बीस साल उम्र कम हो गई! शरीर के हार्मोन बदले जाएं, तो साठ साल का आदमी अपने को तीस साल का अनुभव जिस दिन करने लगेगा, उस दिन बड़ी मुश्किल होगी उसको। शरीर तो साठ साल का ही मालूम पड़ेगा। लेकिन हार्मोन के बदल जाने से उसकी आइडेंटिटी फिर बदलेगी। वह तीस साल जैसा व्यवहार करना शुरू कर देगा।

चेतना की कोई उम्र नहीं है। शरीर की जैसी उम्र हो जाए, चेतना अपने को वैसा ही मान लेती है। चेतना को सिर्फ होश है। और होश का हम दुरुपयोग कर रहे हैं। होश से हम दो काम कर सकते हैं। होश से हम चाहें तो शरीर के साथ अपने को एक मान सकते हैं; यह अज्ञान है। होश से हम चाहें तो शरीर से अपने को भिन्न मान सकते हैं; यही ज्ञान है।

इंद्रियों की आसक्ति से वही मुक्त होगा, जो शरीर से अपने को भिन्न मानने में समर्थ हो जाए।

तो उपाय करें, जिनसे आपके और शरीर के भिन्नता का बोध तीखा और प्रखर होता चला जाए। जब भूख लगे, तो कहें जोर से कि मेरे शरीर को भूख लगी है। और जब भोजन से तृप्ति हो जाए, तो कहें जोर से कि मेरा शरीर तृप्त हुआ। जब नींद आए, तो कहें कि मेरे शरीर को नींद आती है। और जब बीमार पड़ जाएं, तो कहें कि मेरा शरीर बीमार पड़ा। इसे जोर से कहें, ताकि आप भी इसे गौर से सुन सकें और इस अनुभव को गहरा करते चले जाएं। ज्यादा देर नहीं होगी कि आपको यह प्रतीति सघन होने लगेगी।

ये सारी प्रतीतियां सजेशंस हैं हमारे। हम कहते हैं, मैं शरीर हूं बार-बार, तो यह सजेशन बन जाता है, यह मंत्र बन जाता है। हम हिप्नोटाइज्ड हो जाते हैं। मानने लगते हैं, शरीर हो गए। कहें जोर से, तो हिप्नोटिज्म टूट जाएगा, सम्मोहन टूट जाएगा; डिहिप्नोटाइज्ड हो जाएंगे। और जान पाएंगे कि मैं शरीर नहीं हूं।

जिस दिन जान पाएंगे, मैं शरीर नहीं हूं, उसी दिन इंद्रियों की आसक्ति विदा हो जाएगी। और जिस दिन इंद्रियों की आसक्ति विदा होती है, उसी दिन कर्म में कोई आसक्ति नहीं रह जाती। क्या इसका यह मतलब है कि फिर भूख लगेगी, तो आप भोजन नहीं करेंगे? नहीं।

हां, इसका यह मतलब जरूर है कि फिर भूख लगेगी, तो ही आप भोजन करेंगे। और इसका यह मतलब जरूर है कि जब भूख समाप्त हो जाएगी, तब आप तत्काल भोजन बंद कर देंगे। इसका यह मतलब भी जरूर है कि तब आप ज्यादा भोजन न कर सकेंगे। और इसका यह मतलब भी जरूर है कि तब आप गलत भोजन भी न कर सकेंगे।

गलत, और ज्यादा, और व्यर्थ का भोजन जो हम लादे चले जाते हैं, वह हमारी इंद्रियों की आसक्ति से पैदा होता है, शरीर की भूख से नहीं। मांसाहार किए चले जाते हैं, शराब पीए चले जाते हैं, कुछ भी खाए चले जाते हैं, उसका कारण भूख नहीं है। उसका कारण इंद्रियों की आसक्ति है।

हां, इंद्रियों की आसक्ति चली जाए, तो भूख तो लगेगी; और मैं आपसे कहूं कि और भी शुद्धतर भूख की प्रतीति होगी। और भी शुद्धतर! लेकिन तब आप भोजन तभी कर सकेंगे, जब भूख लगेगी। अभी तो जब भोजन दिख जाए, तभी भूख लग जाती है। भोजन न भी दिखे, तो मन में ही भोजन की कल्पना चलती है और भूख लग जाती है। अभी तो हमारी अधिक भूख फैलेसियस है, धोखे की है।

जो लोग शरीर शास्त्र का अध्ययन करते हैं, वे कहते हैं कि अधिक लोग, भूख नहीं लगती है, तब खा लेते हैं; और उसी की वजह से हजारों बीमारियां पैदा होती हैं। समय से खा लेते हैं, कि बस हो गया वक्त भोजन का, तो भोजन कर लेते हैं। फिर स्वाद से खा लेते हैं, क्योंकि अच्छा लग रहा है, स्वादिष्ट लग रहा है, तो और डाले चले जाते हैं! और कभी इस बात की फिक्र नहीं करते कि भूख का क्या हाल है!

भूख से कोई संबंध हमारे भोजन का नहीं रह गया है। भोजन एक मानसिक विलास बन गया है। भूख एक शारीरिक जरूरत है, भूख एक आवश्यकता है। भोजन एक वासना बन गई है। हमने भूख के अतिरिक्त भी भोजन में रस पैदा कर लिए हैं, वे जो इंद्रियों की आसक्ति से आते हैं।

सभी तरफ ऐसा हुआ है। कामवासना के संबंध में भी ऐसा हुआ है। पशु भी हमसे ज्यादा संयत व्यवहार करते हैं कामवासना में। पीरियाडिकल है। एक अवधि होती है, तब पशु कामातुर होता है। लेकिन मनुष्य अकेला पशु है पृथ्वी पर, जो चौबीस घंटे, सालभर कामातुर होता है। चौबीस घंटे! पशु जब कामातुर होता है, तब मादा नर को या नर मादा को खोजता है। मनुष्य अलग है। उसको नारी दिख जाए, पुरुष दिख जाए, कामातुर हो जाता है। उलटा है। कामातुरता पहले आ जाती है पशु में, तब खोज शुरू होती है। मनुष्य को पहले आब्जेक्ट दिखाई पड़ जाए, विषय दिखाई पड़ जाए, और कामातुरता पैदा हो जाती है।


इंद्रियासक्ति शरीर को विकृत व्यवस्था दे जाती है। ऐसा व्यक्ति, जिसकी इंद्रिय की आसक्ति नहीं है, उसको भी भूख लगेगी। लेकिन भूख शुद्ध होगी। और भूख वहीं तक होगी, जहां तक आवश्यकता है। और आवश्यकताएं बहुत कम हैं। वासनाएं अनंत हैं; आवश्यकताएं बड़ी सीमित हैं। स्वाद का कोई अंत नहीं। भोजन तो बहुत थोड़ा काफी है।

और जीवन की समस्त दिशाओं में ऐसा ही परिणाम होगा। सब तरफ शुद्धतम आवश्यकताएं रह जाएंगी। कुछ आवश्यकताएं ऐसी हैं, जो व्यक्ति की आवश्यकताएं ही नहीं हैं। उनसे व्यक्ति मुक्त हो जाएगा। जैसे सेक्स। यह बहुत मजे की बात है कि भोजन आपके शरीर की आवश्यकता है, लेकिन आपने कभी सोचा न होगा कि कामवासना आपकी आवश्यकता नहीं है। कामवासना समाज की आवश्यकता है। अगर आप भोजन न करें, तो आप मर जाएंगे। और अगर आप में कामवासना न रहे, तो संतति मर जाएगी, आगे समाज की धारा मर जाएगी। सेक्स जो है, बायोलाजिकल है। आपकी आवश्यकता नहीं है उतनी, जितनी प्रकृति आपसे किसी को पैदा करवा लेगी, इसके पहले कि आप मरें। वह प्रकृति की जरूरत है।

और जो व्यक्ति यह जान लेता है कि मैं इंद्रियों के पार हूं, वह यह भी जान लेता है कि मैं प्रकृति के पार हूं। वह प्रकृति के चंगुल और जाल के बाहर हो जाता है।

तो जैसे भोजन तो जारी रहेगा, लेकिन काम तिरोहित हो जाएगा। यह मैंने फर्क करने को कहा कि हमारी आवश्यकताओं में भी भेद हैं। जिस व्यक्ति की इंद्रिय-आसक्ति मिट गई, उसकी भूख शुद्ध होकर सीमित, स्वाभाविक हो जाएगी। उसका काम शुद्ध होकर राम की ओर गतिमान हो जाएगा। उसकी कामवासना विलीन हो जाएगी। क्योंकि वह व्यक्ति की जरूरत ही नहीं है, वह प्रकृति की जरूरत है। आप मर जाएं, इसके पहले प्रकृति आपसे इतना काम ले लेना चाहती है कि अपनी जगह किसी को छोड़ जाएं। बस, उससे आपका कोई प्रयोजन नहीं है। वह आपकी जरूरत नहीं है गहरे में।

लेकिन इंद्रिय से भरा हुआ मन उलटा सोचेगा। वह सोचेगा, एक बार भूखा रह जाए, राजी हो जाएगा, लेकिन कामवासना से रुकने को राजी नहीं रहेगा। भूख छोड़ देगा, धन छोड़ देगा, स्वास्थ्य छोड़ देगा, लेकिन कामवासना के पीछे पड़ा रहेगा। वे विकृत हो गई इंद्रियां हैं।

जैसे ही इंद्रियां प्रकृतिस्थ होंगी, सुकृत होंगी, सहज होंगी, वैसे ही जो व्यक्ति की आवश्यकता है, वह सरल हो जाएगी। और जो व्यक्ति की आवश्यकता नहीं है, वह तिरोहित हो जाएगी।

ऐसे व्यक्ति के कर्म का क्या होगा?

कर्म के प्रति उसकी आसक्ति खो जाएगी, लेकिन कर्म बंद नहीं होगा। और जब कर्म के प्रति आसक्ति खोती है, तो जो गलत कर्म हैं, वे विदा हो जाते हैं; और जो सही कर्म हैं, वे और भी बड़ी ऊर्जा से सक्रिय हो जाते हैं। धीरे-धीरे व्यक्ति के जीवन में शुभ कर्म रह जाते हैं, अशुभ कर्म तिरोहित हो जाते हैं।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)


हरिओम सिगंल

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