गीता ज्ञान दर्शन अध्याय 4 भाग 6

 


 अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।। 6।।


मैं अविनाशी स्वरूप अजन्मा होने पर भी तथा सब भूत प्राणियों का ईश्वर होने पर भी अपनी प्रकृति को अधीन करके योगमाया से प्रकट होता हूं।


कृष्ण यहां चेतना कैसे प्रकट होती है पदार्थ में, परमात्मा कैसे आविर्भूत होता है प्रकृति में, अदृश्य कैसे दृश्य के शरीर को ग्रहण करता है, अलौकिक कैसे लौकिक बन जाता है, अज्ञात असीम अनंत कैसे सीमा और सांत में बंधता है, उसका सूत्र कहते हैं।

वे कहते हैं, मैं और लोगों की भांति जन्मा हुआ नहीं हूं।

यहां एक बात तो सबसे पहले ठीक से समझ लें कि जब वे कहते हैं, मैं और लोगों की भांति जन्मा हुआ नहीं हूं, तो इसका जैसा अब तक मतलब लिया जाता रहा है, वैसा मतलब नहीं है। लोग कहेंगे कि यहां वे कह रहे हैं कि मैं भगवान का अवतार हूं, बाकी लोग नहीं है। ऐसा नहीं कह रहे हैं। यहां वे इतना ही कह रहे हैं कि जन्मता तो कोई भी नहीं है, लेकिन दूसरे मानते हैं कि वे जन्मते हैं; और जब तक वे मानते हैं कि जन्मते हैं, तब तक मरते हैं। उनकी मान्यता ही उनकी सीमा है। यहां वे कह रहे हैं, मैं औरों की भांति जन्मा हुआ नहीं हूं। यहां उनका प्रयोजन है कि मैं जानता हूं भलीभांति, जैसा कि और नहीं जानते--कि मैं अजन्मा हूं, मेरा कभी जन्म नहीं हुआ।

एक बहुत सोचने और खयाल में और कभी भीतर खोजने जैसी बात है। कितना ही मन में सोचें, आप यह कभी सोच न पाएंगे, इनकंसीवेबल है, इसकी कल्पना नहीं बनती कि मैं मर जाऊंगा। कितनी ही कोशिश करें इसकी कल्पना बनाने की, कल्पना भी नहीं बनती कि मैं मर जाऊंगा। इसका खयाल ही भीतर नहीं पकड़ में आता कि मैं मर जाऊंगा। इसीलिए तो इतने लोग चारों तरफ मरते हैं, फिर भी आपको खयाल नहीं आता कि मैं मर जाऊंगा। भीतर सोचने जाओ, तो ऐसा लगता ही नहीं कि मैं मरूंगा। भीतर मृत्यु के साथ कोई संबंध ही नहीं जुड़ता।

कल्पना करें, अगर आपको ऐसी जगह रखा जाए जहां कोई न मरा हो और आपने कभी मरने की कोई घटना न देखी हो, आपने मृत्यु शब्द न सुना हो, आपको किसी ने मौत के बाबत कुछ न बताया हो, क्या आप अपने ही तौर अकेले ही कभी भी सोच पाएंगे कि आप मर सकते हैं? नहीं सोच पाएंगे। यह निजी एकांत में आप न खोज पाएंगे कि आप मर सकते हैं, क्योंकि मृत्यु की कल्पना ही भीतर नहीं बनती।

भीतर जो है, वह मरणधर्मा नहीं है। भीतर जो है, वह मरणधर्मा नहीं है; वह अजन्मा भी है। असल में वही मरता है, जो जन्मता है। जो नहीं जन्मता, वही नहीं मरता है।

कृष्ण कहते हैं, मैं अजन्मा हूं, अजात, जो कभी जन्मा नहीं, अनबॉर्न। और इसलिए अनडाइंग हूं, मरूंगा भी नहीं। औरों की भांति मैं जन्मा हुआ नहीं हूं, अर्जुन!

और तो सभी मानते हैं कि उनका जन्मदिन है। उनके मानने में ही उनकी भ्रांति है। ऐसा नहीं है कि वे जन्मे हैं, जन्मे तो वे भी नहीं हैं। लेकिन जिस दिन वे जान लेंगे कि वे जन्मे नहीं हैं, वे भी मेरे ही भांति हो जाएंगे, वे भी मेरे ही रूप हो जाएंगे।

यह जो अजन्मा है, जो कभी जन्मता नहीं है, वह भी तो आया है। वह भी तो उतरा है, आविर्भूत हुआ है। वह भी तो पैदा हुआ है। वह भी तो जन्मा ही है। कृष्ण भी तो जन्मे ही हैं।


 बच्चे रोते हुए पैदा होते हैं और बूढ़े रोते हुए मरते हैं। असल में दोनों छोर हमेशा मिल जाते हैं। असल में दोनों छोर बराबर एक से हो जाते हैं। बूढ़ा रोता हुआ मरता है, तो हमारी समझ में आता है कि क्यों मरता है रोता हुआ, जिंदगी छूट रही है इसलिए। इसलिए हम सोचते हैं, रो रहा है। जिसे हम जिंदगी जानते थे, वह हाथ से जा रही है, इसलिए रो रहा है। लेकिन बच्चा क्यों रोता है? ठीक वही बात जो बूढ़े की है। उसकी भी कोई जिंदगी छूटती है। हमें दूसरा छोर दिखाई पड़ रहा है उसके छूटने का। बूढ़े का पहला छोर दिखाई पड़ रहा है छूटने का; बच्चे का दूसरा छोर दिखाई पड़ रहा है छूटने का।

असल में बूढ़ा जो रोता है, वही रोना बच्चे के जन्म तक जारी रहता है। वे एक ही चीज के दो छोर हैं। इधर बूढ़ा रोता है, यह एक पर्दा गिरा नाटक का। यह आदमी पर्दे के पीछे गया, रोता हुआ पर्दे के पीछे गया। पर्दे के पीछे उतरा, रोता हुआ उतरा। उधर उसका जन्म हो रहा है, इधर उसकी मौत हुई थी। इधर एक आदमी मरा, उधर जन्मा। रोता हुआ मरता है, रोता हुआ जन्मता है।


कृष्ण कहते हैं, अजन्मा हूं मैं। यहां जिस मैं की बात कर रहे हैं, वह परम मैं, परमात्मा का मैं। मेरा कोई जन्म नहीं; फिर भी उतरा हूं इस शरीर में। तो फिर इस शरीर में उतरना क्या है? उसको वे कहते हैं, योगमाया से।

इस शब्द को समझना जरूरी होगा, क्योंकि यह बहुत की, बहुत कुंजी जैसे शब्दों में से एक है, योगमाया। योगमाया से, इसका क्या अर्थ है? इसका क्या अर्थ है? थोड़ा-सा सम्मोहन की दो-एक बातें समझ लें, तो यह समझ में आ सकेगा।

योगमाया का अर्थ है--या ब्रह्ममाया कहें या कोई और नाम दें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता--अर्थ यही है कि अगर आत्मा चाहे, आकांक्षा करे, तो वह किसी भी चीज में प्रवेश कर सकती है। आकांक्षा करे, तो किसी भी चीज के साथ संयुक्त हो सकती है। आकांक्षा करे, तो जो नहीं होना चाहिए वस्तुतः, वह भी हो सकता है। संकल्प से ही हो जाता है।

सम्मोहन के मैंने कहा एक-दो सूत्र समझें, तो योगमाया समझ में आ सके। वह भी एक ग्रेटर हिप्नोसिस है। कहें कि स्वयं परमात्मा अपने को सम्मोहित करता है, तो संसार में उतरता है, अन्यथा नहीं उतर सकता। परमात्मा को भी संसार में उतरना है--हम भी उतरते हैं, तो सम्मोहित होकर ही उतरते हैं। एक गहरी तंद्रा में उतरें, तो ही पदार्थ में प्रवेश हो सकता है, अन्यथा प्रवेश नहीं हो सकता। इसलिए जाग जाएं, तो पदार्थ के बाहर हो जाते हैं। और सम्मोहन में डूब जाएं, तो पदार्थ के भीतर हो जाते हैं।


कृष्ण कहते हैं कि मैं--परमात्मा की तरफ से बोल रहे हैं कि मैं--अपनी योगमाया से शरीर में उतरता हूं।

शरीर में उतरना तो सदा ही सम्मोहन से होता है। लेकिन सम्मोहन दो तरह के हो सकते हैं। और यही फर्क अवतार और साधारण आदमी का फर्क है। अगर आप जानते हुए, कांशसली, सचेत, शरीर में उतरें--जानते हुए--तो आप अवतार हो जाते हैं। और अगर आप न जानते हुए शरीर में उतरें, तो आप साधारण व्यक्ति हो जाते हैं। सम्मोहन दोनों में काम करता है। लेकिन एक स्थिति में आप सम्मोहित होते हैं प्रकृति से और दूसरी स्थिति में आप आत्म-सम्मोहित होते हैं, आटो-हिप्नोटाइज्ड होते हैं। आप खुद ही अपने को सम्मोहित करके उतरते हैं। कोई दूसरा नहीं, कोई प्रकृति आपको सम्मोहित नहीं करती।

साधारणतः हमारा जन्म इच्छाओं के सम्मोहन में होता है। मैं मरूंगा। हजार इच्छाएं मुझे पकड़े होंगी, वे पूरी नहीं हो पाई हैं। वे मेरे मन-प्राण पर अपने घोंसले बनाए हुए बैठी हैं। वे मेरे मन-प्राण को कहती हैं कि और शरीर मांगो, और शरीर लो; शीघ्र शरीर लो, क्योंकि हम अतृप्त हैं; तृप्ति चाहिए। जैसे रात आप सोते हैं। और अगर आप सोचते हुए सोए हैं कि एक बड़ा मकान बनाना है, तो सुबह आप पुनः बड़ा मकान बनाना है, यह सोचते हुए उठते हैं। रातभर आकांक्षा प्रतीक्षा करती है कि ठीक है, सो लो। उठो, तो वापस द्वार पर खड़ी है कि बड़ा मकान बनाओ।

रात आखिरी समय, सोते समय जो आखिरी विचार होता है, वह सुबह के समय, उठते वक्त पहला विचार होता है। खयाल करना तो पता चलेगा। अंतिम विचार, सुबह का पहला विचार होता है। मरते समय आखिरी विचार, जन्म के समय पहला विचार बन जाता है। बीच में नींद का थोड़ा-सा वक्त है। वह खड़ा रहता है; इच्छा पकड़े रहती है। और वह इच्छा आपको सम्मोहित करती है और नए जन्म में यात्रा करवा देती है।

जब कृष्ण कह रहे हैं, औरों की भांति, तो फर्क इतना ही है कि और अपनी-अपनी इच्छाओं के सम्मोहन में नए जन्म में प्रविष्ट हुए हैं। उन्हें कुछ पता नहीं है। जानवरों की तरह गलों में रस्सियां बंधी हों, ऐसे बंधे हुए खींचे गए हैं इच्छाओं से। इच्छाओं के पाश में बंधे पशुओं की भांति बेहोश, मूर्च्छित वे नए जन्मों में प्रविष्ट हुए हैं। न उन्हें याद है मरने की, न उन्हें याद है नए जन्म की; उन्हें सिर्फ याद हैं अंधी इच्छाएं। और वे फिर जैसे ही शक्ति मिलेगी, शरीर मिलेगा, अपनी इच्छाओं को पूरा करने में लग जाएंगे। उन्हीं इच्छाओं को, जिन्हें उन्होंने पिछले जन्म में भी पूरा करना चाहा था और पूरा नहीं कर पाए। उन्हीं इच्छाओं को, जिन्हें उन्होंने और भी पिछले जन्मों में पूरा करना चाहा था और पूरा नहीं कर पाए। उन्हीं इच्छाओं को, जिन्हें उन्होंने जन्मों-जन्मों में पूरा करना चाहा था और पूरा नहीं कर पाए। उन्हीं को वे पुनः पूरा करने में लग जाएंगे। एक वर्तुल की भांति, एक विसियस सर्कल की भांति, दुष्टचक्र घूमता रहेगा।

कृष्ण जैसे व्यक्ति जानते हुए जन्मते हैं, किसी इच्छा के कारण नहीं, कोई अंधी इच्छा के कारण नहीं। फिर किसलिए जन्मते होंगे? जब इच्छा न बचे, तो कोई किसलिए जन्मेगा? जब इच्छा न बचे, तो नए जन्म को धारण करने का कारण क्या रह जाएगा? इच्छा तो मूर्च्छित-जन्म का कारण है। फिर क्या कारण रहेगा? अकारण तो कोई पैदा नहीं हो सकता। इसलिए अकारण कोई पैदा होता भी नहीं। लेकिन जब इच्छा विलीन हो जाती है--और जब इच्छा विलीन हो जाती है तभी--करुणा का जन्म होता है, कम्पैशन का जन्म होता है।

कृष्ण, बुद्ध या महावीर जैसे व्यक्ति करुणा के कारण पैदा होते हैं। जो उन्होंने जाना, जो उनके पास है, उसे बांट देने को पैदा होते हैं। लेकिन यह जन्म कांशस बर्थ, सचेष्ट जन्म है। इसलिए उनकी पिछली मृत्यु जानी हुई होती है; यह जन्म जाना हुआ होता है। और जो व्यक्ति अपनी एक मृत्यु और एक जन्म को जान लेता है, उसे अपने समस्त जन्मों की स्मृति वापस उपलब्ध हो जाती है। वह अपने समस्त जन्मों की अनंत शृंखला को जान लेता है।

इसलिए जब कृष्ण कह रहे हैं कि तुझे पता नहीं, मुझे पता है। और मैं औरों की भांति मूर्च्छित नहीं जन्मा हूं; सचेष्ट, अपनी ही योगमाया से, अपने को ही जन्माने की शक्ति का स्वयं ही सचेतन रूप से प्रयोग करके इस शरीर में उपस्थित हुआ हूं। तो वे एक बहुत आकल्ट, एक बहुत गुह्य-विज्ञान की बात कह रहे हैं।

इस रहस्य की बात को ऊपर से समझा ही जा सकता है। जानना हो, तब तो भीतर ही प्रवेश करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। और कठिन नहीं है यह बात कि आप औरों की भांति की दुनिया से हटकर कृष्ण की भांति दुनिया में प्रवेश कर जाएं। औरों से हटने और कृष्ण के निकट आने का एक ही रास्ता है।

इस सत्य को पहचान लेना है कि भीतर जो है, वह अजन्मा है, उसका कोई जन्म नहीं है। पहचान लेना, दोहराना नहीं। नहीं तो दोहराने की तो कोई कठिनाई नहीं है। सुबह बैठकर हम दोहरा सकते हैं कि आत्मा अजर-अमर है, आत्मा अजर-अमर है। दोहराते रहें, उससे कुछ भी न होगा। जानना पड़ेगा कि मेरे भीतर जो है, वह कभी नहीं जन्मा है।

कैसे जानेंगे? पीछे लौटना पड़ेगा; भीतर, चेतना में, एक-एक कदम पीछे जाना पड़ेगा। याद करनी पड़ेगी लौटकर। अभी अगर लौटकर याद करेंगे, तो आमतौर से पांच साल तक की याद आ पाएगी, पांच साल की उम्र तक की, उसके पहले की याददाश्त खो गई होगी। बहुत बुद्धिमान और बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति होंगे, तो तीन साल तक की याद आ पाएगी, उसके पहले की याद खो गई होगी।

वह जो आखिरी याद है आपकी--समझ लें कि तीन साल की उम्र की आखिरी याद आपको आती है कि वह मेरी आखिरी याद है, उसके बाद शून्य हो जाता है--तो रोज रात को उस आखिरी याद को ही याद करते हुए, करते हुए सो जाएं, उसी को याद करते हुए सो जाएं। पता न चले कि कब आप याद करते रहे और कब नींद आ गई। उसको ही याद करते रहें, याद करते रहें, करते रहें, और नींद को आ जाने दें। आपकी याद करने की प्रक्रिया चलती ही रहे, जब तक कि आप सो ही न जाएं। जब तक होश रहे, चलाए रखें। तो वही याद हुक का काम करती है। जैसे कि कोई मछली को पकड़ता है कांटा डालकर। वह आखिरी याद आपके अचेतन चित्त में अंदर उतर जाती है। और किसी और याद को पकड़कर सुबह तक वापस आ जाती है। सुबह आपको एकाध और याद आएगी, जो तीन साल से भी पीछे की है। फिर उसका उपयोग करें।

और रोज ऐसा उपयोग करते रहें और रोज आप पाएंगे कि आप जन्म के करीब सरक रहे हैं। फिर आपको एक दिन वह भी याद आ जाएगी, जिस दिन आपका जन्म हुआ। फिर उसको पकड़कर ध्यान करते रहें रात सोते वक्त, और तब आपको मां के पेट की याद आनी शुरू हो जाएगी। और तब आपको गर्भ-धारण की याद आएगी। फिर उसको पकड़ लें, उस पर प्रयोग करते रहें। और तब आपको पिछले जन्म की मृत्यु की याद आएगी।




फिल्म उलटी चलेगी निश्चित ही, फिल्म उलटी चलेगी। पिछले जन्म की याद में पहले मृत्यु की याद आएगी, फिर आप बूढ़े होंगे, फिर जवान होंगे, फिर बच्चे होंगे, फिर जन्म होगा। याद उलटी होगी, जैसे फिल्म की रील को हम उलटा चला रहे हों। इसलिए पहचानने में थोड़ी कठिनाई होगी, वैसी कठिनाई होगी कि जैसे अगर फिल्म को हम उलटा चला दें या किसी उपन्यास को उलटा पढ़ना शुरू करें, तो कठिनाई हो। लेकिन अगर दो-चार दफे पढ़ें, तो उलटे पढ़ने का भी अभ्यास हो जाएगा। और एक दफा उलटा पढ़ लें, तो फिर सीधा भी पढ़ सकते हैं।

पहली दफा बहुत कठिनाई होगी, क्योंकि कुछ समझ में नहीं आएगा। उलटा-उलटा लगेगा सब। कैसा उलटा नहीं हो जाएगा! पहले मरेंगे, फिर बूढ़े होंगे, कठिनाई मालूम पड़ेगी। फिर जवान होंगे, बहुत कठिनाई मालूम पड़ेगी। फिर बच्चे होंगे, बहुत कठिनाई मालूम पड़ेगी। सब उलटा होगा।

लेकिन एक बार स्मृति आ जाए, तो कृष्ण जो कह रहे हैं, औरों में आपकी गिनती न रह जाएगी। और औरों में गिनती न रह जाए, यही लक्ष्य है। औरों में गिनती रही आए, तो जीवन व्यर्थ है।

(भगवान कृष्‍ण के अमृत वचनों पर ओशो के अमर प्रवचन)

हरिओम सिगंल

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